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समाधानः- ... सब अपेक्षाएँ अलग आती है। आचार्यदेव कहते हैं न? यह चैतन्यका वैभव कैसा अदभुत आश्चर्य उत्पन्न करे ऐसा है। एक ओरसे देखें तो एक दिखे, अनेक दिखे, नित्य दिखे, अनित्य दिखे, ऐसे विरोधी धर्म दिखे। तो भी वह आत्मामें ऐसा विरोध नहीं है। वह वस्तुभेद नहीं है, वह लक्षणभेद है। वह ऐसे विरोधी धर्म नहीं है कि आत्मामें साथ नहीं रह सके।
जैसे प्रकाश और अन्धकार साथमें नहीं रह सकते। जड और चैतन्य विरोधी धर्म है। ऐसे विरोधी धर्म नहीं है। आत्माका ज्ञानलक्षण है वह चेतनमय है। चेतनके चेतनमय गुण हैं। उसका नित्य स्वभाव और अनित्य स्वभाव है। नित्य तो द्रव्य अपेक्षासे। और पर्याय अपेक्षासे क्षण-क्षणमें पलटता है, परन्तु द्रव्यका नाश नहीं होता। ऐसा अनित्य स्वभाव नहीं है कि द्रव्यका नाश हो जाय। तो दोनोंमें विरूद्धता आये। द्रव्यका नाश नहीं होता, परन्तु पर्याय पलटती है। स्वयं स्वयंकी अपेक्षासे सत है। परकी अपेक्षासे असत है। अपनी अपेक्षासे असत नहीं है। ऐसे विरोधी धर्म ऐसे नहीं है कि उसे ऐसा विरोध आवे कि परस्पर साथमें रह नहीं सके। ऐसा नहीं है। परन्तु ऐसे अनेक धर्म आत्मामें रहे हैं कि वह धर्म ऐसे अचिंत्य और आश्चर्यकारी है। आत्मा स्वयं एक, उसमें अनेक धर्म। वह स्वयं अनन्त धर्मकी मूर्ति है। एक होनेपर भी अनन्त और अनन्तमें एक। नित्य और उसके साथ अनित्य। ऐसे अनेक जातके धर्मसे (संपन्न) आत्मा ऐसी अनेकान्तमय मूर्ति है कि जो आश्चर्यकारी है।
कितने ही धर्म तो वचनमें आते नहीं। वचनसे अगोचर (हैं)। कुछ वचनमें आते हैं, तो भी उन सबका विरोध नहीं है। उन सबका विरोध मिटाकर सम्यग्दृष्टि साधना साधते हैं। वह ऐसा विरोध नहीं है कि साधनामें अडचन आवे या जिसमें साधन कर नहीं सके। एक गुण हो वहाँ पर्याय नहीं हो सकती, द्रव्य हो वहाँ पर्याय नहीं हो सकती, ऐसा विरोध नहीं है। पर्याय अंश है और आत्मा अंशी उसकी अपेक्षाएँ अलग हैं। दोनोंकी अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न समझे तो उसका विरोध मिट जाता है। इसलिये वह विरोध मिटाकर सम्यग्दृष्टि साधना साधते हैं। और वह उसकी साधना अविरूद्धपने साधते हैं। उसमें विरोध नहीं आता है।
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अनेकान्तमय मूर्ति है। स्वानुभूतिमें उसे अनेकान्तमय मूर्ति उसकी स्वानुभूतिमें आती है। लेकिन कितने ही धर्म वचनमें नहीं आते, कितने ही वचनसे अगोचर है कि ज्ञायकको, द्रव्यको दृष्टिमें लिया तो उसके गुणभेद, पर्यायभेद सब ज्ञान जानता है। उसका विरोध मिटाकर साधना साधते हैं। स्वयं द्रव्य पर दृष्टि करके, द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण है, परन्तु पर्यायमें अभी अधुरापन है, उसे ज्ञान जानता है। इसलिये चारित्रकी साधना बाकी रहती है। अतः चारित्रकी साधना बारंबार साधकर अंतरमें लीन होकर, विभावको टालता हुआ स्वरूपको साधतो हुआ आगे बढता है। विरोध मिट जाता है। अनेकान्त ज्ञान ऐसा है कि विरोध मिट जाता है।
भगवानकी वाणी ऐसी स्याद्वाद वाणी कि जो विरोध मिटानेवाली है। ऐसी सरस्वती देवी भगवानकी वाणी, जिससे विरोध मिट जाता है। भगवानकी वाणीमें चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप आता है। यदि वह यथार्थ समझे और अपने स्वभावसे समझे। ज्ञान भी वैसा है और वाणी भी वैसी है। उससे विरोध मिट जाता है। यदि यथार्थ समझे तो।
वह आता है न? भूतार्थ स्वभावको अपने द्रव्यके समीप जाकर देखे तो भूतार्थ है और पर्यायके समीप जाकर देखे तो (अभूतार्थ है)। द्रव्य भूतार्थ और पर्याय अभूतार्थ द्रव्यकी अपेक्षासे। और पर्यायके समीप जाकर देखे तो पर्याय भूतार्थ दिखती है। परन्तु द्रव्यकी अपेक्षासे वह अभूतार्थ है। उसकी अपेक्षाएँ समझे तो विरोध मिट जाताैहै। ऐसा विरोध मिटाकर साधना साध सकता है, यथार्थ समझे तो।
विभाव अपना स्वभाव नहीं है। और यह ज्ञानादि जो हैं, वह अपना स्वभाव है। मात्र उसमें अनेकता और एक, ऐसा विरोध है। परन्तु वह विरोध ऐसा नहीं है कि जहाँ एक हो, वहाँ अनेक रह न सके, ऐसा नहीं है। लक्षणभेद है। लक्षणभेद, पर्यायभेद ऐसा भेद है। दूसरा भेद नहीं है। और एक द्रव्यके अन्दर समा जाता है। द्रव्य स्वयं द्रव्य अपेक्षासे एक और उसमें धर्म अनन्त, गुण अनन्त। वह तो द्रव्यकी एक विभूति है। उसकी पर्यायें अनन्त, वह सब द्रव्यकी विभूति है। द्रव्य ऐसा नहीं होता कि जो विभूति रहित हो। जो गुण रहित द्रव्य हो तो उसे द्रव्य ही नहीं कहते। ऐसी अनन्त विभूतिसे भरपूर भरा हुआ द्रव्य है।
उसे अपने विचारसे नक्की करे, नयसे प्रमाणसे नक्की करे। वह नक्की करता है वही उसकी स्वानुभूतिमें... यद्यपि स्वानुभूति अपूर्व है, परन्तु स्वानुभूतिमें उसे प्रतीत करता है, उस प्रकारकी स्वानुभूतिमें उसका नाश नहीं होता है। अनेकान्तमय मूर्ति स्वयं शाश्वत ही है। उसका विरोध मिटाकर साधना साध सकते हैं।
मुमुक्षुः- सब द्रव्यके ही धर्म है? विरोधी भी द्रव्यका ही धर्म है।
समाधानः- द्रव्यके ही धर्म हैं। एक वस्तुके धर्म हैं। और उसमें रह सकते हैं।
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मुमुक्षुः- वस्तुको उपजानेेवाले।
समाधानः- वस्तुको उपजानेवाले, वस्तुको टिकानेवाले, वस्तु अनेक धर्मकी मूर्ति है। आश्चर्यकारी वस्तु है।
मुमुक्षुः- एक प्रश्न है कि निर्विकल्प अनुभूतिके समय ज्ञानगुण परिणमन तो करता ही है, तो उस वक्त आत्माके बंधारणके द्रव्य-गुण-पर्याय निर्विकल्पपने ज्ञात होते हैं या सबका एकरूप अनुभव होता है?
समाधानः- ज्ञानगुण परिणमन करता है वह परिणति तो मौजूद है। निर्विकल्पतामें यदि अन्दर जाय और द्रव्य, गुण, पर्याय नहीं रहते हो तो ज्ञानगुणका परिणमन भी नहीं रहता। परन्तु जो स्वयं विकल्प छूटकर निर्विकल्प होता है... पहले नय, प्रमाणसे नक्की किया। द्रव्य, गुण, पर्याय वस्तुमें है। वह विकल्पके साथ नक्की किया। अन्दरमें जाता है वहाँ निर्विकल्पमें भी द्रव्य-गुण-पर्याय सब वस्तुमें मौजूद है। परन्तु एकमेक यानी द्रव्यसे वस्तु भिन्न नहीं है। वस्तु गुण और पर्याय भिन्न नहीं है। भले एकमेक है, परन्तु उसके लक्षण, उसकी पर्यायें जैसा है वैसा ज्ञानमें ज्ञात होता है। वस्तुका स्वरूप निर्विकल्पपने जैसा है वैसा ज्ञात होता है। वह कोई भिन्न वस्तुकी भाँति ज्ञात नहीं होते। परन्तु एक ही वस्तुका स्वरूप (है)।
जैसे अग्नि और उष्णता। उष्णता अग्निसे भिन्न नहीं है, शीतलता पानीसे भिन्न नहीं है। वह सब दृष्टान्त है। शक्करमें श्वेतपना, मीठास आदि है। वह उससे भिन्न नहीं है। परन्तु वैसे गुण उसमें है। वैसे यह सहजपने हैं। इसलिये विकल्प छूटनेसे पहले विकल्पसे नक्की किया परन्तु फिर विकल्प छूट गये तो भी स्वरूप तो वैसा ही रह जाता है और स्वरूप ज्ञानमें ज्ञात भी होता है।
ज्ञान स्वयंको जानता है, अभेदको जानता है, ज्ञान भेदको जानता है, ज्ञान अनन्त गुणोंको, ज्ञान अपनी पर्यायोंको, सबको जाननेका ज्ञानका स्वभाव है। एकमेक यानी एक वस्तुमें सब है। उस अपेक्षासे एकमेक है। परन्तु गुणभेद, पर्यायभेद, लक्षणभेद और अंश-अंशीका भेद है, पर्याय पलटती है, वह सब जैसा है वैसा ज्ञानमें ज्ञात होता है। एकमेक यानी उसमें गुण और पर्याय नहीं रहते हैं, ऐसा नहीं है। ज्ञानकी जो पर्याय, ज्ञानका जाननेका स्वभाव और गुण जो परिणमन करते हैं। आत्मामें अनन्त भाव रहे हैं। वह जैसा है वैसा ज्ञान सबको जानता है।
अनुभूतिके समय कोई अपूर्व अनुभूति (होती है)। जो विकल्पसे नक्की किया उससे उसकी अनुभूति भले अलग और अपूर्व है, तो भी गुण-पर्यायका नाश नहीं हो जाता। उस अनुपम अनुभिूतिमें उसके गुण-पर्याय जैसा है वैसा उसे अदभुतरूपसे जैसा है वैसा ज्ञात होता है। एकमेक है, द्रव्य अपेक्षासे भिन्न-भिन्न नहीं है। एकमेक अनुभूति होनेपर
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भी उसके लक्षण जैसा है वैसा, उसका अंश-अंशीका भेद, उसकी पर्यायें परिणमन क्षण-क्षणमें आत्माके गुणके जो तरंग होते हैं, वह सब जैसा है वैसा अदभुत और आश्चर्यकारी उसे ज्ञानमें ज्ञात होता है। उसमेंसे वह निकल नहीं जाते। अभेद यानी उसमें गुण ही नहीं है और पर्यायें नहीं हैं, ऐसा नहीं है।
सिद्ध भगवानमें सब रहता है। अनन्त गुण और पर्याय। सिद्ध भगवान वीतराग हो गये तो भी उसमें अनन्त गुण, अनन्त पर्याय (जो हैं) उन सबको ज्ञान जानता है। स्वानुभूतिमें भी, उसका ज्ञान पूर्ण नहीं है, परन्तु उसकी स्वानुभूतिमें जो आता है, उसकी अनन्त अगाधता जो है, उसके गुण, पर्याय जैसे हैं वैसा ज्ञात होता है। आकुलतारूप- विकल्परूप नहीं, परन्तु निर्विकल्परूपसे स्वानुभूतिमें जैसा है वैसा ज्ञात होता है। ऐसा वस्तुका स्वरूप ही है।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवको कोटि-कोटि वन्दन। पूज्य बहिनश्री! एक प्रश्न है। सम्यग्दृष्टि जीवको ज्ञायककी डोर हाथमें आ जानेके बाद उपयोग बाहर जाय तो सम्यकत्वको कोई हानी पहुँचती है? उपयोग बाहरमें हो तब भी क्या निरंतर शान्तिका वेदन होता है? निर्विकल्प अवस्था नहीं है, उसका कोई खेद होता है? उपयोगकी ऐसी अटपटी बात आप समझानेकी कृपा करें।
समाधानः- सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञायकदशा प्रगट हुयी है, वह ज्ञायक उसे ग्रहण हुआ है। निरंतर ज्ञायककी दशा ही वर्तती है। वह ज्ञायककी दशा जिनेन्द्र देवके उपदेशसे और गुरुके उपदेशके निमित्तसे स्वयंके पुरुषार्थसे जो प्रगट होती है, वह ज्ञायककी दशा उसे निरंतर वर्तती है। ज्ञायक जिसे ग्रहण हुआ, सो वह ग्रहण हो गया। निरंतर उसे ज्ञायककी दशा है। उपयोग बाहर जाय तो भी उसे ज्ञायक छूटता नहीं। उपयोग अन्दर जाय तो भी उसे ज्ञायक तो छूटता ही नहीं। अन्दर जाय तब तो ज्ञायकका परिणमन है। बाहर आये, उपयोग बाहर आये तो भी ज्ञायक तो ग्रहणरूप ही रहता है।
उसकी दृष्टिको कोई दिक्कत, उसकी ज्ञायकताको दिक्कत नहीं आती। उसकी अस्थिरताको दिक्कत आती है। उसकी स्थिर परिणति, अभी स्थिरता पूर्ण नहीं है इसलिये अस्थिरताका दोष है। परन्तु उसे ज्ञायककी जो दृष्टि प्रगट हुयी, उस दृष्टिमें उसे थोडा भी दोष नहीं लगता। और शान्तिका वेदन होता है। जैसी एकत्वबुद्धिकी आकुलता थी, वैसी आकुलता नहीं है। उसकी अस्थिरताकी आकुलताकी अलग बात है। बाकी अंतरमें उसे शान्तिका वेदन होता है, समाधिका वेदन है, उसे सुखका वेदन होता है। निर्विकल्प दशाका जो आनन्द होता है, वह आनन्द तो अलग ही है। वह तो अनुपम, कोई अपूर्व, कोई अलग ही जातका है, जिसे जगतकी कोई उपमा लागू नहीं पडती। वह आनन्दकी दशा और चैतन्यकी दशा अलग होती है। तो भी उसे सविकल्प दशामें जो शान्तिका
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वेदन होता है, वह ज्ञायककी शान्ति एवं समाधिका वेदन होता ही रहता है। उपयोग बाहर जाय तो भी उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती। ज्ञायकता, प्रति समय उसे ज्ञायकता मौजूद ही रहती है।
जो ज्ञायक ग्रहण हुआ वह उसे छूटता नहीं है। जैसे घरमें खडा हुआ मनुष्य अपने घरको छोडे बिना बाहर बात करे, घरमें खडे रहकर बाहर बातचीत करे परन्तु अपना घर छूटता नहीं है। घर छोडकर बाहर जाता ही नहीं। जो चैतन्यकी डोर हाथमें आयी, वह चैतन्यकी डोर उसे छूटती नहीं। उसकी परिणति बाहर ज्यादा नहीं जाती है। उसे मर्यादा रहती है। मर्यादाके बाहर, उपयोग मर्यादासे बाहर जाता ही नहीं है।
उसकी भेदज्ञानकी धारा निरंतर वर्तती है। मैं चैतन्य और यह विभाव है। विभावमें एकमेक होकर बाहर जाता ही नहीं। चैतन्यका घर वह छोडता ही नहीं। जब उपयोग अंतरमें जाय वह उसके हाथमें ही है। उसका मार्ग सरल हो गया है। जब उसे अपनी ओर परिणति आती है, तो निर्विकल्प दशा भी उसे अपने हाथमें है। परन्तु अस्थिरताके कारण उसकी भूमिका अनुसार उसे निर्विकल्प दशा होती है। घर तो उसका छूटता ही नहीं। चाहे जैसे प्रसंगमें ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायकका घर उसे छूटता नहीं। चाहे जैसा विकल्प आये या चाहे जैसे बाह्य प्रसंग, उदय आवे तो भी उसे ज्ञायकका ग्रहण, ज्ञायक तो छूटता ही नहीं।
घरमें खडा हुआ मनुष्य बाहर बातचीत करे या बाहरके कोई प्रसंगमें जाय तो भी वह घर छोडकर बाहर नहीं जाता है। घरमें खडा हुआ मनुष्य जैसे बातचीत, लेनदेन करता है, वैसे वह घरमें खडे-खडे निरंतर घरमें ही-ज्ञायकके घरमें ही खडा है। मात्र उस घरमें लीनताकी, अस्थिरताकी क्षति है। इसलिये उसे किसी भी प्रकारका दृष्टिका दोष नहीं लगता है। उसे ज्ञायकतामें दोष नहीं आता है। परन्तु अस्थिरताका दोष उसे है। अभी अल्पता है। अल्पताके कारण वह समझता है कि निर्विकल्प दशा मेरी भूमिका अनुसार होती है। बाहरकी जो विकल्पात्मक दशा, जो अस्थिरता है, अस्थिरता (छूटकर) यदि लीनता अधिक हो तो निर्विकल्प दशा प्रगट होती है। अर्थात जैसा अपना पुरुषार्थ उत्पन्न होता है, वैसे स्वरूपमें जम जाता है। लेकिन उसे वैसा एकत्वबुद्धिका खेद नहीं है। उसे भावना होती है, कहाँ केवलज्ञानीकी दशा, कहाँ मुनिओंकी दशा और कहाँ यह अधूरी दशा। बाहर जुडना हो जाता है। कहाँ चैतन्यकी अपूर्व आनन्दकी दशा, वह छूटकर बाहर जाना होता है। ऐसी भावना उसे होती है। उसे पुरुषार्थकी भावना होती है। परन्तु वह हठ नहीं करता। अपनी सहज परिणति (चलती है), पुरुषार्थ करता है, प्रमाद नहीं करता है। पुरुषार्थकी डोर हाथमें ही है। उपयोगको ज्यादा बाहर नहीं जाने देता। स्वरूपकी ओर डोरको खीँचता ही रहता है। ज्यादा बाहर जाये तो भी
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ज्ञायकका जो ग्रहण हुआ, उसी ओर अपनी डोर खीँचता ही रहता है।
चाहे जैसे बाह्य प्रसंग आवे, उसे बाह्य उदय, नोकर्मके उदय या भावकर्मके उदय, वह मर्यादाके बाहर नहीं जाता। उसे किसी प्रकारका भय नहीं है। कोई वेदनाका भय, कोई अकस्मात भय, ऐसा कोई भय उसे नहीं लगता है। मेरी ज्ञायककी परिणति मौजूद है, मुझे कोई नुकसान कर सके ऐसा नहीं है। अन्दर भावकर्ममें भी उसकी जो भूमिका है, उस प्रकारके विकल्प आते हैं। उसे मर्यादा छोडकर कोई विकल्प नहीं है। वह मर्यादाके बाहर नहीं जाता। उसमें उसे उस प्रकारका भय नहीं है कि मेरा ज्ञायक छूट जायगा। क्योंकि उसके पुरुषार्थकी डोर हाथमें है।
ज्ञायकका घर ग्रहण किया सो किया, ज्ञायकरूप ही उसकी परिणति हो गयी है। उसकी दशा शरीरके साथ या विकल्पके साथ कहीं एकत्व नहीं होती। ज्ञायक, ज्ञायक और ज्ञायक, ज्ञायकमय ही उसकी परिणति रहती है। किसी प्रकारका उसे खेद, एकत्वबुद्धिका खेद नहीं होता। बाकी वीतराग होनेकी, मुनि बननेकी भावना रहती है। परन्तु उसकी दृष्टिको दोष नहीं लगता है, ज्ञायकतामें दोष नहीं लगता है।
मुमुक्षुः- लडाईमें भी ऐसी ही स्थिति होती है? समाधानः- हाँ, लडाईके वक्त भी उसकी ज्ञायकता मौजूद है। ऐसे बाह्य प्रसंगमें खडा है कि राजका राग छूटता नहीं है, इसलिये इस लडाईमें जुडना पडता है। तो भी न्यायकी रीतसे लडाईके प्रसंगमें जुडता है। लेकिन ऐसा कहता है कि, अरे..! यह राजका राग छूटता नहीं है, इसलिये इसमें खडा हूँ। परन्तु ज्ञायकता छूटती नहीं। उसके राग-द्वेषके विकल्प मर्यादा बाहर जाते नहीं। उसकी परिणति वह स्वयं जानता है और जो उसे समझे वह जान सकता है। बाकी बाहरसे जो गृहस्थाश्रममें रहते हो, उसकी परिणति पहचाननी मुश्किल पडता है। क्योंकि चक्रवर्तीका राज हो, लडाईके प्रसंग हो, उसमें उसकी परिणति पहचाननी मुश्किल पडता है। परन्तु उसकी परिणति अंतरसे भिन्न ही रहती है।