Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 185-214.

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ज्ञानकी वृद्धि, दर्शनकी वृद्धि, चारित्रकी वृद्धि
सर्ववृद्धि होती है; अंतरमें आवश्यक, प्रतिक्रमण,
प्रत्याख्यान, व्रत, तप सब प्रगट होता है । बाह्य
क्रियाकाण्ड तो परमार्थतः कोलाहल है । शुभ भाव
भूमिकानुसार आते हैं परन्तु वह शान्तिका मार्ग नहीं
है । स्थिर होकर अंतरमें बैठ जाना वही कर्तव्य
है ।।१८४।।
मुनिराज कहते हैं :चैतन्यपदार्थ पूर्णतासे भरा
है । उसके अन्दर जाना और आत्मसम्पदाकी प्राप्ति
करना वही हमारा विषय है । चैतन्यमें स्थिर होकर
अपूर्वताकी प्राप्ति नहीं की, अवर्णनीय समाधि प्राप्त
नहीं की, तो हमारा जो विषय है वह हमने प्रगट नहीं
किया । बाहरमें उपयोग आता है तब द्रव्य-गुण-
पर्यायके विचारोंमें रुकना होता है, किन्तु वास्तवमें
वह हमारा विषय नहीं है । आत्मामें नवीनताओंका
भण्डार है । भेदज्ञानके अभ्यास द्वारा यदि वह
नवीनताअपूर्वता प्रगट नहीं की, तो मुनिपनेमें जो
करना था वह हमने नहीं किया ।।१८५।।
६६ ]
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गृहस्थाश्रममें वैराग्य होता है परन्तु मुनिराजका
वैराग्य कोई और ही होता है । मुनिराज तो वैराग्य-
महलके शिखरके शिखामणि हैं ।।१८६।।
मुनि आत्माके अभ्यासमें परायण हैं । वे बारम्बार
आत्मामें जाते हैं । सविकल्प दशामें भी मुनिपनेकी
मर्यादा लाँघकर विशेष बाहर नहीं जाते । मर्यादा
छोड़कर विशेष बाहर जायँ तो अपनी मुनिदशा ही न
रहे ।।१८७।।
जो न हो सके वह कार्य करनेकी बुद्धि करना
मूर्खताकी बात है । अनादिसे यह जीव जो नहीं हो
सकता उसे करनेकी बुद्धि करता है और जो हो
सकता है वह नहीं करता । मुनिराजको परके
कर्तृत्वकी बुद्धि तो छूट गई है और आहार-विहारादिके
अस्थिरतारूप विकल्प भी बहुत ही मंद होते हैं ।
उपदेशका प्रसंग आये तो उपदेश देते हैं, परन्तु
विकल्पका जाल नहीं चलता ।।१८८।।
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अपनी द्रष्टिकी डोर चैतन्य पर बाँध दे । पतंग
आकाशमें उड़ायें परन्तु डोर हाथमें रहती है, उसी
प्रकार द्रष्टिकी डोर चैतन्यमें बाँध दे, फि र भले
उपयोग बाहर जाता हो । अनादि-अनंत अद्भुत
आत्माकापरम पारिणामिक भावरूप अखण्ड एक
भावकाअवलम्बन ले । परिपूर्ण आत्माका आश्रय
करेगा तो पूर्णता आयगी । गुरुकी वाणी प्रबल
निमित्त है परन्तु समझकर आश्रय तो अपनेको ही
करना है ।।१८९।।
मैंने अनादिकालसे सब बाहर-बाहरका ग्रहण
कियाबाहरका ज्ञान किया, बाहरका ध्यान किया,
बाहरका मुनिपना धारण किया, और मान लिया कि
मैंने बहुत किया । शुभभाव किये परन्तु द्रष्टि पर्याय
पर थी । अगाध शक्ति वान जो चैतन्यचक्रवर्ती उसे
नहीं पहिचाना, नहीं ग्रहण किया । सामान्यस्वरूपको
ग्रहण नहीं किया, विशेषको ग्रहण किया ।।१९०।।
द्रष्टिकी डोर हाथमें रख । सामान्य स्वरूपको ग्रहण
कर, फि र भले ही सब ज्ञान हो । ऐसा करते-करते
६८ ]
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अंतरमें विशेष लीनता होगी, साधक दशा बढ़ती
जायगी । देशव्रत और महाव्रत सामान्य स्वरूपके
आलम्बनसे आते हैं; मुख्यता निरंतर सामान्य
स्वरूपकीद्रव्यकी होती है ।।१९१।।
आत्मा तो निवृत्तस्वरूपशान्तस्वरूप है ।
मुनिराजको उसमेंसे बाहर आना प्रवृत्तिरूप लगता
है । उच्चसे उच्च शुभभाव भी उन्हें बोझरूप लगते
हैंमानों पर्वत उठाना हो । शाश्वत आत्माकी ही
उग्र धुन लगी है । आत्माके प्रचुर स्वसंवेदनमेंसे
बाहर आना नहीं सुहाता ।।१९२।।
सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञायकको ज्ञायक द्वारा ही अपनेमें
धारण कर रखता है, टिकाए रखता है, स्थिर रखता
हैऐसी सहज दशा होती है ।
सम्यग्द्रष्टि जीवको तथा मुनिको भेदज्ञानकी
परिणति तो चलती ही रहती है । सम्यग्द्रष्टि गृहस्थको
उसकी दशाके अनुसार उपयोग अंतरमें जाता है और
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[ ६९

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बाहर आता है; मुनिराजको तो उपयोग अति
शीघ्रतासे बारम्बार अंतरमें उतर जाता है । भेद-
ज्ञानकी परिणतिज्ञातृत्वधारादोनोंके चलती ही
रहती है । उन्हें भेदज्ञान प्रगट हुआ तबसे कोई काल
पुरुषार्थ रहित नहीं होता । अविरत सम्यग्द्रष्टिको चौथे
गुणस्थानके अनुसार और मुनिको छठवें-सातवें
गुणस्थानके अनुसार पुरुषार्थ वर्तता रहता है ।
पुरुषार्थके बिना कहीं परिणति स्थिर नहीं रहती ।
सहज भी है, पुरुषार्थ भी है ।।१९३।।
पूज्य गुरुदेवने मोक्षका शाश्वत मार्ग अंतरमें
बतलाया है, उस मार्ग पर जा ।।१९४।।
सबको एक ही करना है :प्रतिक्षण आत्माको
ही ऊर्ध्व रखना, आत्माकी ही प्रमुखता रखना ।
जिज्ञासुकी भूमिकामें भी आत्माको ही अधिक
रखनेका अभ्यास करना ।।१९५।।
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स्वरूप तो सहज ही है, सुगम ही है; अनभ्यासके
कारण दुर्गम लगता है । कोई दूसरेकी संगतमें पड़
गया हो तो उसे वह संग छोड़ना दुष्कर मालूम होता
है; वास्तवमें दुष्कर नहीं है, आदतके कारण दुष्कर
मानता है । परसंग छोड़कर स्वयं स्वतंत्ररूपसे अलग
रहना उसमें दुष्करता कैसी ? वैसे ही अपना स्वभाव
प्राप्त करना उसमें दुष्करता कैसी ? वह तो सुगम ही
होगा न ? १९६।।
प्रज्ञाछैनीको शुभाशुभ भाव और ज्ञानकी सूक्ष्म
अंतःसंधिमें पटकना । उपयोगको बराबर सूक्ष्म
करके उन दोनोंकी संधिमें सावधान होकर उसका
प्रहार करना । सावधान होकर अर्थात् बराबर सूक्ष्म
उपयोग करके, बराबर लक्षण द्वारा पहिचानकर ।
अभ्रकके पर्त कितने पतले होते हैं, किन्तु उन्हें
बराबर सावधानीपूर्वक अलग किया जाता है, उसी
प्रकार सूक्ष्म उपयोग करके स्वभाव-विभावके बीच
प्रज्ञा द्वारा भेद कर । जिस क्षण विभावभाव वर्तता
है उसी समय ज्ञातृत्वधारा द्वारा स्वभावको भिन्न
जान ले । भिन्न ही है परन्तु तुझे नहीं भासता ।
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विभाव और ज्ञायक हैं तो भिन्न-भिन्न ही;जैसे
पाषाण और सोना एकमेक दिखने पर भी भिन्न ही
हैं तदनुसार ।
प्रश्न :सोना तो चमकता है इसलिये पत्थर और
सोनादोनों भिन्न ज्ञात होते हैं, परन्तु यह कैसे भिन्न
ज्ञात हों ?
उत्तर :यह ज्ञान भी चमकता ही है न ?
विभावभाव नहीं चमकते किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही
चमकता हैज्ञात होता है । ज्ञानकी चमक चारों
ओर फै ल रही है । ज्ञानकी चमक बिना सोनेकी
चमक काहेमें ज्ञात होगी ?
जैसे सच्चे मोती और खोटे मोती इकट्ठे हों तो
मोतीका पारखी उसमेंसे सच्चे मोतियोंको अलग कर
लेता है, उसी प्रकार आत्माको ‘प्रज्ञासे ग्रहण
करना’ । जो जाननेवाला है सो मैं, जो देखनेवाला
है सो मैंइस प्रकार उपयोग सूक्ष्म करके आत्माको
और विभावको पृथक् किया जा सकता है । यह
पृथक् करनेका कार्य प्रज्ञासे ही होता है । व्रत, तप
या त्यागादि भले हों, परन्तु वे साधन नहीं होते,
साधन तो प्रज्ञा ही है ।
७२ ]
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स्वभावकी महिमासे परपदार्थोंके प्रति रसबुद्धि
सुखबुद्धि टूट जाती है । स्वभावमें ही रस आता है,
दूसरा सब नीरस लगता है । तभी अंतरकी सूक्ष्म
संधि ज्ञात होती है । ऐसा नहीं होता कि परमें तीव्र
रुचि हो और उपयोग अंतरमें प्रज्ञाछैनीका कार्य
करे ।।१९७।।
ज्ञातापनेके अभ्याससे ज्ञातापना प्रगट होने पर
कर्तापना छूटता है । विभाव अपना स्वभाव नहीं है
इसलिये कहीं आत्मद्रव्य स्वयं उछलकर विभावमें
एकमेक नहीं हो जाता, द्रव्य तो शुद्ध रहता है; मात्र
अनादिकालीन मान्यताके कारण ‘पर ऐसे जड़
पदार्थको मैं करता हूँ, रागादि मेरा स्वरूप हैं, मैं
सचमुच विभावका कर्ता हूँ’ इत्यादि भ्रमणा हो रही
है । यथार्थ ज्ञातृत्वधारा प्रगट हो तो कर्तापना छूटता
है ।।१९८।।
जीवको अटकनेके जो अनेक प्रकार हैं उन
सबमेंसे विमुख हो और मात्र चैतन्यदरबारमें ही
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[ ७३

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उपयोगको लगा दे; अवश्य प्राप्ति होगी ही । अनन्त-
अनन्त कालसे अनंत जीवोंने इसी प्रकार पुरुषार्थ
किया है, इसलिये तू भी ऐसा कर ।
अनन्त-अनन्त काल गया, जीव कहीं न कहीं
अटकता ही है न ? अटकनेके तो अनेक-अनेक प्रकार
हैं; किन्तु सफल होनेका एक ही प्रकार हैवह है
चैतन्यदरबारमें जाना । स्वयं कहाँ अटकता है उसका
यदि स्वयं ख्याल करे तो बराबर जान सकता है ।
द्रव्यलिंगी साधु होकर भी जीव कहीं सूक्ष्मरूपसे
अटक जाता है, शुभ भावकी मिठासमें रुक जाता है,
‘यह रागकी मंदता, यह अट्ठाईस मूलगुण,बस
यही मैं हूँ, यही मोक्षका मार्ग है’, इत्यादि किसी
प्रकार संतुष्ट होकर अटक जाता है; परन्तु यह
अंतरमें विकल्पोंके साथ एकताबुद्धि तो पड़ी ही है
उसे क्यों नहीं देखता ? अंतरमें यह शांति क्यों नहीं
दिखायी देती ? पापभावको त्यागकर ‘सर्वस्व कर
लिया’ मानकर संतुष्ट हो जाता है । सच्चे
आत्मार्थीको तथा सम्यग्द्रष्टिको तो ‘अभी बहुत बाकी
है, बहुत बाकी है’इस प्रकार पूर्णता तक बहुत
७४ ]
बहिनश्रीके वचनामृत

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बाकी है ऐसी ही भावना रहती है और तभी पुरुषार्थ
अखण्ड रह पाता है ।
गृहस्थाश्रममें सम्यक्त्वीने मूलको पकड़ लिया है,
(द्रष्टि-अपेक्षासे) सब कुछ कर लिया है, अस्थिरतारूप
शाखाऐं-पत्ते जरूर सूख जायँगे । द्रव्यलिंगी साधुने
मूलको ही नहीं पकड़ा है; उसने कुछ किया ही
नहीं । बाह्यद्रष्टि लोगोंको ऐसा भले ही लगे कि
‘सम्यक्त्वीको अभी बहुत बाकी है और द्रव्यलिंगी
मुनिने बहुत कर लिया’; परन्तु ऐसा नहीं है ।
परिषह सहन करे किन्तु अंतरमें कर्तृत्वबुद्धि नहीं
टूटी, आकुलताका वेदन होता है, उसने कुछ किया
ही नहीं ।।१९९।।
शुद्धनयकी अनुभूति अर्थात् शुद्धनयके विषयभूत
अबद्धस्पृष्टादिरूप शुद्ध आत्माकी अनुभूति सो सम्पूर्ण
जिनशासनकी अनुभूति है । चौदह ब्रह्माण्डके भाव
उसमें आ गये । मोक्षमार्ग, केवलज्ञान, मोक्ष इत्यादि
सब जान लिया । ‘सर्वगुणांश सो सम्यक्त्व’
अनंत गुणोंका अंश प्रगट हुआ; समस्त लोका-
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[ ७५

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लोकका स्वरूप ज्ञात हो गया ।
जिस मार्गसे यह सम्यक्त्व हुआ उसी मार्गसे
मुनिपना और केवलज्ञान होगाऐसा ज्ञात हो
गया । पूर्णताके लक्षसे प्रारंभ हुआ; इसी मार्गसे
देशविरतिपना, मुनिपना, पूर्ण चारित्र एवं केवल-
ज्ञानसब प्रगट होगा ।
नमूना देखनेसे पूरे मालका पता चल जाता है ।
दूजके चन्द्रकी कला द्वारा पूरे चन्द्रका ख्याल आ
जाता है । गुड़की एक डलीमें पूरी गुड़की पारीका
पता लग जाता है । वहाँ (द्रष्टान्तमें) तो भिन्न-भिन्न
द्रव्य हैं और यह तो एक ही द्रव्य है । इसलिये
सम्यक्त्वमें चौदह ब्रह्माण्डके भाव आ गये । इसी
मार्गसे केवलज्ञान होगा । जिस प्रकार अंश प्रगट
हुआ उसी प्रकार पूर्णता प्रगट होगी । इसलिये
शुद्धनयकी अनुभूति अर्थात् शुद्ध आत्माकी अनुभूति
वह सम्पूर्ण जिनशासनकी अनुभूति है ।।२००।।
अपरिणामी निज आत्माका आश्रय लेनेको कहा
जाता है वहाँ अपरिणामी मानें पूर्ण ज्ञायक; शास्त्रमें
७६ ]
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निश्चयनयके विषयभूत जो अखण्ड ज्ञायक कहा है
वही यह ‘अपरिणामी’ निजात्मा ।
प्रमाण-अपेक्षासे आत्मद्रव्य मात्र अपरिणामी ही
नहीं है, अपरिणामी तथा परिणामी है । परन्तु
अपरिणामी तत्त्व पर द्रष्टि देनेसे परिणाम गौण हो जाते
हैं; परिणाम कहीं चले नहीं जाते । परिणाम कहाँ चले
जायँ ? परिणमन तो पर्यायस्वभावके कारण होता ही
रहता है, सिद्धमें भी परिणति तो होती है ।
परन्तु अपरिणामी तत्त्व परज्ञायक परद्रष्टि
ही सम्यक् द्रष्टि है । इसलिये ‘यह मेरी ज्ञानकी
पर्याय’ ‘यह मेरी द्रव्यकी पर्याय’ इस प्रकार पर्यायमें
किसलिये रुकता है ? निष्क्रिय तत्त्व परतल
परद्रष्टि स्थापित कर न !
परिणाम तो होते ही रहेंगे । परन्तु, यह मेरी
अमुक गुणपर्याय हुई, यह मेरे ऐसे परिणाम हुए
ऐसा जोर किसलिये देता है ? पर्यायमेंपलटते
अंशमेंद्रव्यका परिपूर्ण नित्य सामर्थ्य थोड़ा ही
आता है ? उस परिपूर्ण नित्य सामर्थ्यका अवलम्बन
कर न !
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ज्ञानानन्दसागरकी तरंगोंको न देखकर उसके दल
पर द्रष्टि स्थापित कर । तरंगें तो उछलती ही रहेंगी;
तू उनका अवलम्बन किसलिये लेता है ?
अनंत गुणोंके भेद परसे भी द्रष्टि हटा ले ।
अनंत गुणमय एक नित्य निजतत्त्वअपरिणामी
अभेद एक दलउसमें द्रष्टि दे । पूर्ण नित्य
अभेदका जोर ला; तू ज्ञाताद्रष्टा हो जायगा ।।२०१।।
द्रढ़ प्रतीति करके, सूक्ष्म उपयोगवाला होकर,
द्रव्यमें गहरे उतर जा, द्रव्यके पातालमें जा । वहाँसे
तुझे शान्ति एवं आनन्द प्राप्त होगा । खूब धीर-
गंभीर होकर द्रव्यके तलका स्पर्श कर ।।२०२।।
यह सर्वत्रबाहरस्थूल उपयोग हो रहा है,
उसे सब जगहसे उठाकर, अत्यन्त धीर होकर,
द्रव्यको पकड़ । वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं,
द्रव्येन्द्रिय भी नहीं और भावेन्द्रिय भी द्रव्यका स्वरूप
नहीं है । यद्यपि भावेन्द्रिय है तो जीवकी ही पर्याय,
७८ ]
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परन्तु वह खण्डखण्डरूप है, क्षायोपशमिक ज्ञान है
और द्रव्य तो अखण्ड एवं पूर्ण है, इसलिये
भावेन्द्रियके लक्षसे भी वह पकड़में नहीं आता । इन
सबसे उस पार द्रव्य है । उसे सूक्ष्म उपयोग करके
पकड़ ।।२०३।।
आत्मा तो अनंत शक्ति योंका पिण्ड है । आत्मामें
द्रष्टि स्थापित करने पर अंतरसे ही बहुत विभूति प्रगट
होती है । उपयोगको सूक्ष्म करके अंतरमें जानेसे
बहुत-सी स्वभावभूत ऋद्धि-सिद्धियाँ प्रगट होती हैं ।
अंतरमें तो आनन्दका सागर है । ज्ञानसागर, सुख-
सागरयह सब भीतर आत्मामें ही हैं । जैसे
सागरमें चाहे जितनी जोरदार लहरें उठती रहें तथापि
उसमें न्यूनता-अधिकता नहीं होती, उसी प्रकार
अनंत-अनंत काल तक केवलज्ञान बहता रहे तब भी
द्रव्य तो ज्योंका त्यों ही रहता है ।।२०४।।
चैतन्यकी अगाधता, अपूर्वता और अनंतता
बतलानेवाले गुरुके वचनों द्वारा शुद्धात्मदेवको बराबर
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जाना जा सकता है । चैतन्यकी महिमापूर्वक संसारकी
महिमा छूटे तभी चैतन्यदेव समीप आता है ।
हे शुद्धात्मदेव ! तेरी शरणमें आनेसे ही यह
पंचपरावर्तनरूपी रोग शान्त होता है । जिसे
चैतन्यदेवकी महिमा आयी उसे संसारकी महिमा छूट
ही जाती है । अहो ! मेरे चैतन्यदेवमें तो परम
विश्रान्ति है, बाहर निकलने पर तो अशान्तिका ही
अनुभव होता है ।
मैं निर्विकल्प तत्त्व ही हूँ । ज्ञानानन्दसे भरा हुआ
जो निर्विकल्प तत्त्व, बस वही मुझे चाहिये, दूसरा
कुछ नहीं चाहिये ।।२०५।।
ज्ञानीने चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण किया है ।
अभेदमें ही द्रष्टि है : ‘मैं तो ज्ञानानन्दमय एक वस्तु
हूँ’। उसे विश्रान्तिका महल मिल गया है, जिसमें
अनंत आनन्द भरा है । शान्तिका स्थान, आनन्दका
स्थानऐसा पवित्र उज्ज्वल आत्मा है । वहाँ
ज्ञायकमेंरहकर ज्ञान सब करता है परन्तु द्रष्टि तो
अभेद पर ही है । ज्ञान सब करता है परन्तु द्रष्टिका
८० ]
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जोर इतना है कि अपनेको अपनी ओर खींचता
है ।।२०६।।
हे जीव ! अनंत कालमें शुद्धोपयोग नहीं किया
इसलिये तेरी कर्मराशि क्षय नहीं हुई । तू ज्ञायकमें
स्थिर हो जा तो एक श्वासोच्छ्वासमें तेरे कर्मोंका क्षय
हो जायगा । तू भले ही एक है परन्तु तेरी शक्ति
अनंत है । तू एक और कर्म अनंत; परन्तु अनंत
शक्ति वान तू एक ही सबका सामना करनेके लिये
पर्याप्त है । तू सोता है इसलिये सब आते हैं, तू जाग
जाये तो सब अपने आप भाग जायँगे ।।२०७।।
बाह्य द्रष्टिसे कहीं अंतद्रर्ष्टि प्रगट नहीं होती ।
आत्मा बाहर नहीं है; आत्मा तो अंतरमें ही है ।
इसलिये तू अन्यत्र कहीं मत जाना, परिणामको कहीं
भटकने मत देना; उन्हें एक आत्मामें ही बारम्बार
लगा; बारम्बार वहीं जाना, उसीको ग्रहण करना ।
आत्माकी ही शरणमें जाना । बड़ेके आश्रयसे ही सब
प्रगट होता है । अगाध शक्ति वान चैतन्यचक्रवर्तीको
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[ ८१
ब. व. ६

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ग्रहण कर । उस एकको ही ग्रहण कर । उपयोग
बाहर जाये परन्तु चैतन्यका अवलम्बन उसे अंतरमें ही
लाता है । बारम्बार....बारम्बार ऐसा करते....
करते....करते (स्वरूपमें लीनता जमते....जमते)
क्षपकश्रेणी प्रगट होकर पूर्ण हो जाता है । जो वस्तु
है उसी पर अपनी द्रष्टिकी डोर बाँध, पर्यायके
अवलम्बनसे कुछ नहीं होगा ।।२०८।।
जैसे राजा अपने महलमें दूर-दूर अंतःपुरमें रहता
है वैसे ही चैतन्यराजा दूर-दूर चैतन्यके महलमें ही
निवास करता है; वहाँ जा ।।२०९।।
तू स्वयं मार्ग जानता नहीं है और जाननेवालेको
साथ नहीं रखेगा, तो तू एक डग भी कैसे भरेगा ?
तू स्वयं तो अंधा है, और यदि गुरुवाणी एवं
श्रुतका अवलम्बन नहीं रखेगा, तो अंतरमें जो
साधकका मार्ग है वह तुझे कैसे सूझेगा ? सम्यक्त्व
कैसे होगा ? साधकपना कैसे आयगा ? केवलज्ञान
कैसे प्रगट होगा ?
८२ ]
बहिनश्रीके वचनामृत

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अनंत कालका अनजाना मार्ग गुरुवाणी एवं
आगमके बिना ज्ञात नहीं होता । सच्चा निर्णय तो
स्वयं ही करना है परन्तु वह गुरुवाणी एवं आगमके
अवलम्बनसे होता है । सच्चे निर्णयके बिनासच्चे
ज्ञानके बिनासच्चा ध्यान नहीं हो सकता ।
इसलिये तू श्रुतके अवलम्बनको, श्रुतके चिंतवनको
साथ ही रखना ।
श्रवणयोग हो तो तत्कालबोधक गुरुवाणीमें और
स्वाध्याययोग हो तो नित्यबोधक ऐसे आगममें
प्रवर्तन रखना । इनके अतिरिक्त कालमें भी
गुरुवाणी एवं आगम द्वारा बतलाये गये भगवान
आत्माके विचार और मंथन रखना ।।२१०।।
वस्तुके स्वरूपको सब पहलुओंसे ज्ञानमें जानकर
अभेदज्ञान प्रगट कर । अंतरमें समाये सो समाये;
अनन्त-अनन्त काल तक अनन्त-अनन्त समाधिसुखमें
लीन हुए । ‘रे ज्ञानगुणसे रहित बहुजन पद नहीं यह
पा सके’ । इसलिये तू उस ज्ञानपदको प्राप्त कर ।
उस अपूर्व पदकी खबर बिना कल्पित ध्यान करे,
बहिनश्रीके वचनामृत
[ ८३

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परन्तु चैतन्यदेवका स्वरूप क्या है, ऐसे रत्नराशि
समान उसके अनंत गुणोंका स्वामी कैसा हैवह
जाने बिना ध्यान कैसा ? जिसका ध्यान करना है
उस वस्तुको पहिचाने बिना, उसे ग्रहण किये बिना,
ध्यान किसके आश्रयसे होगा ? एकाग्रता कहाँ
होगी ? २११।।
एक सत्-लक्षण आत्माउसीका परिचय
रखना । ‘जैसा जिसको परिचय वैसी उसकी
परिणति’ । तू लोकाग्रमें विचरनेवाला लौकिक
जनोंका संग करेगा तो वह तेरी परिणति पलट
जानेका कारण बनेगा । जैसे जंगलमें सिंह
निर्भयरूपसे विचरता है उसी प्रकार तू लोकसे
निरपेक्षरूप अपने पराक्रमसेपुरुषार्थसेअंतरमें
विचरना ।।२१२।।
लोगोंका भय त्यागकर, शिथिलता छोड़कर, स्वयं
द्रढ़ पुरुषार्थ करना चाहिये । ‘लोग क्या कहेंगे’
ऐसा देखनेसे चैतन्यलोकमें नहीं पहुँचा जा सकता ।
८४ ]
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साधकको एक शुद्ध आत्माका ही सम्बन्ध होता है ।
निर्भयरूपसे उग्र पुरुषार्थ करना, बस ! वही
लोकाग्रमें जानेवाला साधक विचारता है ।।२१३।।
सद्गुरुके उपदेशरूप निमित्तमें (निमित्तपनेकी)
पूर्ण शक्ति है, परन्तु तू तैयार न हो तो ?तू
आत्मदर्शन प्रगट न करे तो ? अनन्त-अनन्त कालमें
अनेक संयोग प्राप्त हुए परन्तु तूने अंतरमें डुबकी नहीं
लगायी ! तू अकेला ही है; सुख-दुःख भोगनेवाला,
स्वर्ग या नरकमें गमन करनेवाला केवल तू अकेला
ही है ।
‘‘मरता अकेला जीव एवं जन्म एकाकी करे
पाता अकेला ही मरण अरु मुक्ति एकाकी करे ।।’’’’
तू अकेला ही मोक्ष जानेवाला है, इसलिये तू
आत्मदर्शन प्रगट कर ।
गुरुकी वाणी सुनकर विचार कर, प्रतीति कर और
स्थिर हो; तो तुझे अनंत ज्ञान एवं सुखका धाम ऐसे
निज आत्माके दर्शन होंगे ।।२१४।।
बहिनश्रीके वचनामृत
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