Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 71-102.

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मोक्षपाहुड][३१७
जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं।
तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे समायणं।। ७१।।
येन रागः परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम्।
तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम्।। ७१।।

अर्थः
––जिस कारण से परद्रव्यमें राग है वह संसार ही का कारण है, उस कारण ही
से योगीश्वर मुनि नित्य आत्मा ही में भावना करते हैं।

भावार्थः––कोई ऐसी शंका करते हैं कि –––परद्रव्य में राग करने से क्या होते है?
परद्रव्य है वह पर है ही, अपने राग जिस काल हुआ उस काल है, पीछे मिट जाता है,
उसको उपदेश दिया है कि––परद्रव्य से राग करने पर परद्रव्य अपने साथ लगता है, यह
प्रसिद्ध है, और अपने राग का संस्कार दृढ़ होता है तब परलोक तक भी चला जाता है यह
तो युक्ति सिद्ध है और जिनागम में राग से कर्म का बंध कहा है, इसका उदय अन्य जन्म का
कारण है, इसप्रकार परद्रव्य में राग से संसार होता है, इसलिये योगीश्वर मुनि परद्रव्य से
राग छोड़कर आत्मा में निरन्तर भावना रखते हैं।। ७१।।

आगे कहते हैं कि ऐसे समभाव से चारित्र होता हैः––––
णिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य।
सत्तुणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो।। ७२।।
निंदायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च।
शत्रूणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः।। ७२।।
अर्थः––निन्दा–प्रशंसा में, दुःख–सुखमें ओर शत्रु–बन्धु–मित्रमें समभाव जो
समतापरिणाम, राग–द्वेष से रहितपना, ऐसे भाव से चारित्र होता है।

भावार्थः––चारित्रका स्वरूप यह कहा है कि जो आत्माका स्वभाव है वह कर्मके
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परद्रव्य प्रत्ये राग तो संसारकारण छे खरे;
तेथी श्रमण नित्ये करो निजभावना स्वात्मा विषे। ७१।

निंदा–प्रशंसाने विषे, दुःखो तथा सौख्यो विषे,
शत्रु तथा मित्रो विषे समताथी चारित होय छे। ७२।

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३१८] [अष्टपाहुड
निमित्तसे ज्ञानमें परद्रव्यसे इष्ट अनिष्ट बुद्धि होती है, इस इष्ट–अनिष्ट बुद्धि के अभाव से ज्ञान
ही में उपयोग लगा रहे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं, वही चारित्र है, यह होता है वहाँ निंदा–
प्रशंसा, दुःख–सुख, शत्रु–मित्र में समान बुद्धि होती है, निंदा–प्रशंसाका द्विधाभाव मोहकर्म का
उदयजन्य है, इसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है।।७२।।

आगे कहते हैं कि कई मूर्ख ऐसे कहते हैं जो अभी पंचमकाल है सो आत्मध्यानका काल
नहीं है, उसका निषेध करते हैंः–––
चरियावरिया वद समिदिवज्जिया सुद्धभावपब्भट्ठा।
केइ जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स।। ७३।।
चर्यावृताः व्रतसमितिवर्जिताः शुद्धभावप्रभ्रष्टाः।
केचित् जल्पंति नराः न स्फुटं कालः ध्यानयोगस्य।। ७३।।

अर्थः
––कई मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचार क्रिया आवृत है, चारित्र मोह
का उदय प्रबल है इससे चर्या प्रकट नहीं होती है, इसी से व्रत समिति से रहित है और
मिथ्याअभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं कि–––अभी पंचमकाल
है, यह काल प्रकट ध्यान–योगका नहीं है।। ७३।।

वे प्राणी कैसे हैं वह आगे कहते हैंः–––
सम्मत्तणाणरहिओ अभव्य जीवो हु मोक्खपरिमुक्को।
ससारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७४।।
सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवः स्फुटं मोक्षपरिमुक्तः।
संसारसुखे सुरतः न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य।। ७४।।

अर्थः
––पूर्वोक्त ध्यान का अभाव करने वाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञानसे रहित है,
अभव्य है, इसीसे मोक्ष रहित है और संसारके इन्द्रिय–सुखको भले जानकर उनमें
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आवृतचरण, व्रतसमितिवर्जित, शुद्धभावविहीन जे,
ते कोई नर जल्पे अरे! ‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७३।

सम्यक्त्वविहीन, शिवपरिमुक्त जीव अभअ जे,
ते सुरेत भवसुखमां कहे–‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७४।

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मोक्षपाहुड][३१९
आगे कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में धर्मध्यान होता है, यह नहीं मानता है वह
अज्ञानी हैः––––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते होय छे आत्मस्थने; माने न ते अज्ञानी छे। ७६।
रत है, आसक्त है, इसलिये कहते हैं कि अभी ध्यानका काल नहीं है।

भावार्थः––जिसको इन्द्रियोंके सुख ही प्रिय लगते हैं और जीवाजीव पदार्थके श्रद्धान–
ज्ञान से रहित है, वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है। इससे ज्ञात होता है
कि इसप्रकार कहने वाला अभव्य है इसको मोक्ष नहीं होगा।। ७४।।

जो ऐसा मानता है–––कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं, तो उसने पाँच महाव्रत,
पाँच समिति, तीन गुप्तिका स्वरूप भी नहीं जानाः–––
पंचसु महव्वेदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु।
जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७५।।
पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिसु।
तदात्म स्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी।। ७६।।
यः मूढः अज्ञानी न स्फुटं कालः भणिति ध्यानस्य।। ७५।।
अर्थः–––जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनमें मूढ़ है, अज्ञानी है अर्थात्
इनका स्वरूप नहीं जानता है और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता है,
वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है।। ७५।।
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।। ७६।।
भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः।

अर्थः
––इस भरतक्षेत्र में दुःषम काल – पंचमकाल में साधु मुनि के धर्मध्यान होता है
त्रण गुप्ति, पंच समिति, पंच महाव्रते जे मूढ छे,
ते मूढ अज्ञ कहे अरे! –‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७५।
भरते दुषमकालेय धर्मध्यान मुनिने होय छे;

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३२०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––कोई कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में जिनसूत्र में मोक्ष होना कहा नहीं
इसलिये ध्यान करना तो निष्फल खेद है, उसको कहते हैं कि हे भाई! मोक्ष जाने का निषेध
किया है ओर शुक्लध्यान का निषेध किया है परन्तु धर्मध्यान का निषेध तो किया नहीं है। अभी
भी जो मुनि रत्नत्रय से शुद्ध होकर धर्मध्यानमें लीन होते हुए आत्मा का ध्यान करते हैं, वे
मुनि स्वर्ग में इन्द्रपद को प्राप्त होते हैं अथवा लोकान्तिक देव एक भवावतारी हैं, उनमें जाकर
उत्पन्न होते हैं। वहाँ से चयकर मनुष्य को मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार धर्मध्यान से
परंपरा मोक्ष होता है तब सर्वथा निषेध क्यों करते हो? जो निषेध करते हैं वे अज्ञानी
मिथ्यादृष्टि हैं, उनको विष्य–कषायों में स्वच्छंद रहना है इसलिये इसप्रकार कहते हैं।। ७७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वा देव लौकांतिक बने, त्यांथी च्यवी सिद्धि वरे। ७७।
यह धर्मध्यान आत्म स्वभाव में स्थित है उस मुनिके होता है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है
उसको धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है।

भावार्थः––जिनसूत्र में इस भरतक्षेत्र पंचमकाल में आत्मस्वभाव में स्थित मुनि के धर्मध्यान
कहा है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है, उसको धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है।। ७६।।

आगे कहते हैं कि जो इसकाल में रत्नत्रयका धारक मुनि होता है वह स्वर्ग लोक में
लौकान्तिकपद, इन्द्रपद प्राप्त करके वहाँ से चयकर मोक्ष जाता है, इसप्रकार जिनसूत्र में कहा हैः–

अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहिं इंदत्तं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति।। ७७।।
अद्य अपि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभंते इन्द्रत्वम्।
लौकान्तिक देवत्वं ततः च्युत्वा निर्वृतिं यांति।। ७७।।

अर्थः
––अभी इस पंचमकाल में भी जो मुनि सम्यग्दर्शन –ज्ञान –चारित्रकी शुद्धता युक्त
होते हैं वे आत्माका ध्यान कर इन्द्रपद अथवा लौकान्तिक देवपद प्राप्त करते हैं और वहाँ से
चयकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं।

आगे कहते हैं कि जो इसकाल में धर्मध्यान का अभाव मानते हैं और मुनिलिंग
आजे य विमलत्रिरत्न, निजने ध्याई इन्द्रपणुं लहे,

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मोक्षपाहुड][३२१
पहिले ग्रहण कर लिया, अब उसको गौण करके पापमें प्रवृत्ति करते हैं वे मोक्ष मार्ग से च्युत
हैंः–
जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तुण जिणवरिंदाणं।
पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७८।।
ये पापमोहितमतयः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम्।
पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्त्वा मोक्षमार्गे।। ७८।।
अर्थः––––जिनकी बुद्धि पापकर्म से मोहित है वे जिनवरेन्द्र तीर्थंकरका लिंग ग्रहण
करके भी पाप करते हैं, वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत हैं।

भावार्थः––जिन्होंने पहिले निर्ग्रंथ लिंग धारण कर लिया और पीछे ऐसी पाप बुद्धि
उत्पन्न हो गई कि–––अभी ध्यानका काल तो नहीं इसलिये क्यों प्रयास करे? ऐसा विचारकर
पापमें प्रवृत्ति करने लग जाते हैं वे पापी हैं, उनको मोक्षमार्ग नहीं है।। ७२।।

[ ‘इसकाल में धर्मध्यान किसी को नहीं होता’ किन्तु भद्रध्यान (–व्रत, भक्ति, दान,
पूजादिकके शुभभाव) होते हैं। इससे ही निर्जरा और परम्परा मोक्ष माना है और इसप्रकार
सातवें गुणस्थान तक भद्रध्यान और पश्चात् ही धर्मध्यान मानने वालों ने ही श्री देवसेनाचार्य
कृत ‘आराधनासार’ नाम देकर एक जालीग्रन्थ बनाया है, उसी का उत्तर केकड़ी निवासी पं०
श्री मिलापचन्दजी कटारिया ने ‘जैन निबंध रत्न माला’ पृष्ठ ४७ से ६० में दिया है कि इस
काल में धर्मध्यान गुणस्थान ४ से ७ तक आगम में कहा है। आधारः–––सूत्रजी की टीकाएँ––
–श्री राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सर्वाथसिद्धि आदि।]

आगे कहते हैं कि जो मोक्षमार्ग से च्युत हैं वे कैसे हैंः–––
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाही य जायणासीला।
आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे पापमोहित बुद्धिओ ग्रही जिनवरोना लिंगने
पापो करे छे, पापीओ ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे। ७८।
जे पंचवस्त्रासक्त, परिग्रहधारी याचनशीलछे,
छे लीन आधाकर्ममां, ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे। ७९।

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३२२] [अष्टपाहुड
ये पंचचेलसक्ताः ग्रंथग्राहिणः याचनाशीलाः।
अधः कर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे।। ७९।।

अर्थः––पंच आदि प्रकाके चले अर्थात् वस्त्रोंमें आसक्त हैं, अंडज, कर्पासज, वल्कल,
चर्मज और रोमज–––इसप्रकार वस्त्रोंसे किसी एक वस्त्रको ग्रहण करते हैं, ग्रन्थग्राही अर्थात्
परिग्रहके ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील अर्थात् मांगने का ही जिनका स्वभाव है और
अधःकर्म अर्थात् पापकर्म में रत हैं, सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।

भावार्थः––यहाँ आशय ऐसा है कि पहले तो निग्रर्थं दिगम्बर मुनि हो गये थे, पीछे
कालदोष का विचार कर चारित्र पालने में असमर्थ हो निर्ग्रंथ लिंगसे भ्रष्ट होकर वस्त्रादिक
अंगीकार कर लिये, परिग्रह रखने लगे, याचना करने लगे, अधःकर्म औद्देशिक आहार करने
लगे उनका निषेध है वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।पहिले तो भद्रबाहुस्वामी तक निग्रर्थं थे। पीछे
दुर्भिक्षकाल में भ्रष्ट होकर जो अर्द्धफालक कहलाने लगे उनमें से श्वेताम्बर हुए, इन्होंने इस
भेष को पुष्ट करने के लिये सूत्र बनाये, इनमें कई काल्पित आचरण तथा इसनी साधक कथायें
लिखी। इसके सिवाय अन्य भी कई भेष बदले, इसप्रकार कालदोषसे भ्रष्ट लोगोंका संप्रदाय
चल रहा है यह मोक्षमार्ग नहीं है, इसप्रकार बताया है। इसलिये इन भ्रष्ट लोगोंको देखकर
ऐसा भी मोक्षमार्ग है, ––ऐसा श्रद्धान न करना।। ७९।।

आगे कहते हैं कि मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि होते हैंः–––
णिग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया।
पावारंभविमुक्का ते गह्यिा मोक्खमग्गम्मि।। ८०।।
निर्ग्रंथाः मोहमुक्ताः द्वाविंशतिपरीषहाः जितकषायाः।
पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८०।।
अर्थः––जो मुनि निर्ग्रंथ हैं, परिग्रह रहित हैं, मोह रहित हैं, जिनके किसी भी परद्रव्य
से ममत्वभाव नहीं है, जो बाईस परीषहोंको सहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया
है और पापारंभ से रहित हैं, गृहस्थके करने योग्य आरंभादिक पापोंमें नहीं प्रवर्तते हैं––ऐसे
मुनियोंको मोक्षमार्ग में ग्रहण किया है अर्थात् माने हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समंतभद्राचार्यने
भी कहा है कि––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
निर्मोह, विजितकषाय, बावीश–परिषही, निर्ग्रंथ छे,
छे मुक्त पापारंभथी, ते मोक्षमार्गे गृहीत छे। ८०।

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मोक्षपाहुड][३२३
–––’विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः।ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्तते।
अर्थः––मुनि ऐसी भावना करे–––उर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक इन तीनों लोकोंमें
मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ, ऐसी भावना से योगी मुनि प्रकटरूप से शाश्वत
सुखको प्राप्त करता है।

भावार्थः––मुनि हैं वे लौकिक कष्टों और कार्योंसे रहित हैं। जैसे जिनेश्वर ने मोक्षमार्ग
बाह्य–अभ्यंतर परिग्रहसे रहित नग्न दिगम्बररूप कहा है वैसे ही प्रवर्तते हैं वे ही मोक्षमार्गी हैं
, अन्य मोक्षमार्गी नहीं हैं।। ८०।।
आगे फिर मोक्षमार्गी की प्रवृत्ति कहते हैंः–––
उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी।
झाणरया सुचरिता ते गह्यिा मोक्खमग्गम्मि।। ८२।।
इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं।। ८१।।
उर्ध्वाधोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी।
इति भावनया योगिनः प्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं सौख्यम्।। ८१।।

भावार्थः––मुनि ऐसी भावना करे कि त्रिलोकमें जीव एकाकी है, इसका संबंधी दूसरा
कोई नहीं है, यह परमार्थरूप एकत्व भावना है। जिस मुनिके ऐसी भावना निरन्तर रहती है वही
मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकर भी लौकिक जनोंसे लाल–पाल रखता है वह मोक्षमार्गी नहीं है।।
८१।।
आगे फिर कहते हैंः––––
देवगुरुणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिंता।
देवगुरुणां भक्तः निर्वेद परंपरां विचिन्तयन्तः।
ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छुं एकलो हुं, कोई पण मारां नथी लोकत्रयेे,
ए भावनाथी योगीओ पामे सुशाश्वत सौख्यने। ८१।

जे देव–गुरुना भक्त छे, निर्वेदश्रेणी चिंतवे,
जे ध्यानरत, सुचरित्र छे, ते मोक्षमार्गे गृहीत छे। ८२।

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३२४] [अष्टपाहुड
अर्थः––जो मुनि देव – गुरुके भक्त हैं निर्वेद अर्थात् संसार–देह–भोगों से विरागता की
परंपरा का चिन्तन करते हैं, ध्यान में रत हैं रक्त हैं, तत्पर हैं और जिनके भला––उत्तम चारित्र
है उनको मोक्षमार्ग में ग्रहण किये हैं।
भावार्थः––जिनने मोक्षमार्ग प्राप्त किया ऐसे अरहंत सर्वज्ञ वीतराग देव और उनका
अनुसरण करनेवाले बड़े मुनि दीक्षा देनेवाले गुरु इनकी भक्तियुक्त हो, संसार–देह–भोगोंसे
विरक्त होकर मुनि हुए, वैसी ही जिनके वैराग्यभावना है, आत्मानुभवरूप शुद्ध उपयोगरूप
एकाग्रतारूपी ध्यानमें तत्पर हैं और जिनके व्रत, समिति, गुप्तिरूप निश्चय–व्यवहारात्मक
सम्यक्चारित्र होता है वे ही मुनि मोक्षमार्गी हैं, अन्य भेषी मोक्षमार्गी नहीं हैं।। ८२।।

आगे ऐसा कहते हैं कि––निश्चयनयसे ध्यान इसप्रकार करनाः–––
णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो।
सो होदि हु सचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं।। ८३।।
निश्वयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः।
सः भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सः लभते निर्वाणम्।। ८३।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है––जो आत्मा आत्मा ही में
अपने ही लिये भले प्रकार रत हो जावे वह योगी, ध्यानी, मुनि सम्यक्चारित्रवान् होता हुआ
निर्वाण को पाता है।

भावार्थः––निश्चयनयका स्वरूप ऐसा है कि–––एक द्रव्य की अवस्था जैसी हो उसी
को कहे। आत्माकी दो अवस्थायें हैं–––एक तो अज्ञान–अवस्था और एक ज्ञान अवस्था। जब
तक अज्ञान–अवस्था रहती है तब तक तो बंधपर्यायको आत्मा जानता है कि–––मैं मनुष्य हूं,
मैं पशू हूं, मैं क्रोधी हूं, मैं मानी हूं, मैं मायावी हूं, मैं पुण्यवान्––धनवान् हूं, मैं निर्धन–दरिद्री
हूं, मैं राजा हूं, मैं रंक हूं, मैं मुनि हूं, मैं श्रावक हूं इत्यादि पर्यायों में आपा मानता है, इन
पर्यायों में लीन होता है तब मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, इसका फल संसार है उसको भोगता
है।
जब जिनमत के प्रसाद से जीव–अजीव पदार्थोंका ज्ञान होता है तह स्व–परका
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
निश्चयनये–ज्यां आतमा आत्मार्थ आत्मामां रमे,
ते योगी छे सुचरित्रसंयुत; ते लहे निर्वाणने। ८३।

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मोक्षपाहुड][३२५
भेद जानकर ज्ञानी होता है, तब इसप्रकार जानता है कि––मैं शुद्धज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप
हूँ अन्य मेरा कुछ भी नहीं है। जब भावलिंगी निर्गं्रथ मुनिपद की प्राप्ति करता है तब यह आत्मा
हीमें अपने द्वारा अपने ही लिये विशेष लीन होता है तब निश्चयसम्यक्चारित्र स्वरूप होकर
अपना ही ध्यान करता है, तब ही [साक्षात् मोक्षमार्ग में आरूढ़] सम्यग्ज्ञानी होता है, इसका
फल निर्वाण है, इसप्रकार जानना चाहिये।। ८३।।
[नोंध–––प्रवचनसार गा० २४१ – २४२ में जो सातवें गुणस्थान में आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान
संयतत्व ओर निश्चय आत्मज्ञान में युगपत् आरूढ़ को आत्मज्ञान कहा है वह कथनकी अपेक्षा
यहाँ है।]
(गौण – मुख्य समझ लेना)]

आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैंः––––
पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो।
जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिद्दंदो।। ८४।।
पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः।
यः ध्यायति सः योगी पापहरः भवति निर्द्वद्वः।। ८४।।

अर्थः
––यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है? पुरुषकार है, योगी है–जिसके मन, वचन,
कायके योगोंका निरोध है, सर्वांग सुनिश्चल है और वर अर्थात् श्रेष्ठ सम्यक्रूप ज्ञान तथा
दर्शनसे समग्र है––परिपूर्ण है, जिसके केवलज्ञान–दर्शन प्राप्त है, इस प्रकार आत्माका जो
योगी ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह मुनि पापको हरनेवाला है और निर्द्वन्द्व है–––रागद्वेष
आदि विकल्पोंसे रहित है।
भावार्थः––जो अरहंतरूप शुद्ध आत्माका ध्यान करता है उसके पूर्व कर्मका नाश होता
है और वर्तमान में रागद्वेष रहित होता है तब आगामी कर्मको नहीं बाँधता है।। ८४।।

आगे कहते हैं कि इसप्रकार मुनियोंको प्रवर्तन के लिये कहा। अब श्रावकोंको प्रवर्तनके
लिये कहते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे योगी पुरुषाकार, जीव वरज्ञानदर्शनपूर्ण छे;
ध्यानार योगी पापनाशक द्वंद्वविरहित होय छे। ८४।

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३२६] [अष्टपाहुड
अर्थः––प्रथम तो श्रावकोंको सुनिर्मल अर्थात् भले प्रकार निर्मल और मेरुवत् निःकम्प
अचल तथा चल मलिन अगाढ़ दूषणरहित अत्यंत निश्चल ऐसे सम्यक्त्वको ग्रहण करके दुःखका
क्षय करने के लिये उसका अर्थात् सम्यग्दर्शन का
(सम्यग्दर्शन के विषय) ध्यान करना।
एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाणं पुण सुणसु।
संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं।। ८५।।
एवं जिनैः कथितं श्रमणानां श्रावकाणां पुनः श्रृणुत।
संसारविनाशकारं सिद्धिकरं कारणं परमं।। ८५।।

अर्थः
––एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार उपदेश तो श्रमण मुनियोंको जिनदेवने कहा है। अब
श्रावकोंको संसारका विनाश करने वाला और सिद्धि जो मोक्ष उसको करने का उत्कृष्ट कारण
ऐसा उपदेश कहते हैं सो सुनो।

भावार्थः––पहिले कहा वह तो मुनियों को कहा और अब आगे कहते हैं वह श्रावकोंको
संसार का विनाश हो ओर मोक्षकी प्राप्ति हो।। ८५।।

आगे श्रावकोंको पहिले क्या करना, वह कहते हैंः–––
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंपं।
तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए।। ८६।।
गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरेरिव निष्कंपम्।
तत् ध्याने ध्यायते श्रावक! दुःखक्षयार्थे।। ८६।।

भावार्थःश्रावक पहिले तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसका ध्यान
करे, इस सम्यक्त्व की भावना से ग्रहस्थके गृहकार्य संबंधी आकुलता, क्षोभ, दुःख हेय है वह
मिट जाता है, कार्य के बिगड़ने–सुधरने में वस्तुके स्वरूपका विचार
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
श्रमणार्थ जिन–उपदेश भाख्यो, श्रावकार्थ सुणो हवे,
संसारनुं हरनार शिव–करनार कारण परम ए। ८५।

ग्रही मेरूपर्वत–सम अकंप सुनिर्मळा सम्यक्त्वने,
हे श्रावको! दुःखनाश अर्थे ध्यानमां ध्यातव्य ते। ८६।

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मोक्षपाहुड][३२७
आगे सम्यक्त्वके ध्यान ही की महिमा कहते हैंः–––
आवे तब दुःख मिटता है। सम्यग्दृष्टिके इसप्रकार विचार होता है कि––वस्तुका स्वरूप सर्वज्ञने
जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है वही होता है, इष्ट–अनिष्ट मानकर दुःखी–सुखी
होना निष्फल है। ऐसा विचार करने से दुःख मिटता है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इसलिये
सम्यक्त्वका ध्यान करना कहा है।। ८६।।
सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो।
सम्मत्त परिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।। ८७।।
सम्यक्त्वं यः ध्यायति सम्यग्द्रष्टिः भवति सः जीवः।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि।। ८७।।

अर्थः
––जो श्रावक सम्यक्त्वका ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है और सम्यक्त्वरूप
परिणमता हुआ दुष्ट जो आठ कर्म उनका क्षय करता है।

भावार्थः––सम्यक्त्वका ध्यान इसप्रकार है–––यदि पहिले सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी
इसका स्वरूप जानकर इसका ध्यान करे तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है। सम्यक्त्व होने पर इसका
परिणाम ऐसा है कि संसारके कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते
ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और
शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सन कर्मोंका नाश हो जाता है।। ८७।।

आगे इसको संक्षेप से कहते हैंः–––
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले।
सिज्झिहहि जे वि भविया त्तं जाणह सम्ममाहप्पं।। ८८।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सम्यक्त्वने जे जीव ध्यावे ते सुद्रष्टि होय छे,
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्टकर्मो क्षय करे। ८७।

बहु कथनथी शुं? नरवरो गत काळ जे सिद्धया अहो!
जे सिद्धशे भव्यो हवे, सम्यक्त्वमहिमा जाणवो। ८८।

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३२८] [अष्टपाहुड
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
स्वप्नेय मलिन कर्युं न जेणे सिद्धिकर सम्यक्त्वने। ८९।
किं बहुना भणितेन ये सिद्धाः नरवराः गते काले।
सेत्स्यंति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्।। ८८।।

अर्थः
––आचार्य कहते हैं कि–––बहुत कहने से क्या साध्य है, जो नरप्रधान अतीत
कालमें सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्वका महात्म्य जानो।

भावार्थः––इस सम्यक्त्वका ऐसा महात्म्य है कि जो अष्टकर्मों का नाशकर मुक्ति प्राप्त
अतीतकाल में हुए है तथा आगामी होंगे वे इस सम्यक्त्वसे ही हुए हैं और होंगे, इसलिये
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या? यह संक्षेप से कहा जानो कि–––मुक्ति का प्रधान
कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत जानो कि गृहस्थके क्या धर्म है, यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा
है कि सब धर्मों के अंगों को सफल करता है।। ८८।।

आगे कहते हैं कि जो निरन्तर सम्यक्त्वका पालन करते हैं उनको धन्य हैः–––
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया।
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।। ८९।।
ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेऽपि पंडिता मनुजाः।
सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि न मलिनितं यैः।। ८९।।

अर्थः
––जिन पुरुषों ने मुक्तिको करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्न अवस्था में भी मलिन
नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया उन पुरुषोंको धन्य है, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ
हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं।

भावार्थः––लोक में कुछ दानादिक करें उनको धन्य कहते हैं तथा विवाहादिक यज्ञादिक
करते हैं उनको कृतार्थ कहते हैं, युद्धमें पीछा न लौटे उसको शूरवीर कहते हैं, बहुत शास्त्र
पढ़े उसको पंडित कहते हैं। ये सब कहनेके हैं; जो मोक्ष के कारण सम्यक्त्वको मलिन नहीं
करते हैं, निरतिचार पालते हैं उनको धन्य है, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित
हैं, वे ही मनुष्य हैं, इसके बिना मनुष्य पशु समान है, इस प्रकार सम्यक्त्वका माहात्म्य कहा।।

आगे शिष्य पूछता है कि सम्यक्त्व कैसा है? उसका समाधान करने के लिये इस
सम्यक्त्वके बाह्य चिन्ह बताते हैंः–––
नर धन्य ने, सुकृतार्थ ते, पंडित अने शूरवीर ते,

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मोक्षपाहुड][३२९
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे।
णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं।। ९०।।
हिंसारहिते धर्मे अष्टादशदोषवर्जिते देवे।
निर्ग्रंथे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम्।। ९०।।

अर्थः
––हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षका मार्ग
तथा गुरु इनमें श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है।

भावार्थः––लौकिकजन तथा अन्यमत वाले जीवोंकी हिंसासे धर्म मानते हैं और जिनमत
में अहिंसा धर्म कहा है, उसी का श्रद्धान करे अन्यक श्रद्धान न करे वह सम्यग्दृष्टि है। लौकिक
अन्यमत वाले मानते हैं वे सब देव क्षुधादि तथा रागद्वेषादि दोषोंसे संयुक्त हैं, इसलिये वीतराग
सर्वज्ञ अरहंत देव सब दोषोंसे रहित हैं उनको देव माने, श्रद्धान करे वही सम्यग्दृष्टि है।

यहाँ अठारह दोष कहे वे प्रधानताकी अपेक्षा कहे हैं इनको उपलक्षणरूप जानना, इनके
समान अन्य भी जान लेना। निर्ग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग वही मोक्षमार्ग है, अन्यलिंग से
अन्यमत वाले श्वेताम्बरादिक जैसाभास मोक्ष मानते हैं वह मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा श्रद्धान करे
वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना।। ९०।।

आगे इसी अर्थ को दृढ़ करेत हुए कहते हैंः––––
जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंग परिचत्तं।
लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ वस्स सम्मत्तं।। ९१।।
हिंसासुविरहित धर्म, दोष अढार वर्जित देवनुं,
निर्ग्रंथ प्रवचन केरूं जे श्रद्धान ते समकित कह्युं। ९०।

सम्यक्त्व तेने, जेह माने लिंग परनिरपेक्षने,
रूपे यथावतक, सुसंयत, सर्वसंगविमुक्तने। ९१।

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३३०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––मोक्षमार्ग में ऐसा ही लिगं है, अन्य अनेक भेष हैं वे मोक्षमार्ग में नहीं हैं,
ऐसा श्रद्धान करे उनके सम्यक्त्व होता है। यहाँ परापेक्ष नहीं है–––ऐसा कहने से बताया है
कि–––ऐसा निर्ग्रंथ रूप भी जो किसी अन्य आशय से धारण करे तो वह भेष मोक्षमार्ग नहीं
है, केवल मोक्ष ही की अपेक्षा जिसमें हो ऐसा हो उसको माने वह सम्यग्दृष्टि है ऐसा
जानना।। ९१।।
अर्थः––जो क्षुधादिक और रागद्वेषादि दोषोंसे दूषित हो वह कुत्सित देव है, जो हिंसादि
दोषोंसे सहित हो वह कुत्सित धर्म है, जो परिग्रहादि सहित हो वह कुत्सित लिंग है। जो
इनकी वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट मिथ्यादृष्टि है। यहाँ अब विशेष कहते हैं
कि जो इनको भले–हित करने वाले मानकर वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट
मिथ्यादृष्टि है। परन्तु जो लज्जा, भय, गारण इन कारणोंसे भी वंदना करता है, पूजा करता
है वह भी प्रगट मिथ्यादृष्टि है। लज्जा तो ऐसे कि––लोग इनकी वंदना करते हैं, हम नहीं
पूजेंगे तो लोग हमको क्या कहेंगे? हमारी इस लोक में प्रतिष्ठा चली जायेगी, इसप्रकार
लज्जा से वंदना व पूजा करे। भय ऐसे कि–––
भय, शरम वा गारव थकी, ते जीव छे मिथ्यात्वमां। ९२।
यथाजातरूपरूपं सुसंयतं सर्वसंगपरित्यक्त्वम्।
लिंगं न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम्।। ९१।।

अर्थः
––मोक्षमार्ग का लिंग भेष ऐसा है कि यथाजातरूप तो जिसका रूप है, जिसमें
बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक किंचित्मात्र भी नहीं है, सुसंयत अर्थात् सम्यक्प्रकार इन्द्रियों का निग्रह
और जीवोंकी दया जिसमें पाई जाती है ऐसा संयम है, सर्व संग अर्थात् सबही परिग्रह तथा
सब लौकिक जनोंकी संगति से रहित है और जिसमें परकी अपेक्षा कुछ नहीं है, मोक्षके
प्रयोजन सिवाय अन्य प्रयोजनकी अपेक्षा नहीं है। ऐसा मोक्षमार्ग का लिंग माने–श्रद्धान करे उस
जीवके सम्यक्त्व होता है।

आगे मिथ्यादृष्टि के चिन्ह कहते हैंः–––
कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।। ९२।।
कुत्सितदेवं धर्मं कुत्सितलिंगं च वन्दते यः तु।
लज्जाभयगारवतः मिथ्याद्रष्टिः भवेत् सः स्फुटम्।। ९२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे देव कुत्सित, धर्म कुत्सित, लिंग कुत्सित वंदता,

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मोक्षपाहुड][३३१
इसको राजादिक मानते हैं, हम नहीं मानेंगे तो हमारे ऊपर कुछ उपद्रव आ जायगा, इसप्रकार
भय से वंदना व पूजा करे। गारव ऐसे कि हम बडे़ हैं, महंत पुरुष हैं, सबही का सन्मान करते
हैं, इन कार्यों से कमारी बड़ाई है, इस प्रकार गारव से वंदना व पूजना होता है। इसप्रकार
मिथ्यादृष्टि के चिन्ह कहे हैं।। ९२।।

आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं किः–––
सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे।
मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो।। ९३।।
स्वपरापेक्षं लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे।
मानयति मिथ्याद्रष्टिः न स्फुटं मानयति सुद्ध सम्यक्ती।। ९३।।

अर्थः
––स्वपरापेक्ष तो लिंग–आप कुछ लौकिक प्रयोजन मनमें धारणकर भेष ले वह
स्वापेक्ष और किसी परकी अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादिकके भयसे धारण
करे वह परापेक्ष है। रागी देव
(जिसके स्त्री आदिका राग पाया जाता है) और संयमरहित को
इसप्रकार कहे कि मैं वंदना करता हूँ तथा इनको माने, श्रद्धान करे वह मिध्यादृष्टि है। शुद्ध
सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है।
भावार्थः––ये ऊपर कहे इनसे मिथ्यादृष्टिके प्रीति भक्ति उत्पन्न होती है, जो निरतिचार
सम्यक्त्ववान् है वह इनको नहीं मानता।। ९३।।
सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि।
विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।। ९४।।
सम्यग्द्रष्टिः श्रावकः धर्मं जिनदेव देशितं करोति।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्याद्रष्टिः ज्ञातव्यः।। ९४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वंदन असंयत, रक्त देवो, लिंग सपरापेक्षने,
ए मान्य होय कुद्रष्टिने, नहि शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने।९३।

सम्यक्त्वयुत श्रावक करे जिनदेवदेशित धर्मने;
विपरीत तेथी जे करे, कुद्रष्टि ते ज्ञातअ छे। ९४।

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३३२] [अष्टपाहुड
अर्थः––जो जिनदेवसे उपदेशित धर्मला पालन करता है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक है और
जो अन्यमतके उपदेशित धर्मका पालन करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना।

भावार्थः––इसप्रकार कहनेसे यहाँ कोई तर्क करे कि –यह तो अपना मत पुष्ट करने
कीपक्षपातमात्र वार्त्ता कही, अब इसका उत्तर देते हैं कि–––ऐसा नहीं है, जिससे सब
जीवोंका हित हो वह धर्म है ऐसे अहिंसारूप धर्मका जिनदेव ही ने प्ररूपण किया है, अन्यमत
में ऐसे धर्मका निरूपण नहीं है, इसप्रकार जानना चाहये।। ९४।।

आगे कहते हैं कि जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह संसार में दुःख सहित भ्रमण करता हैः–
––
मिच्छादिट्ठि जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ।
जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो।। ९५।।
मिथ्याद्रष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः।
जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः।। ९५।।
अर्थः––जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म–जरा–मरणसे प्रचुर और हजारों दुःखोंसे
व्याप्त इस संसार में सुखरहित दुःखी होकर भ्रमण करता है।

भावार्थः––मिथ्यात्व भाव का फल संसार में भ्रमण करना ही है, यह संसार जनम–
जरा–मरण आदि हजारों दुःखों से भरा है, इन दुःखोंको मिथ्यादृष्टि इस संसार में भ्रमण
करता हुआ भोगता है। यहाँ दुःख तो अनन्त हैं हजारों कहने से प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता बताई
है।। ९५।।

आगे सम्यक्त्व–मिथ्यात्व भावके कथनका संकोच करते हैंः–––
सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु।
जं ते मणस्स रूच्चइ किं बहुणा पलविएणं त्तु।। ९६।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
कुद्रष्टि जे, ते सुखविहीन परिभ्रमे संसारमां,
जर–जन्म–मरण प्रचुरता, दुःखगणसहस्र भर्या जिहां। ९५।

‘सम्यक्त्व गुण, मिथ्यात्व दोष’ तुं एम मन सुविचारीने,
कर ते तने जे मन रूचे; बहु कथन शुं करवुं अरे? ९६।

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मोक्षपाहुड][३३३
सम्यक्त्वे गुण मिथ्यात्वे दोषः मनसा परिभाव्य तत् कुरु।
यत् ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु।। ९६।।
किं तस्य स्थानमौनं न अपि जानाति आत्मसमभावं।। ९७।।

अर्थः
––हे भव्य! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिथ्यात्व के दोषों की अपने
मनसे भावना कर और जो अपने मन को रुचे–प्रिय लगे वह कर, बहुत प्रलापरूप कहने से
क्या साध्य है? इसप्रकार आचार्य ने उपदेश दिया है।

भावार्थः––इसप्रकार आचार्य ने कहा है कि बहुत कहने से क्या? सम्यकत्व–मिथ्यात्वके
गुण–दोष पूर्वोक्त जानकर जो मनमें रुचे, वह करो। यहाँ उपदेशका आशय ऐसा है कि
मिथ्यात्व को छोड़ो सम्यक्त्वको ग्रहण करो, इससे संसारका दुःख मेटकर मोक्ष पाओ।। ९६।।

आगे कहते हैं कि यदि मिथ्यात्वभाव नहीं छोड़ा तब बाह्य भेष से कुछ लाभ नहीं हैः––

बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो।
किं तस्य ठाणमउणं ण वि जाणादि अप्पसमभावं।। ९७।।
बहिः संगविमुक्तः नापि मुक्तः मिथ्याभावेन निर्ग्रंथः।

अर्थः
––जो बाह्य परिग्रह रहित और मिथ्याभावसहित निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है वह
परिग्रह रहित नहीं है, उसके ठाण अर्थात् खड़े होकर कायोत्सर्ग करने से क्या साध्य है? और
मौन धारण करने से क्या साध्य है? क्योंकि आत्माका समभाव जो वीतराग–परिणाम उसको
नहीं जानता है।
भावार्थः––आत्मा के शुद्ध स्वभावको जानकर सम्यग्दृष्टि होता है। और जो मिथ्याभाव
सहित परिग्रह छोड़कर निर्ग्रंथ भी हो गया है, कायोत्सर्ग करना, मौन धारण करना इत्यादि
बाह्य क्रियायें करता है तो उसकी क्रिया मोक्षमार्ग में सराहने
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः –– अप्पसव्भावं।
२ पाठान्तरः –– आत्मस्वभावं।
निर्ग्रंथ, बाह्य असंग, पण नहि त्यक्त मिथ्याभाव ज्यां,
जाणे न ते समभाव निज; शुं स्थान–मौन करे तिहां? ९७।

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३३४] [अष्टपाहुड
योग्य नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना बाह्यक्रिया का फल संसार ही है।। ९७।।

आगे आशंका उत्पन्न होती है कि सम्यक्त्व बिना बाह्यलिंग निष्फल कहा, जो बाह्यलिंग
मूलगुण बिगाड़े उसके सम्यक्त्व रहता या नहीं? इसका समाधान कहते हैंः–––
मूलगुणं छिलूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंग विराहगो णियटं।। ९८।।
मूलगुणं छित्वा च बाह्यकर्म करोति यः साधुः।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंग विराधकः नियतं।। ९८।।
अर्थः––जो मुनि निग्रर्थं होकर मूलगुण धारण करता है, उनका छेदनकर, बिगाड़कर
केवल बाह्यक्रिया – कर्म करता है वह सिद्धि अर्थात् मोक्षके सुख को प्राप्त नहीं कर सकता,
क्योंकि ऐस मुनि निश्चय से जिनलिंग विराधक है।

भावार्थः––जिन आज्ञा ऐसी है कि –––सम्यक्त्वसहित मूलगुण धारण अन्य जो साधु
क्रिया हैं उनको करते हैं। मूलगुण अट्ठाईस कहे हैंः–– पाँच महाव्रत, पाँच समिति, इन्द्रियोंका
निरोध ५, छह आवश्यक ६, भूमिशयन १, स्नानका त्याग ५, वस्त्रका त्याग १, केशलोच १,
एकबार भोजन १, खड़ा भोजन १, दंतधोवनका त्याग १, इसप्रकार अट्ठाईस मूलगुण हैं,
इनकी विराधना करके कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन करता है तो इन क्रियाओंसे मुक्ति
नहीं होती है। जो इसप्रकार श्रद्धान करे कि –––हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण
बिगड़े तो बिगड़ो, हम मोक्षमार्गी ही हैं–––तो ऐसी श्रद्धानसे तो जिन–आज्ञा भंग करने से
सम्यक्त्वका भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो; और [तीव्र कषायवान हो जाय तो] कर्म के
प्रबल उदयसे चारित्र भ्रष्ट हो। और यदि जिन–आज्ञाके अनुसार श्रद्वान रहे तो सम्यक्त्व रहता
है किन्तु मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्यक्त्व बिना केवल मूलगुण
बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है, ऐसे जानना।

प्रश्नः–––मुनिके स्नान का त्याग कहा और हम ऐसे भी सुनते हैं कि यदि चांडाल
आदिका स्पर्श हो जावे तो दंडस्नान करते हैं।
समाधानः––– जैसे गृहस्थ स्नान करता है वैसे स्नान करने का त्याग है, क्योंकि
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे मूळगुणने छेदीने मुनि बाह्यकर्मो आचरे,
पामे न शिवसुख निश्चये जिन कथित–लिंग–विराधने। ९८।

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मोक्षपाहुड][३३५
इसमें हिंसाकी अधिकता है, मुनिके स्नान ऐसा है––कमंडलु में प्रासुक जल रहता है उससे
मंत्र पढ़कर मस्तकपर धारामात्र देते हैं और उस दिन उपवास करते हैं तो ऐसा स्नान तो
नाममात्र स्नान है, यहाँ मंत्र और तपस्नान प्रधान है, जल स्नान प्रधान नहीं है, इस प्रकार
जानना।। ९८।।
आगे इसी अर्थको फिर विशेषरूप से कहते हैंः–––
बहिरंग कर्मो शुं करे? उपवास बहुविध शुं करे?

आगे कहते हैं कि जो आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य क्रियाकर्म है वह क्या करे? मोक्ष
मार्ग में तो कुछ भी कार्य नहीं करते हैंः–––
किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु।
किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।। ९९।।
किं करिष्यति बहिः कर्म किं करिष्यति बहुविधं च क्षमणं तु।
किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावात् विपरीतः।। ९९।।

अर्थः
––आत्मस्वभाव के विपरीत, प्रतिकूल बाह्यकर्म को क्रियाकाड़ वह क्या करगा?
कुछ मोक्ष का कार्य तो किंचित्मात्र भी नहीं करेगा, बहुत अनेक प्रकार क्षमण अर्थात्
उपवासादि बाह्य तप भी क्या करेगा? कुछ भी नहीं करेगा, आतापनयोग आदि कायक्लेश क्या
करगा? कुछ भी नहीं करगा।

भावार्थः––बाह्य क्रिया कर्म शरीराश्रित है और शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है, जड़ की
क्रिया तो चेतन को कुछ फल करती नहीं है, जैसा चेतनाका भाव जितना क्रिया में मिलता है
उसका फल चेतनाको लगता है। चेतनाका अशुभ उपयोग मिले तब अशुभकर्म बँधे और
शुभोपयोग मिले तब शुभ कर्म बँधता है और जब शुभ–अशुभ दोनों से रहित उपयोग होता है
तब कर्म नहीं बँधता है, पहिले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष करता है। इसप्रकार
चेतना उपयोग के अनुसार फलती है, इसलिये ऐसे कहा है कि बाह्य क्रियाकर्मसे तो कुछ होता
नहीं है, शुद्ध उपयोग होने पर मोक्ष होता है। इसलिये दर्शन–ज्ञान उपयोगोंका विकार मेट
कर शुद्ध ज्ञानचेतनाका अभ्यास करना मोक्ष का उपाय है।। ९९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! शुं करे आतापना? आत्मस्वभावविरूद्ध जे। ९९।

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३३६] [अष्टपाहुड
छे बालश्रुत ने बाळचारित, आत्मथी विपरीत जे। १००।
जदि पढदि बहु सुदाणि य जदि काहिदि बहुविहं च चारित्तं।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरींद।। १००।।
यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रं।
तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम्।। १००।।

अर्थः
––जो आत्मसवभावसे विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रोंको पढ़गा ओर बहुत प्रकारके
चारित्रका आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा। आत्मस्वभावसे
विपरीत शास्त्रका पढ़ना और चारित्रका आचरण करना ये सब ही बालश्रुत और बालचारित्र हैं
, अज्ञानी की क्रिया है, क्योंकि ग्यारह अंग और नो पूर्व तक तो अभव्य जीव भी पढ़ता है,
और बाह्य मूलगुणरूप चारित्र पालता है तो भी मोक्ष योग्य नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१००।।

आगे कहते हैं कि ऐसा साधु मोक्ष पाता हैः–––
वेरग्गपरो साहु परदव्वपरम्मुहो य जो होदि।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्ध सुहसु अणुरत्तो।। १०१।।
गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।। १०२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पुष्कळ भणे श्रुतने भले, चारित्र बहुविध आचरे,

जे साधु छे वैराग्यपर ने विमुख परद्रव्यो विषे,
भवसुखविरक्त, स्वकीयशुद्ध सुखो विषे अनुरक्त जे। १०१।
आदेयहेय–सुनिश्चयी, गुणगणविभूषित–अंग जे,
ध्यानाध्ययनरत जेह, ते मुनि स्थान उत्तमने लहे, १०२।