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तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे समायणं।। ७१।।
तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम्।। ७१।।
अर्थः––जिस कारण से परद्रव्यमें राग है वह संसार ही का कारण है, उस कारण ही
से योगीश्वर मुनि नित्य आत्मा ही में भावना करते हैं।
उसको उपदेश दिया है कि––परद्रव्य से राग करने पर परद्रव्य अपने साथ लगता है, यह
प्रसिद्ध है, और अपने राग का संस्कार दृढ़ होता है तब परलोक तक भी चला जाता है यह
तो युक्ति सिद्ध है और जिनागम में राग से कर्म का बंध कहा है, इसका उदय अन्य जन्म का
कारण है, इसप्रकार परद्रव्य में राग से संसार होता है, इसलिये योगीश्वर मुनि परद्रव्य से
राग छोड़कर आत्मा में निरन्तर भावना रखते हैं।। ७१।।
सत्तुणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो।। ७२।।
शत्रूणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः।। ७२।।
समतापरिणाम, राग–द्वेष से रहितपना, ऐसे भाव से चारित्र होता है।
तेथी श्रमण नित्ये करो निजभावना स्वात्मा विषे। ७१।
निंदा–प्रशंसाने विषे, दुःखो तथा सौख्यो विषे,
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ही में उपयोग लगा रहे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं, वही चारित्र है, यह होता है वहाँ निंदा–
प्रशंसा, दुःख–सुख, शत्रु–मित्र में समान बुद्धि होती है, निंदा–प्रशंसाका द्विधाभाव मोहकर्म का
उदयजन्य है, इसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है।।७२।।
केइ जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स।। ७३।।
केचित् जल्पंति नराः न स्फुटं कालः ध्यानयोगस्य।। ७३।।
अर्थः––कई मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचार क्रिया आवृत है, चारित्र मोह
का उदय प्रबल है इससे चर्या प्रकट नहीं होती है, इसी से व्रत समिति से रहित है और
मिथ्याअभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं कि–––अभी पंचमकाल
है, यह काल प्रकट ध्यान–योगका नहीं है।। ७३।।
ससारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७४।।
संसारसुखे सुरतः न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य।। ७४।।
अर्थः––पूर्वोक्त ध्यान का अभाव करने वाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञानसे रहित है,
अभव्य है, इसीसे मोक्ष रहित है और संसारके इन्द्रिय–सुखको भले जानकर उनमें
ते कोई नर जल्पे अरे! ‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७३।
सम्यक्त्वविहीन, शिवपरिमुक्त जीव अभअ जे,
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कि इसप्रकार कहने वाला अभव्य है इसको मोक्ष नहीं होगा।। ७४।।
जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७५।।
इनका स्वरूप नहीं जानता है और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता है,
वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है।। ७५।।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।। ७६।।
अर्थः––इस भरतक्षेत्र में दुःषम काल – पंचमकाल में साधु मुनि के धर्मध्यान होता है
ते मूढ अज्ञ कहे अरे! –‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७५।
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किया है ओर शुक्लध्यान का निषेध किया है परन्तु धर्मध्यान का निषेध तो किया नहीं है। अभी
भी जो मुनि रत्नत्रय से शुद्ध होकर धर्मध्यानमें लीन होते हुए आत्मा का ध्यान करते हैं, वे
मुनि स्वर्ग में इन्द्रपद को प्राप्त होते हैं अथवा लोकान्तिक देव एक भवावतारी हैं, उनमें जाकर
उत्पन्न होते हैं। वहाँ से चयकर मनुष्य को मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार धर्मध्यान से
परंपरा मोक्ष होता है तब सर्वथा निषेध क्यों करते हो? जो निषेध करते हैं वे अज्ञानी
मिथ्यादृष्टि हैं, उनको विष्य–कषायों में स्वच्छंद रहना है इसलिये इसप्रकार कहते हैं।। ७७।।
उसको धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है।
–
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति।। ७७।।
लौकान्तिक देवत्वं ततः च्युत्वा निर्वृतिं यांति।। ७७।।
अर्थः––अभी इस पंचमकाल में भी जो मुनि सम्यग्दर्शन –ज्ञान –चारित्रकी शुद्धता युक्त
होते हैं वे आत्माका ध्यान कर इन्द्रपद अथवा लौकान्तिक देवपद प्राप्त करते हैं और वहाँ से
चयकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
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हैंः–
पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७८।।
पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्त्वा मोक्षमार्गे।। ७८।।
करके भी पाप करते हैं, वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत हैं।
पापमें प्रवृत्ति करने लग जाते हैं वे पापी हैं, उनको मोक्षमार्ग नहीं है।। ७२।।
कृत ‘आराधनासार’ नाम देकर एक जालीग्रन्थ बनाया है, उसी का उत्तर केकड़ी निवासी पं०
श्री मिलापचन्दजी कटारिया ने ‘जैन निबंध रत्न माला’ पृष्ठ ४७ से ६० में दिया है कि इस
काल में धर्मध्यान गुणस्थान ४ से ७ तक आगम में कहा है। आधारः–––सूत्रजी की टीकाएँ––
–श्री राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सर्वाथसिद्धि आदि।]
आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७९।।
पापो करे छे, पापीओ ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे। ७८।
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अधः कर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे।। ७९।।
परिग्रहके ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील अर्थात् मांगने का ही जिनका स्वभाव है और
अधःकर्म अर्थात् पापकर्म में रत हैं, सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।
अंगीकार कर लिये, परिग्रह रखने लगे, याचना करने लगे, अधःकर्म औद्देशिक आहार करने
लगे उनका निषेध है वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।पहिले तो भद्रबाहुस्वामी तक निग्रर्थं थे। पीछे
दुर्भिक्षकाल में भ्रष्ट होकर जो अर्द्धफालक कहलाने लगे उनमें से श्वेताम्बर हुए, इन्होंने इस
भेष को पुष्ट करने के लिये सूत्र बनाये, इनमें कई काल्पित आचरण तथा इसनी साधक कथायें
लिखी। इसके सिवाय अन्य भी कई भेष बदले, इसप्रकार कालदोषसे भ्रष्ट लोगोंका संप्रदाय
चल रहा है यह मोक्षमार्ग नहीं है, इसप्रकार बताया है। इसलिये इन भ्रष्ट लोगोंको देखकर
ऐसा भी मोक्षमार्ग है, ––ऐसा श्रद्धान न करना।। ७९।।
पावारंभविमुक्का ते गह्यिा मोक्खमग्गम्मि।। ८०।।
पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८०।।
से ममत्वभाव नहीं है, जो बाईस परीषहोंको सहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया
है और पापारंभ से रहित हैं, गृहस्थके करने योग्य आरंभादिक पापोंमें नहीं प्रवर्तते हैं––ऐसे
मुनियोंको मोक्षमार्ग में ग्रहण किया है अर्थात् माने हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समंतभद्राचार्यने
भी कहा है कि––
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मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ, ऐसी भावना से योगी मुनि प्रकटरूप से शाश्वत
सुखको प्राप्त करता है।
, अन्य मोक्षमार्गी नहीं हैं।। ८०।।
इति भावनया योगिनः प्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं सौख्यम्।। ८१।।
मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकर भी लौकिक जनोंसे लाल–पाल रखता है वह मोक्षमार्गी नहीं है।।
८१।।
ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८२।।
ए भावनाथी योगीओ पामे सुशाश्वत सौख्यने। ८१।
जे देव–गुरुना भक्त छे, निर्वेदश्रेणी चिंतवे,
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है उनको मोक्षमार्ग में ग्रहण किये हैं।
विरक्त होकर मुनि हुए, वैसी ही जिनके वैराग्यभावना है, आत्मानुभवरूप शुद्ध उपयोगरूप
एकाग्रतारूपी ध्यानमें तत्पर हैं और जिनके व्रत, समिति, गुप्तिरूप निश्चय–व्यवहारात्मक
सम्यक्चारित्र होता है वे ही मुनि मोक्षमार्गी हैं, अन्य भेषी मोक्षमार्गी नहीं हैं।। ८२।।
सो होदि हु सचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं।। ८३।।
सः भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सः लभते निर्वाणम्।। ८३।।
अपने ही लिये भले प्रकार रत हो जावे वह योगी, ध्यानी, मुनि सम्यक्चारित्रवान् होता हुआ
निर्वाण को पाता है।
तक अज्ञान–अवस्था रहती है तब तक तो बंधपर्यायको आत्मा जानता है कि–––मैं मनुष्य हूं,
मैं पशू हूं, मैं क्रोधी हूं, मैं मानी हूं, मैं मायावी हूं, मैं पुण्यवान्––धनवान् हूं, मैं निर्धन–दरिद्री
हूं, मैं राजा हूं, मैं रंक हूं, मैं मुनि हूं, मैं श्रावक हूं इत्यादि पर्यायों में आपा मानता है, इन
पर्यायों में लीन होता है तब मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, इसका फल संसार है उसको भोगता
है।
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हूँ अन्य मेरा कुछ भी नहीं है। जब भावलिंगी निर्गं्रथ मुनिपद की प्राप्ति करता है तब यह आत्मा
हीमें अपने द्वारा अपने ही लिये विशेष लीन होता है तब निश्चयसम्यक्चारित्र स्वरूप होकर
अपना ही ध्यान करता है, तब ही [साक्षात् मोक्षमार्ग में आरूढ़] सम्यग्ज्ञानी होता है, इसका
फल निर्वाण है, इसप्रकार जानना चाहिये।। ८३।।
[नोंध–––प्रवचनसार गा० २४१ – २४२ में जो सातवें गुणस्थान में आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान
संयतत्व ओर निश्चय आत्मज्ञान में युगपत् आरूढ़ को आत्मज्ञान कहा है वह कथनकी अपेक्षा
यहाँ है।]
जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिद्दंदो।। ८४।।
यः ध्यायति सः योगी पापहरः भवति निर्द्वद्वः।। ८४।।
अर्थः––यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है? पुरुषकार है, योगी है–जिसके मन, वचन,
कायके योगोंका निरोध है, सर्वांग सुनिश्चल है और वर अर्थात् श्रेष्ठ सम्यक्रूप ज्ञान तथा
दर्शनसे समग्र है––परिपूर्ण है, जिसके केवलज्ञान–दर्शन प्राप्त है, इस प्रकार आत्माका जो
योगी ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह मुनि पापको हरनेवाला है और निर्द्वन्द्व है–––रागद्वेष
आदि विकल्पोंसे रहित है।
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अचल तथा चल मलिन अगाढ़ दूषणरहित अत्यंत निश्चल ऐसे सम्यक्त्वको ग्रहण करके दुःखका
क्षय करने के लिये उसका अर्थात् सम्यग्दर्शन का
संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं।। ८५।।
संसारविनाशकारं सिद्धिकरं कारणं परमं।। ८५।।
अर्थः––एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार उपदेश तो श्रमण मुनियोंको जिनदेवने कहा है। अब
श्रावकोंको संसारका विनाश करने वाला और सिद्धि जो मोक्ष उसको करने का उत्कृष्ट कारण
ऐसा उपदेश कहते हैं सो सुनो।
तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए।। ८६।।
तत् ध्याने ध्यायते श्रावक! दुःखक्षयार्थे।। ८६।।
मिट जाता है, कार्य के बिगड़ने–सुधरने में वस्तुके स्वरूपका विचार
संसारनुं हरनार शिव–करनार कारण परम ए। ८५।
ग्रही मेरूपर्वत–सम अकंप सुनिर्मळा सम्यक्त्वने,
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जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है वही होता है, इष्ट–अनिष्ट मानकर दुःखी–सुखी
होना निष्फल है। ऐसा विचार करने से दुःख मिटता है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इसलिये
सम्यक्त्वका ध्यान करना कहा है।। ८६।।
सम्मत्त परिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।। ८७।।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि।। ८७।।
अर्थः––जो श्रावक सम्यक्त्वका ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है और सम्यक्त्वरूप
परिणमता हुआ दुष्ट जो आठ कर्म उनका क्षय करता है।
परिणाम ऐसा है कि संसारके कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते
ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और
शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सन कर्मोंका नाश हो जाता है।। ८७।।
सिज्झिहहि जे वि भविया त्तं जाणह सम्ममाहप्पं।। ८८।।
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्टकर्मो क्षय करे। ८७।
बहु कथनथी शुं? नरवरो गत काळ जे सिद्धया अहो!
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सेत्स्यंति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्।। ८८।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि–––बहुत कहने से क्या साध्य है, जो नरप्रधान अतीत
कालमें सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्वका महात्म्य जानो।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या? यह संक्षेप से कहा जानो कि–––मुक्ति का प्रधान
कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत जानो कि गृहस्थके क्या धर्म है, यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा
है कि सब धर्मों के अंगों को सफल करता है।। ८८।।
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।। ८९।।
सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि न मलिनितं यैः।। ८९।।
अर्थः––जिन पुरुषों ने मुक्तिको करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्न अवस्था में भी मलिन
नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया उन पुरुषोंको धन्य है, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ
हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं।
पढ़े उसको पंडित कहते हैं। ये सब कहनेके हैं; जो मोक्ष के कारण सम्यक्त्वको मलिन नहीं
करते हैं, निरतिचार पालते हैं उनको धन्य है, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित
हैं, वे ही मनुष्य हैं, इसके बिना मनुष्य पशु समान है, इस प्रकार सम्यक्त्वका माहात्म्य कहा।।
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णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं।। ९०।।
निर्ग्रंथे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम्।। ९०।।
अर्थः––हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षका मार्ग
तथा गुरु इनमें श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है।
अन्यमत वाले मानते हैं वे सब देव क्षुधादि तथा रागद्वेषादि दोषोंसे संयुक्त हैं, इसलिये वीतराग
सर्वज्ञ अरहंत देव सब दोषोंसे रहित हैं उनको देव माने, श्रद्धान करे वही सम्यग्दृष्टि है।
अन्यमत वाले श्वेताम्बरादिक जैसाभास मोक्ष मानते हैं वह मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा श्रद्धान करे
वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना।। ९०।।
लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ वस्स सम्मत्तं।। ९१।।
निर्ग्रंथ प्रवचन केरूं जे श्रद्धान ते समकित कह्युं। ९०।
सम्यक्त्व तेने, जेह माने लिंग परनिरपेक्षने,
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कि–––ऐसा निर्ग्रंथ रूप भी जो किसी अन्य आशय से धारण करे तो वह भेष मोक्षमार्ग नहीं
है, केवल मोक्ष ही की अपेक्षा जिसमें हो ऐसा हो उसको माने वह सम्यग्दृष्टि है ऐसा
जानना।। ९१।।
दोषोंसे सहित हो वह कुत्सित धर्म है, जो परिग्रहादि सहित हो वह कुत्सित लिंग है। जो
इनकी वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट मिथ्यादृष्टि है। यहाँ अब विशेष कहते हैं
कि जो इनको भले–हित करने वाले मानकर वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट
मिथ्यादृष्टि है। परन्तु जो लज्जा, भय, गारण इन कारणोंसे भी वंदना करता है, पूजा करता
है वह भी प्रगट मिथ्यादृष्टि है। लज्जा तो ऐसे कि––लोग इनकी वंदना करते हैं, हम नहीं
पूजेंगे तो लोग हमको क्या कहेंगे? हमारी इस लोक में प्रतिष्ठा चली जायेगी, इसप्रकार
लज्जा से वंदना व पूजा करे। भय ऐसे कि–––
लिंगं न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम्।। ९१।।
अर्थः––मोक्षमार्ग का लिंग भेष ऐसा है कि यथाजातरूप तो जिसका रूप है, जिसमें
बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक किंचित्मात्र भी नहीं है, सुसंयत अर्थात् सम्यक्प्रकार इन्द्रियों का निग्रह
और जीवोंकी दया जिसमें पाई जाती है ऐसा संयम है, सर्व संग अर्थात् सबही परिग्रह तथा
सब लौकिक जनोंकी संगति से रहित है और जिसमें परकी अपेक्षा कुछ नहीं है, मोक्षके
प्रयोजन सिवाय अन्य प्रयोजनकी अपेक्षा नहीं है। ऐसा मोक्षमार्ग का लिंग माने–श्रद्धान करे उस
जीवके सम्यक्त्व होता है।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।। ९२।।
लज्जाभयगारवतः मिथ्याद्रष्टिः भवेत् सः स्फुटम्।। ९२।।
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भय से वंदना व पूजा करे। गारव ऐसे कि हम बडे़ हैं, महंत पुरुष हैं, सबही का सन्मान करते
हैं, इन कार्यों से कमारी बड़ाई है, इस प्रकार गारव से वंदना व पूजना होता है। इसप्रकार
मिथ्यादृष्टि के चिन्ह कहे हैं।। ९२।।
मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो।। ९३।।
मानयति मिथ्याद्रष्टिः न स्फुटं मानयति सुद्ध सम्यक्ती।। ९३।।
अर्थः––स्वपरापेक्ष तो लिंग–आप कुछ लौकिक प्रयोजन मनमें धारणकर भेष ले वह
स्वापेक्ष और किसी परकी अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादिकके भयसे धारण
करे वह परापेक्ष है। रागी देव
सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है।
विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।। ९४।।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्याद्रष्टिः ज्ञातव्यः।। ९४।।
ए मान्य होय कुद्रष्टिने, नहि शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने।९३।
सम्यक्त्वयुत श्रावक करे जिनदेवदेशित धर्मने;
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जीवोंका हित हो वह धर्म है ऐसे अहिंसारूप धर्मका जिनदेव ही ने प्ररूपण किया है, अन्यमत
में ऐसे धर्मका निरूपण नहीं है, इसप्रकार जानना चाहये।। ९४।।
जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो।। ९५।।
जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः।। ९५।।
करता हुआ भोगता है। यहाँ दुःख तो अनन्त हैं हजारों कहने से प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता बताई
है।। ९५।।
जं ते मणस्स रूच्चइ किं बहुणा पलविएणं त्तु।। ९६।।
जर–जन्म–मरण प्रचुरता, दुःखगणसहस्र भर्या जिहां। ९५।
‘सम्यक्त्व गुण, मिथ्यात्व दोष’ तुं एम मन सुविचारीने,
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यत् ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु।। ९६।।
अर्थः––हे भव्य! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिथ्यात्व के दोषों की अपने
मनसे भावना कर और जो अपने मन को रुचे–प्रिय लगे वह कर, बहुत प्रलापरूप कहने से
क्या साध्य है? इसप्रकार आचार्य ने उपदेश दिया है।
मिथ्यात्व को छोड़ो सम्यक्त्वको ग्रहण करो, इससे संसारका दुःख मेटकर मोक्ष पाओ।। ९६।।
किं तस्य ठाणमउणं ण वि जाणादि अप्पसमभावं।। ९७।।
अर्थः––जो बाह्य परिग्रह रहित और मिथ्याभावसहित निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है वह
परिग्रह रहित नहीं है, उसके ठाण अर्थात् खड़े होकर कायोत्सर्ग करने से क्या साध्य है? और
मौन धारण करने से क्या साध्य है? क्योंकि आत्माका समभाव जो वीतराग–परिणाम उसको
नहीं जानता है।
बाह्य क्रियायें करता है तो उसकी क्रिया मोक्षमार्ग में सराहने
२ पाठान्तरः –– आत्मस्वभावं।
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सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंग विराहगो णियटं।। ९८।।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंग विराधकः नियतं।। ९८।।
केवल बाह्यक्रिया – कर्म करता है वह सिद्धि अर्थात् मोक्षके सुख को प्राप्त नहीं कर सकता,
क्योंकि ऐस मुनि निश्चय से जिनलिंग विराधक है।
निरोध ५, छह आवश्यक ६, भूमिशयन १, स्नानका त्याग ५, वस्त्रका त्याग १, केशलोच १,
एकबार भोजन १, खड़ा भोजन १, दंतधोवनका त्याग १, इसप्रकार अट्ठाईस मूलगुण हैं,
इनकी विराधना करके कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन करता है तो इन क्रियाओंसे मुक्ति
नहीं होती है। जो इसप्रकार श्रद्धान करे कि –––हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण
बिगड़े तो बिगड़ो, हम मोक्षमार्गी ही हैं–––तो ऐसी श्रद्धानसे तो जिन–आज्ञा भंग करने से
सम्यक्त्वका भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो; और [तीव्र कषायवान हो जाय तो] कर्म के
प्रबल उदयसे चारित्र भ्रष्ट हो। और यदि जिन–आज्ञाके अनुसार श्रद्वान रहे तो सम्यक्त्व रहता
है किन्तु मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्यक्त्व बिना केवल मूलगुण
बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है, ऐसे जानना।
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मंत्र पढ़कर मस्तकपर धारामात्र देते हैं और उस दिन उपवास करते हैं तो ऐसा स्नान तो
नाममात्र स्नान है, यहाँ मंत्र और तपस्नान प्रधान है, जल स्नान प्रधान नहीं है, इस प्रकार
जानना।। ९८।।
किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।। ९९।।
किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावात् विपरीतः।। ९९।।
अर्थः––आत्मस्वभाव के विपरीत, प्रतिकूल बाह्यकर्म को क्रियाकाड़ वह क्या करगा?
कुछ मोक्ष का कार्य तो किंचित्मात्र भी नहीं करेगा, बहुत अनेक प्रकार क्षमण अर्थात्
उपवासादि बाह्य तप भी क्या करेगा? कुछ भी नहीं करेगा, आतापनयोग आदि कायक्लेश क्या
करगा? कुछ भी नहीं करगा।
उसका फल चेतनाको लगता है। चेतनाका अशुभ उपयोग मिले तब अशुभकर्म बँधे और
शुभोपयोग मिले तब शुभ कर्म बँधता है और जब शुभ–अशुभ दोनों से रहित उपयोग होता है
तब कर्म नहीं बँधता है, पहिले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष करता है। इसप्रकार
चेतना उपयोग के अनुसार फलती है, इसलिये ऐसे कहा है कि बाह्य क्रियाकर्मसे तो कुछ होता
नहीं है, शुद्ध उपयोग होने पर मोक्ष होता है। इसलिये दर्शन–ज्ञान उपयोगोंका विकार मेट
कर शुद्ध ज्ञानचेतनाका अभ्यास करना मोक्ष का उपाय है।। ९९।।
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तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरींद।। १००।।
तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम्।। १००।।
अर्थः––जो आत्मसवभावसे विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रोंको पढ़गा ओर बहुत प्रकारके
चारित्रका आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा। आत्मस्वभावसे
विपरीत शास्त्रका पढ़ना और चारित्रका आचरण करना ये सब ही बालश्रुत और बालचारित्र हैं
, अज्ञानी की क्रिया है, क्योंकि ग्यारह अंग और नो पूर्व तक तो अभव्य जीव भी पढ़ता है,
और बाह्य मूलगुणरूप चारित्र पालता है तो भी मोक्ष योग्य नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१००।।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्ध सुहसु अणुरत्तो।। १०१।।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।। १०२।।
जे साधु छे वैराग्यपर ने विमुख परद्रव्यो विषे,
भवसुखविरक्त, स्वकीयशुद्ध सुखो विषे अनुरक्त जे। १०१।