Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 270-321.

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अपनी जिज्ञासा ही मार्ग बना लेती है । शास्त्र
साधन हैं, परन्तु मार्ग तो अपनेसे ही ज्ञात होता है ।
अपनी गहरी तीव्र रुचि और सूक्ष्म उपयोगसे मार्ग
ज्ञात होता है । कारण देना चाहिये ।।२७०।।
जिसकी जिसे तन्मयतासे लगन हो उसे वह नहीं
भूलता । ‘यह शरीर सो मैं’ वह नहीं भूलता । नींदमें
भी शरीरके नामसे बुलाये तो उत्तर देता है, क्योंकि
शरीरके साथ तन्मयताकी मान्यताका अनादि अभ्यास
है । अनभ्यस्त ज्ञायकके अन्दर जानेके लिये सूक्ष्म
होना पड़ता है, धीर होना पड़ता है, स्थिर होना
पड़ता है; वह कठिन लगता है । बाह्य कार्योंका
अभ्यास है इसलिये सरल लगते हैं । लेकिन जब भी
कर तब तुझे ही करना है ।।२७१।।
जो खूब थका हुआ है, द्रव्यके सिवा जिसे कुछ
चाहिये ही नहीं, जिसे आशा-पिपासा छूट गई है, द्रव्यमें
जो हो वही जिसे चाहिये, वह सच्चा जिज्ञासु है ।
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द्रव्य जो कि शान्तिमय है वही मुझे चाहिये
ऐसी निस्पृहता आये तो द्रव्यमें गहरा जाये और सब
पर्याय प्रगट हो ।।२७२।।
गुरुके हितकारी उपदेशके तीक्ष्ण प्रहारोंसे सच्चे
मुमुक्षुका आत्मा जाग उठता है और ज्ञायककी रुचि
प्रगट होती है, बारम्बार चेतनकी ओरज्ञायककी
ओर झुकाव होता है । जैसे भक्त को भगवान
मुश्किलसे मिले हों तो उन्हें छोड़ना अच्छा नहीं
लगता, उसी प्रकार ‘हे चेतन’, ‘हे ज्ञायक’ऐसा
बारम्बार अंतरमें होता रहता है, उसी ओर रुचि बनी
रहती है; ‘चलते-फि रते प्रभुकी याद आये रे’ऐसा
बना रहता है ।।२७३।।
अनंत कालमें चैतन्यकी महिमा नहीं आयी,
विभावकी तुच्छता नहीं लगी, परसे और विभावसे
विरक्त ता नहीं हुई, इसलिये मार्ग नहीं मिला ।।२७४।।
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पंचम काल है इसलिये बाहर फे रफार होता है,
परन्तु जिसे आत्माका कल्याण करना है उसे काल
बाधक नहीं होता ।।२७५।।
‘शुभाशुभ भावसे भिन्न, मैं ज्ञायक हूँ’ यह प्रत्येक
प्रसंगमें याद रखना । भेदज्ञानका अभ्यास करना ही
मनुष्यजीवनकी सार्थकता है ।।२७६।।
परसे विरक्त ता नहीं है, विभावकी तुच्छता नहीं
लगती, अंतरमें इतनी उत्कंठा नहीं है; फि र कार्य
कहाँसे हो ? अंतरमें उत्कंठा जागृत हो तो कार्य हुए
बिना रहता ही नहीं । स्वयं आलसी हो गया है ।
‘करूँगा, करूँगा’ कहता है परन्तु करता नहीं है । कोई
तो ऐसे आलसी होते हैं कि सोते हों तो बैठते नहीं
हैं, और बैठे हों तो खड़े होनेमें आलस्य करते हैं;
उसी प्रकार उत्कंठारहित आलसी जीव ‘कल करूँगा,
कल करूँगा’ ऐसे मन्दरूप वर्तते हैं; वहाँ कलकी आज
नहीं होती और जीवन समाप्त हो जाता है ।।२७७।।
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जैसे किसीको ग्रीष्मऋतुमें पर्वतके शिखर पर
अधिक ताप और तीव्र तृषा लगी हो, उस समय
पानीकी एक बूँदकी ओर भी उसका लक्ष जाता है
और वह उसे लेनेको दौड़ता है, उसी प्रकार जिस
जीवको संसारका ताप लगा हो और सत्की तीव्र
पिपासा जागी हो, वह सत्की प्राप्तिके लिये उग्र प्रयत्न
करता है । वह आत्मार्थी जीव ‘ज्ञान’लक्षण द्वारा
ज्ञायक आत्माकी प्रतीति करके अंतरसे उसके
अस्तित्वको ख्यालमें ले, तो उसे ज्ञायक तत्त्व प्रगट
हो ।।२७८।।
विचार, मंथन सब विकल्परूप ही है । उससे भिन्न
विकल्पातीत एक स्थायी ज्ञायक तत्त्व सो आत्मा है ।
उसमें ‘यह विकल्प तोड़ दूँ, यह विकल्प तोड़ दूँ’ वह
भी विकल्प ही है; उसके उस पार भिन्न ही
चैतन्यपदार्थ है । उसका अस्तिपना ख्यालमें आये, ‘मैं
भिन्न हूँ, यह मैं ज्ञायक भिन्न हूँ’ ऐसा निरंतर घोटन
रहे, वह भी अच्छा है । पुरुषार्थकी उग्रता तथा उस
प्रकारका आरंभ हो तो मार्ग निकलता ही है । पहले
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विकल्प नहीं टूटता परन्तु पहले पक्का निर्णय आता
है ।।२७९।।
वास्तवमें जिसे स्वभाव रुचे, अंतरकी जागृति
हो, उसे बाहर आना सुहाता ही नहीं । स्वभाव
शान्ति एवं निवृत्तिरूप है, शुभाशुभ विभावभावोंमें
आकुलता और प्रवृत्ति है; उन दोनोंका मेल ही नहीं
बैठता ।।२८०।।
बाहरके सब कार्योंमें सीमामर्यादा होती है ।
अमर्यादित तो अन्तर्ज्ञान और आनन्द है । वहाँ
सीमामर्यादा नहीं है । अंतरमेंस्वभावमें मर्यादा
नहीं होती । जीवको अनादि कालसे जो बाह्य वृत्ति
है उसकी यदि मर्यादा न हो तब तो जीव कभी उससे
विमुख ही न हो, सदा बाह्यमें ही रुका रहे ।
अमर्यादित तो आत्मस्वभाव ही है । आत्मा अगाध
शक्ति से भरा है ।।२८१।।
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यह जो बाह्य लोक है उससे चैतन्यलोक पृथक्
ही है । बाह्यमें लोग देखते हैं कि ‘इन्होंने ऐसा
किया, ऐसा किया’, परन्तु अंतरमें ज्ञानी कहाँ रहते
हैं, क्या करते हैं, वह तो ज्ञानी स्वयं ही जानते हैं ।
बाहरसे देखनेवाले मनुष्योंको ज्ञानी बाह्यमें कुछ
क्रियाएँ करते या विकल्पोंमें पड़ते दिखाई देते हैं,
परन्तु अंतरमें तो वे कहीं चैतन्यलोककी गहराईमें
विचरते हैं ।।२८२।।
द्रव्य तो अनंत शक्ति का स्वामी है, महान है, प्रभु
है । उसके सामने साधककी पर्याय अपनी पामरता
स्वीकार करती है । साधकको द्रव्य-पर्यायमें प्रभुता
और पामरताका ऐसा विवेक वर्तता है ।।२८३।।
साधक दशा तो अधूरी है । साधकको जब तक
पूर्ण वीतरागता न हो, और चैतन्य आनन्दधाममें
पूर्णरूपसे सदाके लिये विराजमान न हो जाय, तब
तक पुरुषार्थकी धारा तो उग्र ही होती जाती है ।
केवलज्ञान होने पर एक समयका उपयोग होता है
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और वह एक समयकी ज्ञानपर्याय तीन काल एवं तीन
लोकको जान लेती है ।।२८४।।
स्वयं परसे और विभावसे भिन्नताका विचार करना
चाहिये । एकताबुद्धि तोड़ना वह मुख्य है । प्रतिक्षण
एकत्वको तोड़नेका अभ्यास करना चाहिये ।।२८५।।
यह तो अनादिका प्रवाह मोड़ना है । कार्य कठिन
तो है, परन्तु स्वयं ही करना है। बाह्य आधार किस
कामका ? आधार तो अपने आत्मतत्त्वका लेना
है ।।२८६।।
द्रव्य सदा निर्लेप है । पर्यायमें सबसे निर्लेप रहने
जैसा है । कहीं खेद नहीं करना, खिंचना नहींकहीं
अधिक राग नहीं करना ।।२८७।।
वस्तु सूक्ष्म है, उपयोग स्थूल हो गया है । सूक्ष्म
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वस्तुको पकड़नेके लिये सूक्ष्म उपयोगका प्रयत्न
कर ।।२८८।।
चैतन्यकी गहरी भावना तो अन्य भवमें भी
चैतन्यके साथ ही आती है । आत्मा तो शाश्वत पदार्थ
है न ? ऊपरी विचारोंमें नहीं परन्तु अंतरमें मंथन
करके तत्त्वविचारपूर्वक गहरे संस्कार डाले होंगे तो वे
साथ आयँगे ।
‘‘तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।।’’’’
जिस जीवने प्रसन्नचित्तसे इस चैतन्यस्वरूप
आत्माकी बात भी सुनी है, वह भव्य पुरुष
भविष्यमें होनेवाली मुक्ति का अवश्य भाजन होता
है ।।२८९।।
आत्मा ज्ञानप्रधान अनंत गुणोंका पिण्ड है । उसके
साथ अंतरमें तन्मयता करना वही कर्तव्य है ।
वस्तुस्वरूपको समझकर ‘मैं तो ज्ञायक हूँ’ ऐसी लगन
ब. व. ८
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लगाये तो ज्ञायकके साथ तदाकारता हो ।।२९०।।
जिनेन्द्रमन्दिर, जिनेन्द्रप्रतिमा मंगलस्वरूप हैं; तो
फि र समवसरणमें विराजमान साक्षात् जिनेन्द्रभगवानकी
महिमा और उनके मंगलपनेका क्या कहना ! सुरेन्द्र भी
भगवानके गुणोंकी महिमाका वर्णन नहीं कर सकते,
तब दूसरे तो क्या कर सकेंगे ? २९१।।
जिस समय ज्ञानीकी परिणति बाहर दिखायी दे
उसी समय उन्हें ज्ञायक भिन्न वर्तता है । जैसे
किसीको पड़ौसीके साथ बड़ी मित्रता हो, उसके घर
जाता-आता हो, परन्तु वह पड़ौसीको अपना नहीं मान
लेता, उसी प्रकार ज्ञानीको विभावमें कभी
एकत्वपरिणमन नहीं होता । ज्ञानी सदा कमलकी
भाँति निर्लेप रहते हैं, विभावसे भिन्नरूप ऊपर-ऊपर
तैरते रहते हैं ।।२९२।।
ज्ञानीको तो ऐसी ही भावना होती है कि इस
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समय पुरुषार्थ चले तो इसी समय मुनि होकर
केवलज्ञान प्राप्त कर लें । बाहर आना पड़े वह अपनी
निर्बलताके कारण है ।।२९३।।
ज्ञानीको ‘मैं ज्ञायक हूँ’ ऐसी धारावाही परिणति
अखण्डित रहती है । वे भक्ति -शास्त्रस्वाध्याय आदि
बाह्य प्रसंगोंमें उल्लासपूर्वक भाग लेते दिखायी देते
हैं तब भी उनकी ज्ञायकधारा तो अखण्डितरूपसे
अंतरमें भिन्न ही कार्य करती रहती है ।।२९४।।
यद्यपि द्रष्टि-अपेक्षासे साधकको किसी पर्यायका
या गुणभेदका स्वीकार नहीं है तथापि उसे स्वरूपमें
स्थिर हो जानेकी भावना तो वर्तती है । रागांशरूप
बहिर्मुखता उसे दुःखरूपसे वेदनमें आती है और
वीतरागता-अंशरूप अंतर्मुखता सुखरूपसे वेदनमें
आती है । जो आंशिक बहिर्मुख वृत्ति वर्तती हो
उससे साधक न्याराका न्यारा रहता है । आँखमें
किरकिरी नहीं समाती उसी प्रकार चैतन्यपरिणतिमें
विभाव नहीं समाता । यदि साधकको बाह्यमें
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प्रशस्त-अप्रशस्त रागमेंदुःख न लगे और अंतरमें
वीतरागतामेंसुख न लगे तो वह अंतरमें क्यों
जाये ? कहीं रागके विषयमें ‘राग आग दहै’ ऐसा
कहा हो, कहीं प्रशस्त रागको ‘विषकुम्भ’ कहा हो,
चाहे जिस भाषामें कहा हो, सर्वत्र भाव एक ही है
किविभावका अंश वह दुःखरूप है । भले ही
उच्चमें उच्च शुभभावरूप या अतिसूक्ष्म रागरूप प्रवृत्ति
हो तथापि जितनी प्रवृत्ति उतनी आकुलता है और
जितना निवृत्त होकर स्वरूपमें लीन हुआ उतनीहुआ उतनी
शान्ति एवं स्वरूपानन्द है ।।२९५।।
द्रव्य तो सूक्ष्म है, उसे पकड़नेके लिये सूक्ष्म
उपयोग कर । पातालकुएँकी भाँति द्रव्यमें गहराई तक
उतर जा तो अंतरसे विभूति प्रगट होगी । द्रव्य
आश्चर्यकारी है ।।२९६।।
तेरा कार्य तो तत्त्वानुसारी परिणमन करना है ।
जड़के कार्य तेरे नहीं हैं । चेतनके कार्य चेतन होते
हैं । वैभाविक कार्य भी परमार्थसे तेरे नहीं हैं ।

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जीवनमें ऐसा ही घुट जाना चाहिये कि जड़ और
विभाव वे पर हैं, मैं वह नहीं हूँ ।।२९७।।
ज्ञानी जीव निःशंक तो इतना होता है कि सारा
ब्रह्माण्ड उलट जाये तब भी स्वयं नहीं पलटता;
विभावके चाहे जितने उदय आयें तथापि चलित नहीं
होता । बाहरके प्रतिकूल संयोगसे ज्ञायकपरिणति नहीं
बदलती; श्रद्धामें फे र नहीं पड़ता । पश्चात् क्रमशः
चारित्र बढ़ता जाता है ।।२९८।।
वस्तु स्वतःसिद्ध है । उसका स्वभाव उसके
अनुकूल होता है, प्रतिकूल नहीं । स्वतःसिद्ध आत्म-
वस्तुका दर्शनज्ञानरूप स्वभाव उसे अनुकूल है, राग-
द्वेषरूप विभाव प्रतिकूल है ।।२९९।।
परिभ्रमण करते अनंत काल बीत गया । उस
अनंत कालमें जीवने ‘आत्माका करना है’ ऐसी
भावना तो की परन्तु तत्त्वरुचि और तत्त्वमंथन नहीं
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किया । रुचनेमें तो एक आत्मा ही रुचे ऐसा जीवन
बना लेना चाहिए ।।३००।।
जीव राग और ज्ञानकी एकतामें उलझ गया है ।
निज अस्तित्वको पकड़े तो उलझन निकल जाये । ‘मैं
ज्ञायक हूँ’ ऐसा अस्तित्व लक्षमें आना चाहिये ।
‘ज्ञायकके अतिरिक्त अन्य सब पर है’ ऐसा उसमें आ
जाता है ।।३०१।।
ज्ञानीको संसारका कुछ नहीं चाहिये; वे संसारसे
भयभीत हैं । वे संसारसे विमुख होकर मोक्षके मार्ग
पर चल रहे हैं । स्वभावमें सुभट हैं, अंतरसे निर्भय
हैं, किसीसे डरते नहीं हैं । किसी उपसर्गका भय
नहीं है । मुझमें किसीका प्रवेश नहीं हैऐसे
निर्भय हैं । विभावको तो काले नागकी भाँति छोड़
दिया है ।।३०२।।
सम्यग्द्रष्टिको अखण्ड तत्त्वका आश्रय है, अखण्ड
परसे द्रष्टि छूट जाये तो साधकपना ही न रहे । द्रष्टि
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तो अंतरमें है । चारित्रमें अपूर्णता है । वह बाहर
खड़ा दिखायी दे परन्तु द्रष्टि तो स्वमें ही है ।।३०३।।
भगवानकी प्रतिमा देखकर ऐसा लगे कि अहा !
भगवान कैसे स्थिर हो गये हैं ! कैसे समा गये हैं !
चैतन्यका प्रतिबिम्ब है ! तू ऐसा ही है ! जैसे
भगवान पवित्र हैं, वैसा ही तू पवित्र है, निष्क्रिय
है, निर्विकल्प है । चैतन्यके सामने सब कुछ पानी
भरता है ।।३०४।।
तू अपनेको देख; जैसा तू है वैसा ही तू प्रगट
होगा । तू महान देवाधिदेव है; उसकी प्रगटताके
लिये उग्र पुरुषार्थ एवं सूक्ष्म उपयोग कर ।।३०५।।
रुचिका पोषण और तत्त्वका मंथन चैतन्यके साथ
एकाकार हो जाय तो कार्य होता ही है । अनादिके
अभ्याससे विभावमें ही प्रेम लगा है उसे छोड़ ।
जिसे आत्मा रुचता है उसे दूसरा नहीं रुचता और
उससे आत्मा गुप्तअप्राप्य नहीं रहता । जागता
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जीव विद्यमान है वह कहाँ जायगा ? अवश्य प्राप्त
होगा ही ।।३०६।।
तत्त्वका उपदेश असिधारा समान है; तदनुसार
परिणमित होने पर मोह भाग जाता है ।।३०७।।
द्रव्य-गुण-पर्यायमें सारे ब्रह्माण्डका तत्त्व आ जाता
है । ‘प्रत्येक द्रव्य अपने गुणोंमें रहकर स्वतंत्ररूपसे
अपनी पर्यायरूप परिणमित होता है’, ‘पर्याय द्रव्यको
पहुँचती है, द्रव्य पर्यायको पहुँचता है’ऐसी-ऐसी
सूक्ष्मताको यथार्थरूपसे लक्षमें लेने पर मोह कहाँ खड़ा
रहेगा ? ३०८।।
बकरियोंकी टोलीमें रहनेवाला पराक्रमी सिंहका
बच्चा अपनेको बकरीका बच्चा मान ले, परन्तु
सिंहको देखने पर और उसकी गर्जना सुनने पर ‘मैं
तो इस जैसा सिंह हूँ’ ऐसा समझ जाता है और
सिंहरूपसे पराक्रम प्रगट करता है, उसी प्रकार पर
और विभावके बीच रहनेवाले इस जीवने अपनेको
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पर एवं विभावरूप मान लिया है, परन्तु जीवका
मूल स्वरूप बतलानेवाली गुरुकी वाणी सुनने पर
वह जाग उठता है‘मैं तो ज्ञायक हूँ’ ऐसा समझ
जाता है और ज्ञायकरूप परिणमित हो जाता
है ।।३०९।।
चैतन्यलोक अद्भुत है । उसमें ऋद्धिकी
न्यूनता नहीं है । रमणीयतासे भरे हुए इस
चैतन्यलोकमेंसे बाहर आना नहीं सुहाता । ज्ञानकी
ऐसी शक्ति है कि जीव एक ही समयमें इस निज
ऋद्धिको तथा अन्य सबको जान ले । वह अपने
क्षेत्रमें निवास करता हुआ जानता है; श्रम पड़े
बिना, खेद हुए बिना जानता है । अंतरमें रहकर
सब जान लेता है, बाहर झाँकने नहीं जाना
पड़ता ।।३१०।।
वस्तु तो अनादि-अनंत है । जो पलटता नहीं
हैबदलता नहीं है उस पर द्रष्टि करे, उसका ध्यान
करे, वह अपनी विभूतिका अनुभव करता है ।
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बाह्यके अर्थात् विभावके आनन्दसुखाभासके
साथ, बाहरकी किसी वस्तुके साथ उसका मेल नहीं
है । जो जानता है उसे अनुभवमें आता है । उसे
किसीकी उपमा लागू नहीं होती ।।३११।।
अनादि कालसे एकत्वपरिणमनमें सब एकमेक
हो रहा है, उसमेंसे ‘मैं मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ’ इस
प्रकार भिन्न होना है । गोसलियाके द्रष्टान्तकी भाँति
जीव विभावमें मिल गया है । जिस प्रकार
गोसलियाने अपनी कलाईमें बँधा हुआ डोरा
देखकर अपनेको भिन्न पहिचान लिया, उसी प्रकार
‘ज्ञानडोरा’की ओर यथार्थ लक्ष करके ‘मैं मात्र
ज्ञानस्वरूप हूँ’ इस प्रकार अपनेको भिन्न पहिचान
लेना है ।।३१२।।
मार्गमें चलते हुए यदि कोई सज्जन साथी हो तो
मार्ग सरलतासे कटता है । पंच परमेष्ठी सर्वोत्कृष्ट
साथी हैं । इस कालमें हमें गुरुदेव उत्तम साथी
मिले हैं । साथी भले हो, परन्तु मार्ग पर चलकर
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ध्येय तक पहुँचना तो अपनेको ही है ।।३१३।।
खण्डखण्डरूप ज्ञानका उपयोग भी परवशता है ।
परवश सो दुःखी और स्ववश सो सुखी है । शुद्ध
शाश्वत चैतन्यतत्त्वके आश्रयरूप स्ववशतासे शाश्वत
सुख प्रगट होता है ।।३१४।।
द्रव्यद्रष्टि शुद्ध अंतःतत्त्वका ही अवलम्बन करती
है । निर्मल पर्याय भी बहिःतत्त्व है, उसका अवलम्बन
द्रव्यद्रष्टिमें नहीं है ।।३१५।।
अपनी महिमा ही अपनेको तारती है । बाहरी
भक्ति -महिमासे नहीं परन्तु चैतन्यकी परिणतिमें
चैतन्यकी निज महिमासे तरा जाता है । चैतन्यकी
महिमावंतको भगवानकी सच्ची महिमा होती है ।
अथवा भगवानकी महिमा समझना वह निज चैतन्य-
महिमाको समझनेमें निमित्त होता है ।।३१६।।
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मुनिराज वंदना-प्रतिक्रमणादिमें लाचारीसे युक्त
होते हैं । केवलज्ञान नहीं होता इसलिये युक्त होना
पड़ता है । भूमिकानुसार वह सब आता है परन्तु
स्वभावसे विरुद्ध होनेके कारण उपाधिरूप लगता
है । स्वभाव निष्क्रिय है उसमेंसे मुनिराजको बाहर
आना नहीं सुहाता । जिसे जो कार्य न रुचे वह
कार्य उसे भाररूप लगता है ।।३१७।।
जीव अपनी लगनसे ज्ञायकपरिणतिको प्राप्त
करता है । मैं ज्ञायक हूँ, मैं विभावभावसे भिन्न हूँ,
किसी भी पर्यायमें अटकनेवाला मैं नहीं हूँ, मैं
अगाध गुणोंसे भरा हूँ, मैं ध्रुव हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं
परमपारिणामिकभाव हूँइस तरह, अनेक प्रकारके
विचार सम्यक् प्रतीतिकी लगनवाले आत्मार्थीको
आते हैं । परन्तु उनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली
सम्यक् प्रतीतिका तो एक ही प्रकार होता है ।
प्रतीतिके लिये होनेवाले विचारोंके सर्व प्रकारोंमें ‘मैं
ज्ञायक हूँ’ यह प्रकार मूलभूत है ।।३१८।।
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बहिनश्रीके वचनामृत
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विभावसे पृथक् होकर चैतन्यतत्त्वको ग्रहण
कर । यही करना है । पर्याय सन्मुख देखकर
पर्यायमें कुछ नहीं करना है । द्रव्यद्रष्टि करनेसे
पर्यायमें दर्शन-ज्ञान-चारित्र आ ही जायँगे । कुआँ
खोद तो पानी आयगा ही, लेने नहीं जाना पड़ेगा ।
चैतन्यपाताल फू टने पर शुद्ध पर्यायका प्रवाह अपने-
आप ही चलने लगेगा ।।३१९।।
चैतन्यकी धरती तो अनंत गुणरूपी बीजसे भरी,
उपजाऊ है । इस उपजाऊ धरतीको ज्ञान-ध्यानरूपी
पानीसे सींचने पर वह लहलहा उठेगी ।।३२०।।
पर्याय पर द्रष्टि रखनेसे चैतन्य प्रगट नहीं होता,
द्रव्यद्रष्टि करनेसे ही चैतन्य प्रगट होता है । द्रव्यमें
अनंत सामर्थ्य भरा है, उस द्रव्य पर द्रष्टि लगाओ ।
निगोदसे लेकर सिद्ध तककी कोई भी पर्याय शुद्ध
द्रष्टिका विषय नहीं है । साधकदशा भी शुद्ध द्रष्टिके
विषयभूत मूल स्वभावमें नहीं है । द्रव्यद्रष्टि करनेसे
ही आगे बढ़ा जा सकता है, शुद्ध पर्यायकी द्रष्टिसे