Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 126.

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ट्रेक-१२६ (audio) (View topics)

समाधानः- ... गुरुकी जो वाणी आती है, ...

मुमुक्षुः- देशनालब्धि बगैर कोई भी सम्यकत्व नहीं पाता?

समाधानः- अनादिकालसे देशनालब्धिके बिना नहीं पाता। एक बार कोई गुरु, कोई देवकी प्रत्यक्ष वाणी मिलती है तब पाता है। अकेले शास्त्रसे नहीं होश्रता है। चैतन्यकी प्राप्ति, सामने चैतन्य होवे तो होती है। प्रगट स्वानुभूति जिसको होती है, वह जिसे चैतन्य (प्रगट हुआ) है, उसको चैतन्य प्रगट होता है, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। .. उसको देशनालब्धि होती है। होता है अपनेसे, लेकिन निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध होता है।

जिसको चैतन्य प्रगट हुआ है, उसके निमित्तसे चैतन्यकी प्राप्ति होती है। ऐसा उपादान- निमित्तका सम्बन्ध है। ... उसका स्पष्टीकरण, उसका रहस्य कौन जानता है? प्रत्यक्ष ज्ञानी जानता है। उसको स्वानुभूति हुयी है। उसके जो भीतरमेंसे अदभुतता प्रगट हुयी है, उसकी वाणी उसको बतानेवाली है। उसके निमित्तसे, चैतन्यके निमित्तसे चैतन्य (प्रगट) होता है। गुरुकी वाणी छूटती है तो देशनालब्धि होती है। भीतरमें प्रगट होती है। उसका सम्बन्ध है उपादान-निमित्तका।

समाधानः- ... कारणशुद्धपर्याय तो अनादिअनन्त है। वह पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है, वैसे कारणपर्याय भी अनन्त है। जैसे द्रव्य शुद्ध है, गुण शुद्ध है, पर्याय भी अनादिअनन्त पारिणामिकभावकी वह पर्याय है, वह अनादिअनन्त है। कार्यपर्याय तो प्रगट होती है। पारिणामिकभाव पर दृष्टि करनेसे कार्यपर्याय प्रगट होती है। अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि करनेसे कार्यपर्याय होती है। अकेली कारणशुद्धपर्याय पर दृष्टि करनेसे होती है, ऐसा नहीं है। उसमें कारणपर्याय आ जाती है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे कारणपर्याय उसमें आ जाती है। द्रव्य पर जो दृष्टि करता है, उसमें पारिणामिकभाव, ज्ञायकभाव, कारणशुद्धपर्याय सब उसमें आ जाता है।

जो ज्ञायकको ग्रहण करता है उसको। उसमेंसे कार्यपर्याय सधती है, इसलिये कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय (कहते हैं)। कारणपर्याय... वह अनादिअनन्त है, कारणशुद्धपर्याय अनादिअनन्त है। ऐसा द्रव्यका स्वभाव है। उस पर दृष्टि करनेसे कार्य-


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रत्नत्रय प्रगट होते हैं और पूर्ण पर्याय प्रगट होती है। अकेले अंश पर दृष्टि करनेसे नहीं, पूर्ण द्रव्य पर दृष्टि करनेसे कार्यशुद्ध पर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञायकको जो पकडना है, ज्ञायकको, तो वर्तमानमें तो ... विश्व दिखता है। ज्ञायक अप्रगट है, अब ज्ञानमें रागादि ख्यालमें आते हैं कि यह राग है या यह कषाय है अथवा परपदार्थ है। उस ज्ञानसे ज्ञायकको भिन्न करके पकडना कैसे?

समाधानः- उसे भिन्न करके पकडना कि यह जो राग दिखता है, यह दिखता है, वह दिखता है, दिखाई देता है वह मैं नहीं, परन्तु उसे जाननेवाला मैं हूँ। उसे भिन्न करके (जाने)। जो एकत्वबुद्धि हो रही है, यह राग दिखता है, यह दिखता है, बाहरका दिखता है, सब दिखता है, परन्तु जो दिखाई देता है वह वस्तु मैं नहीं हूँ, परन्तु उसमें जाननेवाला (मैं हूँ)। सब पर्यायें चली जाती है, उसके बीच जो जाननेवाला रहता है, वह जाननेवाला मैं ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायकको ग्रहण कर लेना, उसका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। पर्याय जो सब होती है, उसके बीच जो द्रव्य रहता है, जो जाननेवाला अखण्ड है, वह मैं हूँ। ऐसे उसका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। उसका ज्ञायकरूप अस्तित्व है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करनेकी युक्ति सूझ जाय तो मार्गकी उलझन टल जाय।

समाधानः- पुरुषार्थ करनेकी युक्ति अर्थात जो मार्ग है, वह मार्ग उसे अन्दरसे सूझ जाय कि यह सब जो विभाव होते हैं वह मैं नहीं हूँ, परन्तु मैं चैतन्य हूँ। ऐसी सूक्ष्म दृष्टि करनेकी कला, उसकी कला, भेदज्ञान-भेदविज्ञानकी कला यदि हाथमें आ जाय तो प्रगट हो जाय। उलझन टल जाय।

लेकिन वह कला प्रगट करनेके लिये उतनी तैयारी चाहिये, उतनी महिमा, उतनी जिज्ञासा, उतने तत्त्वविचार, उतनी गहराई हो तो प्रगट होता है। तो उसकी कला सूझे। कल सूझनेके लिये उतना धैर्य, उतनी अंतरमेंसे जिज्ञासा चाहिये तो कला प्रगट होती है, तो उलझन टले।

मुमुक्षुः- ... प्राप्त नहीं होता, सम्यकत्व बना रहे और पर्याय बदल जाय, मनुष्यपर्यायसे देवपर्याय ... माताके पेटमें नव महिने ऐसे ही रहता है तो क्या सम्यकत्व बना रहता है?

समाधानः- पूर्णता नहीं होती है तो भी सम्यग्दर्शन रहता है। एक भवसे दूसरे भवमें। देव मनुष्यभवमें जाता है तो जिसको क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है तो माताके गर्भमें भी उसको रहता है। सम्यग्दर्शन रहता है। तीर्थंकर भगवान माताके गर्भमें आते हैं तो तीन ज्ञान लेकर आते हैं। मति, श्रुत और अवधि तीन ज्ञान उनको होते ही हैं। छूट नहीं जाते।


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मुमुक्षुः- क्षयोपशम सम्यकत्वी...?

समाधानः- क्षयोपशम सम्यग्दर्शन पलटता है, क्षायिक नहीं पलटता। और अप्रतिहत धारा होती है तो नहीं पलटता है, परन्तु क्षायिक तो पलटता ही नहीं। ... मनुष्यभवमें गर्भमें रहते हैं तो भी जिसको क्षायिक होता है वह रहता है।

मुमुक्षुः- स्वरूपका उग्र आश्रय करनेसे क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है न?

समाधानः- स्वरूपका उग्र आश्रय। अप्रतिहत धारा, उसकी धारा अप्रतिहत होती है। उग्र आश्रय भी करता है और धारा अप्रतिहत (होती है)। बादमें ऐसी दृढ हो जाती है कि बादमें पलटता नहीं। उग्र आलम्बन तो है ही, परन्तु पलटे नहीं ऐसा आलम्बन, एकसमान आलम्बन लेता है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनका पुरुषार्थ कैसे करें? कैसे होता है?

समाधानः- अंतरमेंसे होता है। भेदज्ञानकी धाराका अभ्यास करनेसे होता है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ऐसी भेदज्ञानकी धारा भीतरमेंसे प्रगट करनेसे होता है। जिसको बाहर कहीं चैन नहीं पडता है, जिसको भूख लगती है तो वह खाये बिना नहीं रहता, वैसे जिसे अंतरमेंसे प्यास लगे तो पुरुषार्थ किये बिना रहता ही नहीं। ऐसे ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायकके बिना उसे संतोष नहीं होता। ज्ञायकमें महिमा लगे, ज्ञायकमें रुचि लगे, ज्ञायकका अभ्यास निरंतर हो तो होता है।

स्वानुभूतिका अभ्यास करना। यह शरीर मैं नहीं हूँ, विभावस्वभाव मैं नहीं, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसी ज्ञायककी महिमा करना। शब्दरूप नहीं, परन्तु ज्ञायककी महिमा लगे, उसमें रुचि लगे, वह अभ्यास करना। शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्व चिंतवन आदि सब करके मैं आत्मा कैसा हूँ, यह समझनेके लिये सब होता है। देव-गुरु-शास्त्रके विचार.. मैं चैतन्य कैसे प्रगट करुँ? ऐसी जिज्ञासा करना। वह करनेका है।

समाधानः- ... अनादिसे जो प्रगट होता है, वह चैतन्यसे...

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- समवसरणमें जाते हैं, गुरुदेव तो भगवानके दर्शन करने जाते हैं। देवलोकमें तो सब विराजते हैं। कुन्दकुन्दाचार्य, अमृतचन्द्राचार्य सब विराजते हैं। विराजते हैं देवलोकमें। स्वप्नमें तो आये, रामजीभाई कहते हैं वह कुछ नहीं। स्वप्नका तो ऐसा है, देवके रूपमें भी आये और गुरुदेवके रूपमें भी आये। कभी गुरुदेवके रूपमें आये, कभी देवके रूपमें।

मुमुुक्षुः- .. समाधानः- वह सब क्या कहना? देवके रूपमें आये। इसमें भी आये और देवके रूपमें भी आये।


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मुमुक्षुः- आपको भी गुरुदेवका विरह हो गया। माताजीको तो बहुत विरह...

समाधानः- वे तो महापुरुष थे।

मुमुक्षुः- बहिन-बहिन करते थे।

समाधानः- उनका तो अदभुत था! द्रव्य ही अलग था, तीर्थंकरका द्रव्य था। मैं तो उनका दास हूँ। वे तो महापुरुष! उपयोग तो रखे, गुरुदेवको सब मालूम तो होता है। गुरुदेव उपयोग रखे। उन्हें ज्ञानमें तो सब आता है, परन्तु यहाँ आनेका भाव.... पंचमकाल है इसलिये अभी आना बहुत मुश्किल है।

समवसरण होता है, वहाँ देव साक्षात जाते हैं। यहाँ पंचमकालमें देवोंका आगमन ऐसा हो गया है। पंचमकालमें देव बहुत आते नहीं। और वे तो निस्पृह थे। उन्हें अन्दरसे सब धर्मका प्राप्त हो ऐसा प्रशस्त भाव था, परन्तु वे तो निर्लेप थे। इच्छा करे तो आनेकी शक्ति तो है, परन्तु ऐसे प्रतिबन्धवाले वे थे ही कहाँ? उन्हें भाव था कि सब धर्म प्राप्त करे। परन्तु वैसा उन्हें प्रतिबन्ध, विकल्प नहीं था। वे स्वयं ही कहते थे, कोई किसीका कर नहीं सकता।

मुमुक्षुः- एक बार पधारे तो चमत्कार हो जाय।

समाधानः- शासनके प्रशस्त राग... स्वयं ही कहते थे, कोई किसीका कर नहीं सकता। ऐसा भाव आये तो आनेकी शक्ति तो है।

मुमुक्षुः- उपयोग रखते ही नहीं होंगे, वहीं सब खजाना हो तो यहाँ...?

समाधानः- भगवान मिल गये उन्हें तो। भगवान, भगवान करते थे, भगवान मिल गये।

मुमुक्षुः- माताजी! ध्यानमें तो बैठते हैं, ज्ञायकका आनन्द कैसा...?

समाधानः- ज्ञायककी प्रतीत करनी चाहिये। विचार करके ... विचारना चाहिये तो ध्यानमें आये न?

मुमुक्षुः- विचार करते हैं उस समय तो प्रतीतमें आता है, फिर वह बात निकल जाती है।

समाधानः- अनादिका अभ्यास है इसलिये एकत्वबुद्धि हो जाती है। विचारमें बैठे तो बार-बार उसकी प्रतीति करना, बार-बार दृढ करना चाहिये, पुनः अभ्यास करना। अनादिका अभ्यास है इसलिये बार-बार करना चाहिये। थकना नहीं। एकत्वबुुद्धि तो निरंतर चलती है, तो इसको बार-बार दृढ करना चाहिये।

मुमुक्षुः- दूसरे काममें जब उपयोग जाता है तो वह बात निकल जाती है।

समाधानः- तो बार-बार करना। बारंबार करना, बारंबार विचार करना, बारंबार करना। तत्त्वका विचार, स्वाध्याय (करना)। ज्ञायक महिमावंत है, बारंबार विषय करना


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चाहिये कि मैं अदभुत हूँ। उसकी अदभूतता लगे तो उसमें उपयोग जाय। चैतन्यकी महिमा करनी चाहिये कि मैं अदभूत तत्त्व हूँ। जगतमें सर्वोत्कृष्ट तत्त्व मैं ही हूँ। ऐसा बारंबार, बारंबार, बारंबार उसका अभ्यास करना, बारंबार दृढता (करनी)। उसकी भूख लगे तो बारंबार उस ओर परिणति गये बिना नहीं रहती।

मुमुक्षुः- विचार करते हैं उस समय तो थोडी शान्तिसी लगती है, फिर वह रहती नहीं।

समाधानः- पुरुषार्थकी कमी है, रुचिकी कमी है इसलिये। बारंबार करना।

मुमुक्षुः- मार्गकी प्रतीति तो है कि मार्ग बिलकूल सही है और यही एक प्रकारसे मुझे शान्ति होगी, ऐसा लगता तो है। परन्तु वह कायम नहीं रहता है।

समाधानः- उसका पुरुषार्थ कम है। जिसकी प्रतीति भीतरसे होवे कि इधर ही सुख है, इधर ही शान्ति है, यह मुझे प्रगट करना है। ऐसी यदि तीव्र जिज्ञासा होवे तो पुरुषार्थ उस ओर गये बिना रहता ही नहीं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब मेरेमेंसे ही होता है। ऐसी दृढ प्रतीति होवे तो परिणति उस (ओर जाय)। परन्तु उसकी दृढता नहीं है। बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करना। मैं चैतन्य हूँ, यह शरीर मैं नहीं हूँ। विकल्प विभावस्वभाव मेरा नहीं है। मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसा बारंबार अभ्यास करना। ऐसी प्रतीति दृढ करना।

उसके पीछे पडे तो प्रगट हुए बिना रहता नहीं। जिसकी जरूरत लगती है बाहरमें, कोई वस्तुकी, व्यापारकी तो पीछे पडता है। तो इसकी-ज्ञायककी जरूरत लगे कि मुझे इसकी जरूरत है, तो उसके पीछे पडके भी उसका अभ्यास करना चाहिये। बारंबार ऐसा करना चाहिये, तो प्रगट होवे। ऐसे एक बार विचार कर लिया तो हो गया, ऐसे नहीं होता। बारंबार करना चाहिये।

मुमुक्षुः- बाहरमें अनुकूलतामें नहीं है इसलिये उसमें जुडना पडता है।

समाधानः- भीतरमें बारंबार करना चाहिये। बाहरके कार्य चैतन्यको रोकते नहीं। भीतरके परिणाम अपने हाथमें है। बारंबार दृढता करनी। बाहरके कार्य रोकते नहीं।

मुमुक्षुः- परिणाम अपने हाथमें है?

समाधानः- हाँ, परिणाम अपने हाथमें है। परिणामको कैसे पलटना, शुभाशुभ भाव, शुभ और अशुभ ऐसे परिणाम पलटते हैं, वैसे ज्ञायककी ओर भी पलटते हैं। पुरुषार्थ करना अपने हाथमें है। उसे कर्म कर नहीं देता है। अपना पुरुषार्थ अपने हाथमें है।

मुमुक्षुः- ... आत्मामें आनेकी क्या विधि है? कैसे आये?

समाधानः- शब्द बोलनेसे नहीं होता है। आत्माको जाननेकी विधि भीतरमें होती


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है। जैसा गुरुने बताया, शास्त्रमें आया है, समयसार आदिमें आता है कि ज्ञायक स्वरूप आत्मा ज्ञाता है। यह सब भिन्न है, आत्माका स्वरूप नहीं है। विभावस्वभाव आत्माका नहीं है। उसका भेदज्ञान करो, तत्त्वका विचार करो, गहराईमें जाकर ज्ञानस्वभावको पहचाना। ऐसे माला जपनेसे, मात्र शुभभाव करनेसे नहीं होता है। भीतरमें भेदज्ञान करनेसे होता है। भीतरमें जिज्ञासा करके और भेदज्ञान करके स्वानुभूति करनेसे होता है।

दिन-रात उसकी जिज्ञासा, लगनी लगनी चाहिये। मैं आत्माको कैसे पहचानूँ? उसका विचार, उसका वांचन ऐसा बारंबार भेदज्ञान करनेसे होता है। शरीरको जानता है, बाहर जानता है, ऐसे जाननेसे आत्माका ज्ञान नहीं होता। आत्माको जाननेसे आत्माका ज्ञान होता है। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं आनन्दस्वरूप हूँ, मैं अनन्त गुणसे भरपूर हूँ, ऐसा बोलनेमात्रसे नहीं, ऐसा मात्र रटन करनेसे नहीं, मात्र ऐसे कल्पित ध्यान करनेसे नहीं, परन्तु भीतर उसका स्वभाव पहचाननेसे (होता है)।

गुडकी मीठास और शक्करका स्वाद (जानता है), ऐसे भीतरमें ऐसा स्वभाव जाननेसे होता है। मात्र बाह्य दृष्टिसे, बाहर जाननेसे नहीं होता है। भीतरको जाननेसे होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!