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समाधानः- .. भवका अभाव होनेका मार्ग बताया है कि भव ही प्राप्त न हो, शरीर ही प्राप्त न हो। और आत्मा अन्दरसे अपना आनन्द अपनेमेंसे प्रगट हो। ऐसा मार्ग बताया है। बाहर आनन्द खोजने जाना नहीं पडे। अंतरमेंसे ज्ञान और आनन्द प्रगट हो, बाहर खोजने जाना नहीं पडे, ऐसा मार्ग बताया है। किसीका आश्रय लेना पडे नहीं, शरीरका आश्रय लेना पडे नहीं।
जैसे सिद्ध भगवान अपने आश्रयसे आनन्दमें रहते हैं, वैसा मार्ग बताया है। अपने स्वभावमें आनन्द है। परन्तु बाहर खोजता रहता है, इसलिये उसे शान्ति नहीं मिलती, अशान्ति रहती है। मार्गकी श्रद्धा हो तो उसे आधार रहे कि इस मार्गसे जाया जाता ैहै। मैं पुरुषार्थ नहीं कर सकता हूँ, परन्तु मार्ग तो यह है। तो उसे आधार रहता है। बाकी तो कितने ही मार्ग खोजनेके लिये, इससे मोक्ष होगा, ध्यानसे मोक्ष होगा, या इससे मोक्ष होगा, ऐसे गोते खाते हैं। गुरुदेवने तो दृढता आये ऐसा मार्ग (बताया है)। मार्ग तो यही है। करना स्वयंको बाकी रहता है वह स्वयंकी क्षति है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवका सुना है तो बाहरमें इतनी शान्ति रही, यहाँ आ गये। आपकी इतनी श्रद्धा, तो उतनी शान्ति रही। वांचन, विचार कम है, फिर भी..
समाधानः- उतनी अन्दर श्रद्धा और उतनी अपूर्वता लगे तो शान्ति रहे। नहीं तो दूसरे लोगोंको तो कितनी आकुलता होती है।
.. मन तो ऐसा है। श्वेतांबरमें (आता है), मनडुँ किम ही न बाझे, कुन्थुजिन मनडुँ किम ही न बाझे, ज्यम ज्यम जतन करीना राखूँ त्यम त्यम अळगुं... ऐसा साधु लिखते हैं। यशोविजय। कुन्थुजिन मनडुँ किम ही न बाझे। ऐसे मनको स्वयं,... वह मन होने पर भी स्वयंकी मन्दता है। मनको भी स्वयं बदल सकता है। उस मनको बदल-बदलकर सब मुनि अन्दर आत्मामें लीन हुए। मनको बदल नहीं सकते ऐसा नहीं है।
अनादि कालका अभ्यास है तो मन खीँचकर ले जाय तो भी अपनी डोर अपने हाथमें रखे तो मन उसे बदल नहीं सकता। (स्वयं) मनसे बलवान है। मन जोरदार है तो आत्मा उससे अधिक बलवान है। अनन्त बल आत्मामें है। मनको बदललनेकी
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शक्ति, अनन्त शक्ति आत्मामें है। बदल सकता है। जैसे अशुभभावमेंसे शुभभावमें आता है। जैसे यह लौकिक संसारके भावको बदलकर जिनेन्द्र देवके, गुरुदेवके, शास्त्रोंके विचार बदल सकता है। वैसे, मैं आत्मा हूँ, ऐसे बदल सकता है। अपने भावोंको बदले जा सकते हैं। मन हो तो, मनसे जोरदार आत्मा है। अनन्त शक्तिवान है। मनको वश करके अनन्त जीव मोक्ष पधारे हैं। तो भी जिज्ञासु हो वह भी उसकी शक्ति अनुसार कर सकता है। ... तो कोई मोक्ष नहीं जाते। आत्मामें अनन्त शक्ति है।
समाधानः- .. पुण्य बन्धता है। सेवा, दया, दान आदि सब हो तो उससे पुण्य बन्धता है, मोक्ष नहीं होता, भवका अभाव नहीं होता। भव वैसे ही चालू रहते हैं। करुणा, सेवा, दया, दान (करे तो) अच्छा भव मिले, देवलोक मिले या मनुष्य भव मिले। बाकी उससे अन्दर आत्मामें शान्ति हो ऐसा उससे नहीं होता। अंतरकी शान्ति जो आत्मामेंसे आनी चाहिये, वह शान्ति उसमेंसे नहीं आती। सेवा करे, करुणा करे, सब करे, परन्तु अंतरमें स्वयं देखे तो स्वयंको आकुलता दिखाई देती है। अंतरमें आत्मामेंसे जो शान्ति प्रगट होनी चाहिये, वह इन बाह्य भावोंसे नहीं होती। मुमुक्षुको करुणा होती है, दया होती है, दान होता है, सेवा (होती है)। परन्तु उस सेवासे मोक्ष नहीं हो जाता। या सेवामें धर्म नहीं होता, पुण्य होता है।
मुमुक्षुः- धर्म नहीं होता।
समाधानः- धर्म नहीं होता। शान्ति अंतरमेंसे प्रगट होनी चाहिये। खरे समय पर जो शान्ति अन्दरसे आनी चाहिये, वह तो आत्माको पहचाने तो खरे समय पर आत्मामेंसे शान्ति आवे। मैं आत्मा शाश्वत हूँ, उसमेंसे जो शान्ति आवे वह (यथार्थ है)। खरा समय आवे तब वह सेवा, कुरुणा आदि कुछ उसे साथ नहीं देते। वह तो उसे पुण्यबन्ध हुआ उतना। बाकी उसने अंतरमें यदि आत्माको पहचाना हो तो अन्दर भेदज्ञान करके शान्ति हो। बाकी शान्ति नहीं होती। उससे अनुकूलताएँ मिले। वह भी फले तब।
देव-गुरु-शास्त्रके भी शुभभाव है। परन्तु वह सब शुभभाव, पंच परमेष्ठीको साथमें रखनेका, वह मार्ग बताते हैं, उसमेंसे मार्ग समझमें आता है। वह बात अलग है। इसमें कोई मार्ग जानने नहीं मिलता। मात्र शुभभाव है। कोई व्यक्तिको दुःखी देखकर दया हो। वैसे करुणाके शुभभाव होते हैं। बाकी उसमेंसे आत्माका मार्ग नहीं मिलता। मार्ग आत्माका नहीं है, मुक्तिका मार्ग नहीं है। खरे समयमें वह अंतरमें शान्ति नहीं देता। खरे समयमें शान्ति (तो) आत्माको पहचाने, भेदज्ञान करे, स्वानुभूति करे तो अंतरमेंसे शान्ति आवे। वह कोई शान्ति नहीं देते। प्रवृत्तिका मार्ग वह कोई मुक्तिका मार्ग नहीं है। अन्दर भेदज्ञान करके आत्माको पहचाने वही मुक्तिका मार्ग तो वही है।
मुमुक्षुः- ...
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समाधानः- हाँ, अंतरसे निवृत्त हो तो होता है। वह कोई मुक्ति मार्ग नहीं है। अन्दरसे आधार मिलता है कि अपने मार्ग तो नहीं भूले हैं, मार्ग तो यही है।
समाधानः- ... सुलभ ही है। करना स्वयंको है। स्वयं करता नहीं है इसलिये दुर्लभ हो गया है। स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता है। अपने समीप ही है, दूर नहीं है। आत्मा स्वयं ही है और अपनेमेंसे ही प्रगट होनेवाला है, बाहर कहीं लेने जाना नहीं पडता कि बाहरसे आये तो हो, बाहरका इंतझार करना पडे ऐसा तो नहीं है। अपने पास और अपने स्वभावमें ही पडा है। उस पर दृष्टि करे, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करे तो उसीमेंसे प्रगट हो सके ऐसा है। परन्तु स्वयं करता नहीं है। पुरुषार्थ नहीं करता है।
विभावकी एकत्वबुद्धि तोडकर स्वयं अपनेमें जाय, ज्ञायकताको अन्दरसे स्वयं ग्रहण करके उस रूप परिणमन करे तो स्वयं ही है। अपनेमेंसे प्रगट हो सके ऐसा है। द्रव्य तो अनादिअनन्त शक्तिमें सब भरा है, परन्तु प्रगट स्वयंको करना है। बारंबार उसीका प्रयास, उसीका मनन करता रहे। छाछको बिलोनेसे, मक्खनको बिलोनेसे मक्खन ऊपर आता है। स्वयं बारंबार उस भेदज्ञानका अभ्यास करता रहे। स्वयं भिन्न हुए रहे नहीं, परन्तु स्वयं करता नहीं है।
... बाहर सब देखनेका उसे (कुतूहल रहता है)। जबतक वह नहीं होता, तबतक उसकी महिमा, उसके विचार, मनन सब करता रहे। अंतरमें उग्रता किये बिना होता नहीं। अनादिका अभ्यास (है)। बाहरमें एकत्वबुद्धिको ऐसी दृढ की है, उसे तोडकर अंतरमें जाना उसके लिये स्वयं उग्रता (नहीं करता है)। बारंबार अभ्यास करके भी उग्रता नहीं करता है, कोई करे अंतर्मुहूर्तमें उग्रता करता है और कोई करे तो अभ्यास करते-करते उसे उग्रता (होती है)। लेकिन उग्रता तो स्वयंको ही करनी है।
आनन्दका सागर स्वयं है। स्वयंको ही करना पडता है। अपनी जो मान्यताएँ हैं, वह मान्यताएँ जूठी है और सत्य दूसरा है। उसके सामने स्वयं ही अपनी मान्यताको तोडकर अंतरमें स्वंयको पलटना है। बाहरसे संप्रदायका फेरफार (हो गया)। गुरुदेवने तो सच्चा मार्ग प्रकाशित करके संप्रदायका फेरफार करके स्वयं मार्ग प्रकाशित किया। गुरुदेवने किया ऐसा ग्रहण किया, लेकिन अंतरमेंसे पलटकर अपने हाथकी बात है। बाहरसे संप्रदायका बन्धन तोडा। अंतरमें विकल्पकी एकत्वबुद्धिका बन्धन स्वयंने ही खडा किया है उसे तोडना अपने हाथकी बात है। वह करनेका है।
... जो भवस्थिति होगी वैसा होगा। आत्मार्थीको ऐसा अभिप्राय नहीं होता। मैं करुँ तो होता है। मेरे पुरुषार्थकी क्षति है। मार्ग बताया। अंतरमें तो स्वयंको ही करना बाकी रहता है।
मुमुक्षुः- उग्रता अन्दरमें ही करनी है। उसका कुछ बाहरमें नहीं दिखता।
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समाधानः- बाहर कुछ नहीं दिखता। अन्दरसे उसे विभावका रस कम हो जाय। अंतरमेंसे चैतन्यकी महिमा आये। बाहरकी जो महिमा लगे, वह अन्दर अपनी परिणतिमें फेरफार होता है। वह कुछ बाहरसे नहीं दिखता। अंतरकी पूरी दुनिया अलग है। अंतरमें जाय, विकल्प टूट जाय और चैतन्य ग्रहण हो और स्वानुभूति हो, उसकी दुनिया ही अलग हो जाती है। उसे उसका आत्मा ही कहे कि, बस, यही आत्मा और यही स्वानुभूति और यही स्वभावका आनन्द। उसका आत्मा ही अन्दरसे कहे। उसीका आत्मा जवाब देता है। यही मुक्तिका मार्ग और यही स्वानुभूति और यही स्वभावका आनन्द। सब यही है।
उसे मार्ग हाथमें आ गया। एक अंशसे पूर्णता पर्यंतका मार्ग उसके हाथमें आ गया है। पूर्ण कैसी हो और अंश कैसा हो, उसकी साधना कैसी हो, पूर्ण द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत कैसा है? और उसका अंश प्रगट हो उसकी दशा कैसी हो? उसकी बीचकी साधनाकी दसा कैसी हो और पूर्णता कैसी होती है? वह सब एक अंश सम्यग्दर्शन जिसे प्रगट हुआ वह सब जान लेता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- गुरुदेवने बहुत दिखाया है। यह मार्ग अच्छा है। उनकी वाणीमें अकेला आत्मा ही दिखाते थे कि देख, आत्मा ऐसा है। ऐसा महिमावंत चमत्कारिक आत्मा है। ऐसा गुरुदेव कहते थे। परन्तु उसकी महिमा स्वयंको आनी चाहिये न। ऐसा चमत्कारिक कोई आश्चर्यभूत अदभुत आत्मा है। अनादिसे स्वयंने पहचाना नहीं है। तू अन्दर जाकर देख तो तुझे दिखेगा। ऐसा गुरुदेव तो बहुत कहते थे। उनकी वाणी ऐसी थी कि दूसरोंको आत्माका आश्चर्य लगे, ऐसा कहते थे। वाणीमें ऐसा आता था। दुकान पर जाय तो सब माल नहीं दिखाता, उसका थोडा नमूना ही दिखाता है।
मुमुक्षुः- वहाँ तो दिखता है, यहाँ तो कुछ दिखता ही नहीं है।
समाधानः- गुरुदेव तो उनकी वाणीमें बताते थे। वह तो अमुक प्रकारसे वाणीमेंसे ग्रहण हो ऐसा है। बाकी तो अन्दरसे स्वयंको अंश प्रगट हो तो स्वयंको ज्ञात हो। उसकी स्वानुभूति प्रगट करे तो। गुरुदेव उसके लक्षणसे पहचान करवाते थे कि ऐसा ज्ञानलक्षण आत्मा कोई अदभुत है, स्वानुभूतिमें उसका अनुभव होता है, आनन्दस्वरूप है, चमत्कारिक है यह सब कहते थे। सम्यग्दर्शन कोई अलग वस्तु है। चौदह ब्रह्माण्डके भाव पी गया है। वह कोई अदभुत है, ऐसा सब कहते थे। उसका किसीसे मेल नहीं है। जगतमें देवलोकका सुख या चक्रवर्तीके सुखके साथ कोई मेलन हीं है। कोई अनुपम है। अनेक प्रकारसे गुरुदेव कहते थे।
मुमुक्षुः- ...
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समाधानः- करना स्वयंको पडता है। वह तो बाहरकी वस्तु है। यह तो अंतरमेंसे स्वयंको प्रगट करना है। अपने पास ही है, कहीं लेने नहीं जाना है। लेकिन स्वयं जागता नहीं है। आँख खोलकर देखता नहीं। निद्रामें सोया है। आँख खोलकर देखे तो दिखे न? आँख बन्द करके (बैठा है), देखता नहीं।
मुमुक्षुः- मतलब आँख बन्द रखकर दिखाईये-दिखाईये ऐसे माँगता रहता है।
समाधानः- हाँ, आँख बन्द रखी है, देखता नहीं है। अन्दर ज्ञानचक्षु खोले तो दिखे न? महिमा नहीं है, उतनी जरूरत नहीं लगी है।
समाधानः- ... बाहर टहेल लगाये, अन्दर ज्ञायकका द्वार पर टहेल लगाये। ज्ञायकके द्वार .. आनन्दघन प्रभुके घर द्वार, रटन करुँ गुणधामा। प्रभुके द्वार पर, हे ज्ञायक! हे गुणसागर ज्ञायकदेव! हे गुणका सागर! तू अनन्त गुणकी महिमासे भरा, तीन लोकका नाथ। तू सबको जाननेवाला आनन्दका सागर (है)। तेरे द्वार पर मैं टहेल लगाता हूँ। तेरे द्वार क्यों नहीं खोलता? तो द्वार खालना ही पडे। हे ज्ञायकदेव! जिनेन्द्र देव मेरे समीप आये, गुरु मेरे समीप आये, शास्त्र मेरे समीप आये। सब मेरे समीप हैं, एक तू मेरे समीप न आये, ऐसा कैसे बन सकता है? बने ही नहीं।
ज्ञायकदेव तेरी साधना की ऐसे जिनेन्द्र देव, तेरी साधना की ऐसे गुरुदेव और तेरे श्रुतका चिंतवन करे, वह सब मेरे समीप आ गये। गुरु श्रुत श्रवण करवाते हैं, वह सब मेरे समीप आये। जिसकी आराधना जिनेन्द्र देव, गुरु कर रहे हैं, वह मेरे समीप आये और तू स्वयं मेरे साक्षात समीप क्यों नहीं आता? तू स्वयं ही है। तेरे समीप आये बिना रहे ही नहीं। आयेगा ही।
... अन्दर प्रगट हुए बिना रहेगा ही नहीं। उसे काल लागू नहीं पडता। कालको निकाल देना। चाहे जब भी हो, कालको निकाल देना। ज्ञायकदेव कभी भी..
मुमुक्षुः- अपना ही है।
समाधानः- अपना ही है, कहीं ढूँढने नहीं जाना पडता। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र अमुक पुण्य हो तो मिलते हैं। वह पुण्य मिल जाता है, और स्वयं समीप है वह नहीं मिले, यह कैसे बने? ऐसा पुण्य बन्धते हैं और जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र मिल जाते हैं, तो ज्ञायकदेव स्वयं ही है और वह न मिले? स्वयंको खोजने स्वयं जाता नहीं है और मिलता नहीं है। स्वयं प्राप्त न हो ऐसा होता है?
जैसे गुरुके सामने, देवके सामने टकटकी लगाता है, वैसे यहाँ स्वयंकी ओर टकटकी लगाकर देखना। ... टकटकी लगाकर देखना। ... उसे देखता ही रहे, तू ज्ञायकदेव ऐसा! तू ज्ञायकदेव ऐसा!! जैसे जिनेन्द्र देवकी मुद्राके सामने, गुरुकी मुद्राके सामने टकटकी लगाता है, वैसे ज्ञायक सन्मुख टकटकी लगाये तो वह समीप आ जाय। .. आनन्दघन
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प्रभुके घर द्वारे, रटन करुँ... रटन करते-करते समीप न आ जाय, ऐसा कैसे बने?
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- सब अपने सर ले-ले। कुछ भी हो, अपने पर... कोई भूल हो तो कहे, मेरी भूल है। सबकी भूल अपने सर ले-ले। और पहलेसे ... यहाँ गुरुदेवका इतना किया।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कुछ भी कहे, बात खत्म। कोई विकल्प नहीं। उनकी विकल्प तोडनेकी बहुत शक्ति थी।
समाधानः- पण्डितोंके मुँह बन्द कर दे। उन्हें भाई मतलब उनके सर पर, अतः गुरुदेवको कोई बोझ नहीं था।
मुमुक्षुः- वैसे तो सब जानते हैं, परन्तु आखरी दिनका भाव है...
समाधानः- एक आधाररूप गुरुदेव.. शास्त्र पढ ले, आत्मधर्म पढ ले। कितने शास्त्र पढ ले। पूजामें, भक्तिमें, स्वाध्यायमें सबमें नियमितता। हर जगह आये। अर्पणतासे सब सेवा की।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।