Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 414-432.

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बहिनश्रीके वचनामृत
सर्वज्ञभगवान परिपूर्णज्ञानरूपसे परिणमित हो
गये हैं । वे अपनेको पूर्णरूपसेअपने सर्वगुणोंके
भूत-वर्तमान-भावी पर्यायोंके अविभाग प्रतिच्छेदों
सहितप्रत्यक्ष जानते हैं । साथ ही साथ वे
स्वक्षेत्रमें रहकर, परके समीप गये बिना, परसन्मुख
हुए बिना, निराले रहकर लोकालोकके सर्व
पदार्थोंको अतीन्द्रियरूपसे प्रत्यक्ष जानते हैं । परको
जाननेके लिये वे परसन्मुख नहीं होते । परसन्मुख
होनेसे तो ज्ञान दब जाता हैरुक जाता है,
विकसित नहीं होता । जो ज्ञान पूर्णरूपसे परिणमित
हो गया है वह किसीको जाने बिना नहीं रहता ।
वह ज्ञान स्वचैतन्यक्षेत्रमें रहते हुए, तीनों कालके
तथा लोकालोकके सर्व स्व-पर ज्ञेयों मानों वे ज्ञानमें
उत्कीर्ण हो गये हों उस प्रकार, समस्त स्व-परको
एक समयमें सहजरूपसे प्रत्यक्ष जानता है; जो बीत
गया है उस सबको भी पूरा जानता है, जो आगे
होना है उस सबको भी पूरा जानता है । ज्ञानशक्ति
अद्भुत है ।।४१३।।
कोई स्वयं चक्रवर्ती राजा होने पर भी, अपने

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बहिनश्रीके वचनामृत
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पास ऋद्धिके भण्डार भरे होने पर भी, बाहर भीख
माँगता हो, वैसे तू स्वयं तीन लोकका नाथ होने
पर भी, तेरे पास अनंत गुणरूप ऋद्धिके भण्डार भरे
होने पर भी, ‘पर पदार्थ मुझे कुछ ज्ञान देना, मुझे
सुख देना’ इस प्रकार भीख माँगता रहता है ! ‘मुझे
धनमेंसे सुख मिल जाय, मुझे शरीरमेंसे सुख मिल
जाय, मुझे शुभ कार्योंमेंसे सुख मिल जाय, मुझे
शुभ परिणाममेंसे सुख मिल जाय’ इस प्रकार तू
भीख माँगता रहता है ! परन्तु बाहरसे कुछ नहीं
मिलता । गहराईसे ज्ञायकपनेका अभ्यास किया जाय
तो अंतरसे ही सब कुछ मिलता है । जैसे भोंयरेमें
जाकर योग्य कुंजी द्वारा तिजोरीका ताला खोला
जाये तो निधान प्राप्त हों और दारिद्र दूर हो जाये,
उसी प्रकार गहराईमें जाकर ज्ञायकके अभ्यासरूप
कुंजीसे भ्रान्तिरूप ताला खोल दिया जाये तो अनंत
गुणरूप निधान प्राप्त हों और भिक्षुकवृत्ति मिट
जाये ।।४१४।।
मुनिराज कहते हैं :हमारा आत्मा तो अनंत
गुणोंसे भरपूर, अनंत अमृतरससे भरपूर, अक्षय घट

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है । उस घटमेंसे पतली धारसे अल्प अमृत पिया
जाय ऐसे स्वसंवेदनसे हमें सन्तोष नहीं होता । हमें
तो प्रतिसमय पूर्ण अमृतका पान हो ऐसी पूर्ण दशा
चाहिये । उस पूर्ण दशामें सादि-अनन्त काल पर्यन्त
प्रतिसमय पूरा अमृत पिया जाता है और घट भी सदा
परिपूर्ण भरा रहता है । चमत्कारिक पूर्ण शक्ति वान
शाश्वत द्रव्य और प्रतिसमय ऐसी ही पूर्ण व्यक्ति वाला
परिणमन ! ऐसी उत्कृष्ट-निर्मल दशाकी हम भावना
भाते हैं । (ऐसी भावनाके समय भी मुनिराजकी द्रष्टि
तो सदाशुद्ध आत्मद्रव्य पर ही है ।) ।।४१५।।
भवभ्रमण चलता रहे ऐसे भावमें यह भव
व्यतीत होने देना योग्य नहीं है । भवके अभावका
प्रयत्न करनेके लिये यह भव है । भवभ्रमण कितने
दुःखोंसे भरा है उसका गंभीरतासे विचार तो कर !
नरकके भयंकर दुःखोंमें एक क्षण निकलना भी
असह्य लगता है वहाँ सागरोपम कालकी आयु कैसे
कटी होगी ? नरकके दुःख सुने जाएँ ऐसे नहीं हैं ।
पैरमें काँटा लगने जितना दुःख भी तुझसे सहा नहीं
जाता, तो फि र जिसके गर्भमें उससे अनन्तानन्तगुने

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दुःख पड़े हैं ऐसे मिथ्यात्वको छोड़नेका उद्यम तू
क्यों नहीं करता ? गफलतमें क्यों रहता है ? ऐसा
उत्तम योग पुनः कब मिलेगा ? तू मिथ्यात्व
छोड़नेके लिये जी-जानसे प्रयत्न कर, अर्थात् साता-
असातासे भिन्न तथा आकुलतामय शुभाशुभ भावोंसे
भी भिन्न ऐसे निराकुल ज्ञायकस्वभावको अनुभवनेका
प्रबल पुरुषार्थ कर । यही इस भवमें करने योग्य
है ।।४१६।।
सम्यग्दर्शन होनेके पश्चात् आत्मस्थिरता बढ़ते-
बढ़ते, बारम्बार स्वरूपलीनता होती रहे ऐसी दशा हो
तब मुनिपना आता है । मुनिको स्वरूपकी ओर
ढलती हुई शुद्धि इतनी बढ़ गई होती है कि वे
घड़ी-घड़ी आत्मामें प्रविष्ट हो जाते हैं । पूर्ण
वीतरागताके अभावके कारण जब बाहर आते हैं तब
विकल्प तो उठते हैं परन्तु वे गृहस्थदशाके योग्य
नहीं होते, मात्र स्वाध्याय-ध्यान-व्रत-संयम-तप-भक्ति
इत्यादिसम्बन्धी मुनियोग्य शुभ विकल्प ही होते हैं
और वे भी हठ रहित होते हैं । मुनिराजको
बाहरका कुछ नहीं चाहिये । बाह्यमें एक शरीर-

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मात्रका सम्बन्ध है, उसके प्रति भी परम उपेक्षा है ।
बड़ी निःस्पृह दशा है । आत्माकी ही लगन लगी
है । चैतन्यनगरमें ही निवास है । ‘मैं और मेरे
आत्माके अनंत गुण ही मेरे चैतन्यनगरकी बस्ती
है । उसीका मुझे काम है । दूसरोंका मुझे क्या
काम ?, इस प्रकार एक आत्माकी ही धुन है ।
विश्वकी कथासे उदास हैं । बस, एक आत्मामय ही
जीवन हो गया है;मानों चलते-फि रते सिद्ध ! जैसे
पिताकी झलक पुत्रमें दिखायी देती है उसी प्रकार
जिनभगवानकी झलक मुनिराजमें दिखती है । मुनि
छठवें-सातवें गुणस्थानमें रहें उतना काल कहीं
(आत्मशुद्धिकी दशामें आगे बढ़े बिना) वहींके वहीं
खड़े नहीं रहते, आगे बढ़ते जाते हैं; केवलज्ञान न
हो तब तक शुद्धि बढ़ाते ही जाते हैं ।यह,
मुनिकी अंतःसाधना है । जगतके जीव मुनिकी
अंतरंग साधना नहीं देखते । साधना कहीं बाहरसे
देखनेकी वस्तु नहीं है, अंतरकी दशा है । मुनिदशा
आश्चर्यकारी है, वंद्य है ।।४१७।।
सिद्धभगवानको अव्याबाध अनंत सुख प्रगट

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हुआ सो हुआ । उसका कभी नाश नहीं होता ।
जिनके दुःखके बीज ही जल गये हैं वे कभी सुख
छोड़कर दुःखमें कहाँसे आयेंगे ? एक बार जो
क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करके भिन्नरूप परिणमित
होते हैं वे भी कभी अभिन्नरूपएकरूप नहीं होते,
तब फि र जो सिद्धरूपसे परिणमित हुए वे
असिद्धरूपसे कहाँसे परिणमित होंगे ? सिद्धत्व-
परिणमन प्रवाहरूपसे सादि-अनन्त है । सिद्धभगवान
सादि-अनन्त काल प्रतिसमय पूर्णरूपसे परिणमित
होते रहते हैं । यद्यपि सिद्धभगवानके ज्ञान-आनन्दादि
सर्व गुणरत्नोंमें चमक उठती ही रहती है
उत्पादव्यय होते ही रहते हैं, तथापि वे सर्व गुण
परिणमनमें भी सदा ज्योंके त्यों ही परिपूर्ण रहते
हैं । स्वभाव अद्भुत है ।।४१८।।
प्रश्न :हम अनन्त कालके दुखियारे; हमारा यह
दुःख कैसे मिटेगा ?
उत्तर :‘मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, विभावसे
भिन्न मैं ज्ञायक हूँ’ इस मार्ग पर जानेसे दुःख दूर

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होगा और सुखकी घड़ी आयगी । ज्ञायककी प्रतीति
हो और विभावकी रुचि छूटेऐसे प्रयत्नके पीछे
विकल्प टूटेगा और सुखकी घड़ी आयगी । ‘मैं
ज्ञायक हूँ’ ऐसा भले ही पहले ऊपरी-भावसे कर, फि र
गहराईसे कर, परन्तु चाहे जैसे करके उस मार्ग पर
जा । शुभाशुभ भावसे भिन्न ज्ञायकका ज्ञायकरूपसे
अभ्यास करके ज्ञायककी प्रतीति द्रढ़ करना, ज्ञायकको
गहराईसे प्राप्त करना, वही सादि-अनंत सुख प्राप्त
करनेका उपाय है । आत्मा सुखका धाम है, उसमेंसे
सुख प्राप्त होगा ।।४१९।।
प्रश्न :जिज्ञासुको चौवीसों घंटे आत्माके विचार
चलते हैं ?
उत्तर :विचार चौवीसों घंटे नहीं चलते । परन्तु
आत्माका खटका, लगन, रुचि, उत्साह बना रहता
है । ‘मुझे आत्माका करना है, मुझे आत्माको
पहिचानना है’ इस प्रकार लक्ष बारम्बार आत्माकी ओर
मुड़ता रहता है ।।४२०।।

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प्रश्न :मुमुक्षुको शास्त्रका अभ्यास विशेष रखना
या चिंतनमें विशेष समय लगाना ?
उत्तर :सामान्य अपेक्षासे तो, शास्त्राभ्यास
चिंतन सहित होता है, चिंतन शास्त्राभ्यासपूर्वक होता
है । विशेष अपेक्षासे, अपनी परिणति जिसमें टिकती
हो और अपनेको जिससे विशेष लाभ होता दिखायी
दे वह करना चाहिये । यदि शास्त्राभ्यास करनेसे
अपनेको निर्णय द्रढ़ होता हो, विशेष लाभ होता हो,
तो ऐसा प्रयोजनभूत शास्त्राभ्यास विशेष करना
चाहिये और यदि चिंतनसे निर्णयमें द्रढ़ता होती हो,
विशेष लाभ होता हो, तो ऐसा प्रयोजनभूत चिंतन
विशेष करना चाहिये । अपनी परिणतिको लाभ हो
वह करना चाहिये । अपनी चैतन्यपरिणति आत्माको
पहिचाने यही ध्येय होना चाहिये । उस ध्येयकी
सिद्धिके हेतु प्रत्येक मुमुक्षुको ऐसा ही करना चाहिये
ऐसा नियम नहीं हो सकता ।।४२१।।
प्रश्न :विकल्प हमारा पीछा नहीं छोड़ते !
उत्तर :विकल्प तुझे लगे नहीं हैं, तू

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बहिनश्रीके वचनामृत
विकल्पोंको लगा है । तू हट जा न ! विकल्पोंमें
रंचमात्र सुख और शान्ति नहीं हैं, अंतरमें पूर्ण सुख
एवं समाधान है ।
पहले आत्मस्वरूपकी प्रतीति होती है, भेदज्ञान
होता है, पश्चात् विकल्प टूटते हैं और निर्विकल्प
स्वानुभूति होती है ।।४२२।।
प्रश्न :सर्वगुणांश सो सम्यक्त्व कहा है, तो
क्या निर्विकल्प सम्यग्दर्शन होने पर आत्माके सर्व
गुणोंका आंशिक शुद्ध परिणमन वेदनमें आता है ?
उत्तर :निर्विकल्प स्वानुभूतिकी दशामें आनन्द-
गुणकी आश्चर्यकारी पर्याय प्रगट होने पर आत्माके
सर्व गुणोंका (यथासम्भव) आंशिक शुद्ध परिणमन
प्रगट होता है और सर्व गुणोंकी पर्यायोंका वेदन
होता है ।
आत्मा अखण्ड है, सर्व गुण आत्माके ही हैं,
इसलिये एक गुणकी पर्यायका वेदन हो उसके साथ-
साथ सर्व गुणोंकी पर्यायें अवश्य वेदनमें आती हैं ।

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भले ही सर्व गुणोंके नाम न आते हों, और सर्व
गुणोंकी संज्ञा भाषामें होती भी नहीं, तथापि उनका
संवेदन तो होता ही है ।
स्वानुभूतिके कालमें अनंतगुणसागर आत्मा अपने
आनन्दादि गुणोंकी चमत्कारिक स्वाभाविक पर्यायोंमें
रमण करता हुआ प्रगट होता है । वह निर्विकल्प
दशा अद्भुत है, वचनातीत है । वह दशा प्रगट
होने पर सारा जीवन पलट जाता है ।।४२३।।
प्रश्न :आत्मद्रव्यका बहु भाग शुद्ध रहकर मात्र
थोड़े भागमें ही अशुद्धता आयी है न ?
उत्तर :निश्चयसे अशुद्धता द्रव्यके थोड़े भागमें
भी नहीं आयी है, वह तो ऊपर-ऊपर ही तैरती है ।
वास्तवमें यदि द्रव्यके थोड़े भी भागमें अशुद्धता आये
अर्थात् द्रव्यका थोड़ा भी भाग अशुद्ध हो जाय, तो
अशुद्धता कभी निकलेगी ही नहीं, सदाकाल रहेगी !
बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव द्रव्यके ऊपर तैरते हैं परन्तु
उसमें सचमुच स्थान नहीं पाते । शक्ति तो शुद्ध ही

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बहिनश्रीके वचनामृत
है, व्यक्ति में अशुद्धता आयी है ।।४२४।।
प्रश्न :जिज्ञासु जीव तत्त्वको यथार्थ धारण
करने पर भी किस प्रकार अटक जाता है ?
उत्तर :तत्त्वको धारण करने पर भी जगतके
किन्हीं पदार्थोंमें गहरे-गहरे सुखकी कल्पना रह जाये
अथवा शुभ परिणाममें आश्रयबुद्धि रह जायेइत्यादि
प्रकारसे वह जीव अटक जाता है । परन्तु जो खास
जिज्ञासुआत्मार्थी हो और जिसे खास प्रकारकी
पात्रता प्रगट हुई हो वह तो कहीं अटकता ही नहीं,
और उस जीवको ज्ञानकी कोई भूल रह गई हो तो
वह भी स्वभावकी लगनके बलसे निकल जाती है;
अंतरकी खास प्रकारकी पात्रतावाला जीव कहीं अटके
बिना अपने आत्माको प्राप्त कर लेता है ।।४२५।।
प्रश्न :मुमुक्षुको सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके लिये
क्या करना चाहिये ?
उत्तर :अनादिकालसे आत्माने अपना स्वरूप

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नहीं छोड़ा है, परन्तु भ्रान्तिके कारण ‘छोड़ दिया
है’ऐसा उसे भासित हुआ है । अनादिकालसे
द्रव्य तो शुद्धतासे भरा है, ज्ञायकस्वरूप ही है,
आनन्दस्वरूप ही है । उसमें अनंत चमत्कारिक शक्ति
भरी है ।ऐसे ज्ञायक आत्माको सबसे भिन्न
परद्रव्यसे भिन्न, परभावोंसे भिन्नजाननेका प्रयत्न
करना चाहिये । भेदज्ञानका अभ्यास करना
चाहिये । ज्ञायक आत्माको पहिचानना चाहिये ।
‘ज्ञायकस्वरूप हूँ’ ऐसा अभ्यास करना चाहिये,
उसकी प्रतीति करना चाहिये; प्रतीति करके उसमें
स्थिर हो जाने पर, उसमें जो अनंत चमत्कारिक
शक्ति है वह प्रगट अनुभवमें आती है ।।४२६।।
प्रश्न :मुमुक्षु जीव पहले क्या करे ?
उत्तर :पहले द्रव्य-गुण-पर्यायसबको पहिचाने।
चैतन्यद्रव्यके सामान्यस्वभावको पहिचानकर, उस पर
द्रष्टि करके, उसका अभ्यास करते-करते चैतन्य
उसमें स्थिर हो जाये, तो उसमें जो विभूति है वह
प्रगट होती है । चैतन्यके असली स्वभावकी लगन

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लगे, तो प्रतीति हो; उसमें स्थिर हो तो उसका
अनुभव होता है ।
सबसे पहले चैतन्यद्रव्यको पहिचानना, चैतन्यमें ही
विश्वास करना और पश्चात् चैतन्यमें ही स्थिर
होना...तो चैतन्य प्रगट हो, उसकी शक्ति प्रगट हो ।
प्रगट करनेमें अपनी तैयारी होना चाहिये;
अर्थात् उग्र पुरुषार्थ बारम्बार करे, ज्ञायकका ही
अभ्यास, ज्ञायकका ही मंथन, उसीका चिंतवन करे,
तो प्रगट हो ।
पूज्य गुरुदेवने मार्ग बतलाया है; चारों ओरसे
स्पष्ट किया है ।।४२७।।
प्रश्न :आत्माकी विभूतिको उपमा देकर
समझाइये ।
उत्तर :चैतन्यतत्त्वमें विभूति भरी है । कोई
उपमा उसे लागू नहीं होती । चैतन्यमें जो विभूति
भरी है वह अनुभवमें आती है; उपमा क्या दी
जाय ? ४२८।।

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प्रश्न :प्रथम आत्मानुभव होनेसे पूर्व, अन्तिम
विकल्प कैसा होता है ?
उत्तर :अन्तिम विकल्पका कोई नियम नहीं
है । भेदज्ञानपूर्वक शुद्धात्मतत्त्वकी सन्मुखताका
अभ्यास करते-करते चैतन्यतत्त्वकी प्राप्ति होती है ।
जहाँ ज्ञायककी ओर परिणति ढल रही होती है,
वहाँ कौनसा विकल्प अन्तिम होता है (अर्थात्
अन्तमें अमुक ही विकल्प होता है) ऐसा ‘विकल्प’
सम्बन्धी कोई नियम नहीं है । ज्ञायकधाराकी
उग्रतातीक्ष्णता हो वहाँ ‘विकल्प कौनसा ?’ उसका
सम्बन्ध नहीं है ।
भेदज्ञानकी उग्रता, उसकी लगन, उसीकी तीव्रता
होती है; शब्द द्वारा वर्णन नहीं हो सकता ।
अभ्यास करे, गहराईमें जाय, उसके तलमें जाकर
पहिचाने, तलमें जाकर स्थिर हो, तो प्राप्त होता
हैज्ञायक प्रगट होता है ।।४२९।।
प्रश्न :निर्विकल्प दशा होने पर वेदन किसका
होता है ? द्रव्यका या पर्यायका ?

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उत्तर :द्रष्टि तो ध्रुवस्वभावकी ही होती है;
वेदन होता है आनन्दादि पर्यायोंका ।
द्रव्य तो स्वभावसे अनादि-अनंत है जो पलटता
नहीं है, बदलता नहीं है । उस पर द्रष्टि करनेसे,
उसका ध्यान करनेसे, अपनी विभूतिका प्रगट
अनुभव होता है ।।४३०।।
प्रश्न :निर्विकल्प अनुभूतिके समय आनन्द कैसा
होता है ?
उत्तर :उस आनन्दकी, किसी जगतके
विभावकेआनन्दके साथ, बाहरकी किसी वस्तुके
साथ, तुलना नहीं है । जिसको अनुभवमें आता है
वह जानता है । उसे कोई उपमा लागू नहीं होती ।
ऐसी अचिन्त्य अद्भुत उसकी महिमा है ।।४३१।।
प्रश्न :आज वीरनिर्वाणदिनके प्रसंग पर कृपया
दो शब्द कहिये ।
उत्तर :श्री महावीर तीर्थाधिनाथ आत्माके पूर्ण

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अलौकिक आनन्दमें और केवलज्ञानमें परिणमते थे ।
आज उनने सिद्धदशा प्राप्त की । चैतन्यशरीरी भगवान
आज पूर्ण अकम्प होकर अयोगीपदको प्राप्त हुए,
चैतन्यपिण्ड पृथक् हो गया, स्वयं पूर्ण चिद्रूप होकर
चैतन्यबिम्बरूपसे सिद्धालयमें विराज गये; अब सदा
समाधिसुख-आदि अनन्तगुणोंमें परिणमन करते
रहेंगे । आज भरतक्षेत्रसे त्रिलोकीनाथ चले गये,
तीर्थंकरभगवानका वियोग हुआ, वीरप्रभुका आज
विरह पड़ा । इन्द्रोंने ऊपरसे उतरकर आज निर्वाण-
महोत्सव मनाया । देवों द्वारा मनाया गया वह
निर्वाणकल्याणकमहोत्सव कैसा दिव्य होगा ! उसका
अनुसरण करके आज भी लोग प्रतिवर्ष दिवालीके
दिन दीपमाला प्रज्वलित करके दीपावलीमहोत्सव
मनाते हैं ।
आज वीरप्रभु मोक्ष पधारे । गणधरदेव श्री
गौतमस्वामी तुरन्त ही अंतरमें गहरे उतर गये और
वीतरागदशा प्राप्त करके केवलज्ञान प्राप्त किया ।
आत्माके स्वक्षेत्रमें रहकर लोकालोकको जाननेवाला
आश्चर्यकारी, स्वपरप्रकाशक प्रत्यक्षज्ञान उन्हें प्रगट
हुआ, आत्माके असंख्य प्रदेशोंमें आनन्दादि अनन्त
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गुणोंकी अनन्त पूर्ण पर्यायें प्रकाशमान हो उठीं ।
अभी इस पंचम कालमें भरतक्षेत्रमें तीर्थंकर-
भगवानका विरह है, केवलज्ञानी भी नहीं हैं ।
महाविदेहक्षेत्रमें कभी तीर्थंकरका विरह नहीं होता,
सदैव धर्मकाल वर्तता है । आज भी वहाँ भिन्न-भिन्न
विभागोंमें एक-एक तीर्थंकर मिलाकर बीस तीर्थंकर
विद्यमान हैं । वर्तमानमें विदेहक्षेत्रके पुष्कलावती-
विजयमें श्री सीमंधरनाथ विचर रहे हैं और
समवसरणमें विराजकर दिव्यध्वनिके स्रोत बहा रहे
हैं । इस प्रकार अन्य विभागोंमें अन्य तीर्थंकरभगवन्त
विचर रहे हैं ।
यद्यपि वीरभगवान निर्वाण पधारे हैं तथापि इस
पंचम कालमें इस भरतक्षेत्रमें वीरभगवानका शासन
प्रवर्त रहा है, उनका उपकार वर्त रहा है । वीर-
प्रभुके शासनमें अनेक समर्थ आचार्यभगवान हुए
जिन्होंने वीरभगवानकी वाणीके रहस्यको विविध
प्रकारसे शास्त्रोंमें भर दिया है । श्री कुन्दकुन्दादि
समर्थ आचार्यभगवन्तोंने दिव्यध्वनिके गहन रहस्योंसे
भरपूर परमागमोंकी रचना करके मुक्ति का मार्ग
२०२ ]
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अद्भुत रीतिसे प्रकाशित किया है ।
वर्तमानमें श्री कहानगुरुदेव शास्त्रोंके सूक्ष्म
रहस्य खोलकर मुक्ति का मार्ग स्पष्ट रीतिसे समझा
रहे हैं । उन्होंने अपने सातिशय ज्ञान एवं वाणी
द्वारा तत्त्वका प्रकाशन करके भारतको जागृत
किया है । गुरुदेवका अमाप उपकार है । इस
काल ऐसे मार्ग समझानेवाले गुरुदेव मिले वह
अहोभाग्य है । सातिशय गुणरत्नोंसे भरपूर
गुरुदेवकी महिमा और उनके चरणकमलकी भक्ति
अहोनिश अंतरमें रहो ।।४३२।।
बहिनश्रीके वचनामृत
[ २०३

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भवजलधि पार उतारने जिनवाणी है नौका भली;
आत्मज्ञ नाविक योग बिन वह नाव भी तारे नहीं
इस कालमें शुद्धात्मविद नाविक महा दुष्प्राप्य है;
मम पुण्यराशि फली अहो ! गुरुक्हान नाविक आ मिले
।।
अहो ! भक्त चिदात्माके, सीमंधर-वीर-कुन्दके !
बाह्यांतर विभवों तेरे, तारे नाव मुमुक्षुके
।।
शीतल सुधाझरण चन्द्र ! तुझे नमूं मैं;
करुणा अकारण समुद्र ! तुझे नमूं मैं
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तुझे नमूं मैं;
इस दासके जीवनशिल्पि ! तुझे नमूं मैं
।।
अहो ! उपकार जिनवरका, कुन्दका, ध्वनि दिव्यका
जिनके, कुन्दके, ध्वनिके दाता श्री गुरुक्हानका ।।
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पूज्य बहिनश्री चंपाबेनके विषयमें
जन्मजयंती प्रसंग पर
पाँच गीत
[ २०५ ]