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समाधानः- ... उसने एक ज्ञायकको ग्रहण किया है, आत्माको ग्रहण किया है। ऐसे विचारसे, बुद्धिसे नक्की करे (ऐसे नहीं)। अंतरमें मैं जाननेवाला ही हूँ, ऐसे ज्ञायकको स्वयंने अंतरमेंसे ग्रहण किया है। उसे ग्रहण करके, उस पर श्रद्धा-प्रतीत करके उसमें वह लीन होता है-उसमें स्थिर होता है। इसलिये बाह्य दृष्टि छूटकर वह अंतरमें लीन होता है। बाहरसे उपयोग अंतरमें (ले जाता है)। दृष्टि तो ज्ञायक पर है। उपयोग बाहर जाय तो भी उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर रहती है। परन्तु उपयोग भी बाहर जाता हो उसे स्थिर करनेके लिये वह ज्ञायकमें लीन होता है। अन्य कोई विकल्पमें लीन होता है, ऐसा नहीं। बीचमें विकल्प आये, पंच परमेष्ठीका विकल्प आये, द्रव्य-गुण- पर्यायके विचार आये वह अलग, वह शुभभाव है। परन्तु अंतरमें ज्ञायकमें लीन होता है। बारंबार ज्ञायकमें लीन होता है, ज्ञायकका ध्यान करता है।
मुमुक्षुः- वह सविकल्प ध्यान है?
समाधानः- भले सविकल्प हो, परन्तु ज्ञायकको ग्रहण करके ध्यान है। विकल्प उसमें गौण होता है और ज्ञायकमें लीन होता है।
मुमुक्षुः- उसमेंसे निर्विकल्प कैसे होता है?
समाधानः- ज्ञायकमें लीन होते-होते, जो-जो परिणाम विकल्प आये उससे मैं भिन्न हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे ज्ञायकमें लीन होते-होते उसे उग्रता तीव्र हो तो विकल्प छूटते हैं। उग्रता हो तो।
मुमुक्षुः- कहते हैं कि मैं बद्ध हूँ और अबद्ध हूँ, वह भी विकल्प है?
समाधानः- हाँ, वह भी विकल्प है।
मुमुक्षुः- तो फिर सविकल्पमेंसे निर्विकल्पमें जाना कैसे?
समाधानः- उसे विकल्प है कि मैं बद्ध हूँ-बन्धा हूँ, परन्तु अबद्ध हूँ, वह भी नयका विकल्प है। वह विकल्प यानी राग है कि मैं अबद्ध हूँ, अबद्ध हूँ। उस विकल्प परसे दृष्टि उठाकर, उपयोग उठाकर मैं जो हूँ सो हूँ, विकल्प नहीं। चैतन्यका अस्तित्व है वही मैं हूँ। एक मेरा अस्तित्व ज्ञायक वही मैं हूँ। ऐसे विकल्पको गौण करके ज्ञायकको ग्रहण करे। बारंबार उसमें लीन हो तो उसके विकल्प छूटे।
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एक ज्ञानस्वभावको, ऐसा आता है न? एक ज्ञानस्वभावको ग्रहण करके, निश्चय करके। मैं यह ज्ञानस्वभाव ही हूँ, मैं ज्ञान ही हूँ, ऐसा नक्की करके बादमें मति- श्रुतका उपयोग, ज्ञानका उपयोग जो बाहर जाता है उसे भी अंतरमें लाकर उसमें स्थिर हो तो विकल्प छूट जाय। लेकिन स्थिर होना, सच्चे ज्ञान बिना सच्चा ध्यान नहीं हो सकता। उसका ज्ञान सच्चा हो, ज्ञान सम्यक हो तो उसका ध्यान सच्चा हो। ज्ञान सच्चा हो तो सच्चा ध्यान हो। यदि उसके ज्ञानमें भूल हो तो, ज्ञायकको ग्रहण नहीं किया हो तो कहाँ स्थिर खडा रहेगा? विकल्पमें स्थिर खडा रहेगा, ज्ञायकको ग्रहण नहीं किया हो तो। ज्ञायकके अस्तित्वको ग्रहण किया हो तो उसमें उसकी स्थिरता जमती है, नहीं तो विकल्पमें स्थिरता जमती है। फिर ध्यान करे और विकल्प मन्द हो जाय तो उसे ऐसा लगता है कि विकल्प छूट गये। विकल्प सूक्ष्म हो गये। लेकिन ज्ञायकको ग्रहण करे तो सच्चा ध्यान होता है।
मुमुक्षुः- उस वक्त जो जड प्राण है, वह लीन होते है, उसकी गति भी ऐसी हो जाती है।
समाधानः- प्राण तो बाहर रह जाते हैं। लेकिन अंतरमें ज्ञायक चैतन्यको ग्रहण करे फिर प्राण कहाँ गये, उसका उसे ध्यान नहीं है। प्राण क्या, श्वासोश्वास है या क्या है, उस ओर उसका ध्यान भी नहीं है।
मुमुक्षुः- उसका न जाय, ओटोमेटिक प्राण लीन होते हैं और ...
समाधानः- वह बाहरसे होता होगा कि बाहरसे उसके प्राणी अलग प्रकारसे गति करते हो। लेकिन अंतरमें तो उसे ऐसा ही है कि मैं मेरे ज्ञायक लीन हो जाऊं, बस। उस जड प्राणकी ओर क्या होता है, उसका ध्यान नहीं होता।
मुमुक्षुः- ऐसा होता होगा क्या?
समाधानः- कुछ आता है, आता है, शास्त्रमें आता है। उसके प्राण ऊपरसे जाते हैं, ऐसा आता है।
मुमुक्षुः- जो बहिर प्राण होते हैं, उसमें ... जाता है।
समाधानः- लेकिन उसके श्वसोश्वास बन्द नहीं हो जाते। उसकी गति अलग हो जाती है, गति अलग हो जाती है।
मुमुक्षुः- क्योंकि जड प्राणोंसे छूटनेके लिये यह सब प्रयत्न है न?
समाधानः- जड प्राणोंसे छूटनेके लिये..
मुमुक्षुः- जड प्राण कर्मके कारण हैं।
समाधानः- भले उससे छूटनेका प्रयत्न है, परन्तु उसका प्रयत्न ज्ञायकको ग्रहण करनेका है।
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मुमुक्षुः- मुख्य तो वही है।
समाधानः- क्योंकि जड प्राणोंसे छूट जाऊँ, छूट जाऊँ ऐसा करे परन्तु अंतरमें स्वयंको ग्रहण नहीं किया हो तो कहाँसे (छूटे)? ऐसा ध्यान जीव बहुत बार करता है। ऐसा ध्यान करे कि बाहरसे कुछ भी हो तो उसे मालूम नहीं पडे। प्राण रोक ले, श्वासोश्वास रोक ले, ऐसा सब करे, परन्तु अन्दर ज्ञायक ग्रहण नहीं हुआ हो तो वह ध्यान कैसा? आता है न?
यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो, जप भेद जपे तप त्योंही तपै, ऊरसे ही उदासी लही सबसे।
सब करे। मौन रहा, ध्यान किया, .. करे, बाहरसे सब थँभ जाय ऐसा करे। अन्दर ज्ञायकको ग्रहण न किया हो तो... उसमें आता है, कुछ और रहा उन साधनसे। उसके साधनमें कुछ अलग ही है। अन्दर चैतन्यको ग्रहण नहीं किया हो तो बाहरसे सब ध्यान तो करे, परन्तु अंतरमें ग्रहण करे तो होता है। ऐसा ध्यान जीवने बहुत बार किया। उपवास किये, त्याग किया, यम किया, नियम पाले, परन्तु गुरु बताते हैं कि अन्दर तू तेरे आत्माको ग्रहण करके ध्यान कर।
मुमुक्षुः- इसीलिये तो मैंने कहा न कि, जो अंतरात्मा हुआ है उसका ध्यान इस प्रकारका होता है?
समाधानः- उसका ध्यान आत्माको ग्रहण करके, ज्ञायकको ग्रहण करके, चैतन्यको (ग्रहण करके होता है)। उसे चैतन्य अन्दरसे अपना अस्तित्व ग्रहण होता है। यह शरीर उसे ग्रहण नहीं होता, श्वासोश्वास नहीं, आँख नहीं, सुनना नहीं, उस ओर कहीं उपयोग नहीं है। विकल्पकी ओर उपयोग है उसे स्वयं भिन्न करके एक ज्ञायककी ओर जाय। बस, एक चैतन्य। चैतन्यके अलावा कुछ नहीं। मैं एक आत्मा ज्ञायक। उसका स्वभाव ग्रहण करे।
विकल्पसे रटण करता रहे, मैं ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक। ऐसे तो विकल्प होता है। परन्तु वस्तु जो पदार्थ है, उस पदार्थको ग्रहण करके ध्यान करे तो होता है। सबसे भेदज्ञान करे, मैं यह नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ, मैं विकल्प नहीं हूँ, यह रागयुक्त विकल्प मेरे नहीं है। जो-जो शुभभाव, शुभभावके विकल्प आये वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। उन सबसे मैं भिन्न (हूँ)। भिन्न हूँ, ऐसा विकल्प करे लेकिन मैं भिन्न कैसा? कौनसी वस्तु है? कि मैं यह वस्तु हूँ। यह मैं जाननेवाला सबके बीच रहनेवाला। यह सब जड है। यह विकल्प आये, मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे विकल्प आये परन्तु वह मेरा स्वरूप नहीं है। वह तो विकल्पकी जाल है। उससे भी मैं निराकुल स्वरूप जाननेवाला, सबको जाननेवाला सो मैं हूँ। वह जाननेवाला सबको जाननेवाला ऐसे नहीं, परन्तु अन्दर
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जो स्वयं जाननेवाला है। सबको जाना इसलिये जाननेवाला नहीं, परन्तु स्वयं उसका स्वरूप ही जाननेका है। जैसे यह जड। वह स्वयं जाननेवाला है। वह जाननमात्र नहीं, परन्तु अनन्त अदभुत स्वरूपसे भरा है वह मैं हूँ। ऐसे स्वयंको विकल्पसे नहीं, अपितु स्वभावसे ग्रहण करे। गुड शब्द नहीं, शक्कर शब्द नहीं परन्तु उस वस्तुको ग्रहण करे। उसे ग्रहण करके उसका ध्यान करे, उसमें एकाग्र हो तो होता है। लेकिन उसकी श्रद्धा, सच्ची प्रतीत पहले हो, निश्चय करे तो ध्यान होता है।
समाधानः- .. ध्यानका फल अन्दर आत्माकी प्राप्ति हो, स्वानुभूतिकी प्राप्त हो।
मुमुक्षुः- उससे निर्जरा होती है?
समाधानः- निर्जरा तो होती है, कर्मकी निर्जरा होती है और अन्दर स्वानुभूतिका फल आवे, अन्दर आत्माकी प्राप्ति हो। आत्मा जो अदभुत स्वरूपसे विराजता है उसकी उसे अनुभूति हो। और कर्मकी निर्जरा हो, कर्मकी निर्जरा हो। परन्तु वह अभी थोडी निर्जरा होती है, पूरी निर्जरा तो केवलज्ञान हो तब होती है। लेकिन सच्ची निर्जरा तो उसे स्वानुभूति हो तब ही होती है। बाकी अनन्त कालसे जो निर्जरा होती है, वह सब तो बन्धन होता है और निर्जरा होती है, बन्धन होता है और निर्जरा होती है, वह सच्ची निर्जरा नहीं है। अन्दर आत्माको ग्रहण करे तो सच्ची निर्जरा होती है।
मुमुक्षुः- जीव जन्मता है और मरता है, ऋषानुबन्धसे इकट्ठे होते हैं, वह कैसे होता है?
समाधानः- जन्म-मरण होते हैं वह उसके कर्मके कारण। जैसे उसने कर्म बान्धे होते हैं, वैसी गति होती है। और आयुष्य बान्धा हो उसका मरण होता है। किसीको पूर्वका सम्बन्ध होता है, तो कोई पूर्वमें हो तो इकट्ठे होते हैं और कोई इकट्ठे नहीं भी होते। उनके परिणामका मेल आवे तो वह ऋषानुबन्ध (होता है)। परिणामका मेल आवे तो इकट्ठे होते हैं। यदि परिणामका मेल न हो तो इकट्ठे नहीं होते। क्योंकि किसीका परिणाम देवलोकमें जाय ऐसे हो, किसीके परिणाम तिर्यंचमें जाय ऐसे हो, कुटुम्बमें सब इकट्ठे हुए हों, सबके परिणाम एक समान नहीं होते हैं। किसीके परिणाम कुछ होते हैं, किसीके परिणाम कुछ और होते हैं, इसलिये कोई कहीं जाता है और कहीं जाता है। इसलिये इकट्ठा होना मुश्किल है। सबके परिणाम एकसमान हो तो वे इकट्ठे होते हैं। .. भगवानके भवमें अगले भवमें अमुक जीवोंके परिणाम समान थे तो साथ- साथ जन्मते थे। और कितने ही जीव तो कोई कहीं जाता है और कोई कहीं जाता है। किसीका मेल नहीं है।
मुमुक्षुः- हमेशा इसी प्रकार इकट्ठे हो ऐसा क्यो नहीं होता? ऋणानुबन्ध हो, अमुक कारण...
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समाधानः- परिणामका मेल होवे तो ही इकट्ठे होते हैं। परिणाम भिन्न-भिन्न हो तो इकट्ठे नहीं होते।
मुमुक्षुः- .. मिलते हैं, बिछडते हैं, किसीको ऋणानुबन्ध नहीं है। ...
समाधानः- किसीका मेल होना हो तो हो जाता है। जिज्ञासा सच्ची थी तो मिल गया। सच्चा मिल गया। पढनेका रस था, सत्य खोजनेका (रस था) तो वांचन करते थे, इच्छा थी सत्यकी तो पढते-पढते सत्य प्राप्त हो गया।
मुमुक्षुः- मैंने पूछा भी था, रामायण, भागवत, उपनिषद पढे तो अब क्या?
समाधानः- .. हो तो मिल जाता है। .. हो तो उसे बहुत कृपासे बुलाते थे। वस्तु तो है, अनेक वस्तुएँ हैं। परन्तु तेरा विकल्प छोड दे, तू तेरेमें स्थिर हो जा। वस्तु एक नहीं है। वस्तु भिन्न-भिन्न हैं। तू तेरे विकल्प छोडकर अन्दर स्थिर हो जा।
मुमुक्षुः- इतना सब अलग समझमें आया? एक कहे, ब्रह्म लटका करे, ब्रह्म भासे नहीं... इतने अलग हैं।
समाधानः- समझमें आये ऐसा है, जिसे जिज्ञासा हो उसे।
मुमुक्षुः- बहुत समझमें आये ऐसा है।
समाधानः- समझमें आये ऐसा है। .. देखता है, जो अन्दर वेदन होता है, वह कुछ नहीं है, यह एक विचारमें आये ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- क्योंकि यह एक अनुभव शास्त्र है।
समाधानः- .. सम्यग्दृष्टिको बोलनेकी.. बाहर बोले तो भी उसे आत्मा भिन्न ही रहता है। चले, शरीर चले तो भी आत्मा भिन्न रहता है। चले, फिरे, बोले, खाय, पीए सब करे, लेकिन उसे आत्मा तो सबमें भिन्न ही रहता है। यह क्रिया हो, शरीर चले, सब हो, लेकिन उसे आत्मा तो भिन्न ही भासता रहता है। उसे राग आवे तो रागसे भी वह भिन्न भासता है। अल्प अस्थिरताको समझता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे इस रागमें जुडता हूँ। परन्तु सब क्रियामें उसका आत्मा उसे भिन्न भासता है। उसे आत्मा भिन्न उसके वेदनमें, उसके ज्ञानमें, उसके दर्शनमें, उसके आचरणमें सबमें आत्मा भिन्न ही (रहता है), सब क्रियामें। वह चले या बोले या खाये, पीये, जीवन- मरण सबमें आत्मा उसे शाश्वत भिन्न ही दिखता है। आत्मा उसे एकत्व भासित ही नहीं होता है, आत्मा उसे भिन्न ही दिखाई देता है। निद्रामें, स्वप्नमें सबमें आत्मा उसे भिन्न ही रहता है। स्वप्नमें भी उसे आत्मा भिन्न रहता है। उसे सबमें आत्मा भिन्न ही भासित होता रहता है।
यह मैं आत्मा भिन्न, यह शरीर भिन्न, यह खँभा भिन्न दिखाई देता है, यह दीवार
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भिन्न दिखाई देती है, वैसे शरीर मुझसे भिन्न है। राग आये वह भी मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भी मेरा स्वभाव भिन्न है। पुरुषार्थकी मन्दतासे सबमें खडा हूँ, फिर भी मैं तो भिन्न ही रहता हूँ। क्षण-क्षणमें भिन्न (रहता है)। कोई क्षण ऐसी नहीं जाती कि जिसमें उसे आत्मा एकरूप हो जाय। प्रतिक्षण उसे आत्मा भिन्न भासता है।
कोई भी कार्य करता हो, बोलते हो, कुछ भी लिखता हो, कुछ भी करता हो, सबके अन्दर आत्मा उसे भिन्न (रहता है), एकत्व होता ही नहीं। भिन्न भासता रहता है। मेरा आत्मा भिन्न, ज्ञायककी परिणति उसे निरंतर चालू ही है। उसमें उसे थोडा- सा भी फर्क नहीं पडता। यदि वह एकमेक हो जाय तो उसका ज्ञान एकत्वबुद्धिवाला हो जाय। ज्ञानमें उसे भिन्न ही भासता है। क्षण-क्षणमें भिन्न (भासित होता है), वह उसे भूलता ही नहीं, किसी भी क्षण नहीं भूलता है। वह उसका वर्तन है। भिन्न तो भासता है, लेकिन आत्मामें अन्दर स्थिर होनेका प्रयत्न वर्तता है। उसे थोडासा भी भूलता नहीं।
उसे विचार करके जबरन रखना पडे या उसे कुछ कृत्रिम करना पडे ऐसा भी नहीं है, उसे सहज भिन्न भासता है। विचार किये बिना उसे सहज (भासता है)। जिसमें विचारोंकी श्रृंखला चलती रहे उसमें कोई जबरन नहीं लाना पडता, वैसे आत्मा उसे एकदम सहजपने भिन्न ही भासता है। कुछ भी करता हो तो भी। ऐसी उसकी वर्तना होती है। हमेशाकी वर्तना। भिन्न, हमेशा भिन्न रहता है। भले कहीं भी खडा हो, कहीं भी बैठा हो, उसे भिन्न ही भिन्न भासता है।
भगवानके सामने भक्ति करता हो, भगवानके दर्शन करता हो, भाव आये, भक्ति आये तो भी आत्मा भिन्न भासित होता है। वांचन करता हो, सबका विचार करता हो, द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, तो भी उसका आत्मा भिन्न भासता है। और उसकी धारा ज्ञानधारा-ज्ञाताधारा ऐसे ही चालू है।
मुमुक्षुः- निरंतर चलती रहती है।
समाधानः- निरंतर चलती है। इसीलिये कहते हैं न, कौन खाता है, कौन पीता है, कौन हिलता है, क्योंकि उसे आत्मा भिन्न ही भासित होता है। वह भिन्न रहता है। परन्तु वह समझता है कि अल्प अस्थिरताके कारण यह सब बोलनेकी, चलनेकी क्रियाएँ होती है। अल्प राग है। परन्तु उसे आत्मा भिन्न भासता है। अल्प भी न हो तो-तो उसे खानेकी, पीनेकी किसी भी प्रकारकी क्रिया न हो। अल्प है, परन्तु आत्मा उसे भिन्न भासता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीकी वर्तना ज्ञानी ही जानते हैं। ऐसा एक कलशमें आता है।
समाधानः- यथार्थपने ज्ञानीकी वर्तना ज्ञानी ही जानते हैं। क्योंकि ज्ञानीको उसका
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अनुभव है। इसलिये ज्ञानीकी क्या वर्तना परिणति होती है, वह ज्ञानी ही जानते हैं। परन्तु मुमुक्षु स्वयं विचार करे तो विचारसे अमुक प्रकारसे उसे नक्की हो सकता है। बराबर यथार्थ तो ज्ञानीकी वर्तना ज्ञानी ही जानते हैं। परन्तु मुमुक्षु विचार करे तो नक्की कर सकता है।
मुमुक्षुः- मुमुक्षु है उसे अन्दर तत्त्वका तो यथार्थ निर्णय होता है, बाह्य लक्षणसे...?
समाधानः- हाँ, वह तो बाह्य लक्षणसे जाने। परन्तु उसकी जिज्ञासा अमुक प्रकारकी है, इसलिये बाह्य लक्षणसे जाने। परन्तु अंतरमें उसे यथार्थ जानना तो मुश्किल पडे। तो भी मुमुक्षु सत्पुरुषको पहचान सकता है, बाह्य लक्षणसे। अंतरमें उसे भेदज्ञानकी परिणति कैसे चलती है, वह उसे यथार्थपने बराबर नहीं जानता है, परन्तु उसे अमुक अनुमान द्वारा जान सकता है कि इनकी वाणी कुछ अलग है, वर्तन अलग है, उनके परिचयसे, उनकी वाणीसे अमुक समझ सकता है। वाणी द्वारा, उनके परिचय द्वारा उनका आत्मा क्या काम करता है, उसे अमुक प्रकारसे जान सकता है। नहीं तो सत्पुरुषको पहचाने कैसे? हर जगह आत्मा.. आत्मा.. आत्मा। उसे उसकी परिणतिमें आत्मा ही है।
मुनिओंकी तो बात ही अलग है। उनको तो बाहरका सब छूट गया है। मुनि तो क्षण-क्षणमें आत्मा... ज्ञायककी परिणति तो है परन्तु उन्हें स्वानुभूति अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें होती है।
मुमुक्षुः- .. कौन-से गुणस्थान तक...?
समाधानः- श्रावक छठ्ठे गुणस्थान पर्यंत और पंचम गुणस्थान पर्यंत। देशश्रावक है वह पंचम गुणस्थान और अविरति श्रावक है वह चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत होते हैं। मुनि छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें होते हैं। मुनिको बढ गयी है। स्वानुभूतिकी दशा बढ गयी है। श्रावकोंको भेदज्ञानकी धारा है और स्वानुभूति भी है। परन्तु मुनिओंको त्वरासे स्वानुभूति होती है। मुनिओंकी स्थिति बढती है, काल बढता है, सब त्वरासे होता है। अभी वर्तमानमें कोई मुनि दिखाई नहीं देते। परन्तु मुनिदशा पंचमकालके अंत तक है, छठ्ठा- सातवाँ गुणस्थान। शास्त्रमें आता है कि आखिर तक भावलिंगी मुनि होनेवाले हैं। अभी भी छट्ठा-सातवाँ गुणस्थान है। वर्तमानमें ऐसे मुनि दिखाई नहीं देते, लेकिन है सही। कोई-कोई कालमें होते हैं, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए मुनि। अट्ठाईस मूलगुण, अंतरमें आत्माकी दशा प्रगट हुई हो। अट्ठाईस मूलगुण किसीको बाहरसे होते हैं, अंतरकी दशाके साथ हो वह भावलिंगी मुनि (हैं)।
मुमुक्षुः- बाहरमें दिखाई नहीं देते हो, अंतरकी स्थिति उसकी ऊँची हो तो...?
समाधानः- जिसे अंतरका हो उसे बाहरमें होता है, ऐसा सम्बन्ध है। ऐसा आता है। अंतरंग दशा हो उसे बाहर होता है। बाहर हो और अन्दर हो या नहीं भी हो।
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परन्तु अंतरमें हो उसे बाहर होता है, ऐसा सम्बन्ध है। बाहरसे किसीने भेष ले लिया हो, बाहरसे किसीने प्रतिज्ञा ले ली, बाहरसे ले ली, परन्तु अंतरमें जो भाव (होना चाहिये वह नहीं होता)। उपवासका पच्चखाण ले लिया, परन्तु अन्दर जो उपवास होना चाहिये, अंतर आत्माको पहचानकर, वह हुआ नहीं हो। बाहरसे ले, परन्तु जिसे अन्दर हो उसे बाहर होता ही है। ऐसा सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- देश-कालके कारण कुछ चीजें न हो सके, ऐसा नहीं हो सकता?
समाधानः- देश-कालके कारण तत्त्वमें फर्क नहीं पडता।
मुमुक्षुः- तत्त्वमें तो न पडे, अन्दर तो उसकी वर्तना बराबर है। छठ्ठे-सातवेँ तक अणगार हो वह भी पहुँच सके या न पहुँच सके?
समाधानः- छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें हो, उसे बाहरमें तो ऐसी ही होता है। शास्त्रमें आता है वैसा। देश-कालके कारण (बदलता नहीं)।