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समाधानः- ... सम्यक एकान्त..?
मुमुक्षुः- अनेकान्त भी एकान्त ऐसे निज पदकी प्राप्तिके लिये एक ही उपाय है। अनेकान्त भी सम्यक एकान्त ऐसे निज पदकी प्राप्तिके सिवा अन्य हेतुसे उपकारी नहीं है।
समाधानः- उपकारी नहीं है?
मुमुक्षुः- अन्य हेतुसे उपकारी नहीं है।
समाधानः- अनेकान्त भी सम्यक एकान्त ऐसे निजपदकी प्राप्तिके सिवा दूसरे प्रकारसे उपकारी नहीं है। सम्यक एकान्त। एक द्रव्य पर दृष्टि, बस! बाकी सब गौण है। अनेकान्तको जानकर एक वस्तु पर दृष्टि करनी, वही उसका हेतु है। एक द्रव्य पर दृष्टि रखी, वह उसका उपकार है। अनेकान्त वस्तु स्वरूपको जानकर एक सम्यक एकान्त एक द्रव्य पर दृष्टिका जोर, उस प्रकारसे ही वह उपकारी होता है। अन्य हेतुसे अनेकान्त वादविवादके हेतुसे, ऐसे नहीं, निज पदकी प्राप्तिके लिये ही उपकारी है, अन्य कोई हेतुसे उपकारी नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि।
द्रव्यको पहचानकर स्वानुभूति प्रगट करनी उस हेतुसे वह उपकारी है। बाकी उसमें रुकना, विवाद, नयका .. उस हेतुसे वह उपकारी नहीं है। एक चैतन्यकी प्राप्तिके लिये उपकारी है। और वह वस्तुका स्वरूप है। उसमें द्रव्य पर दृष्टिका जोर, उस एकान्तको मुख्य रखे। अनेकान्त उसके साथ वर्तता है, उस प्रकारसे उपकारी है। अन्य कोई हेतु, आत्मार्थके सिवा अन्य हेतुसे उपकारी नहीं है। कहीं भी नय (लगा दे कि) अनेकान्त ऐसे भी होता है, ऐसे भी होता है। ऐसा अनेकान्त सम्यक अनेकान्त भी नहीं है। सम्यक अनेकान्त तो एकान्तको रखकर उसके साथ जो अनेकान्त हो, वह सम्यक अनेकान्त है। और सम्यक एकान्तके साथ सम्यक अनेकान्त होता ही है। तब उसका सम्बन्ध है। नय ऐसे होती है, ऐसे होती है, उस प्रकारसे सम्यक अनेकान्त भी नहीं है।
मुमुक्षुः- प्रत्येक नयकी विचारणाके समय उसे प्रयोजन लक्ष्यमें रहना चाहिये।
समाधानः- अपनी ओरका प्रयोजन, आत्माको साधनेका होना चाहिये। वस्तुका असली स्वरूप क्या है, उसे रखकर सब होना चाहिये। उसके साथ मेलयुक्त होना चाहिये।
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मात्र वस्तुको तोडनेके लिये या वादविवाद करनेके लिये नहीं होना चाहिये।
मुमुक्षुः- श्रद्धाको सम्यक होनेके लिये यथार्थ ज्ञानकी ... होनी चाहिये?
समाधानः- ज्ञानकी जरूरत पडती है। श्रद्धा यथार्थ होनेके लिये ज्ञानसे ही नक्की होता है, तत्त्व विचारसे ही नक्की होता है। इसलिये ज्ञान उसका साधन है। ज्ञान तो उसका साधन है। श्रद्धा होनेमें ज्ञान साधन है। श्रद्धा द्रव्य पर दृष्टि करके जोरसे मुक्तिके मार्गमें आगे बढती है। श्रद्धा होनेमें ज्ञान कारण है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! पर्याया रहित तो द्रव्य कभी होता नहीं। ऐसी स्थिति होनेके बावजूद पर्यायको गौण करके द्रव्य सन्मुख होना?
समाधानः- पर्याय पलटती रहती है, पर्याय कहाँ एकरूप रहती है? विभाव पर्याय है, वह सब पलटती रहती है। शुभाशुभ भाव पलटते रहते हैं। वह मूल वस्तु कहाँ है? मूल वस्तु नहीं है। पर्याय रहित द्रव्य नहीं है, परन्तु द्रव्य तो मूल वस्तु है। यह मूल वस्तु नहीं है। जो पलटती वस्तु है, उस पलटनेका आश्रय नहीं होता। मूलका आश्रय होता है।
वृक्ष उगाये तो उसके बीज पर दृष्टि होनी चाहिये। डाले-पत्ते (पर नहीं)। उसकी बीज पर दृष्टि हो तो वृक्ष उगता है। बिना मूलके नहीं होता। उसका मूल तो द्रव्य है, भले पर्याय रहित न हो। पर्यायका आश्रय काम नहीं आता।
मुमुक्षुः- वहाँ कहा न? पनपता है तब शोभता है।
समाधानः- हाँ, वह। मूल है। बीज पनपे तब शोभता है, परन्तु मूल वस्तुको पहचानकर ग्रहण करे तो पनपेगा न? उसे पहचानकर मूलको ग्रहण करे, उसकी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे, ज्ञान-वैराग्यका सिंचन करे तो पनपता है। और मूलको पहचाने तो पनपता है। द्रव्यके आश्रसे दृष्टिकी स्थिरता होती है। पर्यायके आश्रयसे स्थिर नहीं होता। पर्याय तो पलटती रहती है। शुद्ध पर्याय भी चैतन्यका वैभव है, अनन्त गुण भी उसका वैभव है। वस्तु तो मूल है। उस मूलको ग्रहण करे तो आगे बढता है।
मुमुक्षुः- द्रव्य बीजरूप है।
समाधानः- द्रव्य मूल वस्तु है। द्रव्यका सब वैभव है। द्रव्य कैसा है? कि अनन्त गुणोंसे भरपूर, अनन्य पर्याययुक्त, यह सब उसका वैभव है। मूल वस्तु है। मूल राजा कौन? मूल द्रव्य है। राजाका वैभव नहीं, राजा मूल वस्तुको ग्रहण करे तो आगे बढे।
मुमुक्षुः- जीवराजाको जानना वह, यह?
समाधानः- हाँ, जीवराजाको जाने, फिर श्रद्धा करे, फिर उसका आचरण करे। ऐसे जीवराजाको जानना, श्रद्धा करे, उसका अनुचरण करे।
मुमुक्षुः- नारकीका जीव प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करता होगा, उस वक्त वह ऐसी
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विचारश्रेणीमें चढ जाता होगा? पहली बार सम्यग्दर्शन प्रगट करे तब।
समाधानः- पीछले भवसे वह तैयारी करके गया है। तैयारी करके गया है, इसलिये उसे एकदम भेदज्ञान हो जाता है। दुःखके प्रसंग देखकर (ऐसा लगता है), यह? कहीं शान्तिका स्थान दिखाई नहीं देता है। यह किस प्रकारका संयोग और उदय है? ऐसा विचार करने पर अन्दर कहीं शान्ति है या नहीं? ऐसा विचार करने पर यह मैं मूल तत्त्व हूँ, उसमें शान्ति है। लम्बे विचार नहीं करता है, मूल वस्तुको ग्रहण कर लेता है। पीछले भवमें वह तैयारी करके, देशनालब्धि ग्रहण करके, अन्दरमें पात्रता तैयार करके गया है, इसलिये उसे एकदम हो जाता है।
समाधानः- ... गुरुदेवसे उतनी प्रभावना, उतने शास्त्र (प्रकाशित हुए)। कितने प्रवचन दिये गुरुदेवने बरसों तक। ऐसे महापुरुष इस कालमें-पंचम कालमें महा दुर्लभतासे मिलते हैं।
मुमुक्षुः- घर-घर स्वाध्याय, घर-घर तत्त्वचर्चा और समयसारजी शास्त्रको तो स्पर्श नहीं कर सकते, मुनिओंके लिये ग्रन्थ है। उसके बजाय छोटे बालकोंसे लेकर उस शास्त्र अभ्यास होने लगा।
समाधानः- चारों ओरसे। पंचमकालमें पधारे। ऐसे गुरुदेवका वषा तक सान्निध्य प्राप्त हुआ।
मुुमुक्षुः- चतुर्थ कालमें भी दुर्लभ ऐसा.. समाधानः- हाँ, चतुर्थ कालमें जो दुर्लभ है, वह ऐसे पंचमकालमें (प्राप्त हुआ)। कोई जागृत हो तो वे जंगलमें हो। यह तो मुमुक्षुओंके बीच रहकर बरसो तक वाणी बरसायी। वह तो महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- दूसरे अनेक जीव प्राप्त करनेका प्रयत्न-पुरुषार्थ भी करते हैं।
समाधानः- अन्दरकी रुचि किसीको जागृत हुई हो तो गुरुदेवके प्रतापसे। एक अंशसे लेकर सब गुरुदेवके प्रतापसे ही है। कहाँ पडे थे। बाह्य दृष्टिमें थे, अंतर दृष्टि करवायी। संप्रदायमें थे तब भी सम्यग्दर्शन पर उतना वजन रखते थे।
मुमुक्षुः- तबसे फेरफार होने लगा। लोगोंको सम्यग्दर्शन क्या चीज है, उसका ख्याल आने लगा।
समाधानः- हाँ, सबको ख्याल आने लगा।
मुमुक्षुः- .... सम्यग्दर्शन ... यहाँ एक महाराज आये हैं, वे समकित पर बहुत वजन देते हैं। अपने तो ऐसा समझते थे कि .. किया इसलिये समकित और चौविहर और सामायिक करते हैं इसलिये पंचम गुणस्थान। यह महाराज ना कहते हैं। वे कहते हैं, सिद्ध भगवान जैसा आनन्द आये, उसका स्वाद चखे, शरीरकी चमडी ऊतारकर
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नमक छिडके तो भी आँखका कोना लाल न करे, तो भी वह समकित नहीं है। समकित कोई अभूतपूर्व वस्तु है। लाखों-क्रोडोंमे किसीको ही होता है। अब उनकी बात ... लगती है। अनन्त कालमें प्राप्त न हो ऐसा ... दररोज परदेसी राजा या .. सन्यासी, कोई भी अधिकार पढे, पहले उसकी प्रस्तावना आधा घण्टे समकितके स्वरूपसे करते हैं। उस वक्त ऐसा (कहते थे)।
मुमुक्षुः- पूर्व संस्कार, जागृति...
समाधानः- उनका प्रभावनाका योग आदि सब अलग, सब अलौकिक था। उनकी वाणी भी अलग और उनका ज्ञान भी अलग, सब अतिशयतावाला था।
मुमुक्षुः- आप तो यह कहते हो, लेकिन मैं तो डाक्टर हूँ, मुझे तो उनकी .. भी अलग लगती थी।
समाधानः- ... पुण्य और पवित्रता.
मुमुक्षुः- सबका योग था। आपने कहा न कि महा योग चारों ओरका। बाह्य और अभ्यंतर।
समाधानः- .. ऐसा ही कहे न, दूसरा क्या कहें? पुण्यके योगसे सान्निध्य मिला और गये वह भी.. पुण्य और पाप दोनों साथमें हैं। लेकिन उन्होंने जो दिया वह ग्रहण करनेका है।
मुमुक्षुः- तो-तो पाप कहाँ रहा? पुण्य भी न रहे और पाप भी न रहे।
समाधानः- उन्होंने कहा है, वह ग्रहण कर लेना है। हजम हो उतना खाये। नहीं तो खाये कहाँ-से?
मुमुक्षुः- राजकोट..
समाधानः- भावनगर तक भी नहीं जाती हूँ।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- गुरुदेवने बहुत दिया है। स्वयंका करना है। अपने यहाँ अच्छा है। यह गुरुदेवका स्थान है। यहीं हमें अच्छा लगता है। कोई कारण बिना, निष्कारण कहीं जानेका मन नहीं होता।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- .. प्राप्त करे तो हो सके ऐसा है। स्वयं ही नहीं करता है। निज नयनकी आलससे, गुरुदेव कहते थे, हरिको निरखता नहीं।
मुमुक्षुः- हिम्मतभाई ऐसा क्यों कहते हैं, डिब्बा खुलता नहीं। खोलता नहीं, ऐसा कहिये।
समाधानः- ऐसा कहते हैं, बाकी स्वयं ही नहीं खोलता है।
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.. उन्हें धर्मकी लगनी थी। गुरुदेवका वढवाणमें चातुर्मास था, उस वक्त प्रवचन लिखकर पेपरमें देते थे। मैंने हिम्मतभाईको पत्र लिखा कि यहाँ एक महाराज आये हैं। हम लोग मानते थे कि नव तत्त्वको जानकर श्रद्धा की। दूसरे सब कहते हैं उसे माननेसे... ऐसा नहीं है। ऐसा तो अनन्त कालमें (बहुत बार) किया, यह महाराज तो कुछ अलग ही है। ऐसा कहते थे।
(समकितकी) महिमा करते हैं। यह महाराज आये हैं वे कुछ अलग ही है। मुझे सत्य लगता है। आप वहाँ थे तब लिखा था न? वहाँ वढवाणमें चातुर्मास था तब। गुरुदेवके प्रवचन सुनकर, यह महाराज कुछ अलग है। सम्यग्दर्शन पर बहुत वजन देते हैं। और वे कहते हैं वह सब सत्य है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवका चातुर्मास था तो पिताजीको कहा, मुझे लाभ लेना है। फिर नौकरी करुँगा। तो पिताजीने कहा, हाँ, खुशीसे पहले लाभ लो।
समाधानः- उतने अध्ययन कंठस्थ किये थे, स्थानकवासीके .. कंठस्थ किये थे। जो कोई साधु आये उसे प्रश्न पूछने जाय। ऐसी एक मंडली थी। पूछने जाते थे।
मुमुक्षुः- .. बुद्धिका सद उपयोग किया।
समाधानः- यहाँ संस्थामें ऊतना ध्यान रखते थे। सब मन्दिरमें। यहाँके तो सही, बाहरके भी।
मुमुक्षुः- मार्गदर्शन देना, उसके प्लान देखने, कैसे करना, एक-एक बातका... हमारे मुंबईमें चारों मन्दिरोंमें कितने ही बार आकर...
समाधानः- .. वह काम बहुत अच्छा किया है। मुंबईमें तो समवसरण मन्दिर, मलाड, हर जगह।
मुमुक्षुः- सभी मन्दिरोंमें उनके ही मार्गदर्शन अनुसार किया गया। कितने ही दिनों तक, महिनों वहाँ रहकर सब योजनाएँ करते थे।
मुमुक्षुः- माताजी कहते कि, भाई! ज्ञायकको लक्ष्यमें रखना। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, वही है न, और क्या करना है?
समाधानः- शास्त्रोक्त करना।
मुमुक्षुः- नाप आदि सब तिल्लोय पण्णत्तिमें देखकर, जिनेन्द्र सिद्धान्त कोषमें देखकर, सब...
समाधानः- उसमें तो बुद्धि तो चलाते, लेकिन इसमें भी चलाते थे। इसमें भी उनको इतना था। सुबह उठकर स्वाध्याय करते थे। कहते थे, कल मन्दिर जायेंगे।
मुमुक्षुः- सब मन्दिरोंमें मोटर घुमायी, दर्शन किये। भण्डारमें ५१ रूपये डाले। जागृति कितनी!
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समाधानः- टेपमें आता था, मैं परमात्मा हूँ, तो ऐसे-ऐसे अंगूली करते थे। रास्तेमें टेप बजाते-बजाते ही ले गये थे। बैठे-बैठे ही सुना। बैठे थे तो ऐसा लगता था कि यह सब क्यों ले जाते हैं?
मुमुक्षुः- हम क्यों ले जाते हैं, ऐसा लगता था। निकले तब लोगोंकी कतार लगी थी। सबको हाथ जोडकर...