Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 128.

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ट्रेक-१२८ (audio) (View topics)

समाधानः- .. भिन्न है, आत्मा भिन्न है। दो तत्त्व भिन्न हैं। संकल्प-विकल्प भी अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्मा कैसे ज्ञात हो? वह करने जैसा है। उसकी जिज्ञासा, उसकी महिमा वह करने जैसा है। तत्त्व विचार, स्वाध्याय आदि सब करने जैसा है। स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो? वह करने जैसा है।

अनन्त कालसे बाहर दृष्टि करके मानो बाहरसे सब मिल जायेगा, मानो बाहरसे सब आता है (ऐसे प्रवर्तता है)। बाहरसे कुछ नहीं आता, अंतरमेंसे आता है। थोडे शुभभाव करे, कुछ करे तो मानों मैंने बहुत किया, ऐसा उसे लगता है। परन्तु वह मात्र पुण्यबन्ध होता है, देवलोक प्राप्त होता है, लेकिन भवका अभाव तो शुद्धात्माको पहचाने तो ही होता है।

मुमुक्षुः- जागृतरूपसे विद्यमान है, शक्तिरूप है उसे जागृत कैसे कहना?

समाधानः- वह जागृत ही है। उसका घात नहीं हुआ है। उसका ज्ञानस्वभाव तो जागृत ही है। ज्ञान दब नहीं गया है। ज्ञानस्वभाव ज्ञायक स्वयं जागृत ही है। वह स्वयं बाहर लक्ष्य करता है, बाहरका पुरुषार्थ करता है इसलिये ऐसा लगता है कि मैं गुम गया। लेकिन वह जागृत ही है। ज्ञायक उसका ज्ञानस्वभावका घात नहीं हुआ है। ज्ञायक स्वयं अनादिअनन्त शाश्वत जागृत ही है। स्वभावका घात नहीं हुआ है इसलिये जागृत ही है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- शक्ति तो है, परन्तु उसका स्वभाव ज्ञायक स्वभाव है वह जागृत है। शक्तिका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह शक्ति ऐसे ही पडी है, कुछ करती नहीं है ऐसा नहीं है। ज्ञायक तो जागृत ही है। कार्य यानी पर्यायरूप स्वानुभव...स्वभाव वैसा ही है।

मुमुक्षुः- ... मुमुक्षुता प्रगट हुयी है, ऐसा स्वयंको अपना जीवन देखना हो तो किस लक्षणसे ख्याल आवे कि यह सच्ची मुमुक्षुता है? बाहरमें तो सबके साथ सब चलता रहता है, फिर भी कभी शंका पड जाती है कि मुमुक्षुता ही सत्यार्थ है या नहीं?


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समाधानः- मात्र मोक्ष (अभिलाष)। एक आत्माकी जिसे अभिलाषा है, दूसरी कोई अभिलाषा है। एक आत्मा ही चाहिये। जिसका एक आत्मा ही ध्येय है। सब कार्य और सब प्रसंगमें मुझे एक आत्मा ही चाहिये। मात्र आत्माकी अभिलाषा है। जो सब संकल्प-विकल्प, विभाव होते हैं, उसमें तन्मयता नहीं है, परन्तु मात्र एक आत्माकी अभिलाषा ही जिसे मुख्यपने वर्तती है। वह मुमुक्षुता (है)। मात्र मोक्ष अभिलाष, जिसे मात्र आत्माका ही अभिलाषा है। मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो? मुझे स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो? जिसे बाहर कोई पदार्थकी इच्छा या किसी भी प्रकारकी अभिलाषा नहीं है। सब कायामें जुडे, फिर भी उसे सब गौण है। ध्येय मात्र एक आत्माका है कि आत्माका कैसे प्राप्त हो?

... स्वाध्याय, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब होता है। लेकिन एक आत्मा कैसे प्राप्त हो? आत्माके बिना जिसे कहीं चैन नहीं पडती। ... बारंबार बताते थे कि तू तेरे आत्माको देख। आत्मा ज्ञानस्वभाव है। यह सब तुझसे भिन्न है, तू तेरे आत्माको देख। ऐसा बारंबार स्वयं अन्दरसे जिज्ञासासे ग्रहण करनेका प्रयत्न करे।

मुमुक्षुः- ... विहार किया है और जहाँ-जहाँ उनके पावन चरणस्पर्श हुआ है, वहाँ यह बात एकदम खडी हो गयी है।

समाधानः- सब तैयार हो गये हैं। चारों ओर जहाँ-जहाँ उन्होंने विहार किया, वहाँ यह आत्माकी बात चालू हो गयी।

मुमुक्षुः- गुरुदेव तो गुरुदेव थे। सबको ऐसे प्रेमसे गले लगाते थे। बच्चोंको, एक बार हाथ लगा दे तो वह दिगम्बर, सच्चा दिगम्बर हो गया, ऐसा लगे। गुरुदेवमें ऐसे कोई विशिष्टता थी।

समाधानः- गुरुदेवकी कृपा सब पर थी। सब आत्माको प्राप्त करो, ऐसी उनकी एक ही (बात थी)। मार्ग यह है, समझमें आता है? सब समझो। यह उनके हृदयमें था। प्रवचनमें (बोलते थे), समझमें आया, समझमें आया। पहले तो बहुत समझमें आता है, समझमें आता है, ऐसा आता था।

मुमुक्षुः- आपने पीछली बार कहा था कि जो भूमि यहाँ आयी है, तो उस भूमिमें जो साधना करते होंगे, वह आत्मा कैसा होगा? वह बात सत्य है, सौ प्रतिशत सच्ची है।

समाधानः- .. उनके ज्ञानमें अतिशयता, उनकी वाणीमें अतिशयता, उनकी बातमें ऐसा था। उनका प्रभाव ऐसा था।

मुमुक्षुः- अभी ये लोग आये हैं, होलमें बैठे तो.. गुरुदेव बोलते हो ऐसा लगे। साक्षात गुरुदेव बोलते हो ऐसा लगता है।


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समाधानः- .. इसलिये ऐसा ही लगता है। ऐसा बहुत लोग कहते हैं। गुरुदेव यहाँ कितने ही वर्ष रहे हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी भूमि, यह क्षेत्र, यह स्थान...

समाधानः- .. ऐसे महापुरुष जागे तो ऐसा ही होता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी कोई नकल नहीं कर सकता।

समाधानः- नकल कहाँसे कर सके? उनकी वाणीमें अतिशयता थी, वाणीका पुण्य भी अलग था। तीर्थंकर भगवान जो भविष्यमें होंगे, उनकी वाणी इस भवमें भी अलग थी, अलग ही थी। ... गुरुदेवने एकदम आत्माको समझाया। आत्मामें मुक्तिका मार्ग है, स्वानुभूति प्रगट करो, सब गुरुदेवने मार्ग बताया। स्वानुभूतिमें आनन्द है। एक आत्मा, एक ज्ञायक आत्मा, सब भेदभावोंको गौण करके एक आत्माको पहचानो, ऐसा कहते थे। सब ज्ञानमें आवे, लेकिन लक्ष्यमें एक आत्मा, अखण्डको लक्ष्यमें लेना। सब गुरुदेवने बताया है। स्वानुभूतिका मार्ग (बताया है)। ... बरसों तक यहाँ रहते थे और फिर विहार करते थे।

मुमुक्षुः- पूज्य गाँधीजीने ... दो या तीन पंक्तिमें आ जाय, परन्तु एक-एक वस्तु पर विचार करें तो बहुत गहराईसे विचार कर सकते हैं।

समाधानः- .. आता है, मूल शास्त्र तो इतने सूक्ष्म है कि सुलझाना मुश्किल पडे। उसमें द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी बातें आती हैं, बहुत सूक्ष्म। उसके प्रवचन, गुरुदेवके बहुत प्रवचन (हुए हैं)। यह तो आपको आसान पडे इसलिये ऐसे...

समाधानः- ... हिन्दुस्तानमें बहुत लोग यहाँ मुड गये। बहुत लोग यहाँ लाभ लेने आते और स्वयं भी विहार करते थे, हर साल कुछ महिने जाते थे।

.. चलता ही रहता है, आत्माका कर लेना वह करना है। गुरुदेवने बहुत कहा है। मार्ग एकदम स्पष्ट करके बताया है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो कहीं भूल रहे ऐसा नहीं है। इसलिये गुरुदेवने कहा है, वही मार्ग ग्रहण करना है। आत्माको पहचाननेका है। आत्मा चैतन्य ज्ञायकतत्त्व सबसे भिन्न है, शाश्वत है। जो देह धारण करता है, एकसे दूसरा, दूसरेसे तीसरा, लेकिन आत्मा तो शाश्वत ही है, इसलिये आत्माको ग्रहण कर लेना। आत्माका आनन्द, आत्माका सुख और आत्माके गुण कैसे प्राप्त हो, वही जीवनमें करने जैसा है। उसीके संस्कार डालने और बारंबार उसीका मनन, चिंतवन करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, स्वाध्याय, विचार, ज्ञायक... बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करना। आत्माकी स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो, यह करने जैसा है। वही करने जैसा है। बाकी अनन्त जन्म-मरण किये उसमें जीव कहीं-कहीं अटक गया है, बाहरमें थोडे शुभभाव किये तो मैंने बहुत किया ऐसा मान लिया। पुण्यबन्ध हुआ, अनन्त बार देवलोकमें


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गया, लेकिन भवका अभाव हो, वह मार्ग गुरुदेवने बताया कि तू शुद्धात्माको पहचान। उस शुद्धात्माको पहचान लेने जैसा है। विभावकी जाल खडी है, उससे स्वयंको भिन्न करके, मैं चैतन्य स्वभाव निर्विकल्प तत्त्व हूँ, उसे पहचानने जैसा है।

.. एक-एक आकाशके प्रदेश पर अनन्त-अनन्त बार (जन्म-मरण किये हैं)। अनन्त माताएँ हुयी, अनन्त माताको छोडकर स्वयं आया, स्वयंको छोडकर माता (चली जाती है), ऐसे अनन्त भव किये। एक शाश्वत आत्मा ही है कि जो सबसे भिन्न चैतन्यतत्त्व विराजता है। अनन्त गुणसे भरपूर, उसमें अनन्त सुख और आनन्द भरा है। वह ग्रहण करना। स्वयं पुरुषार्थसे ग्रहण करना। ज्ञानसे ग्रहण करना। ज्ञानका सूक्ष्म उपयोग करके, ुउसकी रुचि, जिज्ञासा करके ज्ञानका सूक्ष्म उपयोग करके, यह मैं चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार स्वयं सूक्ष्म उपयोग करके ग्रहण करना। शास्त्रमें आता है न? प्रज्ञासे ग्रहण करना, प्रज्ञासे भिन्न करना।

मुमुक्षुः- .. जिसका अभ्यास कम हो, उसे कैसे करना?

समाधानः- अभ्यास कम हो तो मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको ग्रहण करना। गुरुदेवने प्रयोजनभूत तत्त्व बताये, एक आत्मा ग्रहण करना। यह सब भिन्न हैं और मैं उससे भिन्न चैतन्यतत्त्व हूँ। उसमें अधिक अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है। शिवभूति मुनिने एक भेदज्ञान किया तो उन्हें आत्मा ग्रहण हो गया। एक शब्द भी याद नहीं रहता था, परन्तु भाव ग्रहण कर लिया। गुरुने मासतुष कहा। मारुष और मातुष याद नहीं रहा। मासतुष-यह छिलका भिन्न और दाल भिन्न है, ऐसे आत्मा चैतन्यतत्त्व भिन्न है और यह विभाव-छिलका भिन्न है, ऐसे ग्रहण कर लिया।

मूल प्रयोजनभूत तत्त्व ग्रहण कर ले तो उसमें कोई अधिक अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है। एक आत्मा भिन्न प्रयोजनभूत तत्त्व है, मैं चैतन्यतत्त्व ज्ञायक हूँ, मैं एक अभेद हूँ, उसमें भेदभाव आदि गौण है। मैं एक अखण्ड चैतन्य वस्तु हूँ। ज्ञानमें सब जानता है, परन्तु मैं एक अखण्ड चैतन्य ही हूँ, उसे ग्रहण कर।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- सरल है, अपना स्वभाव है इसलिये सरल है। अनादिका अभ्यास नहीं है और विभावका अभ्यास है, इसलिये दुर्लभ और कठिन हो गया है। क्योंकि अनादिका विभावका अभ्यास हो रहा है, इसलिये स्वयं अपनेआपको भूल गया है, इसलिये कठिन हो गया है। बाकी स्वयंका स्वभाव ही है, इसलिये सरल भी है और कठिन भी है। क्योंकि अनादिसे स्वयं बाहर दौडता है, अंतर दृष्टि नहीं की है।

गुरुदेवने मार्ग अत्यंत सरल कर दिया है। कहीं खोजने जाना पडे या किसीको पूछने जाना पडे, ऐसा नहीं है। गुरुदेवने ही सब बता दिया है। और गुरुदेवका साक्षात


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उपदेश सबने बहुत बार सुना है। एक सरल मार्ग कर दिया है, मात्र स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। जो कुछ जानता नहीं है, मात्र क्रियामें पडे हैं, शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा मानते हो, चैतन्यतत्त्वका क्या स्वभाव, कोई अदभूत तत्त्व, स्वानुभूतिको समझते नहीं हो, उसे तो कठिन लगे। गुरुदेवने तो एकदम सरल कर दिया है। मात्र स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रह जाता है।

मुमुक्षुः- जीवन आत्मामय कर लेना चाहिये, तो वह भाव (कैसा है)? कैसे करना?

समाधानः- मैं आत्मा ही हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ। मैं चैतन्यतत्त्व हूँ, ऐसी परिणति प्रगट कर लेनी। यह बाहरमें जो दिखता है वह मैं नहीं हूँ। मैं तो तत्त्व ही भिन्न हूँ। आत्मामय अपना जीवन-ऐसी परिणति प्रगट करनी चाहिये। ऐसी स्वानुभूतिपूर्वकका जीवन प्रगट करना चाहिये। आत्मामय। ऐसा नहीं हो तो उसका अभ्यास करना। मैं एक चैतन्यतत्त्व आत्मा हूँ। यह सब जो विभाव दिखता है, यह विभावका भेस मेरा नहीं है, मैं तो चैतन्यतत्त्व हूँ। ऐसा जीवन, बारंबार सहज परिणतिरूप कर लेना।

मुमुक्षुः- माताजी! आत्माको कैस प्रकारसे जाना जाता है?

समाधानः- आत्माको स्वभावसे-लक्षणसे पहचाना जाता है। उसका जो लक्षण होता है, उस लक्षणसे आत्माको पहचाना जाता है। ऐसा ज्ञानलक्षण आत्माका असाधारण लक्षण है। ज्ञानलक्षणसे उस द्रव्यको पीछाना जाता है। गुरुदेव और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र बताते हैं कि आत्मा ज्ञानस्वभाव है। उसे ज्ञानलक्षणसे पीछानो। ज्ञानलक्षण असाधारण लक्षण है, सबसे विशिष्ट लक्षण है, उससे आत्मा पीछाना जाता है। विभाव लक्षण, राग लक्षण वह कोई आत्माका लक्षण नहीं है। जो जानता है वही आत्मा है, जो जाननेवाला है वही आत्मा है। जाननेका लक्षणसे वह पीछाना जाता है।

ऐसे तो भीतरमें अनन्त-अनन्त गुण हैं, अनन्त-अनन्त शक्तियाँ हैं। वह पहचाननेमें नहीं आता है, ज्ञानलक्षण है वह पहचाननेमें आता है। इसलिये ज्ञानलक्षणसे वह पीछाना जाता है कि ज्ञायक है। ज्ञायक पूर्ण द्रव्य स्वरूप ज्ञायक है, उससे पीछाना जाता है। ज्ञानलक्षणसे पीछाननेसे, ऐसा भेदज्ञान करनेसे, उसकी स्वानुभूति करनेसे जो भीतरमें उसके अनन्त गुण-अनन्त शक्तियाँ हैं, वह प्रगट होती है। निर्विकल्प स्वानुभूतिमें वह प्रगट होती है। पहले उसका भेदज्ञान होता है। मैं एक चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य स्वभाव हूँ। यह सब लक्षण मेरा नहीं है, राग लक्षण आकुलता लक्षण है। मैं ज्ञानलक्षण निराकुलता, शान्ति लक्षण ऐसा मेरा लक्षण है। ऐसा क्षण-क्षणमें उसका भेदज्ञान (करे)। उसकी सहज दशा करनेसे, ऐसा सहजरूप हो जानेसे जो निर्विकल्प स्वानुभूति होती है तो उसमें सब अनुभवमें आता है। उसका जो स्वभाव है, वह सब अनुभवमें आता है। उसकी


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जिज्ञासा, उसकी महिमा, उसकी लगनी, बारंबार तत्त्वका विचार, स्वाध्याय आदि सब होना चाहिये, निरंतर। सुख आत्मामें है, बाहरमें नहीं है।

मुमुक्षुः- ... जैसे कि यह क्रमबद्ध पर्याय पुस्तक है। उसके पढनेसे कभी स्वच्छन्दपना भी आता है।

समाधानः- क्रमबद्ध ऐसा समझना चाहिये कि पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। जो क्रमबद्ध होता है, वह क्रमबद्ध ऐसा होता है कि... क्रमबद्ध सच्चा किसने जाना? जिसने ज्ञायकको जाना उसने क्रमबद्ध जाना। मैं ज्ञाता ही हूँ। मैं परपदार्थका कुछ कर नहीं सकता, मैं ज्ञायक-ज्ञाता हूँ। ऐसी ज्ञाताधारा जिसको प्रगट होती है, वह सच्चा क्रमबद्ध जान सकता है। क्रमबद्धका ऐसा नहीं समझना चाहिये कि पुरुषार्थ नहीं करके स्वच्छन्द करना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होना चाहिये। पुरुषार्थ (करे कि), मैं कैसे आत्माको पहचानूँ? कैसे स्वभावकी परिणति प्रगट करुँ? स्वभावकी परिणतिपूर्वक क्रमबद्ध होता है। पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध नहीं होता। उसमें पुरुषार्थ आ जाता है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थके लिये हम यह सोचते रहें कि जब होना होगा तब होगा।

समाधानः- होनेवाला होता है, परन्तु जिसको आत्माका कल्याण करना है, उसको ऐसा होना चाहिये, मैं कैसे पुरुषार्थ करुँ? मैं कैसे करुँ? ऐसी भावना होनी चाहिये। जब होनेवाला होगा तब होगा, ऐसा जिज्ञासुको और जिसको आत्माका स्वभाव प्रगट करना है, उसको ऐसी शान्ति नहीं होगी। उसको ऐसा होता है, मैं कैसे आत्माको पहचानूँ? कैसे पुरुषार्थ करुँ? मेरी स्वभावकी ओर पर्याय कैसे होवे? उसको ऐसे शान्ति होगी।

जिसका अच्छा क्रमबद्ध होवे, उसको ऐसा पुरुषार्थ.. पुरुषार्थ ऐसी भावना होती रहती है। जिसको नहीं करना है वह ऐसा अर्थ ले लेता है कि जब होना होगा तब होगा। लेकिन जिसको सच्ची जिज्ञासा है, उसका पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। जिसका होता है, उसका पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है।

ज्ञायकको जो जानता है उसका ही क्रमबद्ध सच्चा है। जो पुरुषार्थ नहीं करता है, उसका क्रमबद्ध ऐसा ही है। उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। अकेली काललब्धि नहीं होती है, सब साथमें होते हैं। उसको पुरुषार्थ साथमें होता है।

मुमुक्षुः- क्रमबद्धका उसने सुना है, लेकिन अभी ज्ञायक तक पहुँचा नहीं है, तो उसका पुरुषार्थ ज्ञायककी ओर चलता रहे, तो क्रमबद्धमें जो होनेवाला होगा वह होगा, ऐसे ज्ञानका वह कैसे उपयोग करे?

समाधानः- उसका उपयोग ऐसे हो कि, उसमें अकुलाहट और उलझन होती


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हो तो उसका आश्रय ले, बाकी भावना तीव्र हो उसे उसका आश्रय सहज ही आ जाता है। बहुत आकुलता या उलझन होती हो तो उसमें उसे आश्रय आता है। बाकी जिसे स्वभावकी ओर मुडना है, मैं पुरुषार्थ कैसे करुँ? यह प्रमाद क्यों हो रहा है? ऐसी ही उसकी भावना होती है।

मुुमुक्षुः- अर्थात कभी-कभी उसे अकुलाहट हो जाती है कि स्वभाव क्यों प्राप्त नहीं हो रहा है? तो उस वक्त कदाचित ऐसा आश्रय ले।

समाधानः- हाँ, ऐसा आश्रय ले, बाकी पुरुषार्थकी ओर ही आत्मार्थीका लक्ष्य होता है। ... मैं पुरुषार्थ करुँ, पुरुषार्थ करुँ, उसमें क्रमबद्ध तो साथमें आ जाता है।

... मैं परका कर सकता हूँ, यह कर सकता हूँ, वह कर सकता हूँ.. स्वभावका आश्रय लेनेमें क्रमबद्धका आश्रय ले तो प्रमादकी ओर उसका चला जाना होता है। आत्मार्थीको...

मुमुक्षुः- .. कर्तृत्व होता हो, तो क्रमबद्ध होता है, ऐसा करके उसे छोड देता है। समाधानः- हाँ, उसे छोड देता है। मुमुक्षुः- परन्तु जब स्वयंकी भावना हो.. समाधानः- तो मेरा स्वयंका प्रमाद है। मुमुक्षुः- मेरा स्वयंका प्रमाह है और मैं कैसे प्राप्त करुँ, ऐसा उसे उत्साह... समाधानः- उत्साह रहना चाहिये। अपने दोषकी ओर देखता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!