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आत्माकी साधना की है; वे मंगलरूप हैं, वे लोकमें उत्तम हैं; वे भव्यजीवोंके शरण हैं ।।६४।।
देव-गुरुकी वाणी और देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा चैतन्यदेवकी महिमा जागृत करनेमें, उसके गहरे संस्कार द्रढ़ करनेमें तथा स्वरूपप्राप्ति करनेमें निमित्त हैं ।।६५।।
बाह्यमें सब कुछ हो उसमें — भक्ति -उल्लासके कार्य हों उनमें भी — आत्माका आनन्द नहीं है । जो तलमेंसे आये वही आनन्द सच्चा है ।।६६।।
प्रत्येक प्रसंगमें शान्ति, शान्ति और शान्ति ही लाभदायक है ।।६७।।
पूज्य गुरुदेवकी वाणी मिले वह एक अनुपम सौभाग्य है । मार्ग बतलानेवाले गुरु मिले और उनकी वाणी सुननेको मिली वह मुमुक्षुओंका परम सौभाग्य
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है । प्रतिदिन प्रातः-मध्याह्न दो बार ऐसा उत्तम सम्यक्- तत्त्व सुननेको मिलता है इस जैसा दूसरा कौनसा सद्भाग्य होगा ? श्रोताको अपूर्वता लगे और पुरुषार्थ करे तो वह आत्माके समीप आ जाय और जन्म-मरण टल जाय — ऐसी अद्भुत वाणी है । ऐसा जो श्रवणका सौभाग्य प्राप्त हुआ है वह मुमुक्षु जीवोंको सफल कर लेने योग्य है । पंचम कालमें निरंतर अमृतझरती गुरुदेवकी वाणी भगवानका विरह भुलाती है ! ।।६८।।
प्रयोजन तो एक आत्माका ही रखना । आत्माका रस आये वहाँ विभावका रस झर जाता है ।।६९।।
सब कुछ आत्मामें है, बाहर कुछ नहीं है । तुझे कुछ भी जाननेकी इच्छा होती हो तो तू अपने आत्माकी साधना कर । पूर्णता प्रगट होने पर लोकालोक उसमें ज्ञेयरूपसे ज्ञात होगा । जगत जगतमें रहे तथापि केवलज्ञानमें सब ज्ञात होता है । जाननहार तत्त्व पूर्णतारूप परिणमने पर उसकी जानकारीसे बाहर कुछ नहीं रहता और साथ ही साथ
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आनंदादि अनेक नवीनताएँ प्रगट होती हैं ।।७०।।
धन्य वह निर्ग्रन्थ मुनिदशा ! मुनिदशा अर्थात् केवलज्ञानकी तलहटी । मुनिको अंतरमें चैतन्यके अनंत गुण-पर्यायोंका परिग्रह होता है; विभाव बहुत छूट गया होता है । बाह्यमें श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणभूतपनेसे देहमात्र परिग्रह होता है । प्रतिबंध- रहित सहज दशा होती है; शिष्योंको बोध देनेका अथवा ऐसा कोई भी प्रतिबंध नहीं होता । स्वरूपमें लीनता वृद्धिंगत होती है ।।७१।।
अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करके प्रमत्त-अप्रमत्त स्थितिमें झूले वह मुनिदशा । मुनिराज स्वरूपमें निरंतर जागृत हैं, मुनिराज जहाँ जागते हैं वहाँ जगत सोता है, जगत जहाँ जागता है वहाँ मुनिराज सोते हैं । ‘मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्षकी प्राप्ति करें’ ।।७२।।
द्रव्य तो निवृत्त ही है । उसका द्रढ़तासे अवलम्बन
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लेकर भविष्यके विभावसे भी निवृत्त होओ । मुक्ति तो जिनके हाथमें आ गई है ऐसे मुनियोंको भेदज्ञानकी तीक्ष्णतासे प्रत्याख्यान होता है ।।७३।।
यदि तेरी गति विभावमें जाती है तो उसे शीघ्रतासे चैतन्यमें लगा । स्वभावमें आनेसे सुख और गुणोंकी वृद्धि होगी; विभावमें जानेसे दुःख और गुणोंकी हानि होगी । इसलिये शीघ्रतासे स्वरूपमें गति कर ।।७४।।
जिन्होंने चैतन्यधामको पहिचान लिया है वे स्वरूपमें ऐसे सो गये कि बाहर आना अच्छा ही नहीं लगता । जैसे अपने महलमें सुखसे रहनेवाले चक्रवर्ती राजाको बाहर निकलना सुहाता ही नहीं, वैसे ही जो चैतन्यमहलमें विराज गये हैं उन्हें बाहर आना कठिन लगता है, भाररूप लगता है; आँखसे रेत उठवाने जैसा दुष्कर लगता है । जो स्वरूपमें ही आसक्त हुआ उसे बाहरकी आसक्ति टूट गई है ।।७५।।
तस्वीर खींची जाती है वहाँ जैसे चेहरेके भाव होते
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हैं तदनुसार स्वयमेव कागज पर चित्रित हो जाते हैं, कोई चित्रण करने नहीं जाता । उसी प्रकार कर्मके उदयरूप चित्रकारी सामने आये तब समझना कि मैंने जैसे भाव किये थे वैसा ही यह चित्रण हुआ है । यद्यपि आत्मा कर्ममें प्रवेश करके कुछ करता नहीं है, तथापि भावके अनुरूप ही चित्रण स्वयं हो जाता है । अब दर्शनरूप, ज्ञानरूप, चारित्ररूप परिणमन कर तो संवर-निर्जरा होगी । आत्माका मूल स्वभाव दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप है, उसका अवलम्बन करने पर द्रव्यमें जो (शक्ति रूपसे) विद्यमान है वह (व्यक्ति रूपसे) प्रगट होगा ।।७६।।
अनंत कालसे जीवको स्वसे एकत्व और परसे विभक्त पनेकी बात रुची ही नहीं । जीव बाहरसे भूसी कूटता रहता है परन्तु अंदरका जो कस — आत्मा — है उसे नहीं खोजता । राग-द्वेषकी भूसी कूटनेसे क्या लाभ है? उसमेंसे दाना नहीं निकलेगा । परसे एकत्व- बुद्धि तोड़कर भिन्न तत्त्वको — अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष एवं असंयुक्त आत्माको — जाने, तो कार्य हो ।।७७।।
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स्वरूपकी लीला जात्यंतर है । मुनिराज चैतन्यके बागमें क्रीड़ा करते-करते कर्मके फलका नाश करते हैं । बाह्यमें आसक्ति थी उसे तोड़कर स्वरूपमें मंथर — स्वरूपमें लीन — हो गये हैं । स्वरूप ही उनका आसन, स्वरूप ही निद्रा, स्वरूप ही आहार है; वे स्वरूपमें ही लीला, स्वरूपमें ही विचरण करते हैं । सम्पूर्ण श्रामण्य प्रगट करके वे लीलामात्रमें श्रेणी माँडकर केवलज्ञान प्रगट करते हैं ।।७८।।
शुद्धस्वरूप आत्मामें मानों विकार अंदर प्रविष्ट हो गये हों ऐसा दिखायी देता है, परन्तु भेदज्ञान प्रगट करने पर वे ज्ञानरूपी चैतन्य-दर्पणमें प्रतिबिम्बरूप हैं । ज्ञान-वैराग्यकी अचिंत्य शक्ति से पुरुषार्थकी धारा प्रगट कर । यथार्थ द्रष्टि (द्रव्य पर द्रष्टि) करके ऊपर आजा । चैतन्यद्रव्य निर्मल है । अनेक प्रकारके कर्मके उदय, सत्ता, अनुभाग तथा कर्मनिमित्तक विकल्प आदि तुझसे अत्यंत भिन्न हैं ।।७९।।
विधि और निषेधके विकल्पजालको छोड़ । मैं
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बँधा हूँ, मैं बँधा नहीं हूँ — वह सब छोड़कर अंदर जा, अंदर जा; निर्विकल्प हो, निर्विकल्प हो ।।८०।।
जैसे स्वभावसे निर्मल स्फ टिकमें लाल-काले फू लके संयोगसे रंग दिखते हैं तथापि वास्तवमें स्फ टिक रंगा नहीं गया है, वैसे ही स्वभावसे निर्मल आत्मामें क्रोध-मानादि दिखायी दें तथापि वास्तवमें आत्मद्रव्य उनसे भिन्न है । वस्तुस्वभावमें मलिनता नहीं है । परमाणु पलटकर वर्ण-गंध-रस-स्पर्शसे रहित नहीं होता वैसे ही वस्तुस्वभाव नहीं बदलता । यह तो परसे एकत्व तोड़नेकी बात है । अंतरमें वास्तविक प्रवेश कर तो (परसे) पृथक्ता हो ।।८१।।
‘मैं तो दर्पणकी भाँति अत्यंत स्वच्छ हूँ; विकल्पके जालसे आत्मा मलिन नहीं होता; मैं तो विकल्पसे भिन्न, निर्विकल्प आनन्दघन हूँ; ज्योंका त्यों पवित्र हूँ ।’ — इस प्रकार अपने स्वभावकी जातिको पहिचान । तू विकल्पसे मलिन होकर — मलिनता मानकर भ्रमणामें ठगा गया है; दर्पणकी भाँति जातिसे
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तो स्वच्छ ही है । निर्मलताके भंडारको पहिचान तो एकके बाद एक निर्मलताकी पर्यायोंका समूह प्रगट होगा । अंतरमें ज्ञान और आनन्दादिकी निर्मलता ही भरी है ।।८२।।
अंतरमें आत्मा मंगलस्वरूप है । आत्माका आश्रय करनेसे मंगलस्वरूप पर्यायें प्रगट होंगी । आत्मा ही मंगल, उत्तम और नमस्कार करने योग्य है — इस प्रकार यथार्थ प्रतीति कर और उसीका ध्यान कर तो मंगलता एवं उत्तमता प्रगट होगी ।।८३।।
‘मैं तो उदासीन ज्ञाता हूँ’ ऐसी निवृत्त दशामें ही शान्ति है । स्वयं अपनेको जाने और परका अकर्ता हो तो मोक्षमार्गकी धारा प्रगटे और साधकदशाका प्रारम्भ हो ।।८४।।
शुद्ध द्रव्य पर द्रष्टि देनेसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रगट होते हैं । वे न प्रगटें तब तक और बादमें भी देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा, स्वाध्याय आदि ब. व. ३
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साधन होते हैं । बाकी तो, जो जिसमें हो उसमेंसे वह आता है, जो जिसमें न हो वह उसमेंसे नहीं आता । अखण्ड द्रव्यके आश्रयसे सब प्रगट होता है । देव-गुरु मार्ग बतलाते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन कोई दे नहीं देता ।।८५ ।।
दर्पणमें जब प्रतिबिम्ब पड़े उसी काल उसकी निर्मलता होती है, वैसे ही विभावपरिणामके समय ही तुझमें निर्मलता भरी है । तेरी द्रष्टि चैतन्यकी निर्मलताको न देखकर विभावमें तन्मय हो जाती है, वह तन्मयता छोड़ दे ।।८६।।
‘मुझे परकी चिन्ताका क्या प्रयोजन ? मेरा आत्मा सदैव अकेला है’ ऐसा ज्ञानी जानते हैं । भूमिकानुसार शुभ भाव आयें परन्तु अंतरमें एकाकीपनेकी प्रतीतिरूप परिणति निरंतर बनी रहती है ।।८७।।
मैं तो लेप रहित चैतन्यदेव हूँ । चैतन्यको जन्म
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नहीं है, मरण नहीं है । चैतन्य तो सदा चैतन्य ही है । नवीन तत्त्व प्रगट हो तो जन्म कहलाये । चैतन्य तो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे चाहे जैसे उदयमें सदा निर्लेप — अलिप्त ही है । फि र चिन्ता काहे की ? मूल तत्त्वमें तो कुछ प्रविष्ट हो ही नहीं सकता ।।८८।।
मुनिराजको एकदम स्वरूपरमणता जागृत है । स्वरूप कैसा है ? ज्ञान, आनन्दादि गुणोंसे निर्मित है । पर्यायमें समताभाव प्रगट है । शत्रु-मित्रके विकल्प रहित है; निर्मानता है; ‘देह जाय पर माया होय न रोममें’; सोना हो या तिनका — दोनों समान हैं । चाहे जैसे संयोग हों — अनुकूलतामें आकर्षित नहीं होते, प्रतिकूलतामें खेद नहीं करते । ज्यों-ज्यों आगे बढ़े त्यों-त्यों समरसभाव विशेष प्रगट होता जाता है ।।८९।।
संसारकी अनेक अभिलाषारूप क्षुधासे दुःखित मुसाफि र ! तू विषयोंके लिये क्यों तरसता है ? वहाँ तेरी भूख शांत नहीं होगी । अंतरमें अमृतफलोंका
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चैतन्यवृक्ष लगा है उसे देख तो अनेक प्रकारके मधुर फल एवं रस तुझे प्राप्त होंगे, तू तृप्त-तृप्त हो जायगा ।।९०।।
अहा ! आत्मा अलौकिक चैतन्यचन्द्र है, जिसका अवलोकन करनेसे मुनियोंको वैराग्य उछल पड़ता है । मुनि शीतल-शीतल चैतन्यचन्द्रको निहारते हुए अघाते ही नहीं, थकते ही नहीं ।।९१।।
रोगमूर्ति शरीरके रोग पौद्गलिक हैं, आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । संसाररूपी रोग आत्माकी पर्यायमें हैं; ‘मैं सहज ज्ञायकमूर्ति हूँ’ ऐसी चैतन्यभावना, यही मनन, यही मंथन, ऐसी ही स्थिर परिणति करनेसे संसाररोगका नाश होता है ।।९२।।
ज्ञानीको द्रष्टि द्रव्यसामान्य पर ही स्थिर रहती है, भेदज्ञानकी धारा सतत बहती है ।।९३।।
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ध्रुवतत्त्वमें एकाग्रतासे ही निर्मल पर्याय प्रगट होती है, विभावका अभाव होता है ।।९४।।
मुनि असंगरूपसे आत्माकी साधना करते हैं, स्वरूपगुप्त हो गये हैं । प्रचुर स्वसंवेदन ही मुनिका भावलिंग है ।।९५।।
आत्मा ही एक सार है, अन्य सब निःसार है । सब चिन्ता छोड़कर एक आत्माकी ही चिन्ता कर । कुछ भी करके चैतन्यस्वरूप आत्माको पकड़; तभी तू संसाररूपी मगरके मुँहमेंसे छूट सकेगा ।।९६।।
परपदार्थको जाननेसे ज्ञानमें उपाधि नहीं आ जाती । तीन काल, तीन लोकको जाननेसे सर्वज्ञता — ज्ञानकी परिपूर्णता सिद्ध होती है । वीतराग हो जाय उसे ज्ञानस्वभावकी परिपूर्णता प्रगट होती है ।।९७।।
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द्रष्टि एवं ज्ञान यथार्थ कर । तू अपनेको भूल गया है । यदि बतलानेवाले (गुरु) मिलें तो तुझे उनकी दरकार नहीं है । जीवको रुचि हो तो गुरुवचनोंका विचार करे, स्वीकार करे और चैतन्यको पहिचाने ।।९८।।
यह तो पंखीका मेला जैसा है । इकट्ठे हुए हैं वे सब अलग हो जायँगे । आत्मा एक शाश्वत है, अन्य सब अध्रुव है; बिखर जायगा । मनुष्य-जीवनमें आत्मकल्याण कर लेना योग्य है ।।९९।।
‘मैं अनादि-अनंत मुक्त हूँ’ — इस प्रकार शुद्ध आत्मद्रव्य पर द्रष्टि देनेसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है । ‘द्रव्य तो मुक्त है, मुक्ति की पर्यायको आना हो तो आये’ इस प्रकार द्रव्यके प्रति आलम्बन और पर्यायके प्रति उपेक्षावृत्ति होने पर स्वाभाविक शुद्ध पर्याय प्रगट होती ही है ।।१००।।
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सम्यग्द्रष्टिको ऐसा निःशंक गुण होता है कि चौदह ब्रह्माण्ड उलट जायँ तथापि अनुभवमें शंका नहीं होती ।।१०१।।
आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, आश्चर्यकारी है । जगतमें उससे ऊँची वस्तु नहीं है । उसे कोई ले जा नहीं सकता । जो छूट जाती है वह तो तुच्छ वस्तु है; उसे छोड़ते हुए तुझे डर क्यों लगता है ? ।।१०२।।
यदि वर्तमानमें ही चैतन्यमें सम्पूर्णरूपसे स्थिर हुआ जा सकता हो तो दूसरा कुछ नहीं चाहिये ऐसी भावना सम्यग्द्रष्टिके होती है ।।१०३।।
‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसा स्वीकार करनेसे पर्यायकी रचना शुद्ध ही होती है । जैसी द्रष्टि वैसी सृष्टि ।।१०४।।
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आत्माने तो परमार्थसे त्रिकाल एक ज्ञायकपनेका ही वेश धारण किया हुआ है । ज्ञायक तत्त्वको परमार्थसे कोई पर्यायवेश नहीं है, कोई पर्याय- अपेक्षा नहीं है । आत्मा ‘मुनि है’ या ‘केवलज्ञानी है’ या ‘सिद्ध है’ ऐसी एक भी पर्याय-अपेक्षा वास्तवमें ज्ञायक पदार्थको नहीं है । ज्ञायक तो ज्ञायक ही है ।।१०५।।
चैतन्यस्वरूप आत्मा तेरा अपना है इसलिये उसे प्राप्त करना सुगम है । परपदार्थ परका है, अपना नहीं होता, अपना बनानेमें मात्र आकुलता होती है ।।१०६।।
शाश्वत शुद्धिधाम ऐसा जो बलवान आत्मद्रव्य, उसकी द्रष्टि प्रगट हुई तो शुद्ध पर्याय प्रगट होती ही है । विकल्पके भेदसे शुद्ध पर्याय प्रगट नहीं होती । एकको ग्रहण किया उसमें सब आ जाता है । द्रष्टिके साथ रहा हुआ सम्यग्ज्ञान विवेक करता है ।।१०७।।
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जगतमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो चैतन्यसे बढ़कर हो । तू इस चैतन्यमें — आत्मामें स्थिर हो, निवास कर । आत्मा दिव्य ज्ञानसे, अनंत गुणोंसे समृद्ध है । अहा ! चैतन्यकी ऋद्धि अगाध है ।।१०८।।
आत्मारूपी परमपवित्र तीर्थ है उसमें स्नान कर । आत्मा पवित्रतासे भरपूर है, उसके अंदर उपयोग लगा । आत्माके गुणोंमें सराबोर हो जा । आत्मतीर्थमें ऐसा स्नान कर कि पर्याय शुद्ध हो जाय और मलिनता दूर हो ।।१०९।।
परम पुरुष तेरे निकट होने पर भी तूने देखा नहीं है । द्रष्टि बाहरकी बाहर ही है ।।११०।।
परमात्मा सर्वोत्कृष्ट कहलाता है । तू स्वयं ही परमात्मा है ।।१११।।
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सहज तत्त्व अखण्डित है । चाहे जितना काल गया, चाहे जितने विभाव हुए, तथापि परम पारिणामिक भाव ज्योंका त्यों अखण्ड रहा है; कोई गुण अंशतः भी खण्डित नहीं हुआ है ।।११२।।
मुनि एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें स्वभावमें डुबकी लगाते हैं । अंतरमें निवासके लिये महल मिल गया है, उसके बाहर आना अच्छा नहीं लगता । मुनि किसी प्रकारका बोझ नहीं लेते । अन्दर जायें तो अनुभूति और बाहर आयें तो तत्त्वचिंतन आदि । साधकदशा इतनी बढ़ गई है कि द्रव्यसे तो कृतकृत्य हैं ही परन्तु पर्यायमें भी अत्यन्त कृतकृत्य हो गये हैं ।।११३।।
जिसे भगवानका प्रेम हो वह भगवानको देखता रहता है, उसी प्रकार चैतन्यदेवका प्रेमी चैतन्य चैतन्य ही करता रहता है ।।११४।।
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गुणभेद पर द्रष्टि करनेसे विकल्प ही उत्पन्न होता है, निर्विकल्पता — समरसता नहीं होती । एक चैतन्यको सामान्यरूपसे ग्रहण कर; उसमें मुक्ति का मार्ग प्रगट होगा । भिन्न-भिन्न ग्रहण करनेसे अशान्ति उत्पन्न होगी ।।११५।।
चाहे जैसे संयोगमें आत्मा अपनी शान्ति प्रगट कर सकता है ।।११६।।
निरालम्ब चलना वह वस्तुका स्वभाव है । तू किसीके आश्रय बिना चैतन्यमें चला जा । आत्मा सदा अकेला ही है, आप स्वयंभू है । मुनियोंके मनकी गति निरालम्ब है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी निरालम्बी चाल प्रगट हुई उसे कोई रोकनेवाला नहीं है ।।११७।।
जैसा कारण दे वैसा कार्य होता है । भव्य जीवको निष्कलंक परमात्माका ध्यान करनेसे
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मोक्षपदकी प्राप्ति होती है । शुद्धात्माका ध्यान करे उसे शुद्धता प्राप्त हो ।।११८।।
गुरुकी वाणीसे जिसका हृदय बिंध गया है और जिसे आत्माकी लगन लगी है, उसका चित्त अन्यत्र कहीं नहीं लगता । उसे एक परमात्मा ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं ।।११९।।
पंच परमेष्ठीका ध्यान करता है, परन्तु ठेठ तलमेंसे शान्ति आना चाहिये वह नहीं आती । अनेक फल- फू लोंसे मनोहर वृक्षके समान अनंतगुणनिधि आत्मा अद्भुत है, उसके आश्रयमें रमनेसे सच्ची शान्ति प्रगट होती है ।।१२०।।
आचार्यदेव करुणा करके जीवको जगाते हैं : — जाग रे ! भाई, जाग । तुझे निद्रामें दिशा नहीं सूझती । तू अपनी भूलसे ही भटका है । तू स्वतंत्र द्रव्य है; भूल करनेमें भी स्वतंत्र है । तू परिभ्रमणके
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समय भी शुद्ध पदार्थ रहा है । यह कोई महिमावान वस्तु तुझे बतला रहे हैं । तू अंदर गहराईमें उतरकर देख, असली तत्त्वको पहिचान । तेरा दुःख टलेगा, तू परम सुखी होगा ।।१२१।।
तू आत्मामें जा तो तेरा भटकना मिट जायगा । जिसे आत्मामें जाना हो वह आत्माका आधार लेता है ।।१२२।।
चैतन्यरूपी आकाशकी रम्यता सदाकाल जयवन्त है । जगतके आकाशमें चन्द्रमा और तारामण्डलकी रम्यता होती है, चैतन्य-आकाशमें अनेक गुणोंकी रम्यता है । वह रम्यता कोई और ही प्रकारकी है । स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्ञान प्रगट करनेसे वह रम्यता ज्ञात होती है । स्वानुभूतिकी रम्यता भी कोई और ही है, अनुपम है ।।१२३।।
शुद्ध आत्माका स्वरूप बतलानेमें गुरुके अनुभव-