Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 13-64.

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‘मैं ज्ञायक और यह पर’, बाकी सब जाननेके
प्रकार हैं । ‘मैं ज्ञायक हूँ, बाकी सब पर’ऐसी एक
धारा प्रवाहित हो तो उसमें सब आ जाता है, परन्तु
स्वयं गहरा उतरता ही नहीं, करनेकी ठानता ही नहीं,
इसलिये कठिन लगता है ।।१३।।
‘मैं हूँ’ इस प्रकार स्वयंसे अपने अस्तित्वका
जोर आता है, स्वयं अपनेको पहिचानता है । पहले
ऊपर-ऊपरसे अस्तित्वका जोर आता है, फि र
अस्तित्वका गहराईसे जोर आता है; वह विकल्परूप
होता है परन्तु भावना जोरदार होनेसे सहजरूपसे
जोर आता है । भावनाकी उग्रता हो तो सच्चा
आनेका अवकाश है ।।१४।।
तीर्थंकरदेवकी दिव्यध्वनि जो कि जड़ है उसे
भी कैसी उपमा दी है ! अमृतवाणीकी मिठास
देखकर द्राक्षें शरमाकर वनवासमें चली गईं और
इक्षु अभिमान छोड़कर कोल्हूमें पिल गया ! ऐसी
तो जिनेन्द्रवाणीकी महिमा गायी है; फि र
बहिनश्रीके वचनामृत

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जिनेन्द्रदेवके चैतन्यकी महिमाका तो क्या
कहना ! ।।१५।।
ज्ञान-वैराग्यरूपी पानी अंतरमें सींचनेसे अमृत
मिलेगा, तेरे सुखका फव्वारा छूटेगा; राग सींचनेसे
दुःख मिलेगा । इसलिये ज्ञान-वैराग्यरूपी जलका
सिंचन करके मुक्ति सुखरूपी अमृत प्राप्त कर ।।१६।।
जैसे वृक्षका मूल पकड़नेसे सब हाथ आता है,
वैसे ज्ञायकभाव पकड़नेसे सब हाथ आयगा । शुभ-
परिणाम करनेसे कुछ हाथ नहीं आयगा । यदि मूल
स्वभावको पकड़ा होगा तो चाहे जो प्रसंग आयें उस
समय शान्तिसमाधान रहेगा, ज्ञाता-द्रष्टारूपसे रहा
जा सकेगा ।।१७।।
द्रष्टि द्रव्य पर रखना है । विकल्प आयें परन्तु
द्रष्टि एक द्रव्य पर है । जिस प्रकार पतंग आकाशमें
उड़ती है परन्तु डोर हाथमें होती है, उसी प्रकार
‘चैतन्य हूँ’ यह डोर हाथमें रखना । विकल्प आयें,
बहिनश्रीके वचनामृत

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परन्तु चैतन्यतत्त्व सो मैं हूँऐसा बारम्बार अभ्यास
करनेसे द्रढ़ता होती है ।।१८।।
ज्ञानीके अभिप्रायमें राग है वह जहर है, काला
साँप है । अभी आसक्ति के कारण ज्ञानी थोड़े बाहर
खड़े हैं, राग है, परन्तु अभिप्रायमें काला साँप लगता
है । ज्ञानी विभावके बीच खड़े होने पर भी विभावसे
पृथक् हैंन्यारे हैं ।।१९।।
मुझे कुछ नहीं चाहिये, किसी परपदार्थकी लालसा
नहीं है, आत्मा ही चाहियेऐसी तीव्र उत्सुकता जिसे
हो उसे मार्ग मिलता है । अंतरमें चैतन्यऋद्धि है
तत्संबंधी विकल्पमें भी वह नहीं रुकता । ऐसा निस्पृह
हो जाता है कि मुझे अपना अस्तित्व ही चाहिये ।
ऐसी अंतरमें जानेकी तीव्र उत्सुकता जागे तो
आत्मा प्रगट हो, प्राप्त हो ।।२०।।
चैतन्यको चैतन्यमेंसे परिणमित भावना अर्थात्
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राग-द्वेषमेंसे नहीं उदित हुई भावनाऐसी यथार्थ
भावना हो तो वह भावना फलती ही है । यदि
नहीं फले तो जगतकोचौदह ब्रह्माण्डको शून्य
होना पड़े अथवा तो इस द्रव्यका नाश हो जाय ।
परन्तु ऐसा होता ही नहीं । चैतन्यके परिणामके
साथ कुदरत बँधी हुई हैऐसा ही वस्तुका
स्वभाव है । यह अनन्त तीर्थंकरोंकी कही हुई
बात है ।।२१।।
गुरुदेवको मानों तीर्थंकर जैसा उदय वर्तता है ।
वाणीका प्रभाव ऐसा है कि हजारों जीव समझ
जाते हैं । तीर्थंकरकी वाणी जैसा योग है । वाणी
जोरदार है । चाहे जितनी बार सुनने पर भी अरुचि
नहीं आती । स्वयं इतनी सरसतासे बोलते हैं कि
जिससे सुननेवालेका रस भी जमा रहता है,
रसभरपूर वाणी है ।।२२।।
ऊपर-ऊपरके वांचन-विचार आदिसे कुछ नहीं होता,
हृदयसे भावना उठे तो मार्ग सरल होता है । अंत-
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स्तलमेंसे ज्ञायककी खूब महिमा आनी चाहिये ।।२३।।
आत्मार्थीको स्वाध्याय करना चाहिये, विचार-मनन
करना चाहिये; यही आत्मार्थीकी खुराक है ।।२४।।
प्रथम भूमिकामें शास्त्रश्रवण-पठन-मनन आदि सब
होता है, परन्तु अंतरमें उस शुभ भावसे संतुष्ट नहीं
हो जाना चाहिये । इस कार्यके साथ ही ऐसा खटका
रहना चाहिये कि यह सब है किन्तु मार्ग तो कोई
अलग ही है । शुभाशुभ भावसे रहित मार्ग भीतर
हैऐसा खटका तो साथ ही लगा रहना
चाहिये ।।२५।।
भीतर आत्मदेव बिराजमान है उसकी सँभाल
कर । अब अंतरमें जा, और तृप्त हो । अनंत
गुणस्वरूप आत्माको देख, उसकी सँभाल कर ।
वीतरागी आनन्दसे भरपूर स्वभावमें क्रीड़ा कर, उस
आनन्दरूप सरोवरमें केलि करउसमें रमण कर ।।२६।।
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ऐसे कालमें परम पूज्य गुरुदेवश्रीने आत्मा प्राप्त
किया इसलिये परम पूज्य गुरुदेव एक ‘अचंभा’ हैं ।
इस काल दुष्करमें दुष्कर प्राप्त किया; स्वयं अंतरसे
मार्ग प्राप्त किया और दूसरोंको मार्ग बतलाया ।
उनकी महिमा आज तो गायी जा रही है परन्तु हजारों
वर्ष तक भी गायी जायगी ।।२७।।
भविष्यका चित्रण कैसा करना है वह तेरे हाथकी
बात है । इसलिये कहा है कि‘बंध समय जीव
चेतो रे, उदय समय क्या चिंत !’ ।।२८।।
ज्ञानको धीर-गंभीर करके सूक्ष्मतासे भीतर देख
तो आत्मा पकड़में आ सकता है । एक बार
विकल्पका जाल तोड़कर भीतरसे अलग हो जा, फि र
जाल चिपकेगा नहीं ।।२९।।
जब बीज बोते हैं तब प्रगट रूपसे कुछ नहीं
दिखता, तथापि विश्वास है कि ‘इस बीजमेंसे वृक्ष
उगेगा, उसमेंसे डालें-पत्ते-फलादि आयेंगे’, पश्चात्
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उसका विचार नहीं आता; उसी प्रकार मूल शक्ति रूप
द्रव्यको यथार्थ विश्वासपूर्वक ग्रहण करनेसे निर्मल
पर्याय प्रगट होती है; द्रव्यमें प्रगटरूपसे कुछ दिखाई
नहीं देता इसलिये विश्वास बिना ‘क्या प्रगट होगा’
ऐसा लगता है, परन्तु द्रव्यस्वभावका विश्वास करनेसे
निर्मलता प्रगट होने लगती है ।।३०।।
सम्यग्द्रष्टिको ज्ञान-वैराग्यकी ऐसी शक्ति प्रगट हुई
है कि गृहस्थाश्रममें होने पर भी, सभी कार्योंमें
स्थित होने पर भी, लेप नहीं लगता, निर्लेप रहते
हैं; ज्ञानधारा एवं उदयधारा दोनों भिन्न परिणमती
हैं; अल्प अस्थिरता है वह अपने पुरुषार्थकी
कमज़ोरीसे होती है, उसके भी ज्ञाता रहते हैं ।।३१।।
सम्यग्द्रष्टिको आत्माके सिवा बाहर कहीं अच्छा
नहीं लगता, जगतकी कोई वस्तु सुन्दर नहीं
लगती । जिसे चैतन्यकी महिमा एवं रस लगा है
उसको बाह्य विषयोंका रस टूट गया है, कोई
पदार्थ सुन्दर या अच्छा नहीं लगता । अनादि
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अभ्यासके कारण, अस्थिरताके कारण अन्दर
स्वरूपमें नहीं रहा जा सकता इसलिये उपयोग
बाहर आता है परन्तु रसके बिनासब निःसार,
छिलकोंके समान, रस-कस शून्य हो ऐसे
भावसेबाहर खड़े हैं ।।३२।।
‘जिसे लगी है उसीको लगी है’....परन्तु अधिक
खेद नहीं करना । वस्तु परिणमनशील है, कूटस्थ
नहीं है; शुभाशुभ परिणाम तो होंगे । उन्हें छोड़ने
जायगा तो शून्य अथवा शुष्क हो जायगा । इसलिये
एकदम जल्दबाजी नहीं करना । मुमुक्षु जीव
उल्लासके कार्योंमें भी लगता है; साथ ही साथ
अन्दरसे गहराईमें खटका लगा ही रहता है, संतोष
नहीं होता । अभी मुझे जो करना है वह बाकी रह
जाता हैऐसा गहरा खटका निरंतर लगा ही रहता
है, इसलिये बाहर कहीं उसे संतोष नहीं होता; और
अन्दर ज्ञायकवस्तु हाथ नहीं आती, इसलिये उलझन
तो होती है; परन्तु इधर-उधर न जाकर वह
उलझनमेंसे मार्ग ढूँढ़ निकालता है ।।३३।।
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मुमुक्षुको प्रथम भूमिकामें थोड़ी उलझन भी होती
है, परन्तु वह ऐसा नहीं उलझता कि जिससे मूढ़ता
हो जाय । उसे सुखका वेदन चाहिये है वह मिलता
नहीं और बाहर रहना पोसाता नहीं है, इसलिये
उलझन होती है, परन्तु उलझनमेंसे वह मार्ग ढूँढ़ लेता
है । जितना पुरुषार्थ उठाये उतना वीर्य अंदर काम
करता है । आत्मार्थी हठ नहीं करता कि मुझे झटपट
करना है । स्वभावमें हठ काम नहीं आती । मार्ग
सहज है, व्यर्थकी जल्दबाजीसे प्राप्त नहीं होता ।।३४।।
अनंत कालसे जीवको अशुभ भावकी आदत पड़
गई है, इसलिये उसे अशुभ भाव सहज है । और
शुभको बारम्बार करनेसे शुभ भाव भी सहज हो
जाता है । परन्तु अपना स्वभाव जो कि सचमुच
सहज है उसका ख्याल जीवको नहीं आता, खबर नहीं
पड़ती । उपयोगको सूक्ष्म करके सहज स्वभाव
पकड़ना चाहिये ।।३५।।
जो प्रथम उपयोगको पलटना चाहता है परन्तु
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अंतरंग रुचिको नहीं पलटता, उसे मार्गका ख्याल नहीं
है । प्रथम रुचिको पलटे तो उपयोग सहज ही पलट
जायगा । मार्गकी यथार्थ विधिका यह क्रम है ।।३६।।
‘मैं अबद्ध हूँ’, ‘ज्ञायक हूँ’, यह विकल्प भी
दुःखरूप लगते हैं, शांति नहीं मिलती, विकल्पमात्रमें
दुःख ही दुःख भासता है, तब अपूर्व पुरुषार्थ उठाकर
वस्तुस्वभावमें लीन होने पर, आत्मार्थी जीवको सब
विकल्प छूट जाते हैं और आनन्दका वेदन होता
है ।।३७।।
आत्माको प्राप्त करनेका जिसे द्रढ निश्चय हुआ है
उसे प्रतिकूल संयोगोंमें भी तीव्र एवं कठिन पुरुषार्थ
करना ही पड़ेगा । सच्चा मुमुक्षु सद्गुरुके गंभीर तथा
मूल वस्तुस्वरूप समझमें आये ऐसे रहस्योंसे भरपूर
वाक्योंका खूब गहरा मंथन करके मूल मार्गको ढूँढ़
निकालता है ।।३८।।
सहज दशाको विकल्प करके नहीं बनाये रखना
पड़ता । यदि विकल्प करके बनाये रखना पड़े तो वह
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सहज दशा ही नहीं है । तथा प्रगट हुई दशाको
बनाये रखनेका कोई अलग पुरुषार्थ नहीं करना
पड़ता; क्योंकि बढ़नेका पुरुषार्थ करता है जिससे वह
दशा तो सहज ही बनी रहती है ।।३९।।
साधक दशामें शुभ भाव बीचमें आते हैं; परन्तु
साधक उन्हें छोड़ता जाता है; साध्यका लक्ष नहीं
चूकता ।जैसे मुसाफि र एक नगरसे दूसरे नगर
जाता है तब बीचमें अन्य-अन्य नगर आयें उन्हें
छोड़ता जाता है, वहाँ रुकता नहीं है; जहाँ जाना है
वहींका लक्ष रहता है ।।४०।।
सच्ची उत्कंठा हो तो मार्ग मिलता ही है, मार्ग न
मिले ऐसा नहीं बनता । जितना कारण दे उतना कार्य
होता ही है । अन्दर वेदन सहित भावना हो तो मार्ग
ढूँढ़े ।।४१।।
यथार्थ रुचि सहित शुभभाव वैराग्य एवं उपशम-
रससे सराबोर होते हैं; और यथार्थ रुचि बिना, वहके
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वही शुभभाव रूखे एवं चंचलतायुक्त होते हैं ।।४२।।
जिस प्रकार कोई बालक अपनी मातासे बिछुड़
गया हो, उससे पूछें कि ‘तेरा नाम क्या ?’ तो
कहता है ‘मेरी माँ’, ‘तेरा गाँव कौन ?’ तो कहता
है ‘मेरी माँ’, ‘तेरे माता-पिता कौन हैं ?’ तो कहता
है ‘मेरी माँ’, उसी प्रकार जिसे आत्माकी सच्ची
रुचिसे ज्ञायकस्वभाव प्राप्त करना है उसे हरएक
प्रसंगमें ‘ज्ञायकस्वभाव....ज्ञायकस्वभाव’ऐसी
लगन बनी ही रहती है, उसीकी निरंतर रुचि एवं
भावना रहती है ।।४३।।
रुचिमें सचमुच अपनेको आवश्यकता लगे तो
वस्तुकी प्राप्ति हुए बिना रहती ही नहीं । उसे चौबीसों
घण्टे एक ही चिंतन, मंथन, खटका बना रहता है ।
जिस प्रकार किसीको ‘माँ’ का प्रेम हो तो उसे माँकी
याद, उसका खटका निरंतर बना ही रहता है, उसी
प्रकार जिसे आत्माका प्रेम हो वह भले ही शुभमें
उल्लासपूर्वक भाग लेता हो तथापि अंतरमें खटका तो
आत्माका ही रहता है । ‘माँ’ के प्रेमवाला भले ही
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ब. व. २

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कुटुम्ब-परिवारके समूहमें बैठा हो, आनन्द करता हो,
परन्तु मन तो ‘माँ’ में ही लगा रहता है : ‘अरे ! मेरी
माँ....मेरी माँ !’; उसी प्रकार आत्माका खटका रहना
चाहिये । चाहे जिस प्रसंगमें ‘मेरा आत्मा....मेरा
आत्मा !’ यही खटका और रुचि रहना चाहिये । ऐसा
खटका बना रहे तो ‘आत्म-माँ’ मिले बिना नहीं रह
सकती ।।४४।।
अंतरका तल खोजकर आत्माको पहिचान । शुभ
परिणाम, धारणा आदिका थोड़ा पुरुषार्थ करके ‘मैंने
बहुत किया है’ ऐसा मानकर, जीव आगे बढ़नेके
बदले अटक जाता है । अज्ञानीको जरा कुछ आ
जाय, धारणासे याद रह जाय, वहाँ उसे अभिमान हो
जाता है; क्योंकि वस्तुके अगाध स्वरूपका उसे ख्याल
ही नहीं है; इसलिये वह बुद्धिके विकास आदिमें संतुष्ट
होकर अटक जाता है । ज्ञानीको पूर्णताका लक्ष
होनेसे वह अंशमें नहीं अटकता । पूर्ण पर्याय प्रगट
हो तो भी स्वभाव था सो प्रगट हुआ इसमें नया क्या
है ? इसलिये ज्ञानीको अभिमान नहीं होता ।।४५ ।।
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जीवन आत्मामय ही कर लेना चाहिये । भले ही
उपयोग सूक्ष्म होकर कार्य नहीं कर सकता हो परन्तु
प्रतीतिमें ऐसा ही होता है कि यह कार्य करनेसे ही
लाभ है, मुझे यही करना है; वह वर्तमान पात्र
है ।।४६।।
त्रैकालिक ध्रुव द्रव्य कभी बँधा नहीं है । मुक्त
है या बँधा है वह व्यवहारनयसे है, वह पर्याय है ।
जैसे मकड़ी अपनी लारमें बँधी है वह छूटना चाहे
तो छूट सकती है, जैसे घरमें रहनेवाला मनुष्य अनेक
कार्योंमें, उपाधियोंमें, जंजालमें फँसा है परन्तु
मनुष्यरूपसे छूटा है; वैसे ही जीव विभावके जालमें
बँधा है, फँसा है परन्तु प्रयत्न करे तो स्वयं मुक्त ही
है ऐसा ज्ञात होता है । चैतन्यपदार्थ तो मुक्त ही है ।
चैतन्य तो ज्ञान-आनन्दकी मूर्तिज्ञायकमूर्ति है,
परन्तु स्वयं अपनेको भूल गया है । विभावका जाल
बिछा है उसमें फँस गया है, परन्तु प्रयत्न करे तो
मुक्त ही है । द्रव्य बँधा नहीं है ।।४७।।
विकल्पमें पूरा-पूरा दुःख लगना चाहिये ।
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विकल्पमें किंचित् भी शान्ति एवं सुख नहीं है ऐसा
जीवको अंदरसे लगना चाहिये । एक विकल्पमें दुःख
लगता है और दूसरे मंद विकल्पमें शांतिका आभास
होता है, परन्तु विकल्पमात्रमें तीव्र दुःख लगे तो अंदर
मार्ग मिले बिना न रहे ।।४८।।
सारे दिनमें आत्मार्थको पोषण मिले ऐसे परिणाम
कितने हैं और अन्य परिणाम कितने हैं वह जाँचकर
पुरुषार्थकी ओर झुकना । चिंतवन मुख्यरूपसे करना
चाहिये । कषायके वेगमें बहनेसे अटकना, गुणग्राही
बनना ।।४९।।
तू सत्की गहरी जिज्ञासा कर जिससे तेरा प्रयत्न
बराबर चलेगा; तेरी मति सरल एवं सुलटी होकर
आत्मामें परिणमित हो जायगी । सत्के संस्कार गहरे
डाले होंगे तो अन्तमें अन्य गतिमें भी सत् प्रगट
होगा । इसलिये सत्के गहरे संस्कार डाल ।।५०।।
आकाश - पाताल भले एक हो जायें परन्तु भाई !
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तू अपने ध्येयको मत चूकना, अपने प्रयत्नको मत
छोड़ना । आत्मार्थको पोषण मिले वह कार्य करना ।
जिस ध्येय पर आरूढ़ हुआ उसे पूर्ण करना, अवश्य
सिद्धि होगी ।।५१।।
शरीर शरीरका कार्य करता है, आत्मा आत्माका
कार्य करता है । दोनों भिन्न-भिन्न स्वतंत्र हैं, उनमें
‘यह शरीरादि मेरे’ ऐसा मानकर सुख-दुःख न कर,
ज्ञाता बन जा । देहके लिये अनंत भव व्यतीत हुए;
अब, संत कहते हैं कि अपने आत्माके लिये यह
जीवन अर्पण कर ।।५२।।
निवृत्तिमय जीवनमें प्रवृत्तिमय जीवन नहीं
सुहाता । शरीरका रोग मिटना हो तो मिटे, परन्तु
उसके लिये प्रवृत्ति नहीं सुहाती । बाहरका कार्य
उपाधि लगता है, रुचता नहीं ।।५३।।
अनुकूलतामें नहीं समझता तो भाई ! अब प्रति-
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कूलतामें तो समझ ! किसी प्रकार समझ....समझ,
और वैराग्य लाकर आत्मामें जा ।।५४।।
चैतन्यकी भावना कभी निष्फल नहीं जाती, सफल
ही होती है । भले ही थोड़ा समय लगे, किन्तु भावना
सफल होती ही है ।।५५।।
जीव स्वयं पूरा खो गया है वह नहीं देखता, और
एक वस्तु खो गई तो मानों स्वयं पूरा खो गया, रुक
गया; रुपया, घर, शरीर, पुत्रादिमें तू रुक गया है ।
अरे ! विचार तो कर कि तू सारे दिन कहाँ रुका
रहा ! बाहरका बाहर ही रुक गया, तो भाई ! वहाँ
आत्मप्राप्ति कैसे होगी ? ।।५६।।
पूज्य गुरुदेवके श्रीमुखसे स्वयं जिस तत्त्वको
ग्रहण किया हो उसका मंथन करना चाहिये ।
निवृत्तिकालमें अपनी परिणतिमें रस आये ऐसी
पुस्तकोंका पठन करके अपनी लगनको जागृत रखना
चाहिये । आत्माके ध्येयपूर्वक, अपनी परिणतिमें रस
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बहिनश्रीके वचनामृत

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आये ऐसे विचार-मंथन करने पर अंतरसे अपना मार्ग
मिल जाता है ।।५७।।
ज्ञानीको द्रष्टि-अपेक्षासे चैतन्य एवं रागकी अत्यन्त
भिन्नता भासती है, यद्यपि वे ज्ञानमें जानते हैं कि राग
चैतन्यकी पर्यायमें होता है ।।५८।।
जिस जीवका ज्ञान अपने स्थूल परिणामोंको
पकड़नेमें काम न करे वह जीव अपने सूक्ष्म
परिणामोंको कहाँसे पकड़ेगा ? और सूक्ष्म परिणामोंको
न पकड़े तो स्वभाव कैसे पकड़में आयेगा ? ज्ञानको
सूक्ष्म-तीक्ष्ण करके स्वभावको पकड़े तो भेदविज्ञान
हो ।।५९।।
अनादिकालसे अज्ञानी जीव संसारमें भटकते-
भटकते, सुखकी लालसामें विषयोंके पीछे दौड़ते-
दौड़ते, अनंत दुःखोंको सहता रहा है । कभी उसे
सच्चा सुख बतलानेवाले मिले तो शंका रखकर अटक
गया, कभी सच्चा सुख बतलानेवालेकी उपेक्षा करके
बहिनश्रीके वचनामृत
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अपना सच्चा स्वरूप प्राप्त करनेसे वंचित रहा, कभी
पुरुषार्थ किये बिना अटका रहा, कभी पुरुषार्थ किया
भी तो थोड़ेसे पुरुषार्थके लिये वहाँसे अटका और
गिरा ।इस प्रकार जीव अपना स्वरूप प्राप्त करनेमें
अनंत बार अटका । पुण्योदयसे यह देह प्राप्त हुआ,
यह दशा प्राप्त हुई, ऐसे सत्पुरुषका योग मिला; अब
यदि पुरुषार्थ नहीं करेगा तो किस भवमें करेगा ? हे
जीव ! पुरुषार्थ कर; ऐसा सुयोग एवं सच्चा आत्म-
स्वरूप बतलानेवाले सत्पुरुष बार-बार नहीं मिलेंगे ।।६०।।
जिसे सचमुच ताप लगा हो, जो संसारसे ऊब
गया हो उसकी यह बात है । विभावसे ऊब जाये
और संसारका त्रास लगे तो मार्ग मिले बिना नहीं
रहता । कारण दे तो कार्य प्रगट होता ही है । जिसे
जिसकी रुचिरस हो वहाँ उसका समय कट जाता
है; ‘रुचि अनुयायी वीर्य’ । निरंतर ज्ञायकके मंथनमें
रहे, दिन-रात उसके पीछे पड़े, तो वस्तु प्राप्त हुए
बिना न रहे ।।६१।।
जीव ज्ञायकके लक्षसे श्रवण करे, चिंतवन करे,
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मंथन करे उसेभले कदाचित् सम्यग्दर्शन न हो
तथापिसम्यक्त्वसन्मुखता होती है । अन्दर द्र
संस्कार डाले, उपयोग एक विषयमें न टिके तो
अन्यमें बदले, उपयोग सूक्ष्मसे सूक्ष्म करे, उपयोगमें
सूक्ष्मता करते करते, चैतन्यतत्त्वको ग्रहण करते हुए
आगे बढ़े, वह जीव क्रमसे सम्यग्दर्शन प्राप्त करता
है ।।६२।।
जैसा बीज बोये वैसा वृक्ष होता है; आमका बीज
(गुठली) बोये तो आमका वृक्ष होगा और अकौआ
(आक)का बीज बोयेगा तो अकौएका वृक्ष उगेगा ।
जैसा कारण देंगे वैसा कार्य होता है । सच्चा पुरुषार्थ
करें तो सच्चा फल मिलता ही है ।।६३।।
अंतरमें, चैतन्यतत्त्व नमस्कार करने योग्य है; वही
मंगल है, वही सर्व पदार्थोंमें उत्तम है, भव्य जीवोंको
वह आत्मतत्त्व ही एक शरण है । बाह्यमें, पंच
परमेष्ठीअरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा
साधुनमस्कार करने योग्य हैं क्योंकि उन्होंने
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