Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 125.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 122 of 286

 

PDF/HTML Page 782 of 1906
single page version

ट्रेक-१२५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. जीवको भी जातिस्मरण होता है तो उसने क्या पहले ज्ञानकी आराधना की होगी?

समाधानः- .. ज्ञानकी आराधना की हो ऐसा कुछ नहीं है। ज्ञानका उघाड किसीको होता है, किसीको अज्ञान दशामें भी होता है। जीव अनन्त कालमें बहुत क्रियाएँ करता है, यह करता है, परिणाममें नव पूर्वका ज्ञान होता है। ऐसा ज्ञानका उघाड तो जीवको बहुत बार हुआ है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते थे कि ज्ञानीका जातिस्मरणज्ञान और अज्ञानीका जातिस्मरणज्ञान, इन दोनोंमें बहुत फर्क है।

समाधानः- फर्क यानी उसकी दशा अलग है, उसकी दशा एकत्वबुद्धि युक्त है। (ज्ञानीको) स्वानुभूति सहितकी है, अज्ञानीको एकत्वबुद्धि सहितकी है।

मुमुक्षुः- तत्त्वका निर्णय पक्का होना चाहिये, तो निर्णयकी परिभाषा क्या है?

समाधानः- मैं ज्ञायक ही हूँ। यह सब मुझसे (भिन्न है), यह स्वभाव मेरा नहीं है। यह सब जो विभाव दिखते हैं, उसमें सूक्ष्म-सूक्ष्म जो-जो भाव दिखते हैं, वह कोई मेरा स्वरूप नहीं है। मैं चैतन्यतत्त्व ही हूँ। ज्ञायक ही हूँ। निर्विकल्प तत्त्व ही हूँ। उसमें उसे शंका नहीं होती। अंतरमेंसे स्वभावको पहचानकर ऐसा दृढ निर्णय उसे होना चाहिये।

जो विभाव दिखते हैं, वह मैं नहीं है। मैं तो चैतन्यतत्त्व ही हूँ। अपना अस्तित्व ग्रहण करके नक्की करता है, पक्का निर्णय (करता है)। उसमें फिर उसे उस दृढतामें फर्क नहीं पडता, ऐसा दृढ निर्णय होना चाहिये। ज्ञायक ही हूँ। स्वतःसिद्ध तत्त्व अनादिअनन्त अखण्ड चैतन्यद्रव्य ही हूँ, ऐसा भले उसे विकल्प न हो, परन्तु मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसा दृढ निर्णय होना चाहिये।

मुमुक्षुः- वह सब ज्ञानके पहलू हुऐ? दृष्टिको समर्थन मिलता ही रहता है?

समाधानः- ज्ञानमें भी, मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसे स्वयं अपना अस्तित्व ग्रहण करके.. ज्ञानका पहलू है, लेकिन स्वयंको ग्रहण करके (है), इसलिये उसमें दृष्टिका पोषण साथमें आ जाता है। अपना अस्तित्व ग्रहण करके मैं ज्ञायक हूँ। दृष्टिका जोर साथमें आ


PDF/HTML Page 783 of 1906
single page version

जाता है। यथार्थ ज्ञान हो तो यथार्थ दृष्टि (होती है)। जैसे यथार्थ दृष्टि हो उसके साथ यथार्थ ज्ञान होता है, वैसे स्वयं पक्का निर्णय करे तो उसके साथ यथार्थ दृष्टि प्रगट हुए बिना नहीं रहती। अपना अस्तित्व अपनेमेंसे ग्रहण करना चाहिये।

मुमुक्षुः- इसका प्रयोग करने बैठे तो प्रयोग हो सकता है?

समाधानः- वह स्वयं करे तो हो सकता है। मैं यह ज्ञायक ही हूँ, ज्ञायक ही हूँ। उसे स्वयं महिमापूर्वक (करे), शुष्कतापूर्वक ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे नहीं, परन्तु अंतरसे उसे महिमापूर्वक ज्ञायकमें ही सबकुछ है। ज्ञायक ही महिमावंत है। उतनी महिमापूर्वक उसका ध्यान एकाग्रता हो तो उसे यथार्थ ज्ञायककी परिणति प्रगट होती है। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे शब्दरूप या शून्यतारूप या शुष्कतासे ज्ञायक यानी कुछ नहीं है, ऐसे नहीं। ज्ञायक भरपूर भरा हुआ एक तत्त्व, चैतन्य अदभुत तत्त्व है। ऐसी अदभुततापूर्वक और महिमापूर्वक यदि उसका ध्यान करे और एकाग्रता करे तो वह प्रगट होता है। उसकी महिमापूर्वक कि इस ज्ञायकमें सब भरा है, अदभुत तत्त्व है, ऐसा दृष्टिका जोर, ऐसा ज्ञानका निर्णय, ऐसा उसे अदभुततापूर्वक हो तो उसका ध्यान यथार्थ होता है। नहीं तो कितनोंको तो ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ ऐसी शून्यतारूप अथवा एक विकल्परूप हो जाता है तो ध्यान यथार्थ नहीं होता है। उसकी अदभुतता लगनी चाहिये। ज्ञायकमें सब है।

भगवानने जैसा स्वरूप प्रगट किया, भगवानका जैसा चैतन्यतत्त्व जिनेन्द्र देवका है ऐसा ही मेरा चैतन्य ज्ञायक है। ऐसी महिमासे भरा हुआ, वह एक विकल्प हुआ, परन्तु मैं चैतन्य अदभुत तत्त्व ही हूँ। ऐसी अंतरमेंसे स्वयंकी महिमा आनी चाहिये। तो ध्यान यथार्थ होता है। .. विचार करे, स्वाध्याय करे ऐसा सब करे, लेकिन उसका ध्यान कब जमता है? कि, उसमें अदभुतता लगे तो ध्यान जाता है।

समाधानः- .. भीतरमें स्वानुभूति नहीं हुयी तो सच्चा तो नहीं हुआ। पहले तो सम्यग्दर्शन प्रगट करे। सम्यग्दर्शन पूर्वक संयम होता है। भेदज्ञान करे, स्वानुभूति प्रगट करे, गृहस्थाश्रममें पहले सम्यग्दर्शनका प्रयत्न करना चाहिये। मैं आत्माको कैसे पहचानूँ? आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। ऐसी श्रद्धा करना, ज्ञान करना, पहले तो ऐसा करना। और बादमें संयमकी पूजा होती है तो संयम आदरणीय है। पूजाके लिये तो कुछ होता नहीं।

मैं आत्मा आदरणीय हूँ। ऐसा .. सब आदरणीय है, ऐसा गुण आदरणीय है। उसके लिये करना, परन्तु पहले तो सम्यग्दर्शन प्रगट करना, बादमें संयम होता है। पूजाके लिये तो कुछ होता नहीं, आत्माके लिये सब होता है। पहले सम्यग्दर्शन होता है, बादमें संयम होता है। ऐसे तो बाहरसे त्याग कर दिया, अनन्त कालमें बहुत किया।


PDF/HTML Page 784 of 1906
single page version

आत्माके भीतरमें सच्ची स्वानुभूति नहीं हुयी। बाहर त्याग किया, संयम लिया तो देवलोकमें गया और परिभ्रमण तो ऐसे ही रहा। ऐसा तो बहुत किया।

यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो, वनवास लियो मुख मौन रहा, दृढ आसन पद्म लगाय दियो। सब शास्त्रनके नय धारी हिये, मत मंडन खंडन भेद लिये, अब क्यों न विचारत है मनसे, कछु और रहा उन साधनसे। साधनमें कुछ और रह जाता है, भीतरमें स्वानुभूति रह जाती है। सब कुछ किया परन्तु स्वानुभूत नहीं प्रगट की। स्वानुभूति प्रगट करना, बादमें संयम होता है। संयम होता है। अपने स्वरूपमें लीनता, स्वरूपमें रमणता, उसके साथ शुभभाव होता है तो श्रावकके व्रत होते हैं, मुनिदशा आती है। मुनिको तो छठ्ठे-सातवेँमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूति होती है, क्षण-क्षणमें स्वानुभूति होती है। ऐसी मुनिकी दशा होती है।

इसलिये पहले सम्यग्दर्शन करना। स्वाध्याय करके मैं आत्माको कैसे पहचानुं, ऐसा विचार करना। आत्माको पहचानना। साथमें स्वाध्याय (करे), लेकिन आत्माको पीछाननेका प्रयत्न करना।

मुमुक्षुः- विकल्प तो बहुत होते हैं, बहुत विकल्प होते हैं, अन्दर नहीं जाया जाता।

समाधानः- पुरुषार्थकी कमी है, पुरुषार्थकी कमी है। अंतर दृष्टि करे तो... पुरुषार्थ करना पडे न। पुरुषार्थ बिना कैसे होगा?

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसे करना?

समाधानः- पुरुषार्थ थोडा करे और कार्यकी (अपेक्षा रखे तो कैसे हो?)। कैसे? वह स्वयं करे तो होता है। किये बिना कुछ नहीं होता। एकत्वबुद्धि अनादिकी है, वैसा भेदज्ञान उसके सामने प्रगट करे तो होता है। पुरुषार्थ करे तो होता है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसा होता है? कैसे करना?

समाधानः- कैसा होता है क्या, वह स्वयं ही अन्दरसे खोज लेता है। जिसे जिज्ञासा हो, जिसे भूख लगी हो, वह खाना स्वयं ही खोज लेता है। वह रह नहीं सकता। वैसे जिसे अन्दरमें जिज्ञासा जागृत हो, आत्माके बिना रह नहीं सकता तो कैसे प्रगट करना (वह खोज लेता है)।

गुरुदेवने बहुत बताया है, शास्त्रमें बहुत आता है, तो स्वयं ही अन्दरसे खोज लेता है। जिसे भूख लगी हो, वह भूखा नहीं बैठा रहता। उसे कैसे तृप्ति हो, वह स्वयं ही अंतरमेंसे खोज लेता है। स्वयं ही खोज लेता है अंतरमेंसे। ... तृप्ति हुए बिना रहे नहीं, स्वयंको पुरुषार्थ करना पडता है।

मुमुक्षुः- ...


PDF/HTML Page 785 of 1906
single page version

समाधानः- गुरुदेवने स्वानुभूतिका, भेदज्ञानका मार्ग बताया है, वह मार्ग ग्रहण करनेका है। स्वयं ही खोजता रहे, जिसे जिज्ञासा होती है, उसे तृप्ति नहीं होती।

समाधानः- .. गुरुदेवने मार्ग बताया वही करनेका है। जन्म-मरण, जन्म-मरण होते ही रहते हैं, ऐसे तो कितने जन्म-मरण हुए, अनन्त। अनन्त (बार) देवलोकमें गया, अनन्त बार तिर्यंतमें गया, अनन्त भव मनुष्यके मिले, अनन्त बार नर्कमें गया। ऐसे अनन्त-अनन्त भव किये। उसमें इस भवमें गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग बताया, भवका अभाव करनेका। सब कहाँ पडे होते हैं, क्रियासे धर्म होता है, बाहरमें इतना कर ले तो धर्म होता है, धर्म अंतरमें रहा है। मात्र बाहरमें नहीं है। अंतरमें धर्म है, गुरुदेवने बताया कि अंतर आत्मा शाश्वत है उसे तू ग्रहण कर ले।

आत्मा शाश्वत है। यह शरीर तो बदलता ही रहता है। उसकी आयुष्य स्थिति पूरी होती है तब देह और आत्मा भिन्न हो जाते हैं। आत्मा चला जाता है। आत्मा शाश्वत रहता है। दूसरी गतिमें जैसे भाव किये हो उस अनुसार (चला जाता है)। गुरुदेवने मार्ग बताया और अंतरमेंसे आत्मा ग्रहण हो, और यह शरीर भिन्न और मैं भिन्न, यह सब विभाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा भेदज्ञान करके जाय तो सफल है। उसकी रुचि करे, उसकी महिमा करे तो भी अच्छा है कि गुरुदेवने ऐसा अपूर्व मार्ग बताया है। वह करने जैसा है।

जन्म-मरण करते-करते भवका अभाव करनेका मार्ग गुरुदेवने बताया है। जन्म- मरण इतने किये हैं कि इस आकाशके एक-एक प्रदेशमें जन्म-मरण करता है। ऐसे अनन्त भव किये हैं। अनन्त माताओंको रुलाया है, अनन्त-अनन्त भव किये हैं। कुछ बाकी नहीं रखा, शास्त्रमें आता है। ऐसे जन्म-मरण टालनेके लिये भेदज्ञान, सम्यग्दर्शन और स्वानुभूति करके कितने ही छोटी उम्रमें संयम लेकर आत्माकी साधना करनेको जंगलमें चले जाते कि आत्माकी साधना करके अब हम अन्दर केवलज्ञान प्रगट करें। शाश्वत आनन्द आत्मामें है, उसे प्रगट करें। ऐसा करनेके लिये छोटे-छोटे बालक भी सब छोडकर चले जाते।

गुरुदेवने अंतरमें मार्ग बताया है कि पहले तू भेदज्ञान कर। बादमें सब आता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र। ज्ञान और दर्शन प्रगट कर, बादमें चारित्र होता है। ऐसे जन्म- मरण जीवने अनन्त किये हैं। अनन्त कालमें जीवको सब कुछ मिल चुका है। गुरुदेव कहते हैं न कि, एक सम्यग्दर्शन, जिससे भवका अभाव हो वह प्राप्त नहीं हुआ है। और एक भगवान जिनवर स्वामी नहीं मिले हैं। मिले तो स्वयंने भगवानको स्वीकारे नहीं कि यह भगवान हैं, ऐसा उसने पहचाना नहीं। इसलिये उसे मिले ही नहीं।

इस भवमें गुरुदेव मिले, जिनेश्वर देव अनन्त कालमें मिले, गुरुदेव मिले तो गुरुदेवने


PDF/HTML Page 786 of 1906
single page version

जो मार्ग बताया उसे ग्रहण कर। वह करने जैसा है। अन्दर आत्मा शाश्वत है। उसमें आनन्द, ज्ञान (है)। आत्माको भव लागू नहीं पडता, कोई रोग लागू नहीं पडता। वैसा ही है, उसे कोई हानि नहीं पहुँची, इसलिये उसे पहचान ले।

समाधानः- .. करता नहीं है, अंतरमें जाता नहीं। अपना स्वभाव है, स्वयं जाये तो अंतरमें ही है। लेकिन करता नहीं है। अनन्त भव देवके किये हैं। अनन्त बार पशुमें गया, अनन्त मनुष्यके किये, अनन्त बार नर्कमें गया है। सबमें अनन्त बार गया है। इसमें इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले तो यह करने जैसा है। तो मनुष्य जीवन सफल है। कोई किसीको रोक नहीं सकता। बडे चक्रवर्ती चले जाते हैं। चक्रवर्ती, बडे राजा, आयुष्य पूरा होता है, आत्माको कोई नहीं रोक सकता। गति करके चला जाता है। जैसा उसका भव हो वहाँ चला जाता है। कोई नहीं रोक सकता। देह पडा रहता है, आत्मा चला जाता है। आयुष्य हो तब तक सब उपाय करे, रोग टालनेका उपाय उसे लागू पडता है, आयुष्य पूरा होता है तो कुछ लागू नहीं पडता। कोई रोक नहीं सकता। ... बाकी सब ऐसा ही है। उसमें वैराग्य करने जैसा है।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
 