Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 127.

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ट्रेक-१२७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- स्वाश्रित निश्चय और पराश्रित व्यवहार है, तो फिर निश्चय-व्यवहारको बराबर शास्त्रमें पूज्य कैसे कहा है? जबकि व्यवहार पराश्रित मार्ग है और निश्चय स्वाश्रित है, तो स्वाश्रित तो पूज्य है, तब पराश्रित मार्ग व्यवहारको भी साथमें पूज्य कहा है, तो किस अपेक्षासे?

समाधानः- पूज्य है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रत्नत्रय प्रगट होते हैं, इसलिये। साधकदशा है, मोक्षका मार्ग है इसलिये पूजनिक कहनेमें आता है। द्रव्य तो पूजनिक है परन्तु व्यवहार भी मुक्तिके मार्गमें व्यवहार साथमें आता है।

आचार्यदेव कहते हैं, हम क्या करें? बीचमें आ जाता है। इसलिये व्यवहार आता है। परन्तु रत्नत्रय प्रगट होता है इसलिये उसको पूजनिक कहनेमें आता है। मुक्तिका मार्ग है। साधकदशा है, मुक्तिका अंश प्रगट होता है इसलिये। केवलज्ञान भी पर्याय है, .. कहनेमें आता है। उस अपेक्षासे। रत्नत्रय पूजनिक है।

अंतरमेंसे पर्याय... अपेक्षासे सब बात आती है। कोई अपेक्षासे कहे कि व्यवहार पूजनिक नहीं है, पर्याय अपेक्षासे पूजनिक कहनेमें आता है। क्योंकि रत्नत्रय है इसलिये। कोई अपेक्षासे ऐसा कहे कि... साधकदशा है इसलिये पूजनकि है, ऐसा भी आता है। मुनिको भी पूजनिक है। रत्नत्रय प्रगट हुआ है इसलिये। तो भी व्यवहार हेय कहनेमें आता है, तो भी साथमें आ जाता है। शुभभाव है, भेद आवे तो भेद पर दृष्टि मत कर। भेद पर दृष्टि मत कर, ऐसा कहनेमें आये। तो भी बीचमें ज्ञान, दर्शन, चारित्रका भेद तो आता है। वह आत्माकी शुद्ध पर्याय है...

मुमुक्षुः- एक जीवनसे द्वितीय जीवन धारण करना, इस प्रक्रियाको सहज शब्दोंमें यानी जैन टर्मिनोलोजी है, जिसे कहें जैन शब्दावलि, उसके बाहर छोटेमें हम लोग कैस तरहसे समझ और समझा सकते हैं?

समाधानः- उसमें तो क्या है? पुनर्जन्म है तो है। अनेक जातके जन्म लेता है दूसरे-दूसरे स्थान पर, तो पुनर्जन्म तो है। कोई राजाके घर जाता है, कोई रंकके घर जाता है, कोई जैनमें जन्म्ता है, कोई कहाँ जन्म्ता है। एक जन्ममेंसे दूसरे जन्ममें आता है तो पूर्वमें जो परिणाम किये हैं, उसका फल है। दूसरे-दूसरे जन्ममें आता


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है तो उसका कारण तो कुछ है। ऐसे अन्याय नहीं होता, कोई किसीके घर, कोई किसीके घर जाता है। आत्मा शाश्वत है। उसके परिणामके फलमें कोई राजाके घर, कोई रंकके घर जन्म लेता है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! यह तो हुआ कर्मफल सिद्धान्त। लेकिन इसकी प्रक्रिया क्या है? प्रोसेस।

समाधानः- प्रक्रिया क्या है?

मुमुक्षुः- यानी यहाँसे एक जीवन समाप्त हुआ और द्वितीय जीव प्रारम्भ हुआ, उसके बीचका जो अन्तराल है, उसमें आत्मा किन स्थितिओंमेंसे गुजरती है?

समाधानः- अन्तरालमें तो उसकी गति होती है। जैसा उसका परिणाम होता है, उसके अनुसार गति होती है। उसकी प्रक्रिया कुछ देखनेमें नहीं आती।

मुमुक्षुः- एक-दो समयमें होता है। एक-दो समय, तीन समय। मेक्सिमम। उसमें क्या प्रक्रिया होगी? वहाँ पहुँचनेमें उत्कृष्ट तीन समय लगते हैं।

समाधानः- उसमें प्रक्रिया एक समयमें, दो समयमें वह पहुँच जाता है।

मुमुक्षुः- जैसे कहीं जगह क्या रहता है कि निश्चित अंतराल रहते हैं, कुछ तैजस शरीरका भी... जैसे अन्य दर्शनोंमें है कि तैजस शरीर लम्बे समय तक विद्यमान रहता है, सूक्ष्म शरीर जो है वह एकदम पलाहित हो जाता है, ऐसा कुछ?

समाधानः- ऐसा जैनमें नहीं है। एक समय, दो समय, तीन समय। कोई सीधी गतिमें जाता है, कोई टेढा जाता है तो ऐसा कोना होता है। परन्तु एक, दो, तीन समयमें पहुँच जाता है। उसमें अन्तराल नहीं रहता है। उसके बीचमें कुछ अन्तराल नहीं है। एक, दो, तीन समयमें पहुँच जाता है।

मुमुक्षुः- दो-पाँच महिने तक घुमते हैं, ऐसा कहते हैं, ऐसा नहीं है। .. अमेरिकासे आये थे, .... वह कहते हैं कि, अन्य दर्शन तो चार-पाँच महिना घुमते हैं जीव, ऐसा जैनमें नहीं है। एक, दो, तीन समयमें कार्माणशरीर लेकर वहाँ पहुँच जाता है। औदारिक शरीर यहाँ रह जाता है।

समाधानः- कोई पहले होता है, कोई बीचमें होता है, कोई तीसरे भागमें होता है। बादमें उसका फल आता है। ऐसा..

मुमुक्षुः- तीन भाग रहता है, तब.. मुमुक्षुः- एक तो यह सिद्धान्त हुआ और आपका विचार विशेष इस सम्बन्धमें जानता हूँ मैं। जैसा तीसरे भागमें होता है, मैं आपसे जानना चाहता हूँ। जैन सिद्धान्तमें बताया है, लेकिन आपसे..

समाधानः- जैन सिद्धान्तमें ऐसा होता है। कर्म प्रकृति कोई दिखाई नहीं देती।


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आत्माकी स्वानुभूतिका अनुभव होता है कि आत्माका स्वभाव है, आनन्द है, आत्माका भेदज्ञान क्या है? शरीर भिन्न है, विभाव भिन्न है, विभाव आत्माका स्वभाव नहीं है, आत्मा भिन्न है, उसकी स्वानुभूति होती है, उसका भेदज्ञान होता है। यह सब आत्माके हाथकी बात है। कर्म प्रकृति है वह दिखाई नहीं देती। वह तो केवलज्ञानीके ज्ञानमें प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें, अवधिज्ञानमें, केवलज्ञानमें दिखाई देती है।

जिसने ऐसा स्वानुभूतिका मार्ग बताया, केवलज्ञानका मार्ग बताया, वह प्रत्यक्ष ज्ञानी जो कहते हैं, वह यथार्थ है। उसमें कोई फेरफार नहीं होता। ऐसा यथार्थ होता है। जगतमें प्रत्यक्ष ज्ञानी होते हैं, वीतरागी, जो स्वानुभूति होती है, स्वानुभूतिमें विशेष- विशेष लीन होते-होते मुनिदशा (आती है)। उसमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। ऐसा होते-होते केवलज्ञान प्रगट होता है। केवलज्ञान-प्रत्यक्ष ज्ञान एक समयमें लोकालोक जान लेता है। आत्माको जानता है और पुदगल एवं विश्वकी समस्त वस्तुओंको, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको वह जानते हैं। जानते हैं, उनके ज्ञानमें जो आता है, वही शास्त्रमें आता है।

जो आत्मा है, उसमें जो विभाव है तो कोई कर्म तो है। कर्म नहीं है, ऐसा नहीं है। आत्माका स्वभाव तो चैतन्य है, उसमें विभाव (होता है), वह आत्माका स्वभाव नहीं है। राग-द्वेष तो दुःखरूप है। दुःख आत्माका स्वभाव नहीं है। अतः कर्म है। वह कर्म अनेक जातिके होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय (आदि)। ज्ञानको बन्ध करे, दर्शनको (बन्ध करे), ऐसे आयुष्यका बन्ध, ऐसे अनेक जातके कर्म होते हैं। उसमें अनेक जातकी रस, स्थिति होती है। उसमें अनेक-अनेक प्रकार होते हैं। वह सब प्रकार कैसे होते हैं, वह प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें आता है।

सम्यग्दृष्टि और मुनिको तो स्वानुभूति होती है। सबको वह प्रत्यक्ष देखनेमें आवे ऐसा नहीं होती। उसकी स्वानुभूति प्रत्यक्ष देखनेमें आती है। स्वानुभूतिका वेदन होता है। कर्म देखनेमें नहीं आते। कर्म तो केवलज्ञानी और अवधिज्ञानीको दिखाई देते हैं। इसलिये प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें जो आया वह यथार्थ है। अमुक बात युक्तिसे, दलीलसे सिद्ध होती है। स्वानुभूति, विभाव, उसका कर्मबन्ध, परद्रव्य है। दुःखरूप जो है वह परद्रव्य है, वह दुःखका निमित्त होता है। इसमें ज्ञानकी शक्ति.. मूल द्रव्य जो है उसका स्वभाव क्षय नहीं होता-घात नहीं होता, परन्तु उसकी शक्ति और पर्यायोंमें फेरफार होता है तो कर्मबन्ध (होता है)। ज्ञान, दर्शन, चारित्रको रोकता है। ऐसे आयुष्य, वेदनयी, गोत्र, नाम आदि अनेक प्रकारके कर्म होते हैं, उसमें एक आयुष्य बन्ध भी होता है।

जो आयुष्य केवलज्ञानीके ज्ञानमें आया है कि जीवनके तीसरे भागमें अमुक-अमुक


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भागोंमें होता है वह यथार्थ है। वह कोई प्रत्यक्ष देखनेमें नहीं आता। छद्मस्थ उसको प्रत्यक्ष नहीं देख सकता। युक्तिसे, विचारसे (नक्की होता है)। जो युक्ति, दलीलमें आता है, स्वानुभवमें आता है वह कह सकते हैं। बाकी सब प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें जो आया वह यथार्थ है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! ये जो कार्माण स्कन्ध रहते हैं, जो जन्म-जन्मांतर के लिये आयुबन्ध, नाम, गोत्र, अंतराय बन्ध वगैरह करते हैं, क्या यह बन्ध करनेके बादमें हट जाते हैं या आत्माके साथ पुनर्जन्मके साथ ट्रावेल करते हैं?

समाधानः- पुनर्जन्मके साथमें वह आते हैं।

मुमुक्षुः- कार्माण स्कन्ध?

समाधानः- हाँ, कार्माण आते हैं। कार्माण शरीर साथमें जाता है। जो पुनर्जन्ममें जाता है, उसमें कार्माण शरीर साथमें जाता है।

मुमुक्षुः- ऐसा नहीं है, बहिनश्री! कि जो हमारे यहाँपर जैसे शाता वेदनीय वगैरहके कार्माण स्कन्ध हैं, उसीको पुण्य नाम दिया गया हो और यही अन्य मत-मतांतरमें दर्शन शास्त्रमें तैजस शरीरके नामसे कहा गया हो?

समाधानः- कार्माण शरीर दूसरा है, तैजस शरीर दूसरा है।

मुमुक्षुः- कार्माण शरीरका एक भाग, १४८मेंसे एक तैजस बन्ध होता है। सब तैजस शरीर..

समाधानः- कार्माण कर्मका शरीर। और तैजस शरीर तो दूसरा होता है। औदारिक, तैजस, व्रैकियक वह शरीर नहीं। कार्माणशरीर तो कर्म,... वह पूर्व भवमें जाता है।

मुमुक्षुः- एक और (प्रश्न है), बहिनश्री! जैसे आज हमलोग मानते हैं कि विदेहक्षेत्रमें तीर्थंकर भगवान विद्यमान हैं। तो आज विदेहक्षेत्रमें तीर्थंकर भगवानकी विद्यमानताको लेकरके एक साधारण शब्दोंमें कैसे कहा जा सकता है कि वहाँकी भाषा, वहाँकी भावना, वहाँके विचार, वहाँके रहनेके तौर-तरीके वगैरहके बारेमें कहीं आपको कुछ अन्वेषणमें मिला हो, ऐसा आपके अनुभवमें आया हो, या आपने पढकर उसपर अधिक मनन करके और कुछ निश्चित धारणा बनायी हो कि विदेहक्षेत्रमें वर्तमानमें इस प्रकारकी स्थिति चल रही है।

समाधानः- विदेहक्षेत्रमें भगवान साक्षात विराजते हैं, उनकी दिव्यध्वनि छूटती है, समवसरणमें भगवान विराजते हैं। वीतराग हो गये हैं तो भी वाणी छूटती है। विदेहक्षेत्रमें एक धर्म चलता है, दूसरा धर्म नहीं है। भगवान जो धर्म कहते हैं, वह एक ही धर्म चलता है। इस पंचमकालमें दूसरे, दूसरे, दूसरे धर्म हैं, ऐसे धर्म नहीं है। एक धर्म-जैन धर्म चलता है, दूसरा कोई धर्म नहीं चलता है।


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मुमुक्षुः- एक बात है, चूकी आप और मैं, आप श्रद्धानी है, मैं आपकी बातमें श्रद्धान करता हूँ, लेकिन अन्य आदमी इसे क्यों मान ले? कैसे मान ले? उसको मनवानेका कोई आधार?

समाधानः- वह माने या न माने, सबकी योग्यता। जिसकी जिज्ञासा होवे वह मान सकता है, जिसकी योग्यता नहीं होवे (वह नहीं मानता)। जिसको आत्माका कल्याण करना हो, वह विचार करके मान ले। और नहीं माने तो उसकी योग्यता। नहीं माने तो क्या करे? अपने आत्माका कल्याण करना है, दूसरा माने तो मानो, नहीं माने तो नहीं मानो।

मुमुक्षुः- एक और शंका है, बहिनश्री! आज जो मुनि परंपरा आज जैसी भी चल रही है और जैसी मुनि परंपरा शास्त्रोंके अनुरूप है, इस दोनोंके जो अंतर है, उन अंतरकी जो दूरियाँ हैं, वह कभी मिटेगी? या जैसा आज यह समानांतर मुनिरूप चल रहा है और दूसरा जो समयसारमें मुनियोंके गुण वगैरहका विवेचन किया गया है, इनमें ये दूरियाँ बनी ही रहेगी और हम लोग भटकते रहेंगे? कि समयसारमें जो प्रणीत मुनिस्वरूप है, वैसे मुनि ढूँढते रहे, हमें नहीं मिले और वह मुनि लोग जो आज है, वह कहते हैं कि हम जैसे हैं वैसे ही समयसारके अनुरूप है और हम इसके बीच ही बीच डोलते रहेेंगे, इसका भी कोई रस्ता लगेगा कि नहीं लगेगा?

समाधानः- अपने आत्माका कल्याण कर लेना। वह क्या होगा, यह तो पंचमकाल है। ... पहले था, अब तो पंचमकालमें हुआ है। उसमें फेरफार-फेरफार चलता रहता है। कोई भावलिंगी मुनि, ऐसा काल आ जाता है तो भावलिंगी भी हो जाता है, कोई ऐसा काल आता है तो मात्र क्रियामें धर्म मानते हैं, ऐसा भी हो जाता है। ऐसा काल आया तो...

गुरुदेव जैसे यहाँ हुए सौराष्ष्ट्रमें, कि जिन्होंने आत्माकी स्वानुभूतिका मार्ग बताया। ऐसा भी काल आ गया। सच्चा धर्म बताया। गुरुदेव विराजते थे, उन्होंने सच्चा आत्माका मार्ग बताया, ऐसा भी (काल) आ गया। यह तो पंचमकाल है तो ऐसे फेरफार-फेरफार चलते ही रहते हैं।

मुमुक्षुः- तो सम्भावना नहीं है? जिस प्रकारसे आचार्य कुन्दकुन्ददेवने समयसारमें जिस प्रकारसे मुनियोंका वर्णन किया है, ऐसे मुनिधर्मकी सम्भावना आप इस पंचमकालमें आप नहीं मानती है, ऐसा?

समाधानः- कभी कोई ऐसा काल आ जाय तो हो भी सकते हैं। ऐसा काल आये तो हो भी जाय। वैसे तो पंचमकालके आखिरमें मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका होते हैं। अच्छा काल होवे, आ जाय तो हो भी सकते हैं। नहीं होवे ऐसा कहाँ


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है? कोई बीच-बीचमें हो भी जाय।

मुमुक्षुः- एक और प्रश्न है, बहिनश्री! पुनर्जन्मके सम्बन्धमें किसी व्यक्तिविशेषकी जानकारी या एकदम अपनेआप ज्ञान हो जाना, इसके लिये कोई खास ध्यान, चिंतवन वगैरह आवश्यक है या अपनेआप हो जाता है?

समाधानः- पुनर्जन्मका क्या करना? अपने आत्माको पहचान लेना। आत्मा ज्ञानस्वरूप ज्ञायक चैतन्य स्वरूप मैं ही हूँ। और शरीर मैं नहीं हूँ, परद्रव्य है। आत्मा चैतन्यतत्त्व ज्ञानस्वरूप है, जड कुछ जानता नहीं है। मैं जाननेवाला हूँ। राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। मैं भगवान जैसा हूँ। ऐसा भेदज्ञान करके आत्माका स्वरूप पहचानो। बाकी पुनर्जन्मका ज्ञान होवे, या न होवे, ऐसा नहीं है कि उससे भवका अभाव हो सकता है।

भवका अभाव तो आत्माको पहचाननेसे होता है। इसलिये आत्माको पीछानो, आत्माकी जातिको पहचानो। आत्मा अनादिअनन्त शाश्वत है उसको पीछानो। ऐसा गुरुदेव कहते हैं, ऐसा शास्त्रमें आता है, आत्माको पीछानो। ज्ञायक आत्माको।

मुमुक्षुः- जैन स्थानकके बारेमें, बहिनश्री! यह ध्यान जो है, वह किस प्रक्रियासे प्रारम्भ किया जावे? आत्मामें गहरा ऊतरनेकी बात तो आप फरमाते हैं, मगर उसकी अ, ब, क, ख जो बारखडी, वर्णमाला है, वह क्या है? कहाँसे शुरू करे?

समाधानः- पहले सच्चा ज्ञान होता है, बादमें सच्चा ध्यान होता है। सच्चा ज्ञान, आत्माको जाने कि मेरा स्वभाव क्या है? मेरा स्वभाव क्या? मेरा अस्तित्व क्या? मेरा द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है? सबको जाने बादमें उसमें एकाग्र होना। तो ध्यान होता है। जाने बिना एकाग्र किस चीजमें होगा? जानता नहीं है कि मैं कौन चैतन्य हूँ और ध्यान कहाँ करेगा? विकल्पका ध्यान होगा। मैं चैतन्य हूँ, निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ऐसा भीतरमेंसे ज्ञान (करे)।

जैसे भगवानका आत्मा है, वैसा मैं हूँ। ऐसे चैतन्य स्वभावको पहचानेसे उसमें एकाग्र होनेसे, बारंबार एकाग्र होवे, बारंबार एकाग्र होवे। यह विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्य हूँ, बारंबार एकाग्र होवे तो ध्यान होता है। परन्तु ज्ञान करनेसे ध्यान होता है। मूल प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये। ज्यादा शास्त्रका ज्ञान होवे ऐसा नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वको तो जानना चाहिये।

जैसे शिवभूति मुनि कुछ जानते नहीं थे। लेकिन मैं भिन्न और यह भिन्न है। वह औरत दाल और छिलका भिन्न करती थी कि यह छिलका भिन्न है, दाल भिन्न है। ऐसे मैं चैतन्य भिन्न हूँ, ऐसा थोडा भी ज्ञान भीतरमेंसे होना चाहिये। बादमें सच्चा ध्यान हो सकता है।


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मुमुक्षुः- व्यक्तिगत जीवनके बारेेमें दिगम्बर शास्त्रोंमें कम मिलता है और अन्य शास्त्रोंमें जो मिलता है, उसको पढनेसे माथा एकदम गरम हो जाता है। जैसे कि कल्पसूत्रमें है या भगवती सूत्रमें है, जो कुछ महावीरके जीवनके बारेमें मिलता है, क्योंकि बहिनश्री उसे खूब पढा है। तो उसको पढनेसे माथे नसें जो हैं झनझना जाती है कि यदि अगर यह महावीर है तो वास्तविक महावीर कोई और होगा, यह सब भ्रान्तियाँ...

समाधानः- .. कुछ नहीं है। यथार्थ होवे, बस इतना... मुनिदशामें .. जूठा ग्रहण नहीं करना। थोडा होवे तो थोडा, परन्तु यथार्थ ग्रहण करना। श्वेताम्बर, स्थानकवासी थे। गुरुदेव सौराष्ट्रमें ऐसे प्रगट हुए कि उनसे सच्चा धर्म प्रगट हुआ।

मुमुक्षुः- ऐसा लगता है कि लोकाचार, जिनदत्त सूरी...

समाधानः- यथार्थ मार्ग (ग्रहण करना)। कोई सम्प्रदाय, वाडा किसीको ग्रहण नहीं करके, सच्चा धर्म प्रगट किया। बहुत तकलीफ हुयी तो भी सच्चा मार्ग प्रगट किया।

मुमुक्षुः- आशीर्वादस्वरूपमें बहुत प्राप्त किया। बहिनश्री! आज आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं होते हुए भी आपने हमें उदबोधन दिया, हम पर बडी कृपा करी। हमारे लिये तो.. गुरुदेवको भी हमने देखा नहीं है, तो गुरुदेवकी परम्पराको देखकर ही समझ रहे हैं कि आज गुरुदेवके चरणोंमें आ गये हैं।

समाधानः- (गुरुदेव) तो कोई और ही थे। सोनगढमें तो उनकी वाणी... निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे, तेम ज्ञानी परजन संग छोडी, ज्ञान निधिने भोगवे। गुरुदेवके पास इतनी वाणी सुनने मिली, गुरुदेवने सब दिया। गुरुदेवने मार्ग बताया, इतने शास्त्र समझाये। जो देना था वह सब गुरुदेवने दिया। अब अन्दर आत्माका करने जैसा है। एकान्तमें रहकर और अपना स्वाध्याय करके आत्माका कर लेने जैसा है। गुरुदेव ही है और गुरुदेवने इस पंचमकालमें सब दिया है।

शास्त्रमें तो ऐसा आता है, निधि पामीने जन कोई निज वतनमां रहे। ऐसा है, लेकिन निधि अर्थात अंतरकी निधि। ज्ञानीजन परजन संग छोडी, ज्ञाननिधि भोगवे अर्थात चैतन्यनिधिको भोगता है। अपने ऐसे शुभभावमें अर्थ लेते थे। गुरुदेवके पास.. अंतरमका प्रगट हो वह तो अलग ही बात है। अर्थ तो उसमें है, शास्त्रका अर्थ वह है। ज्ञाननिधिको तू एकान्तमें भोग। तेरी ज्ञाननिधिकी साधना कर, चैतन्यकी। परन्तु गुरुदेवसे जो मिला है, बरसों तक सान्निध्यमें (रहकर), उसे तू अब अन्दर (ऊतार)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!