Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 12.

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ट्रेक-०१२ (audio) (View topics)

उससे पुण्य बन्धता है। स्वयंने उसने उतना राग छोडा, खाना-पीना ... आत्माका स्वभाव, यही आत्माका स्वरूप है। आत्मा खाता-पीता नहीं। उसने त्याग किया, ठीक है, शुभभावसे पुण्य बन्धता है। लेकिन ...

एक मनुष्यको कहीं जाना हो तो किस रास्तेसे जाना है, उस मार्गको जानना चाहिये। यहाँसे भावनगर जाना हो तो उस रास्ते पर मार्गको जानकर चले तो वहाँ पहुँचता है। उलटे रास्ते पर चले, दूसरे रास्ते पर जाये तो दूसरे गाँव पहुँचता है। मार्ग जाने। मार्ग जाने बिना ऐसी ही धूपमें तप्त हो जाये तो मार्ग हाथ नहीं लगता, मार्गको जानना चाहिये। जाने तो आगे बढे। उसे जानना तो चाहिये कि मैं कहाँ जाऊँ? आत्मा क्या है? क्या स्वरूप है? क्या मोक्ष है? सुख कहाँ है? दुःख क्यों है? किस कारणसे है? उसके कारण खोजे। आत्माका सुख कैसे प्रगट हो? वह जाने। जानकर अन्दर निरसता आ जाये। संसारमां उसे रस नहीं होता। अन्दरसे रस एकदम छूट जाये और उदासीनता आ जाये। उदासीनता आये परन्तु वह जाने के इस रास्ते पर जानेसे-आत्माको पहचाननेसे (आगे बढा जायेगा)। निरस हो जाये, आत्मामें लीन हो जाये। आत्माको पहचानकर अन्दर लीन हो, तो मार्ग मिलता है। मात्र भागता रहे तो वह शुभभाव है, पुण्यबन्ध होता है।

मुमुक्षुः- किसके द्वारा यह सब प्राप्त हो सकता है?

समाधानः- जो जानता हो (उनसे)। भगवानने जो मार्ग दर्शाया, भगवानने क्या कहा है उसे जाने और आचार्य क्या कहते हैं, मुनिओने क्या कहा है, गुुरु क्या कहते हैं, उनके द्वारा मार्ग मिले। परन्तु स्वयं तैयार हो तो मार्ग मिले। गुरुके मार्ग पर चले। सत्संगसे समझमें आता है। साक्षात गुरु मिले, साक्षात आचार्य, मुनि कोई मिले (तो) उनसे मार्ग मिलता है। अनादिका अनजाना मार्ग समझे बिना स्वयं ऐसे ही करे तो ऐसा तो उसने अनेक बार किया है। त्याग किया, सब किया, लेकिन पुण्यबन्ध हुआ। उससे देव हुआ, परन्तु भवका अभाव नहीं हुआ। पुण्य बान्धे तो देवका भव मिले, अच्छे भाव रखे तो देवका भव मिले। यदि भाव अच्छे नहीं हो, मात्र आहार छोडकर भाव यदि बराबर नहीं हो तो पुण्यबन्ध नहीं होता है। परन्तु भाव अच्छे हो तो पुण्यबन्ध


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होकर देव होता है। भवका अभाव नहीं होता। देव तो अनन्त बार हुआ है। ऐसा देव अनन्त बार हुआ, पशु अनन्त बार हुआ, मनुष्य अनन्त बार हुआ, अनन्त बार सब हुआ, परन्तु भवका अभाव नहीं हुआ। उसी मार्गमें शुभभावमें रहा, परन्तु उससे मार्ग भिन्न है। आत्माको जाना नहीं, इसलिये अन्दरसे आत्मा प्रगट नहीं होता। अन्दरसे निरसता आनी चाहिये, अन्दरसे वैराग्य आना चाहिये। आत्माको पहचाननेके लिये प्रयत्न करे तो आत्मा प्राप्त होता है।

मुमुक्षुः- प्रथम भूमिकामें क्या करना चाहिये?

समाधानः- क्या करना? आत्माको (पहचानना)। सब निरस (है), ऐसा आत्मामें नक्की करना। आत्माकी ओर रुचि बढावे, आत्माकी ओर ... करे, सच्चा मार्ग क्या है, तो उस मार्ग पर जा सकता है। और आत्माकी ओरका प्रयत्न करे, श्रद्धा करे, प्रतीत करे, उसमें लीनता करे तो स्वानुभूति होती है।

समाधानः- ... अंतर आत्मामें.. गुरुदेवने जो कहा है, जो मार्ग दर्शाया है, वही मार्ग (है)। वांचन करना, शास्त्र-स्वाघ्याय करना। आत्मा अनन्त गुणोंसे भरपूरे है, उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न, परवस्तु (के भिन्न)। शास्त्र- स्वाध्याय करे। पढनेमें जो आसान लगे वह पढना। भावना, जिज्ञासा रखनी। अन्दर विकल्प होते हैं वह भी अपना स्वभाव नहीं है, उससे आत्मा भिन्न है। आत्माका भेदज्ञान कैसे हो, स्वभाव और विभाव दोनों भिन्न चीज है, उसका भेदज्ञान हो। भेदज्ञान कैसे हो, उसके लिये लगनी लगानी, जिज्ञासा करनी।

आत्मा सर्वस्व है, बाहरमें कहीं भी सुख नहीं है। सब निःसार वस्तु है, सारभूत कोई नहीं है। (परिभ्रमण करते-करते) मनुष्यभव मुश्किलसे मिलता है। ऐसा मनुष्यभवमें ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग मिला, घूटन-मनन करता रहे। सब स्वयंको ही करना रहता है। आत्माको लक्षणसे पहचानना कि आत्मा ज्ञान (स्वरूपी है)। ज्ञानको पहचाननेका प्रयत्न करना। ज्ञायक महिमावंत है। ज्ञायकमें सब भरा है।

मुमुक्षुः- संकल्प-विकल्प आते हैं, उसे छोडनेके लिये क्या करना?

समाधानः- उसे छोडनेके लिये, यह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो आत्मा-शुद्धात्मा हूँ। जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा मैं हूँ। .. स्वयं तो आत्माको पहचाने तब होता है, तबतक विचारकरके (नक्की करे कि), यह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। बारंबार उसका विचार करे। और अशुभसे बचने हेतु शुभभावमें विचार करे, अच्छे विचार करे। अच्छे विचार करनेमें रुकना वह भी शुद्धात्मा प्राप्त नहीं होत तबतक शुभभावमें रुकनेका प्रयत्न करे। मेरेमें नहीं है। विकल्पसे भिन्न अन्दर मैं शुद्धात्मा हूँ। परिणामको शास्त्रमें रोके, देव-गुरु-शास्त्र शुभभावमें रुके। अन्दर शुद्धात्मा निर्विकल्प वस्तु है, उसमें


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कोई विकल्प नहीं है, विकल्प बिनाका आत्मा-ज्ञायक है। विकल्पसे (शून्य) आत्मा है। उसमें आनन्द भरा है, उसमें ज्ञान भरा है। जन्म-मरण उससे टलते हैं, आत्माको पहचाने तो टलते हैं, बाकी नहीं टलते।

जीवने बाहरका सब अनन्तकालमें किया। बाहरकी क्रिया (करके) देवमें जाये, परन्तु देवमेंसे (निकलकर भी) जन्म-मरण तो वैसे ही रहते हैं, भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है। आत्माको कैसे पहचानुं, उसके लिये उसकी लगनी, जिज्ञासा हो तो होता है।

मुमुक्षुः- निद्रासे जागने पर भक्ति आदि तो याद आ जाती है, वह शुरू हो जाती है, परन्तु आत्मा सम्बन्धित विचार, आत्मा कैसा है, उसके विचार नहीं आते हैं, तो क्या करना?

समाधानः- .. लगे तो होता है। अशुभसे बचनेको शुभभाव आये, भक्ति आये, सब आये। अन्दर आत्माकी लगनी लगे और आत्माकी महिमा लगे तो होता है। तो आत्माके विचार आते हैं। आत्माकी महिमा लगनी चाहिये। आत्माको पहचाने नहीं तबतक भक्तिके विचार आये, भक्तिकी भावना आये, शुभभाव आये, परन्तु आत्मा भी महिमावंत है, ऐसे आत्माकी महिमा आये तो उस ओरके (विचार चले)। आत्माकी महिमा आनी चाहिये। आत्मा भी एक देव, ज्ञायकदेव है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्मा है।

... समझमें नहीं आता। तो क्षपण श्रेणि लगाकर आगे (जाते हैं)। आता है न? क्षपक श्रेणि यानी आत्मा ऐसी श्रेणी चढता है। प्रथम तो सम्यग्दर्शन हो तब स्वानुभूति होती है। बाहरमें विकल्प आते थे, फिर भी अन्दरसे उनका आत्मा न्यारा ही रहे, आत्मा भिन्न ही रहे, निरंतर ऐसी दशा उनकी हो जाती है। ज्ञायक-ज्ञायक ऐसी ज्ञाताधारा हो जाती है। अन्दर स्वानुभूति होती है। कभी लीन हो जाते हैं। इसीप्रकार वह गृहस्थाश्रममें ही आगे बढते-बढते ऐसी भावना हो जाती है कि यह सब छोडकर मैं मुनि कैसे बन जाऊँ। जब मुनि हो जाते हैं, तब अन्दर आत्मामें बार-बार लीन हो जाते हैं। यथार्थ मुनिपना। बाहरसे छोड दे, अभी छोड देते हैं ऐसे नहीं, अन्दर यथार्थ भावसे हो जाये। गृहस्थाश्रममें रह नहीं सके, ऐसी उसकी दशा हो जाती है। फिर अन्दर मुनिपना लेकर आत्मामें (लीन हो जाते हैं)। क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होते हैं।

भगवानके दर्शन करे, देव-गुरु-शास्त्रके विचार करे, बाकी सब तो उन्हें छूट गया है। वह करते हैं, फिर भी अन्दरमें क्षण-क्षणमें अंतर्मुहूर्तमें आत्मामें चले जाते हैं। क्षण- क्षणमें स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। चलते-फिरते कई बार क्षण-क्षणमें लीन हो जाते हैं। सोये हो तो क्षण-क्षणमें अंतरमें चले जाते हैं। ऐसी उनकी दशा हो जाती है। आत्माकी


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स्वानुभूति करते-करते ऐसे लीन हो जाते हैं कि आत्माकी लीनतामें ऐसी उनकी श्रेणी हो जाती है, जिसे क्षपण श्रेणि कहते हैं, ऐसे लीन हो जाते हैं। कर्म अपनेआप ही क्षय होने लगते हैं। इसलिये क्षपक श्रेणि (कहते हैं)। कर्म इसप्रकार क्षय होते हैं कि फिरसे उदय ही नहीं आता। कर्म इसप्रकार क्षय होते हैं और अन्दरसे श्रेणि ऐसी चढते हैं कि वापस ही नहीं आते। स्वानुभूतिमें ऐसे लीन हो जाते हैं कि वापस नहीं आते और लीनतामें ही स्वानुभूतिमें लीन होकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। अर्थात पूर्ण हो जाते हैं। वीतरागदशा। क्षपक श्रेणीमें ऐसे चढ जाते हैं कि उसके फलमें केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है और आत्मामें लीन हो जाते हैं।

केवलज्ञान अर्थात समस्त लोकालोकको जाने और आत्माको जाने, सबको जाने ऐसा ज्ञान प्राप्त होता है और अन्दर अपनी स्वानुभूतिमें लीन रहे। बाहर नहीं आते। उन्हें जाननेकी इच्छा भी नहीं होती, सहज जाननेमें आ जाये, ऐसा आत्माका स्वभाव है। आत्माका अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है, आत्माका ज्ञान प्राप्त होता है, पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। आत्मज्ञान तो गृहस्थाश्रममें प्राप्त हुआ है, परन्तु केवलज्ञान हो जाता है। ऐसी क्षपक श्रेणी (है)। ऐसी श्रेणी चढते हैं कि फिर बाहर ही नहीं आते। लीन हो गये तो हो गये। ऐसा केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। आत्माके आनन्दमें... आता है न? "सादि अनन्त अनन्त समाधिसुखमां', बस! समाधि सुखमें अनन्त काल तक (रहते हैं)।

मुमुक्षुः- तभी वीतरागता पूर्ण..

समाधानः- हाँ, क्षपक श्रेणी चढनेके बाद वीतराग (होते हैं)। "क्षपण श्रेणी करीने आरूढता...' आता है।

मुमुक्षुः- द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप कैसा है?

समाधानः- द्रव्य-आत्मा एक वस्तु है। जैसे यह पुदगल वस्तु है, वैसे आत्मा एक वस्तु है। उसका मुख्य गुण है कि सबको जाने। सबको जाने यानी उसका जाननेका स्वभाव है। वह ज्ञेयको जाननेवाला ही है। यह जड वस्तु कुछ नहीं जानती, वैसे आत्मा सबको जाने ऐसा उसका स्वभाव है। जाननेवाली एक वस्तु है। वह उसका गुण है। उसमें अनन्त गुण हैं। जैसा ज्ञान है, वैसा आनन्दगुण है, वैसे अनन्त गुण हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व आदि (सामान्य गुण है)। ज्ञान जाननेका कार्य करे, आनन्द आनन्दका कार्य करे, शांति शांतिका कार्य करे, ऐसे कार्य करे उसे पर्याय कहते हैं।

समाधानः- ... सम्यग्दर्शन आत्माका गुण है और वह आत्मामें है। बाहरसे नौ तत्त्वकी श्रद्धा करनी ऐसा आता है। जैनदर्शन-स्थानकवासी, देरावासी सबमें आता है। नौ तत्त्वकी श्रद्धा करे उसे सम्यग्दर्शन, ऐसा आता है। शास्त्र पढे यानी ज्ञान (हो गया)।


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त्यागी हो जाये, साधु हो जाये यानी चारित्र (हुआ, ऐसा) माने। भाव कदाचित ठीक रखे तो वह चारित्र वास्तविक चारित्र नहीं है। आत्मा स्वयं है, उस आत्माकी प्रतीत करनी, यथार्थ श्रद्धा करनी कि मैं आत्मा हूँ और शरीर नहीं हूँ। और यह विकल्प होते हैं वह मेरा स्वरूप नहीं है। सिद्ध भगवान जैसा मेरा स्वरूप है। ऐसी स्वयंकी परिणति प्रगट हो, ऐसे अन्दरसे बार-बार ऐसा ही लगे कि मैं इन सबसे भिन्न हूँ। भिन्न हूँ-भिन्न हूँ ऐसा करते (परिणति) हो, आनन्द प्रगट होता है। सिद्ध भगवान तो पूर्ण हो गये। ... तो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैैं। वही मुक्तिका मार्ग है।

उसे अन्दरसे सब छूट जाता है। इस संसारका स्वरूप... उसे अन्दरसे ऐसा (लगे) कि यह कुछ भी मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप भिन्न है, ऐसा अंतरसे (हो)। अनादिका अभ्यास है, राग-द्वेषमें पडा है, एकत्वबुद्धि है। बारंबार उसके लिये प्रयत्न करे तो होता है। नहीं तो वह नहीं होता। मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे भेदज्ञान करे तो होता है। बारंबार मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। आत्माको पहचानकर होना चाहिये कि यह जाननेवाला है वही मैं हूँ, यह शरीर कुछ नहीं जानता, ऐसे होना चाहिये। बहुत शास्त्रोंको जान लिया, ऐसे नहीं। आत्माको जाने तो उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। आत्माको जाने, उसके साथ भले ही नौ तत्त्व आदि जाने, परन्तु मुख्यरूपसे आत्माको जानना चाहिये। नौ तत्त्वको जाने, शास्त्रकी श्रद्धा होती है, जिनेन्द्र देव जो वीतराग होते हैं वह देव हैं, जो गुरु आत्माकी साधना करते हों, वे गुरु। इसप्रकार सच्चे देव- गुरु-शास्त्र (को जाने)। शास्त्र, जिसमें आत्माकी बातें आती हो, वह शास्त्र है। लेकिन अन्दर आत्माकी श्रद्धा साथमें होनी चाहिये, तो वह सम्यक है। मात्र बाहरका हो तो वह स्थूल श्रद्धा है। उसे व्यवहार कहते हैं।

भले वह नहीं हो तबतक सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी (श्रद्धा करे, लेकिन मात्र उससे) मोक्ष नहीं होता, मोक्षा तो आत्माको पहचाने तो ही होता है। उसका नाम सम्यग्दर्शन है। आत्माको जाने वह ज्ञान, आत्मामें लीनता करे, बाहरसे छूटकर आत्माका जो स्वभाव है, उसमें स्वयं लीन हो तो वह चारित्र है। बाहरसे व्रत धारण किये, सब किया परन्तु अन्दर स्वयं आत्मामें लीन नहीं हो तो वह चारित्र सिर्फ बाहरका है। बहुत लोग चारित्र लेते हैं, भावमें कुछ नहीं होता। ऐसा चारित्र नहीं।

सच्चा चारित्र तो ऐसा आता है कि आत्मामें बारंबार लीन होता है और बाहर आये तो उसे शुभभाव होते हैं। देव-गुरु-शास्त्र, नौ तत्त्व आदि, शास्त्र के विचार आते हैं। वह तो शुभभाव है, लेकिन अन्दर आत्मामें बारंबार लीन हो तो वह चारित्र है। उसके साथ भले उसे त्याग हो, मुनिदशा हो, सब होता है, परन्तु आत्माका (आश्रय) हो तो वह चारित्र कहलाता है। आत्माको समझे बिना बाहरसे चारित्र ले, वह वास्तविक


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चारित्र नहीं है, उससे मोक्ष नहीं होता। मोक्ष तो आत्मामें लीन हो, ऐसा चारित्र प्रगट हो तो ही मोक्ष होता है, नहीं तो उसे मोक्ष नहीं होता।

मुमुक्षुः- जीव एकबार मोक्षमें जानेके बाद वापस नीचे नहीं आता है न?

समाधानः- मोक्षमें जानेके बाद वापस नहीं आता। अन्दर स्वयं आत्मा मोक्षस्वरूप ही है। उसमें स्वयं लीनता करे तो मोक्षकी पर्याय यहीं प्रगट होती है। फिर तो वह एक क्षेत्रमें जाता है। यहाँ जीव था, वह सिद्धक्षेत्रमें गया। वहाँ जानेके बाद वापस नहीं आता। उसे भव नहीं होते। जन्म-मरणका नाश हो जाता है। फिर जन्म नहीं होता। लेकिन अन्दर वैसी तैयारी स्वयं यहीं कर लेता है। आत्मामें ऐसा लीन हो जाता है कि बाहर ही नहीं आता।

मुमुक्षुः- ..जितने कर्म बन्धे हैं, वह सब नष्ट हो जाते हैं?

समाधानः- हाँ। आत्माको पहचाने तो क्रोडो वषाके सभी कर्म क्षय हो जाते हैं।

मुमुक्षुः- ऐसा कहते हैं न कि चौरासी लाखके चक्कर काटने पडे। वह सब..

समाधानः- सबका नाश हो जाता है। एक आत्माको पहचाने, आत्माकी श्रद्धा करे, आत्मामें लीन हो तो सब टूट जाता है। उसे तोडने नहीं जाना पडता। बाहरसे उपवास करे, त्याग करे, सब करे तो कर्मका नाश हो, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- ... सबको ऐसी भावना होती है कि वर्षीतप करे, कर्मनाशके हेतु, वह जूठी मान्यता है?

समाधानः- वैसे कर्मका नाश नहीं होता। कर्म तो अन्दर आत्मामें आत्मा प्रगट हो तो कर्मका नाश होता है। वह मान्यता है वह समझ बिनाकी मान्यता है। अज्ञानी जो कर्म लाख-क्रोड भवमें नाश करे, वह ज्ञानी एक सांसमें क्षय करता है। आत्माका ज्ञान होनेसे एक सांस ले उतनी देरमें उसके कर्म क्षय हो जाते हैं और लाख-क्रोड भव पर्यंत अज्ञानी जो कर्मका नाश नहीं कर सकता, वह ज्ञानी एक क्षणमात्रमें क्षय करता है। आत्माको समझे बिना कर्मका नाश नहीं होता। आत्माका ज्ञान जिसे होता है, उसे त्यागादि सब होता है। लेकिन कर्मका नाश तो ज्ञानसहित हो तो होता है। अज्ञानीको कर्मका नाश होता है और फिर नये बान्धता है। वास्तविक रूपसे तो छूटते ही नहीं। त्याग करे, साथमें नये-नये साथमें बान्धता है और माने कि इससे मुझे धर्म होता है। साथमें जूठी मान्यता है, इसलिये नये कर्म बान्धता है।

(ज्ञानीको) कर्म क्षय इसप्रकार होते हैं कि जो क्षय होनेके बाद नया बन्ध नहीं होता। इसप्रकार ज्ञानीको क्षय होता है। नये बन्धते ही नहीं। मक्खनमेंसे घी होता है, फिर घीमेंसे पुनः मक्खन नहीं होता। वैसे जो अन्दरसे वीतराग हो गया, स्वानुभूतिमें लीन हो गया, केवलज्ञान हो गया, उसका फिरसे मक्खन नहीं होता।


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मुमुक्षुः- बीजज्ञान यानी क्या? वह केवलको बीज ज्ञानी कहे...

समाधानः- केवलको बीजज्ञानी यानी सम्यग्दर्शनको बीजज्ञान कहते हैं। बीजज्ञान प्रगट होता है इसलिये केवलज्ञान होता है। आता है, वह केवलको बीजज्ञानी (कहे)। ... सच्चा मार्ग मिले न, गुरु बिना मार्ग कौन बताये? बिना गुरु अपने ही आप समझ करे, बिना समझके, तो जूठा मार्ग ग्रहण करता है। सच्चे प्रत्यक्ष गुरु मिले वे मार्ग बताये तो वह सत्य मार्ग पर चले। गुरु बिना उसे मार्ग कौन बताये? गुरु बिना होता नहीं।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- वह गुरु तो कुछ नहीं समझते, मात्र वेष धारण किया होता है। कुछ समझते नहीं।

मुमुक्षुः- सच्चे गुरुको किसे कहते हैं?

समाधानः- सच्चे गुरु, जिसे सम्यग्दर्शन हुआ हो, जिसे आत्माकी स्वानुभूति हुई हो और जो अन्दरसे यथार्थ... जैसे गुरुदेव यहाँ विराजते थे, उन्हें सम्यग्दर्शन स्वानुभूतिपूर्वक (हुआ था)। उनका ज्ञान, उनका ज्ञान भी कोई अलग था। वैसा ज्ञान हो, जिसकी अपूर्व वाणी हो, जो वाणीपरसे पहचाने जाये कि ये सच्चे गुरु है, आत्माकी ही बात करते हो। लेकिन आत्माकी बातें भी मात्र बोलने जितनी नहीं, अंतरसे बातें करते हो। आत्मस्पर्शी जिनकी वाणी हो, उसे गुुरु कहते हैं। उन्हें देखकर, उनकी वाणी सुनकर ऐसा लगे कि ये तो आत्माकी कोई गहरी बातें करते हैं। ये तो आत्मामें बसते हो ऐसा लगता है। ऐसा लगना चाहिये, तो गुरु कहते हैं। मात्र बाहरकी बातें करते हो, आत्माकी कोई बात नहीं हो, उसे गुरु कैसे कहें? गुरुदेवको आपने देखा नहीं है। देखा है?

मुमुक्षुः- देखा है। हमारे घर पधारे थे। समाधानः- उनकी वाणी सुनी है। मुमुक्षुः- घाटकोपर सर्वोदय होस्पिटलमें आये थे, तब सुना है। समाधानः- उनकी वाणी कोई अलग थी। लोगोंको ऐसा लगे कि कुछ अलग ही कहते हैं। आत्मस्पर्शी वाणी हो।प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!

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