Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 357-384.

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बहिनश्रीके वचनामृत
शरीरके प्रति राग छूट गया है । शान्तिका सागर
उमड़ा है । चैतन्यकी पर्यायकी विविध तरंगें उछल
रही हैं । ज्ञानमें कुशल हैं, दर्शनमें प्रबल हैं,
समाधिके वेदक हैं । अंतरमें तृप्त-तृप्त हैं । मुनिराज
मानों वीतरागताकी मूर्ति हों इस प्रकार परिणमित हो
गये हैं । देहमें वीतराग दशा छा गई है । जिन नहीं
परन्तु जिनसरीखे हैं ।।३५६।।
इस संसारमें जीव अकेला जन्मता है, अकेला
मरता है, अकेला परिभ्रमण करता है, अकेला मुक्त
होता है । उसे किसीका साथ नहीं है । मात्र भ्रान्तिसे
वह दूसरेकी ओट और आश्रय मानता है । इस प्रकार
चौदह ब्रह्माण्डमें अकेले भटकते हुए जीवने इतने
मरण किये हैं कि उसके मरणके दुःखमें उसकी
माताकी आँखोंसे जो आंसू बहे उनसे समुद्र भर
जायें । भवपरिवर्तन करते-करते बड़ी मुश्किलसे तुझे
यह मनुष्यभव प्राप्त हुआ है, ऐसा उत्तम योग मिला
है, उसमें आत्माका हित कर लेने जैसा है, बिजलीकी
चमकमें मोती पिरो लेने जैसा है । यह मनुष्यभव

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बहिनश्रीके वचनामृत
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और उत्तम संयोग बिजलीकी चमककी भाँति अल्प
कालमें विलीन हो जायेंगे । इसलिये जैसे तू अकेला
ही दुःखी हो रहा है, वैसे अकेला ही सुखके मार्ग
पर जा, अकेला ही मुक्ति को प्राप्त कर ले ।।३५७।।
गुरुदेव मार्गको अत्यन्त स्पष्ट बतला रहे हैं ।
आचार्यभगवन्तोंने मुक्ति का मार्ग प्रकाशित किया है
और गुरुदेव उसे स्पष्ट कर रहे हैं । जैसे एक-एक
माँगमें तेल डालते हैं उसीप्रकार सूक्ष्मतासे स्पष्ट करके
सब समझाते हैं । भेदज्ञानका मार्ग हथेलीमें दिखाते
हैं । माल मसलकर, तैयार करके दे रहे हैं कि ‘ले,
खा ले’ । अब खाना तो अपनेको है ।।३५८।।
सहजतत्त्वका कभी नाश नहीं होता, वह मलिन नहीं
होता, उसमें न्यूनता नहीं आती । शरीरसे वह भिन्न है,
उपसर्ग उसे छूते नहीं हैं, तलवार उसे छेदती नहीं है,
अग्नि उसे जलाती नहीं है, राग-द्वेष उसे विकारी नहीं
बनाते । वाह तत्त्व ! अनंत काल बीत गया हो तो भी
तू तो ज्योंका त्यों ही है । तुझे कोई पहिचाने या न

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बहिनश्रीके वचनामृत
पहिचाने, तू तो सदा ऐसा ही रहनेवाला है । मुनिके
एवं सम्यग्द्रष्टिके हृदयकमलके सिंहासनमें यह सहज-
तत्त्व निरंतर विराजमान है ।।३५९।।
सम्यग्द्रष्टिको पुरुषार्थसे रहित कोई काल नहीं है ।
पुरुषार्थ करके भेदज्ञान प्रगट किया तबसे पुरुषार्थकी
धारा चलती ही है । सम्यग्द्रष्टिका यह पुरुषार्थ सहज
है, हठपूर्वक नहीं है । द्रष्टि प्रगट होनेके बाद वह एक
ओर पड़ी हो ऐसा नहीं है । जैसे अग्नि ढँकी पड़ी
हो ऐसा नहीं है । अंतरमें भेदज्ञानका
ज्ञातृत्वधाराका प्रगट वेदन है । सहज ज्ञातृत्वधारा
चल रही है वह पुरुषार्थसे चल रही है । परम तत्त्वमें
अविचलता है । प्रतिकूलताके समूह आये, सारे
ब्रह्माण्डमें खलबली मच जाय, तथापि चैतन्यपरिणति
न डोलेऐसी सहज दशा है ।।३६०।।
तू ज्ञायकस्वरूप है । अन्य सब तुझसे अलग पड़ा
है, मात्र तूने उसके साथ एकत्वबुद्धि की है ।
‘शरीर, वाणी आदि मैं नहीं हूँ, विभावभाव मेरा

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बहिनश्रीके वचनामृत
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स्वरूप नहीं है, जैसा सिद्धभगवानका स्वरूप है वैसा
ही मेरा स्वरूप है’ ऐसी यथार्थ श्रद्धा कर ।
शुभ भाव आयँगे अवश्य । परन्तु ‘शुभ भावसे
क्रमशः मुक्ति होगी, शुभ भाव चले जायँगे तो सब
चला जायगा और मैं शून्य हो जाऊँगा’ऐसी
श्रद्धा छोड़ ।
तू अगाध अनंत स्वाभाविक शक्ति योंसे भरा हुआ
एक अखण्ड पदार्थ है । उसकी श्रद्धा कर और आगे
बढ़ । अनंत तीर्थंकर आदि इसी मार्गसे मुक्ति को प्राप्त
हुए हैं ।।३६१।।
जिस प्रकार अज्ञानीको ‘शरीर ही मैं हूँ, यह शरीर
मेरा है’ ऐसा सहज ही रहा करता है, घोखना नहीं
पड़ता, याद नहीं करना पड़ता, उसीप्रकार ज्ञानीको
‘ज्ञायक ही मैं हूँ, अन्य कुछ मेरा नहीं है’ ऐसी सहज
परिणति वर्तती रहती है, घोखना नहीं पड़ता, याद नहीं
करना पड़ता सहज पुरुषार्थ वर्तता रहता है ।।३६२।।
मुनिराज आश्चर्यकारी निज ऋद्धिसे भरे हुए

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बहिनश्रीके वचनामृत
चैतन्यमहलमें निवास करते हैं; चैतन्यलोकमें अनंत
प्रकारका दर्शनीय है उसका अवलोकन करते हैं;
अतीन्द्रिय-आनन्दरूप स्वादिष्ट अमृतभोजनके थाल भरे
हैं वह भोजन करते हैं । समरसमय अचिन्त्य दशा
है !३६३।।
गुरुदेवने शास्त्रोंके गहन रहस्य सुलझाकर सत्य
ढूँढ़ निकाला और हमारे सामने स्पष्टरूपसे रखा है ।
हमें कहीं सत्य ढूँढ़नेको जाना नहीं पड़ा । गुरुदेवका
कोई अद्भुत प्रताप है । ‘आत्मा’ शब्द बोलना सीखे
हों तो वह भी गुरुदेवके प्रतापसे । ‘चैतन्य हूँ’,
‘ज्ञायक हूँ’इत्यादि सब गुरुदेवके प्रतापसे ही जाना
है । भेदज्ञानकी बात सुननेको मिलना दुर्लभ थी,
उसके बदले उनकी सातिशय वाणी द्वारा उसके हमेशा
झरने बह रहे हैं । गुरुदेव मानों हाथ पकड़कर सिखा
रहे हैं । स्वयं पुरुषार्थ करके सीख लेने जैसा है ।
अवसर चूकना योग्य नहीं है ।।३६४।।
काल अनादि है, जीव अनादि है, जीवने दो प्राप्त

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बहिनश्रीके वचनामृत
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नहीं कियेजिनराजस्वामी और सम्यक्त्व ।
जिनराजस्वामी मिले परन्तु उन्हें पहिचाना नहीं, जिससे
मिलना वह न मिलनेके बराबर है । अनादि कालसे
जीव अंतरमें जाता नहीं है और नवीनता प्राप्त नहीं
करता; एकके एक विषयकाशुभाशुभ भावका
पिष्टपेषण करता ही रहता है, थकता नहीं है ।
अशुभमेंसे शुभमें और फि र शुभमेंसे अशुभमें जाता है ।
यदि शुभ भावसे मुक्ति मिलती होती, तब तो कबकी
मिल गई होती ! अब, यदि पूर्वमें अनन्त बार किये हुए
शुभ भावका विश्वास छोड़कर, जीव अपूर्व नवीन भाव
करेजिनवरस्वामी द्वारा उपदिष्ट शुद्ध सम्यक् परिणति
करे, तो वह अवश्य शाश्वत सुखको प्राप्त हो ।।३६५।।
जिसने आत्माको पहिचाना है, अनुभव किया है,
उसको आत्मा ही सदा समीप वर्तता है, प्रत्येक
पर्यायमें शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है । विविध शुभ
भाव आयें तब कहीं शुद्धात्मा विस्मृत नहीं हो जाता
और वे भाव मुख्यता नहीं पाते ।
मुनिराजको पंचाचार, व्रत, नियम, जिनभक्ति

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बहिनश्रीके वचनामृत
इत्यादि सर्व शुभ भावोंके समय भेदज्ञानकी धारा,
स्वरूपकी शुद्ध चारित्रदशा निरंतर चलती ही रहती
है । शुभ भाव नीचे ही रहते हैं; आत्मा ऊँचाका
ऊँचा हीऊर्ध्व हीरहता है । सब कुछ पीछे रह
जाता है, आगे एक शुद्धात्मद्रव्य ही रहता है ।।३६६।।
जिनेन्द्रभगवानकी वाणीमें अतिशयता है, उसमें
अनंत रहस्य होते हैं, उस वाणी द्वारा बहुत जीव मार्ग
प्राप्त करते हैं । ऐसा होने पर भी सम्पूर्ण चैतन्यतत्त्व
उस वाणीमें भी नहीं आता । चैतन्यतत्त्व अद्भुत,
अनुपम एवं अवर्णनीय है । वह स्वानुभवमें ही यथार्थ
पहिचाना जाता है ।।३६७।।
पंचेन्द्रियपना, मनुष्यपना, उत्तम कुल और सत्य
धर्मका श्रवण उत्तरोत्तर दुर्लभ है । ऐसे सातिशय
ज्ञानधारी गुरुदेव और उनकी पुरुषार्थप्रेरक वाणीके
श्रवणका योग अनंत कालमें महापुण्योदयसे प्राप्त
होता है । इसलिये प्रमाद छोड़कर पुरुषार्थ करो ।
सब सुयोग प्राप्त हो गया है, उसका लाभ ले लो ।

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सावधान होकर शुद्धात्माको पहिचानकर भवभ्रमणका
अन्त लाओ ।।३६८।।
चैतन्यतत्त्वको पुद्गलात्मक शरीर नहीं है, नहीं है ।
चैतन्यतत्त्वको भवका परिचय नहीं है, नहीं है ।
चैतन्यतत्त्वको शुभाशुभ परिणति नहीं है, नहीं है ।
उसमें शरीरका, भवका, शुभाशुभ भावका संन्यास है ।
जीवने अनंत भवोंमें परिभ्रमण किया, गुण
हीनरूप या विपरीतरूप परिणमित हुए, तथापि मूल
तत्त्व ज्योंका त्यों ही है, गुण ज्योंके त्यों ही हैं ।
ज्ञानगुण हीनरूप परिणमित हुआ उससे कहीं उसके
सामर्थ्यमें न्यूनता नहीं आयी है । आनन्दका अनुभव
नहीं है इसलिये आनन्दगुण कहीं चला नहीं गया है,
नष्ट नहीं हो गया है, घिस नहीं गया है । शक्ति रूपसे
सब ज्योंका त्यों रहा है । अनादि कालसे जीव बाहर
भटकता है, अति अल्प जानता है, आकुलतामें रुक
गया है, तथापि चैतन्यद्रव्य और उसके ज्ञान-आनन्दादि
गुण ज्योंके त्यों स्वयमेव सुरक्षित रहे हैं, उनकी
सुरक्षा नहीं करनी पड़ती ।

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ऐसे परमार्थस्वरूपकी सम्यग्द्रष्टि जीवको
अनुभवयुक्त प्रतीति होती है ।।३६९।।
जिसे आत्माका करना हो उसे आत्माका ध्येय
ही सन्मुख रखने योग्य है । ‘कार्यों’की गिनती
करनेकी अपेक्षा एक आत्माका ध्येय ही मुख्य रखना
वह उत्तम है । प्रवृत्तिरूप ‘कार्य’ तो भूमिकाके
योग्य होते हैं ।
आत्माको मुख्य रखकर जो क्रिया हो उसे ज्ञानी
देखते रहते हैं । उनके सर्व कार्योंमें ‘आत्मा समीप
जिसे रहे’ ऐसा होता है । ध्येयको वे भूलते नहीं
हैं ।।३७०।।
जैसे स्वप्नके लुओंसे भूख नहीं मिटती, जैसे
मरीचिकाके जलसे प्यास नहीं बुझती, वैसे ही पर
पदार्थोंसे सुखी नहीं हुआ जाता ।
‘इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे
इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।।’’
’’’

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यही सुखी होनेका उपाय है । विश्वास
करो ।।३७१।।
जैसे पातालकुआँ खोदने पर, पत्थरकी आखिरी
पर्त टूटकर उसमें छेद हो जाने पर पानीकी जो
ऊँची पिचकारी उड़ती है, उसे देखनेसे पातालके
पानीका अंदरका भारी जोर ख्यालमें आता है, उसी
प्रकार सूक्ष्म उपयोग द्वारा गहराईमें चैतन्यतत्त्वके
तल तक पहुँच जाने पर, सम्यग्दर्शन प्रगट होनेसे,
जो आंशिक शुद्ध पर्याय फू टती है, उस पर्यायका
वेदन करने पर चैतन्यतत्त्वका अंदरका अनंत ध्रुव
सामर्थ्य अनुभवमेंस्पष्ट ख्यालमें आता है ।।३७२।।
सब तालोंकी कुंजी एक‘ज्ञायकका अभ्यास
करना’ । इससे सब ताले खुल जायँगे । जिसे
संसारकारागृहसे छूटना हो, मुक्ति पुरीमें जाना हो, उसे
मोह-राग-द्वेषरूप ताले खोलनेके लिये ज्ञायकका
अभ्यास करनेरूप एक ही कुंजी लगानी चाहिये ।।३७३।।

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शुभ रागकी रुचि वह भी भवकी रुचि है,
मोक्षकी रुचि नहीं है । जो मंदकषायमें संतुष्ट होता
है, वह अकषायस्वभावी ज्ञायकको जानता नहीं एवं
पाता नहीं । गुरुदेव पुकार-पुकारकर कहते हैं कि
ज्ञायकका आश्रय करके शुद्ध परिणति प्रगट कर;
वही एक पद है, शेष सब अपद है ।।३७४।।
इस चैतन्यतत्त्वको पहिचानना चाहिये । चैतन्यको
पहिचाननेका अभ्यास करना, भेदज्ञानका अभ्यास
करनावही कर्तव्य है । वह अभ्यास करते-करते
आत्माकी रागादिसे भिन्नता भासित हो तो आत्माका
स्वरूप प्राप्त हो जाय । आत्मा चैतन्यतत्त्व है,
ज्ञायकस्वरूप हैउसे पहिचानना चाहिये । जीवको
ऐसा भ्रम है कि परद्रव्यका मैं कर सकता हूँ । परन्तु
स्वयं परपदार्थमें कुछ नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य
स्वतंत्र है । स्वयं ज्ञाता है, ज्ञायक है । परपदार्थमें
उसका ज्ञान जाता नहीं है और परमेंसे कुछ आता
नहीं है । यह समझनेके लिये देव-शास्त्र-गुरु आदि
बाह्य निमित्त होते हैं, परन्तु दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि

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जो प्रगट होता है, वह सब अपनेमेंसे ही प्रगट होता
है । उस मूलतत्त्वको पहिचानना वही कर्तव्य है ।
दूसरा बाहरका तो अनंत कालमें बहुत किया है ।
शुभभावकी सब क्रियाएँ कीं, शुभभावमें धर्म माना,
परन्तु धर्म तो आत्माके शुद्धभावमें ही है । शुभ तो
विभाव है, आकुलतारूप है, दुःखरूप है, उसमें कहीं
शान्ति नहीं है । यद्यपि शुभभाव आये बिना नहीं
रहते, तथापि वहाँ शान्ति तो नहीं है । शान्ति हो,
सुख होआनन्द हो ऐसा तत्त्व तो चैतन्य ही है ।
निवृत्तिमय चैतन्यपरिणतिमें ही सुख है, बाह्यमें कहीं
सुख है ही नहीं । इसलिये चैतन्यतत्त्वको पहिचानकर
उसमें स्थिर होनेका प्रयास करना वही यथार्थ श्रेयरूप
है । वह एक ही मनुष्य जीवनमें करनेयोग्य
हितरूपकल्याणरूप है ।।३७५।।
पूर्ण गुणोंसे अभेद ऐसे पूर्ण आत्मद्रव्य पर द्रष्टि
करनेसे, उसीके आलम्बनसे, पूर्णता प्रगट होती है ।
इस अखण्ड द्रव्यका आलम्बन वही अखण्ड एक
परमपारिणामिकभावका आलम्बन है । ज्ञानीको उस

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आलंबनसे प्रगट होनेवाली औपशमिक, क्षायोपशमिक
और क्षायिकभावरूप पर्यायोंकाव्यक्त होनेवाली
विभूतियोंकावेदन होता है परन्तु उनका आलम्बन
नहीं होताउन पर जोर नहीं होता । जोर तो सदा
अखण्ड शुद्ध द्रव्य पर ही होता है । क्षायिकभावका
भी आश्रय या आलम्बन नहीं लिया जाता क्योंकि वह
तो पर्याय है, विशेषभाव है । सामान्यके आश्रयसे ही
शुद्ध विशेष प्रगट होता है, ध्रुवके आलम्बनसे ही
निर्मल उत्पाद होता है । इसलिये सब छोड़कर, एक
शुद्धात्मद्रव्यके प्रतिअखण्ड परमपारिणामिकभावके
प्रतिद्रष्टि कर, उसीके ऊपर निरन्तर जोर रख,
उसीकी ओर उपयोग ढले ऐसा कर ।।३७६।।
स्वभावमेंसे विशेष आनन्द प्रगट करनेके लिये
मुनिराज जंगलमें बसे हैं । उस हेतु उनको निरन्तर
परमपारिणामिकभावमें लीनता वर्तती है,दिन-रात
रोमरोममें एक आत्मा ही रम रहा है । शरीर है
किन्तु शरीरकी कोई चिन्ता नहीं है, देहातीत जैसी
दशा है । उत्सर्ग एवं अपवादकी मैत्रीपूर्वक रहनेवाले

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हैं । आत्माका पोषण करके निज स्वभावभावोंको
पुष्ट करते हुए विभावभावोंका शोषण करते हैं ।
जिस प्रकार माताका पल्ला पकड़कर चलता हुआ
बालक कुछ अड़चन दिखने पर अधिक जोरसे पल्ला
पकड़ लेता है, उसी प्रकार मुनि परीषह-उपसर्ग आने
पर प्रबल पुरुषार्थपूर्वक निजात्मद्रव्यको पकड़ लेते
हैं । ‘ऐसी पवित्र मुनिदशा कब प्राप्त करेंगे !’ ऐसा
मनोरथ सम्यग्द्रष्टिको वर्तता है ।।३७७।।
जिसे स्वभावकी महिमा जागी है ऐसे सच्चे
आत्मार्थीको विषय-कषायोंकी महिमा टूटकर उनकी
तुच्छता लगती है । उसे चैतन्यस्वभावकी समझमें
निमित्तभूत देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा आती है । कोई
भी कार्य करते हुए उसे निरंतर शुद्ध स्वभाव प्राप्त
करनेका खटका लगा ही रहता है ।
गृहस्थाश्रममें स्थित ज्ञानीको शुभाशुभ भावसे
भिन्न ज्ञायकका अवलम्बन करनेवाली ज्ञातृत्वधारा
निरंतर वर्तती रहती है । परन्तु पुरुषार्थकी निर्बलताके
कारण अस्थिरतारूप विभावपरिणति बनी हुई है

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इसलिये उनको गृहस्थाश्रम सम्बन्धी शुभाशुभ परिणाम
होते हैं । स्वरूपमें स्थिर नहीं रहा जाता इसलिये वे
विविध शुभभावोंमें युक्त होते हैं :‘मुझे देव-गुरुकी
सदा समीपता हो, गुरुके चरणकमलकी सेवा हो’
इत्यादि प्रकारसे जिनेन्द्रभक्ति -स्तवन-पूजन एवं
गुरुसेवाके भाव होते हैं तथा शास्त्रस्वाध्यायके,
ध्यानके, दानके, भूमिकानुसार अणुव्रत एवं तपादिके
शुभभाव उनके हठ बिना आते हैं । इन सब भावोंके
बीच ज्ञातृत्व-परिणतिकी धारा तो सतत चलती ही
रहती है ।
निजस्वरूपधाममें रमनेवाले मुनिराजको भी पूर्ण
वीतरागदशाका अभाव होनेसे विविध शुभभाव होते
हैं :उनके महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण, पंचाचार,
स्वाध्याय, ध्यान इत्यादि सम्बन्धी शुभभाव आते हैं
तथा जिनेन्द्रभक्ति -श्रुतभक्ति -गुरुभक्ति के उल्लासमय
भाव भी आते हैं । ‘हे जिनेन्द्र ! आपके दर्शन
होनेसे, आपके चरणकमलकी प्राप्ति होनेसे, मुझे
क्या नहीं प्राप्त हुआ ? अर्थात् आप मिलनेसे मुझे
सब कुछ मिल गया ।’ ऐसे अनेक प्रकारसे श्री
पद्मनन्दी आदि मुनिवरोंने जिनेन्द्रभक्ति के स्रोत बहाये

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हैं ।ऐसे ऐसे अनेक प्रकारके शुभभाव
मुनिराजको भी हठ बिना आते हैं । साथ ही साथ
ज्ञायकके उग्र आलम्बनसे मुनियोग्य उग्र ज्ञातृत्वधारा
भी सतत चलती ही रहती है ।
साधककोमुनिको तथा सम्यग्द्रष्टि श्रावकको
जो शुभभाव आते हैं वे ज्ञातृत्वपरिणतिसे विरुद्ध-
स्वभाववाले होनेके कारण उनका आकुलतारूपसे
दुःखरूपसे वेदन होता है, हेयरूप ज्ञात होते हैं,
तथापि उस भूमिकामें आये बिना नहीं रहते ।
साधककी दशा एकसाथ त्रिपटी (तीन
विशेषताओंवाली) है :एक तो, उसे ज्ञायकका
आश्रय अर्थात् शुद्धात्मद्रव्यके प्रति जोर निरंतर वर्तता
है जिसमें अशुद्ध तथा शुद्ध पर्यायांशकी भी उपेक्षा
होती है; दूसरा, शुद्ध पर्यायांशका सुखरूपसे वेदन
होता है; और तीसरा, अशुद्ध पर्यायांशजिसमें व्रत,
तप, भक्ति आदि शुभभावोंका समावेश है उसका
दुःखरूपसे, उपाधिरूपसे वेदन होता है ।
साधकको शुभभाव उपाधिरूप लगते हैंइसका
ऐसा अर्थ नहीं है कि वे भाव हठपूर्वक होते हैं ।

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यों तो साधकके वे भाव हठरहित सहजदशाके हैं,
अज्ञानीकी भाँति ‘ये भाव नहीं करूँगा तो परभवमें
दुःख सहन करना पड़ेंगे’ ऐसे भयसे जबरन् कष्टपूर्वक
नहीं किये जाते; तथापि वे सुखरूप भी ज्ञात नहीं
होते । शुभभावोंके साथ-साथ वर्तती, ज्ञायकका
अवलम्बन लेनेवाली जो यथोचित निर्मल परिणति वही
साधकको सुखरूप ज्ञात होती है ।
जिस प्रकार हाथीके बाहरके दाँतदिखानेके दाँत
अलग होते हैं और भीतरके दाँतचबानेके दाँत
अलग होते हैं, उसी प्रकार साधकको बाह्यमें उत्साहके
कार्यशुभ परिणाम दिखायी दें वे अलग होते हैं और
अंतरमें आत्मशान्तिकाआत्मतृप्तिका स्वाभाविक
परिणमन अलग होता है । बाह्य क्रियाके आधारसे
साधकका अंतर नहीं पहिचाना जाता ।।३७८।।
जगतमें सर्वोत्कृष्ट वस्तु तेरा आत्मा ही है ।
उसमें चैतन्यरस और आनन्द भरे हैं । वह गुण-
मणियोंका भण्डार है । ऐसे दिव्यस्वरूप आत्माकी
दिव्यताको तू नहीं पहिचानता और परवस्तुको

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मूल्यवान मानकर उसे प्राप्त करनेका परिश्रम कर
रहा है ! परवस्तु तीन कालमें कभी किसीकी नहीं
हुई है, तू व्यर्थ भ्रमणासे उसे अपनी बनानेका
प्रयत्न करके अपना अहित कर रहा है ! ३७९।।
जिस प्रकार सुवर्णको जंग नहीं लगती, अग्निको
दीमक नहीं लगती, उसी प्रकार ज्ञायकस्वभावमें
आवरण, न्यूनता या अशुद्धि नहीं आती । तू उसे
पहिचानकर उसमें लीन हो तो तेरे सर्व गुणरत्नोंकी
चमक प्रगट होगी ।।३८०।।
जीव भले ही चाहे जितने शास्त्र पढ़ ले,
वादविवाद करना जाने, प्रमाण-नय-निक्षेपादिसे
वस्तुकी तर्कणा करे, धारणारूप ज्ञानको विचारोंमें
विशेष-विशेष फे रे, किन्तु यदि ज्ञानस्वरूप आत्माके
अस्तित्वको न पकड़े और तद्रूप परिणमित न हो, तो
वह ज्ञेयनिमग्न रहता है, जो-जो बाहरका जाने उसमें
तल्लीन हो जाता है, मानों ज्ञान बाहरसे आता हो
ऐसा भाव वेदता रहता है । सब पढ़ गया, अनेक

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युक्ति -न्याय जाने, अनेक विचार किये, परन्तु
जाननेवालेको नहीं जाना, ज्ञानकी असली भूमि
द्रष्टिगोचर नहीं हुई, तो वह सब जाननेका फल
क्या ? शास्त्राभ्यासादिका प्रयोजन तो ज्ञानस्वरूप
आत्माको जानना है ।।३८१।।
आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है; वह नित्य
रहकर पलटता है । उसका नित्यस्थायी स्वरूप रीता
नहीं, पूर्ण भरा हुआ है । उसमें अनंत गुणरत्नोंके
कमरे भरे हैं । उस अद्भुत ऋद्धियुक्त नित्य स्वरूप
पर द्रष्टि दे तो तुझे संतोष होगा कि ‘मैं तो सदा
कृतकृत्य हूँ’ । उसमें स्थिर होनेसे तू पर्यायमें
कृतकृत्य हो जायगा ।।३८२।।
ज्ञायकस्वभाव आत्माका निर्णय करके, मति-
श्रुतज्ञानका उपयोग जो बाह्यमें जाता है उसे अंतरमें
समेट लेना, बाहर जाते हुए उपयोगको ज्ञायकके
अवलम्बन द्वारा बारम्बार अंतरमें स्थिर करते रहना,
वही शिवपुरी पहुँचनेका राजमार्ग है । ज्ञायक

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आत्माकी अनुभूति वही शिवपुरीकी सड़क है, वही
मोक्षका मार्ग है । दूसरे सब उस मार्गका वर्णन
करनेके भिन्नभिन्न प्रकार हैं । जितने वर्णनके प्रकार
हैं, उतने मार्ग नहीं हैं; मार्ग तो एक ही है ।।३८३।।
तेरे आत्मामें निधान ठसाठस भरे हैं । अनंत-
गुणनिधानको रहनेके लिये अनंत क्षेत्रकी आवश्यकता
नहीं है, असंख्यात प्रदेशोंके क्षेत्रमें ही अनंत गुण
ठसाठस भरे हैं, तुझमें ऐसे निधान हैं, तो फि र तू
बाहर क्यों जाता है ? तुझमें है उसे देख न ! तुझमें
क्या कमी है ? तुझमें पूर्ण सुख है, पूर्ण ज्ञान है,
सब कुछ है । सुख और ज्ञान तो क्या परन्तु कोई
भी वस्तु बाहर लेने जाना पड़े ऐसा नहीं है । एक
बार तू अंतरमें प्रवेश कर, सब अन्तरमें है । अन्तरमें
गहरे उतरने पर, सम्यग्दर्शन होने पर, तेरे निधान
तुझे दिखायी देंगे और उन सर्व निधानके प्रगट
अंशको वेदकर तू तृप्त हो जायगा । पश्चात् पुरुषार्थ
करते ही रहना जिससे पूर्ण निधानका भोक्ता होकर
तू सदाकाल परम तृप्त-तृप्त रहेगा ।।३८४।।