Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 322-356.

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बहिनश्रीके वचनामृत
भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता । द्रव्यद्रष्टिमें मात्र
शुद्ध अखण्ड द्रव्यसामान्यका ही स्वीकार होता
है ।।३२१।।
ज्ञानीकी द्रष्टि अखण्ड चैतन्यमें भेद नहीं करती ।
साथमें रहनेवाला ज्ञान विवेक करता है कि ‘यह
चैतन्यके भाव हैं, यह पर है’ । द्रष्टि अखण्ड
चैतन्यमें भेद करनेको खड़ी नहीं रहती । द्रष्टि ऐसे
परिणाम नहीं करती कि ‘इतना तो सही, इतनी
कचास तो है’ । ज्ञान सभी प्रकारका विवेक करता
है ।।३२२।।
जिसने शान्तिका स्वाद चख लिया हो उसे राग
नहीं पुसाता । वह परिणतिमें विभावसे दूर भागता
है । जैसे एक ओर बफ र्का ढेर हो और दूसरी ओर
अग्नि हो तो उन दोनोंके बीच खड़ा हुआ मनुष्य
अग्निसे दूर भागता हुआ बफ र्की ओर ढलता है,
उसी प्रकार जिसने थोड़ा भी सुखका स्वाद चखा
है, जिसे थोड़ी भी शान्तिका वेदन वर्त रहा है ऐसा

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ज्ञानी जीव दाहसे अर्थात् रागसे दूर भागता है एवं
शीतलताकी ओर ढलता है ।।३२३।।
जैसे एक रत्नका पर्वत हो और एक रत्नका कण
हो वहाँ कण तो नमूनेरूप है, पर्वतका प्रकाश और
उसका मूल्य अत्यधिक होता है; उसी प्रकार
केवलज्ञानकी महिमा श्रुतज्ञानकी अपेक्षा अत्यधिक
है । एक समयमें सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको
सम्पूर्णरूपसे जाननेवाले केवलज्ञानमें और अल्प
सामर्थ्यवाले श्रुतज्ञानमेंभले ही वह अंतर्मुहूर्तमें सर्व
श्रुत फे रनेवाले श्रुतकेवलीका श्रुतज्ञान हो तथापि
बहुत बड़ा अंतर है । जहाँ ज्ञान अनंत किरणोंसे
प्रकाशित हो उठा, जहाँ चैतन्यकी चमत्कारिक ऋद्धि
पूर्ण प्रगट हो गईऐसे पूर्ण क्षायिक ज्ञानमें और
खण्डात्मक क्षायोपशमिक ज्ञानमें अनन्तगुना अंतर
है ।।३२४।।
ज्ञानीको स्वानुभूतिके समय या उपयोग बाहर
आये तब द्रष्टि तो सदा अंतस्तल पर ही लगी रहती

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है । बाह्यमें एकमेक हुआ दिखायी दे तब भी वह
तो (द्रष्टि-अपेक्षासे) गहरी अंतर्गुफामेंसे बाहर
निकलता ही नहीं ।।३२५।।
जिसने तलको स्पर्श किया उसे बाहर सब थोथा
लगता है । चैतन्यके तलमें पहुँच गया वह
चैतन्यकी विभूतिमें पहुँच गया ।।३२६।।
देवलोकमें उच्च प्रकारके रत्न और महल हों उससे
आत्माको क्या ? कर्मभूमिके मनुष्य भोजन पकाकर
खाते हैं वहाँ भी आकुलता और देवोंके कण्ठमें अमृत
झरता है वहाँ भी आकुलता ही है । छह खण्डको
साधनेवाले चक्रवर्तीके राज्यमें भी आकुलता है ।
अंतरकी ऋद्धि न प्रगटे, शान्ति न प्रगटे, तो बाह्य
ऋद्धि और वैभव क्या शान्ति देंगे ? ३२७।।
मुनिदशाका क्या कहना ! मुनि तो प्रमत्त-
अप्रमत्तपनेमें सदा झूलनेवाले हैं ! उन्हें तो सर्वगुण-

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सम्पन्न कहा जा सकता है ! ३२८।।
मुनिराज बारम्बार निर्विकल्परूपसे चैतन्यनगरमें
प्रवेश करके अद्भुत ऋद्धिका अनुभव करते हैं । उस
दशामें, अनन्त गुणोंसे भरपूर चैतन्यदेव भिन्न-भिन्न
प्रकारकी चमत्कारिक पर्यायोंरूप तरंगोंमें एवं
आश्चर्यकारी आनन्दतरंगोंमें डोलता है । मुनिराज तथा
सम्यग्द्रष्टि जीवका यह स्वसंवेदन कोई और ही है,
वचनातीत है । वहाँ शून्यता नहीं है, जागृतरूपसे
अलौकिक ऋद्धिका अत्यन्त स्पष्ट वेदन है । तू वहाँ
जा, तुझे चैतन्यदेवके दर्शन होंगे ।।३२९।।
अहो ! मुनिराज तो निजात्मधाममें निवास करते
हैं । उसमें विशेष-विशेष एकाग्र होते-होते वे
वीतरागताको प्राप्त करते हैं ।
वीतरागता होनेसे उन्हें ज्ञानकी अगाध अद्भुत
शक्ति प्रगट होती है । ज्ञानका अंतर्मुहूर्तका स्थूल
उपयोग छूटकर एक समयका सूक्ष्म उपयोग हो जाता
है । वह ज्ञान अपने क्षेत्रमें रहकर सर्वत्र पहुँच जाता

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हैलोकालोकको जान लेता है, भूत-वर्तमान-
भविष्यकी सर्व पर्यायोंको क्रम पड़े बिना एक समयमें
वर्तमानवत् जानते हैं, स्वपदार्थ तथा अनन्त
परपदार्थोंकी तीनों कालकी पर्यायोंके अनंत-अनंत
अविभाग प्रतिच्छेदोंको एक समयमें प्रत्यक्ष जानते
हैं ।ऐसे अचिंत्य महिमावंत केवलज्ञानको वीतराग
मुनिराज प्राप्त करते हैं ।
केवलज्ञान प्रगट होने पर, जैसे कमल हजार
पंखुरियोंसे खिल उठता है तदनुसार, दिव्यमूर्ति
चैतन्यदेव अनंत गुणोंकी अनंत पंखुरियोंसे खिल
उठता है । केवलज्ञानी भगवान चैतन्यमूर्तिके ज्ञान-
आनन्दादि अनंत गुणोंकी पूर्ण पर्यायोंमें सादि-अनंत
केलि करते हैं; निजधामके भीतर शाश्वतरूपसे विराज
गये हैं, उसमेंसे कभी बाहर आते ही नहीं ।।३३०।।
कहीं रुके बिना ‘ज्ञायक हूँ’ इस प्रकार बारम्बार
श्रद्धा और ज्ञानमें निर्णय करनेका प्रयत्न करना ।
ज्ञायकका घोटन करते रहना ।।३३१।।

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एकान्तसे दुःखके बलसे अलग हो ऐसा नहीं है,
परन्तु द्रव्यद्रष्टिके बलसे अलग होता है । दुःख लगता
हो, सुहाता न हो, परन्तु आत्माको पहिचाने बिना
जाने बिना जाय कहाँ ? आत्माको जाना हो, उसका
अस्तित्व ग्रहण किया हो, तभी अलग होता है ।।३३२।।
चेतकर रहना । ‘मुझे आता है’ ऐसे जानकारीके
गर्वके मार्ग पर नहीं जाना । विभावके मार्ग पर तो
अनादिसे चल ही रहा है । वहाँसे रोकनेके लिये सिर
पर गुरु होना चाहिये । एक अपनी लगाम और दूसरी
गुरुकी लगाम हो तो जीव पीछे मुड़े ।
जानकारीके मानसे दूर रहना अच्छा है । बाह्य
प्रसिद्धिके प्रसंगोंसे दूर भागनेमें लाभ है । वे सब प्रसंग
निःसार हैं; सारभूत एक आत्मस्वभाव है ।।३३३।।
आत्मार्थीको श्री गुरुके सान्निध्यमें पुरुषार्थ सहज ही
होता है । मैं तो सेवक हूँयह द्रष्टि रहना चाहिये ।
‘मैं कुछ हूँ’ ऐसा भाव हो तो सेवकपना छूट जाता है ।
सेवक होकर रहनेमें लाभ है । सेवकपनेका भाव

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गुणसमुद्र आत्मा प्रगटनेका निमित्त होता है ।।३३४।।
बाहरके चाहे जैसे संयोगमें धर्मको नहीं छोड़ना,
चैतन्यके ओरकी रुचि नहीं छोड़ना । धर्म या रुचि
छूटी तो अमूल्य मनुष्यभव हार गये ।।३३५।।
कर्मोंके विविध विपाकमें ज्ञायकभाव चलित नहीं
होता । जिस प्रकार कीचड़में कमल निर्लेप रहता है,
उसी प्रकार चैतन्य भी चाहे जैसे कर्मसंयोगमें
निर्लेप रहता है ।।३३६।।
द्रव्यको ग्रहण करनेसे शुद्धता प्रगट हो,
चारित्रदशा प्रगट हो, परन्तु ज्ञानी उन पर्यायोंमें नहीं
रुकते । आत्मद्रव्यमें बहुत पड़ा है, बहुत भरा है,
उस आत्मद्रव्यके ऊपरसे ज्ञानीकी द्रष्टि नहीं हटती ।
यदि पर्यायमें रुकें, पर्यायमें चिपक जायँ, तो
मिथ्यात्वमें आ जायँ ।।३३७।।

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शुभभावमें श्रम पड़ता है, थकान लगती है;
क्योंकि वह आत्माका स्वभाव नहीं है । शुद्धभाव
आत्माका स्वाधीन स्वभाव होनेसे उसमें थकान नहीं
लगती । जितना स्वाधीन उतना सुख है । स्वभावके
सिवा सब दुःख ही है ।।३३८।।
यह तो गुत्थी सुलझाना है । चैतन्यडोरेमें
अनादिकी गुत्थी पड़ी है । सूतकी लच्छीमें गुत्थी पड़
गई हो उसे धैर्यपूर्वक सुलझाये तो सिरा हाथमें आये
और गुत्थी सुलझ जाय, उसी प्रकार चैतन्यडोरेमें पड़ी
हुई गुत्थीको धीरजसे सुलझाये तो गुत्थी दूर हो
सकती है ।।३३९।।
‘इसका करूँ, इसका करूँ’इस प्रकार तेरा
ध्यान बाह्यमें क्यों रुकता है ? इतना ध्यान तू अपनेमें
लगा दे ।।३४०।।
निज चेतनपदार्थके आश्रयसे अनंत अद्भुत

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आत्मिक विभूति प्रगट होती है । अगाध शक्ति मेंसे
क्या नहीं आता ? ३४१।।
अंतरमें तू अपने आत्माके साथ प्रयोजन रख और
बाह्यमें देव-शास्त्र-गुरुके साथ; बस, अन्यके साथ तुझे
क्या प्रयोजन है ?
जो व्यवहारसे साधनरूप कहे जाते हैं, जिनका
आलम्बन साधकको आये बिना नहीं रहताऐसे
देव-शास्त्र-गुरुके आलम्बनरूप शुभ भाव भी परमार्थसे
हेय हैं, तो फि र अन्य पदार्थ या अशुभ भावोंकी तो
बात ही क्या ? उनसे तुझे क्या प्रयोजन है ?
आत्माकी मुख्यतापूर्वक देव-शास्त्र-गुरुका
आलम्बन साधकको आता है । मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेवने भी कहा है कि ‘हे जिनेन्द्र ! मैं
किसी भी स्थान पर होऊँ, (परन्तु) पुनः पुनः आपके
पादपंकजकी भक्ति हो’ !ऐसे भाव साधकदशामें
आते हैं, और साथ ही साथ आत्माकी मुख्यता तो
सतत बनी ही रहती है ।।३४२।।

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अनंत जीव पुरुषार्थ करके, स्वभावरूप परिणमित
होकर, विभावको टालकर, सिद्ध हुए हैं; इसलिये यदि
तुझे सिद्धमण्डलीमें सम्मिलित होना हो तो तू भी
पुरुषार्थ कर ।
किसी भी जीवको पुरुषार्थ किये बिना तो भवान्त
होना ही नहीं है । वहाँ कोई जीव तो, जैसे घोड़ा
छलाँग मारता है वैसे, उग्र पुरुषार्थ करके त्वरासे
वस्तुको पहुँच जाता है, तो कोई जीव धीरे-धीरे
पहुँचता है ।
वस्तुको पाना, उसमें स्थिर रहना और आगे
बढ़नासब पुरुषार्थसे ही होता है । पुरुषार्थ बाहर
जाता है उसे अंतरमें लाओ । आत्माके जो सहज
स्वभाव हैं वे पुरुषार्थ द्वारा स्वयं प्रगट होंगे ।।३४३।।
जब तक सामान्य तत्त्वध्रुव तत्त्वख्यालमें न
आये, तब तक अंतरमें मार्ग कहाँसे सूझे और कहाँसे
प्रगट हो ? इसलिये सामान्य तत्त्वको ख्यालमें लेकर
उसका आश्रय करना चाहिये । साधकको आश्रय तो
प्रारम्भसे पूर्णता तक एक ज्ञायकका ही

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बहिनश्रीके वचनामृत
द्रव्यसामान्यका हीध्रुव तत्त्वका ही होता है ।
ज्ञायकका‘ध्रुव’का जोर एक क्षण भी नहीं हटता ।
द्रष्टि ज्ञायकके सिवा किसीको स्वीकार नहीं करती
ध्रुवके सिवा किसी पर ध्यान नहीं देती; अशुद्ध पर्याय
पर नहीं, शुद्ध पर्याय पर नहीं, गुणभेद पर नहीं ।
यद्यपि साथ वर्तता हुआ ज्ञान सबका विवेक करता
है, तथापि द्रष्टिका विषय तो सदा एक ध्रुव ज्ञायक
ही है, वह कभी छूटता नहीं है ।
पूज्य गुरुदेवका ऐसा ही उपदेश है, शास्त्र भी
ऐसा ही कहते हैं, वस्तुस्थिति भी ऐसी ही है ।।३४४।।
मोक्षमार्गका स्वरूप संक्षेपमें कहें तो ‘अंतरमें
ज्ञायक आत्माको साध’ । यह थोड़ेमें बहुत कहा जा
चुका । विस्तार किया जाय तो अनंत रहस्य निकले,
क्योंकि वस्तुमें अनंत भाव भरे हैं । सर्वार्थसिद्धिके देव
तेतीस-तेतीस सागरोपम जितने काल तक धर्मचर्चा,
जिनेन्द्रस्तुति इत्यादि करते रहते हैं । उस सबका संक्षेप
यह है कि‘शुभाशुभ भावोंसे न्यारा एक ज्ञायकका
आश्रय करना, ज्ञायकरूप परिणति करनी’ ।।३४५।।

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पूज्य गुरुदेवने तो सारे भारतके जीवोंको जागृत
किया है । सैंकड़ों वर्षमें जो स्पष्टता नहीं हुई थी
इतनी अधिक मोक्षमार्गकी स्पष्टता की है । छोटे-
छोटे बालक भी समझ सकें ऐसी भाषामें
मोक्षमार्गको खोला है । अद्भुत प्रताप है । अभी
तो लाभ लेनेका काल है ।।३४६।।
मुझे कुछ नहीं चाहिये, एक शान्ति चाहिये, कहीं
शान्ति दिखायी नहीं देती । विभावमें तो आकुलता ही
है । अशुभसे ऊबकर शुभमें और शुभसे थककर
अशुभमेंऐसे अनंत-अनंत काल बीत गया । अब
तो मुझे बस एक शाश्वत शान्ति चाहिये ।इस
प्रकार अंतरमें गहराईसे भावना जागे और वस्तुका
स्वरूप कैसा है उसकी पहिचान करे, प्रतीति करे, तो
सच्ची शान्ति प्राप्त हुए बिना न रहे ।।३४७।।
रुचिकी उग्रतामें पुरुषार्थ सहज लगता है और
रुचिकी मन्दतामें कठिन लगता है । रुचि मन्द हो
जाने पर इधर-उधर लग जाय तब कठिन लगता है

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और रुचि बढ़ने पर सरल लगता है । स्वयं प्रमाद
करे तो दुर्गम होता है और स्वयं उग्र पुरुषार्थ करे
तो प्राप्त हो जाता है । सर्वत्र अपना ही कारण है ।
सुखका धाम आत्मा है, आश्चर्यकारी निधि आत्मामें
हैइस प्रकार बारम्बार आत्माकी महिमा लाकर
पुरुषार्थ उठाना और प्रमाद तोड़ना चाहिये ।।३४८।।
चक्रवर्ती, बलदेव और तीर्थंकर जैसे ‘यह राज्य,
यह वैभवकुछ नहीं चाहिये’ इस प्रकार सर्वकी
उपेक्षा करके एक आत्माकी साधना करनेकी धुनमें
अकेले जंगलकी ओर चल पड़े ! जिन्हें बाह्यमें किसी
प्रकारकी कमी नहीं थी, जो चाहें वह जिन्हें मिलता था,
जन्मसे ही, जन्म होनेसे पूर्व भी, इन्द्र जिनकी सेवामें
तत्पर रहते थे, लोग जिन्हें भगवान कहकर आदर देते
थेथेऐसे उत्कृष्ट पुण्यके धनी सब बाह्य ऋद्धिको
छोड़कर, उपसर्ग-परिषहोंकी परवाह किये बिना,
आत्माका ध्यान करनेके लिये वनमें चले गये, तो उन्हें
आत्मा सबसे महिमावन्त, सबसे विशेष आश्चर्यकारी
लगा होगा और बाह्यका सब तुच्छ भासित हुआ होगा

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तभी तो चले गये होंगे न ? इसलिये, हे जीव ! तू ऐसे
आश्चर्यकारी आत्माकी महिमा लाकर, अपने स्वयंसे
उसकी पहिचान करके, उसकी प्राप्तिका पुरुषार्थ कर ।
तू स्थिरता-अपेक्षासे बाहरका सब न छोड़ सके तो
श्रद्धा-अपेक्षासे तो छोड़ ! छोड़नेसे तेरा कुछ नहीं
जायगा, उलटा परम पदार्थआत्माप्राप्त होगा ३४९
जीवोंको ज्ञान और क्रियाके स्वरूपकी खबर नहीं
है और ‘स्वयं ज्ञान तथा क्रिया दोनों करते हैं’ ऐसी
भ्रमणाका सेवन करते हैं । बाह्य ज्ञानको, भंगभेदके
प्रश्नोत्तरोंको, धारणाज्ञानको वे ‘ज्ञान’ मानते हैं और
परद्रव्यके ग्रहण-त्यागको, शरीरादिकी क्रियाको, अथवा
अधिक करें तो शुभ भावको, वे क्रिया कल्पते हैं ।
‘मुझे इतना आता है, मैं ऐसी कठिन क्रियाएँ करता
हूँ’ इस प्रकार वे मिथ्या संतोषमें रहते हैं ।
ज्ञायककी स्वानुभूतिके बिना ‘ज्ञान’ होता नहीं है
और ज्ञायकके द्रढ़ आलम्बन द्वारा आत्मद्रव्य
स्वभावरूपसे परिणमित होकर जो स्वभावभूत क्रिया
होती है उसके सिवा ‘क्रिया’ है नहीं । पौद्गलिक

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क्रिया आत्मा कहाँ कर सकता है ? जड़के कार्यरूप तो
जड़ परिणमित होता है; आत्मासे जड़के कार्य कभी
नहीं होते । ‘शरीरादिके कार्य मेरे नहीं हैं और विभाव
कार्य भी स्वरूपपरिणति नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ’
ऐसी साधककी परिणति होती है । सच्चे मोक्षार्थीको
भी अपने जीवनमें ऐसा घुँट जाना चाहिये । भले
प्रथम सविकल्परूप हो, परन्तु ऐसा पक्का निर्णय करना
चाहिये । पश्चात् जल्दी अंतरका पुरुषार्थ करे तो
जल्दी निर्विकल्प दर्शन हो, देर करे तो देरसे हो ।
निर्विकल्प स्वानुभूति करके, स्थिरता बढ़ाते-बढ़ाते,
जीव मोक्ष प्राप्त करता है ।इस विधिके सिवा मोक्ष
प्राप्त करनेकी अन्य कोई विधि नहीं है ।।३५०।।
किसी भी प्रसंगमें एकाकार नहीं हो जाना ।
मोक्षके सिवा तुझे और क्या प्रयोजन है ? प्रथम
भूमिकामें भी ‘मात्र मोक्ष-अभिलाष’ होती है ।
जो मोक्षका अर्थी हो, संसारसे जो थक गया
हो, उसके लिये गुरुदेवकी वाणीका प्रबल स्रोत बह
रहा है जिसमेंसे मार्ग सूझता है । वास्तवमें तो

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अंतरसे थकान लगे तो, ज्ञानी द्वारा कुछ दिशा
सूझनेके बाद अंतर ही अंतरमें प्रयत्न करनेसे आत्मा
मिल जाता है ।।३५१।।
‘द्रव्यसे परिपूर्ण महाप्रभु हूँ, भगवान हूँ, कृतकृत्य
हूँ’ ऐसा मानते होने पर भी ‘पर्यायमें तो मैं पामर
हूँ’ ऐसा महामुनि भी जानते हैं ।
गणधरदेव भी कहते हैं कि ‘हे जिनेन्द्र ! मैं आपके
ज्ञानको नहीं पा सकता । आपके एक समयके ज्ञानमें
समस्त लोकालोक तथा अपनी भी अनंत पर्यायें ज्ञात
होती हैं । कहाँ आपका अनंत-अनंत द्रव्य-पर्यायोंको
जाननेवाला अगाध ज्ञान और कहाँ मेरा अल्प ज्ञान !
आप अनुपम आनन्दरूप भी सम्पूर्णतया परिणमित हो
गये हैं । कहाँ आपका पूर्ण आनन्द और कहाँ मेरा
अल्प आनन्द ! इसी प्रकार अनन्त गुणोंकी पूर्ण
पर्यायरूपसे आप सम्पूर्णतया परिणमित हो गये हो ।
आपकी क्या महिमा करें ? आपको तो जैसा द्रव्य
वैसी ही एक समयकी पर्याय परिणमित हो गई है;
मेरी पर्याय तो अनन्तवें भाग है’ ।

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इस प्रकार प्रत्येक साधक, द्रव्य-अपेक्षासे अपनेको
भगवान मानता होने पर भी, पर्याय-अपेक्षासेज्ञान,
आनन्द, चारित्र, वीर्य इत्यादि सर्व पर्यायोंकी
अपेक्षासेअपनी पामरता जानता है ।।३५२।।
सर्वोत्कृष्ट महिमाका भण्डार चैतन्यदेव अनादि-
अनन्त परमपारिणामिकभावमें स्थित है । मुनिराजने
(नियमसारके टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेवने)
इस परमपारिणामिक भावकी धुन लगायी है । यह
पंचम भाव पवित्र है, महिमावंत है । उसका
आश्रय करनेसे शुद्धिके प्रारम्भसे लेकर पूर्णता प्रगट
होती है ।
जो मलिन हो, अथवा जो अंशतः निर्मल हो,
अथवा जो अधूरा हो, अथवा जो शुद्ध एवं पूर्ण होने
पर भी सापेक्ष हो, अध्रुव हो और त्रैकालिक-परिपूर्ण-
सामर्थ्यवान न हो, उसके आश्रयसे शुद्धता प्रगट नहीं
होती; इसलिये औदयिकभाव, क्षायोपशमिकभाव,
औपशमिकभाव और क्षायिकभाव अवलम्बनके योग्य
नहीं हैं ।

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जो पूरा निर्मल है, परिपूर्ण है, परम निरपेक्ष है,
ध्रुव है और त्रैकालिक-परिपूर्ण-सामर्थ्यमय हैऐसे
अभेद एक परमपारिणामिकभावका हीपारमार्थिक
असली वस्तुका हीआश्रय करने योग्य है, उसीकी
शरण लेने योग्य है । उसीसे सम्यग्दर्शनसे लेकर मोक्ष
तककी सर्व दशाएँ प्राप्त होती हैं ।
आत्मामें सहजभावसे विद्यमान ज्ञान, दर्शन,
चारित्र, आनन्द इत्यादि अनन्त गुण भी यद्यपि
पारिणामिकभावरूप ही हैं तथापि वे चेतनद्रव्यके एक-
एक अंशरूप होनेके कारण उनका भेदरूपसे अवलम्बन
लेने पर साधकको निर्मलता परिणमित नहीं होती ।
इसलिये परमपारिणामिकभावरूप अनन्तगुण-
स्वरूप अभेद एक चेतनद्रव्यका हीअखण्ड परमात्म-
द्रव्यका हीआश्रय करना, वहीं द्रष्टि देना, उसीकी
शरण लेना, उसीका ध्यान करना, कि जिससे अनंत
निर्मल पर्यायें स्वयं खिल उठें ।
इसलिये द्रव्यद्रष्टि करके अखण्ड एक ज्ञायकरूप
वस्तुको लक्षमें लेकर उसका अवलम्बन करो । वही,
वस्तुके अखण्ड एक परमपारिणामिकभावका आश्रय

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है । आत्मा अनंतगुणमय है परन्तु द्रव्यद्रष्टि गुणोंके
भेदोंका ग्रहण नहीं करती, वह तो एक अखंड
त्रैकालिक वस्तुको अभेदरूपसे ग्रहण करती है ।
यह पंचम भाव पावन है, पूजनीय है । उसके
आश्रयसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, सच्चा मुनिपना
आता है, शान्ति और सुख परिणमित होता है,
वीतरागता होती है, पंचम गतिकी प्राप्ति होती
है ।।३५३।।
तीर्थंकरभगवन्तों द्वारा प्रकाशित दिगम्बर जैन धर्म
ही सत्य है ऐसा गुरुदेवने युक्ति -न्यायसे सर्व प्रकार
स्पष्टरूपसे समझाया है । मार्गकी खूब छानबीन की
है । द्रव्यकी स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्याय, उपादान-
निमित्त, निश्चय-व्यवहार, आत्माका शुद्ध स्वरूप,
सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति, मोक्षमार्ग इत्यादि सब कुछ
उनके परम प्रतापसे इस काल सत्यरूपसे बाहर आया
है । गुरुदेवकी श्रुतकी धारा कोई और ही है । उन्होंने
हमें तरनेका मार्ग बतलाया है । प्रवचनमें कितना मथ-
मथकर निकालते हैं ! उनके प्रतापसे सारे भारतमें बहुत

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जीव मोक्षमार्गको समझनेका प्रयत्न कर रहे हैं । पंचम
कालमें ऐसा सुयोग प्राप्त हुआ वह अपना परम
सद्भाग्य है । जीवनमें सब उपकार गुरुदेवका ही है ।
गुरुदेव गुणोंसे भरपूर हैं, महिमावन्त हैं । उनके
चरणकमलकी सेवा हृदयमें बसी रहे ।।३५४।।
तरनेका उपाय बाहरी चमत्कारोंमें नहीं रहा है ।
बाह्य चमत्कार साधकका लक्षण भी नहीं हैं ।
चैतन्यचमत्कारस्वरूप स्वसंवेदन ही साधकका लक्षण
है । जो अंतरकी गहराईमें रागके एक कणको भी
लाभरूप मानता है, उसे आत्माके दर्शन नहीं होते ।
निस्पृह ऐसा हो जा कि मुझे अपना अस्तित्व ही
चाहिये, अन्य कुछ नहीं चाहिये । एक आत्माकी ही
लगन लगे और अंतरमेंसे उत्थान हो तो परिणति
पलटे बिना न रहे ।।३५५।।
मुनिराजका निवास चैतन्यदेशमें है । उपयोग
तीक्ष्ण होकर गहरे-गहरे चैतन्यकी गुफामें चला जाता
है । बाहर आने पर मुरदे जैसी दशा होती है ।