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मुमुक्षु जीव शुभमें लगता है, परन्तु अपनी शोधक वृत्ति बह न जाय — अपने सत्स्वरूपकी शोध चलती रहे इस प्रकार लगता है । शुद्धताका ध्येय छोड़कर शुभका आग्रह नहीं रखता ।
तथा वह ‘मैं शुद्ध हूँ, मैं शुद्ध हूँ’ करके पर्यायकी अशुद्धताको भूल जाय — स्वच्छन्द हो जाय ऐसा नहीं करता; शुष्कज्ञानी नहीं हो जाता, हृदयको भीगा हुआ रखता है ।।२१५।।
जो वास्तवमें संसारसे थक गया है उसीको सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । वस्तुकी महिमा बराबर ख्यालमें आ जाने पर वह संसारसे इतना अधिक थक जाता है कि ‘मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, एक निज आत्मद्रव्य ही चाहिये’ ऐसी द्रढ़ता करके बस ‘द्रव्य सो ही मैं हूँ’ ऐसे भावरूप परिणमित हो जाता है, अन्य सब निकाल देता है ।
द्रष्टि एक भी भेदको स्वीकार नहीं करती । शाश्वत द्रव्य पर स्थिर हुई द्रष्टि यह देखने नहीं बैठती कि ‘मुझे सम्यग्दर्शन या केवलज्ञान हुआ या
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नहीं’ । उसे — द्रव्यद्रष्टिवान जीवको — खबर है कि अनंत कालमें अनंत जीवोंने इस प्रकार द्रव्य पर द्रष्टि जमाकर अनंत विभूति प्रगट की है । द्रव्यद्रष्टि होने पर द्रव्यमें जो-जो हो वह प्रगट होता ही है; तथापि ‘मुझे सम्यग्दर्शन हुआ, मुझे अनुभूति हुई’ इस प्रकार द्रष्टि पर्यायमें चिपकती नहीं है । वह तो प्रारंभसे पूर्णता तक, सबको निकालकर, द्रव्य पर ही जमी रहती है । किसी भी प्रकारकी आशा बिना बिलकुल निस्पृहभावसे ही द्रष्टि प्रगट होती है ।।२१६।।
द्रव्यमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सब होने पर भी कहीं द्रव्य और पर्याय दोनों समान कोटिके नहीं हैं; द्रव्यकी कोटि उच्च ही है, पर्यायकी कोटि निम्न ही है । द्रव्यद्रष्टिवानको अंतरमें इतना अधिक रस- कसयुक्त तत्त्व दिखायी देता है कि उसकी द्रष्टि पर्यायमें नहीं चिपकती । भले ही अनुभूति हो, परन्तु द्रष्टि अनुभूतिमें — पर्यायमें — चिपक नहीं जाती । ‘अहा ! ऐसा आश्चर्यकारी द्रव्यस्वभाव प्रगट
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हुआ अर्थात् अनुभवमें आया !’ ऐसा ज्ञान जानता है, परन्तु द्रष्टि तो शाश्वत स्तंभ पर — द्रव्यस्वभाव पर — जमी सो जमी ही रहती है ।।२१७।।
कोई एकान्तमें निवास करनेवाला — एकान्त- प्रिय — मनुष्य हो, उसे जबरन् बाह्य कार्यमें लगना पड़े तो वह ऊपरी द्रष्टिसे लगता हुआ दिखता अवश्य है, परन्तु कौन जानता है कि वह बाह्यमें आया है या नहीं !! अथवा कोई अति दुर्बल मनुष्य हो और उसके सिर पर कोई कार्यका बोझ रख दे तो उसे कितना कठिन लगता है ? उसी प्रकार ज्ञानीको ज्ञानधारा वर्तनेके कारण बाह्य कार्योंमें लगना बोझरूप लगता है ।।२१८।।
चाहे जैसे कठिन समयमें अपने ज्ञान-ध्यानका समय निकाल लेना चाहिये । यह अमूल्य जीवन चला जा रहा है । इसे व्यर्थ नहीं गँवाना ।।२१९।।
ज्ञायकपरिणतिका द्रढ़ अभ्यास करो । शुभ
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भावके कर्तृत्वमें भी समस्त लोकका कर्तृत्व समाया हुआ है ।।२२०।।
सर्वस्वरूपसे उपादेय मात्र शुद्धोपयोग है । अंतर्मुहूर्तको नहीं किन्तु शाश्वत अंतरमें रह जाना वही निज स्वभाव है, वही कर्तव्य है ।।२२१।।
मुनि बारम्बार आत्माके उपयोगकी आत्मामें ही प्रतिष्ठा करते हैं । उनकी दशा निराली, परके प्रतिबंधसे रहित, केवल ज्ञायकमें प्रतिबद्ध, मात्र निजगुणोंमें ही रमणशील, निरालम्बी होती है । मुनिराज मोक्षपंथमें प्रयाण आरम्भ किया उसे पूर्ण करते हैं ।।२२२।।
शुद्धात्मामें स्थिर होना वही कार्य है, वही सर्वस्व है । स्थिर हो जाना ही सर्वस्व है, शुभ भाव आये परन्तु वह सर्वस्व नहीं है ।।२२३।।
अंतरात्मा तो दिन और रात अंतरंगमें आत्मा, आत्मा
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और आत्मा — ऐसा करते-करते, अंतरात्मभावरूप परिणमते-परिणमते, परमात्मा हो जाता है ।।२२४।।
अहा ! अमोघ — रामबाण समान — गुरुवचन ! यदि जीव तैयार हो तो विभाव टूट जाता है, स्वभाव प्रगट हो जाता है । अवसर चूकने जैसा नहीं है ।।२२५।।
अपना अगाध गंभीर ज्ञायकस्वभाव पूर्ण रीतिसे देखने पर समस्त लोकालोक भूत-भविष्यकी पर्यायों सहित समयमात्रमें ज्ञात हो जाता है । अधिक जाननेकी आकांक्षासे बस होओ, स्वरूपनिश्चल ही रहना योग्य है ।।२२६।।
शुद्धनयके विषयभूत आत्माकी स्वानुभूति सुखरूप है । आत्मा स्वयमेव मंगलरूप है, आनन्दरूप है; इसलिये आत्माकी अनुभूति भी मंगलरूप एवं आनन्दरूप है ।।२२७।।
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आत्माके अस्तित्वको पहिचानकर स्वरूपमें स्थिर हो जा, बस !....तेरा अस्तित्व आश्चर्यकारी अनंत गुणपर्यायसे भरा है; उसका सम्पूर्ण स्वरूप भगवानकी वाणीमें भी पूरा नहीं आ सकता । उसका अनुभव करके उसमें स्थिर हो जा ।।२२८।।
मुनिको संयम, नियम और तप — सबमें आत्मा समीप होता है । अहा ! तू तो आत्माकी साधना करने निकला है.....वहाँ यह लौकिक जनोंके परिचयका रस क्यों ?
तुझे शुद्धि बढ़ाना हो, दुःखसे छूटनेकी भावना हो, तो अधिक गुणवाले या समान गुणवाले आत्माके संगमें रहना ।
लौकिक संग तेरा पुरुषार्थ मंद होनेका कारण होगा । विशेष गुणीका संग तेरे चैतन्यतत्त्वको निहारनेकी परिणतिमें विशेष वृद्धिका कारण होगा ।
अचानक आ पड़े असत्संगमें तो स्वयं पुरुषार्थ रखकर अलग रहे, परन्तु स्वयं रसपूर्वक यदि असत्संग करेगा तो अपनी परिणति मन्द पड़ जायगी ।
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(आचार्यदेवकी) सीख है । निश्चय-व्यवहारकी संधि ही ऐसी है । इस प्रकार अपनी भूमिकानुसार सबको समझ लेना है ।।२२९।।
आत्मा तो आश्चर्यकारी चैतन्यमूर्ति ! प्रथम उसे चारों ओरसे पहिचानकर, पश्चात् नय-प्रमाणादिके पक्ष छोड़कर अंतरमें स्थिर हो जाना । तब अंतरसे ही मुक्त स्वरूप प्रगट होगा । स्वरूपमें स्थिर हुए ज्ञानी ही साक्षात् अतीन्द्रिय आनन्दामृतका अनुभव करते हैं — ‘त एव साक्षात् अमृतं पिबन्ति’ ।।२३०।।
आत्माके गुण गाते-गाते गुणी हो गया — भगवान हो गया; असंख्य प्रदेशोंमें अनंत गुणरत्नोंके कमरे सब खुल गये ।।२३१।।
ज्ञाताका ध्यान करते-करते आत्मा ज्ञानमय हो गया, ध्यानमय हो गया — एकाग्रतामय हो गया ।
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अंदर चैतन्यके नन्दनवनमें उसे सब कुछ मिल गया; अब बाहर क्यों जाये? ग्रहण करने योग्य आत्माको ग्रहण कर लिया, छोड़ने योग्य सब छूट गया; अब किसलिये बाहर जाये ? २३२।।
अंदरसे ज्ञान एवं आनन्द असाधारणरूपसे पूर्ण प्रगट हुए उसे अब बाहरसे क्या लेना बाकी रहा ? निर्विकल्प हुए सो हुए, बाहर आते ही नहीं ।।२३३।।
मुझे अभी बहुत करना बाकी है — ऐसा माननेवालेको ही आगे बढ़नेका अवकाश रहता है । अनंत कालमें ‘मुझे आत्माका कल्याण करना है’ ऐसे परिणाम जीवने अनेकों बार किये, परन्तु विविध शुभ भाव करके उनमें सर्वस्व मानकर वहाँ संतुष्ट हो गया । कल्याण करनेकी सच्ची विधि नहीं जानी ।।२३४।।
स्वतःसिद्ध वस्तुका स्वभाव वस्तुसे प्रतिकूल क्यों होगा ? वस्तुका स्वभाव तो वस्तुके अनुकूल ही होता
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है, प्रतिकूल हो ही नहीं सकता । स्वतःसिद्ध वस्तु स्वयं अपनेको दुःखरूप हो ही नहीं सकती ।।२३५।।
मलिनता टिकती नहीं है और मलिनता रुचती नहीं है; इसलिये मलिनता वस्तुका स्वभाव हो ही नहीं सकता ।।२३६।।
हे आत्मा ! यदि तुझे विभावसे छूटकर मुक्त दशा प्राप्त करनी हो तो चैतन्यके अभेद स्वरूपको ग्रहण कर । द्रव्यद्रष्टि सर्व प्रकारकी पर्यायको दूर रखकर एक निरपेक्ष सामान्य स्वरूपको ग्रहण करती है; द्रव्यद्रष्टिके विषयमें गुणभेद भी नहीं होते । ऐसी शुद्ध द्रष्टि प्रगट कर ।
ऐसी द्रष्टिके साथ वर्तता हुआ ज्ञान वस्तुमें विद्यमान गुणों तथा पर्यायोंको, अभेद तथा भेदको, विविध प्रकारसे जानता है । लक्षण, प्रयोजन इत्यादि अपेक्षासे गुणोंमें भिन्नता है और वस्तु-अपेक्षासे अभेद है ऐसा ज्ञान जानता है । ‘इस आत्माकी यह पर्याय प्रगट हुई, यह सम्यग्दर्शन हुआ, यह मुनिदशा हुई,
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यह केवलज्ञान हुआ’ — इस प्रकार सब महिमावन्त पर्यायोंको तथा अन्य सर्व पर्यायोंको ज्ञान जानता है । ऐसा होने पर भी शुद्ध द्रष्टि (सामान्यके सिवा) किसी प्रकारमें नहीं रुकती ।
साधक जीवको भूमिकानुसार देव-गुरुकी महिमाके, श्रुतचिन्तवनके, अणुव्रत-महाव्रतके इत्यादि विकल्प होते हैं, परन्तु वे ज्ञायकपरिणतिको भाररूप हैं क्योंकि स्वभावसे विरुद्ध हैं । अपूर्ण दशामें वे विकल्प होते हैं; स्वरूपमें एकाग्र होने पर, निर्विकल्प स्वरूपमें निवास होने पर, वे सब छूट जाते हैं । पूर्ण वीतराग दशा होने पर सर्व प्रकारके रागका क्षय होता है ।
— ऐसी साधकदशा प्रगट करने योग्य है ।।२३७।।
यदि तुझे अपना परिभ्रमण मिटाना हो तो अपने द्रव्यको तीक्ष्ण बुद्धिसे पहिचान ले । यदि द्रव्य तेरे हाथमें आ गया तो तुझे मुक्ति की पर्याय सहज ही प्राप्त हो जायगी ।।२३८।।
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शुभका व्यवहार भी असार है, उसमें रुकने जैसा नहीं है । कोई मनुष्य नगरका ध्येय बनाकर चलने लगे तो बीच-बीचमें ग्राम, खेत, वृक्षादि सब आते हैं, परन्तु वह सब छोड़ता जाता है; उसी प्रकार साधकको यह शुभादिका व्यवहार बीचमें आता है परन्तु साध्य तो पूर्ण शुद्धात्मा ही है । इसलिये वह व्यवहारको छोड़ता हुआ पूर्ण शुद्धात्मस्वरूपमें ही पहुँच जाता है ।।२३९।।
अरे जीव ! अनन्त-अनन्त काल बीत गया, तूने परका तो कभी कुछ किया ही नहीं; अंतरमें शुभाशुभ विकल्प करके जन्म-मरण किये हैं । अब अनंत गुणोंका पिण्ड ऐसा जो निज शुद्धात्मा उसे बराबर समझकर, उसीमें तीक्ष्ण द्रष्टि करके, प्रयाण कर; उसीका श्रद्धान, उसकी अनुभूति, उसीमें विश्राम कर ।।२४०।।
ओहो ! यह तो भगवान आत्मा ! सर्वांग सहजानन्दकी मूर्ति ! जहाँसे देखो वहाँ आनन्द,
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आनन्द और आनन्द । जैसे मिश्रीमें सर्वांग मिठास वैसे ही आत्मामें सर्वांग आनन्द ।।२४१।।
चैतन्यदेवकी ओट ले, उसकी शरणमें जा; तेरे सब कर्म टूटकर नष्ट हो जायँगे । चक्रवर्ती मार्गसे निकले तो अपराधी लोग काँप उठते हैं, फि र यह तो तीन लोकका बादशाह — चैतन्यचक्रवर्ती ! उसके समक्ष जड़कर्म खड़े ही कैसे रह सकते हैं ? २४२।।
ज्ञायक आत्मा नित्य एवं अभेद है; द्रष्टिके विषयभूत ऐसे उसके स्वरूपमें अनित्य शुद्धाशुद्ध पर्यायें या गुणभेद कुछ हैं ही नहीं । प्रयोजनकी सिद्धिके लिये यही परमार्थ-आत्मा है । उसीके आश्रयसे धर्म प्रगट होता है ।।२४३।।
ओहो ! आत्मा तो अनन्त विभूतियोंसे भरपूर, अनंत गुणोंकी राशि, अनंत गुणोंका विशाल पर्वत है ! चारों ओर गुण ही भरे हैं । अवगुण एक भी नहीं ब. व. ७
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है । ओहो ! यह मैं ? ऐसे आत्माके दर्शनके लिये जीवने कभी सच्चा कौतूहल ही नहीं किया ।।२४४।।
‘मैं मुक्त ही हूँ । मुझे कुछ नहीं चाहिये । मैं तो परिपूर्ण द्रव्यको पकड़कर बैठा हूँ ।’ — इस प्रकार जहाँ अंतरमें निर्णय करता है, वहाँ अनंत विभूति अंशतः प्रगट हो जाती है ।।२४५।।
आयुधशालामें चक्ररत्न प्रगट हुआ हो, फि र चक्रवर्ती आरामसे बैठा नहीं रहता, छह खण्डको साधने जाता है; उसी प्रकार यह चैतन्यचक्रवर्ती जागृत हुआ, सम्यग्दर्शनरूपी चक्ररत्न प्राप्त हुआ, अब तो अप्रमत्त भावसे केवलज्ञान ही लेगा ।।२४६।।
आत्मसाक्षात्कार ही अपूर्व दर्शन है । अनंत कालमें न हुआ हो ऐसा, चैतन्यतत्त्वमें जाकर जो दिव्य दर्शन हुआ, वही अलौकिक दर्शन है । सिद्धदशा तककी सर्व लब्धियाँ शुद्धात्मानुभूतिमें
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जाकर मिलती हैं ।।२४७।।
विश्वका अद्भुत तत्त्व तू ही है । उसके अंदर जाने पर तेरे अनंत गुणोंका बगीचा खिल उठेगा । वहीं ज्ञान मिलेगा, वहीं आनन्द मिलेगा; वहीं विहार कर । अनंत कालका विश्राम वहीं है ।।२४८।।
तू अंतरमें गहरे-गहरे उतर जा, तुझे निज परमात्माके दर्शन होंगे । वहाँसे बाहर आना तुझे सुहायगा ही नहीं ।।२४९।।
मुनियोंको अंतरमें पग-पग पर — पुरुषार्थकी पर्याय-पर्यायमें — पवित्रता झरती है ।।२५०।।
द्रव्य उसे कहते हैं जिसके कार्यके लिये दूसरे साधनोंकी राह न देखना पड़े ।।२५१।।
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भेदज्ञानके लक्षसे विकल्पात्मक भूमिकामें आगमका चिंतवन मुख्य रखना । विशेष शास्त्रज्ञान मार्गकी चतुर्दिशा सूझनेका कारण बनता है; वह सत्-मार्गको सुगम बनाता है ।।२५२।।
आत्माको तीन कालकी प्रतीति करनेके लिये ऐसे विकल्प नहीं करना पड़ते कि ‘मैं भूतकालमें शुद्ध था, वर्तमानमें शुद्ध हूँ, भविष्यमें शुद्ध रहूँगा’; परन्तु वर्तमान एक समयकी प्रतीतिमें तीनों कालकी प्रतीति समा जाती है — आ जाती है ।।२५३।।
जिस प्रकार जीवको अपनेमें होनेवाले सुख- दुःखका वेदन होता है वह किसीसे पूछने नहीं जाना पड़ता, उसी प्रकार अपनेको स्वानुभूति होती है वह किसीसे पूछना नहीं पड़ता ।।२५४।।
अंतरका अपरिचित मार्ग; अंतरमें क्या घटमाल चलती है उसका आगम एवं गुरुकी वाणीसे ही निर्णय
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किया जा सकता है । भगवानकी स्याद्वाद-वाणी ही तत्त्वका प्रकाशन कर सकती है । जिनेन्द्रवाणी और गुरुवाणीका अवलम्बन साथ रखना; तभी तू साधनाके डग भर सकेगा ।।२५५।।
साधकदशाकी साधना ऐसी कर कि जिससे तेरा साध्य पूरा हो । साधकदशा भी अपना मूल स्वभाव तो है नहीं । वह भी प्रयत्नरूप अपूर्ण दशा है, इसलिये वह अपूर्ण दशा भी रखने योग्य तो है ही नहीं ।।२५६।।
शुद्ध द्रव्यस्वभावकी द्रष्टि करके तथा अशुद्धताको ख्यालमें रखकर तू पुरुषार्थ करना, तो मोक्ष प्राप्त होगा ।।२५७।।
तू विचार कर, तेरे लिये दुनियामें एक आत्माके सिवा और कौन आश्चर्यकारी वस्तु है ? — कोई नहीं । जगतमें तूने सब प्रकारके प्रयास किये, सब देखा, सब
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किया, परन्तु एक ज्ञानस्वरूप, सुखस्वरूप, अनंतगुणमय ऐसे आत्माको कभी पहिचाना नहीं, उसे पहिचान । बस, वही एक करना बाकी रह जाता है ।।२५८।।
किसी प्रकारकी प्रवृत्तिमें खड़ा रहना वह आत्माका स्वभाव नहीं है । एक आत्मामें ही रहना वह हितकारी, कल्याणकारी और सर्वस्व है ।।२५९।।
शुद्धात्माको जाने बिना भले ही क्रियाके ढेर लगा दे, परन्तु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता; ज्ञानसे ही आत्मा जाना जा सकता है ।।२६०।।
द्रष्टि पूर्ण आत्मा पर रखकर तू आगे बढ़ तो सिद्ध भगवान जैसी दशा हो जायगी । यदि स्वभावमें अधूरापन मानेगा तो पूर्णताको कभी प्राप्त नहीं कर सकेगा । इसलिये तू अधूरा नहीं, पूर्ण है — ऐसा मान ।।२६१।।
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द्रव्य सूक्ष्म है; इसलिये उपयोगको सूक्ष्म कर तो सूक्ष्म द्रव्य पकड़में आयगा । सूक्ष्म द्रव्यको पकड़कर आरामसे आत्मामें बैठना वह विश्राम है ।।२६२।।
साधना करनेवालेको कोई स्पृहा नहीं होती । मुझे दूसरा कुछ नहीं चाहिये, एक आत्मा ही चाहिये । इस क्षण वीतरागता होती हो तो दूसरा कुछ ही नहीं चाहिये; परन्तु अंतरमें नहीं रहा जाता, इसलिये बाहर आना पड़ता है । अभी केवलज्ञान होता हो तो बाहर ही न आयें ।।२६३।।
तेरे चित्तमें जब तक दूसरा रंग समाया है, तब तक आत्माका रंग नहीं लग सकता । बाहरका सारा रस छूट जाय तो आत्मा — ज्ञायकदेव प्रगट होता है । जिसे गुणरत्नोंसे गुँथा हुआ आत्मा मिल जाय, उसे इन तुच्छ विभावोंसे क्या प्रयोजन ? २६४।।
आत्मा जाननेवाला है, सदा जागृतस्वरूप ही है ।
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जागृतस्वरूप ऐसे आत्माको पहिचाने तो पर्यायमें भी जागृति प्रगट हो । आत्मा जागती ज्योति है, उसे जान ।।२६५।।
यदि तुझे जन्म-मरणका नाश करके आत्माका कल्याण करना हो तो इस चैतन्यभूमिमें खड़ा रहकर तू पुरुषार्थ कर; तेरे जन्म-मरणका नाश हो जायगा । आचार्यदेव करुणापूर्वक कहते हैं : — तू मुक्त स्वरूप आत्मामें निस्पृहतासे खड़ा रह । मोक्षकी स्पृहा और चिन्तासे भी मुक्त हो । तू स्वयमेव सुखरूप हो जायगा । तेरे सुखके लिये हम यह मार्ग बतला रहे हैं। बाहरके व्यर्थ प्रयत्नसे सुख नहीं मिलेगा ।।२६६।।
ज्ञानी द्रव्यके आलम्बनके बलसे, ज्ञानमें निश्चय- व्यवहारकी मैत्रीपूर्वक, आगे बढ़ता जाता है और चैतन्य स्वयं अपनी अद्भुततामें समा जाता है ।।२६७।।
बाह्य रोग आत्माकी साधक दशाको नहीं रोक
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सकते, आत्माकी ज्ञातृत्वधाराको नहीं तोड़ सकते । पुद्गलपरिणतिरूप उपसर्ग कहीं आत्मपरिणतिको नहीं बदल सकते ।।२६८।।
अहो ! देव-शास्त्र-गुरु मंगल हैं, उपकारी हैं । हमें तो देव-शास्त्र-गुरुका दासत्व चाहिये ।
पूज्य कहानगुरुदेवसे तो मुक्ति का मार्ग मिला है । उन्होंने चारों ओरसे मुक्ति का मार्ग प्रकाशित किया है । गुरुदेवका अपार उपकार है । वह उपकार कैसे भूला जाय ?
गुरुदेवका द्रव्य तो अलौकिक है । उनका श्रुतज्ञान और वाणी आश्चर्यकारी है ।
परम-उपकारी गुरुदेवका द्रव्य मंगल है, उनकी अमृतमयी वाणी मंगल है । वे मंगलमूर्ति हैं, भवोदधितारणहार हैं, महिमावन्त गुणोंसे भरपूर हैं ।
पूज्य गुरुदेवके चरणकमलकी भक्ति और उनका दासत्व निरंतर हो ।।२६९।।