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समाधानः- उपादान यानी मूल वस्तु, मूलमें स्वयं उपादान। उपादानकारण यानी स्वयंका कारण। जो वस्तु है, वह मूल वस्तु उपादान और साथमें हो उसे निमित्त कहते हैं। स्फटिक स्वयं मूल वस्तु है। उसमें हरे-पीले रंगका प्रतिबिंब उठे वह बाहर है, वह निमित्त और स्वयं मूल वस्तु है वह उपादान। उसके उपादानकी योग्यता ऐसी है कि उसमें लाल-पीले रंगका प्रतिबिंब उठता है, वह उसका उपादान। बाहर है वह निमित्त। निमित्त कुछ करता नहीं, स्वयंके कारण ऐसा होता है। परन्तु उसका मूल स्वभाव है, उसका नाश नहीं होता।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- जली हुई डोरी होती है, वैसे कर्म अभी बाकी है। केवलज्ञानीको कर्मका नाश हो गया, कर्मका तो क्षय हो गया है। फिर जो थोडे कर्म बाकी है वह कर्म ऐसे हैं, जली हुई डोरी होती है न? जली हुई रस्सी होती है न? खाट भरते हैं न? जली हुई रस्सी जैसे कर्म (बाकी है), एकदम टूट जाये ऐसे हैं। थोडी देरमें खत्म हो जाते हैं। उन्हें, घातिकर्म जो केवलज्ञानको रोके, जो अन्दर आत्माके पुरुषार्थके रोके, वैसे निमित्तरूप, कोई रोकता नहीं है, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे रुका है। केवलज्ञानी भगवानको जो ऐसे कर्म थे, वह तो क्षय हो गये। परन्तु बादमें जो बाकी रहे, अभी शरीर छूटा नहीं, ऐसे जो कर्म बाकी है, वह कर्म जली हुई रस्सीके समान है, जल्दी नाश हो जाये ऐसे कर्म (हैं)। केवलज्ञानी शरीरसहित हो तो केवलज्ञानीको सब कर्म क्षय हो गये हैं, परन्तु बाकी जो रहे हैं वह जली हुई रस्सीके समान है। जब सिद्ध होंगे तब वह सब छूट जायेंगे। आयुष्य आदि कर्म है, वह सब कर्म जली हुई रस्सीके समान बाकी रहे हैं। नामकर्म है, गोत्रकर्म है ऐसे कर्म (बाकी हैं)।
मुमुक्षुः- घनघाती कर्म यानी क्या?
समाधानः- घनघाती, जो आत्माके गुणोंके घातमें निमित्त हो, उसे घनघाती कहते हैं। जैसे केवलज्ञानको रोकनेवाला, केवलदर्शनको, अन्दर पुरुषार्थको उन सबको रोकनेवाले कर्मको घनघाती कहते हैं। आत्माके गुणको घात करनेमें निमित्त। अर्थात वह घात नहीं करते, परन्तु निमित्त है।
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जैसे स्फटिक है, बाहर होते हैं न? हरे-पीले फूल, उसके भाँति। कर्म उसमें निमित्त है इसलिये घनघाति कहते हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं कि जो गुणका घात नहीं करते, मात्र शरीर प्राप्त हो, आयुष्य होता है, उन सब कमाको घनघाती नहीं कहते, उसे अघाति कहते हैं। वह आत्माके गुणोंका घात नहीं करते। शरीर मिले, आयुष्य हो उन सबको अघाति कहते हैं।
मुमुक्षुः- ...छठ्ठा आरा आया, मतलब?
समाधानः- उसे काल कहते हैं, आरो यानी चतुर्थ काल, पंचम काल, ऐसे काल। जगतमें ऐसा काल आता है कि जिसमें ऐसे जन्म लेते हैं कि उसे चतुर्थ काल (कहते हैं)। अच्छे-अच्छे जीवका जन्म होता हो, जो मोक्षमें जानेवाले हो, ऐसी उनकी पात्रता हो, केवलज्ञान प्राप्त करे, कोई सम्यग्दर्शन (प्राप्त करे), कोई मुनि बने, ऋद्धिधारक मुनि बने, ऐसे कालको चतुर्थ काल कहते हैं। जिसमें तीर्थंकरका जन्म हो, जिसमें केवलज्ञानी विचरते हो, उसे चतुर्थ काल कहते हैं-चतुर्थ आरा। जिसमें भगवान तीर्थंकरका जन्म हो, उसे चतुर्थ-अच्छा काल कहते हैं। कहा न? अच्छा काल आया है। लोकमें ऐसा कहते हैं न कि अपने लिये यह अच्छा काल है कि यह पुण्यका काल आया तो अब उन्नति होती है। किसीका धन कम हो जाये तो कहे कि अब हिन काल आया, किसीको शरीरमें रोग आये तो कहे कि हिन हो गया है, अनुकूलता होवे तो कहे अब उन्नतिका समय आया। वैसे चतुर्थ काल। आरो यानी चतुर्थकालमें अच्छे- अच्छे जीवोंकी उन्नति होती है इसलिये उसे चतुर्थ काल, चतुर्थ आरा कहते हैं।
मुमुक्षुः- उसमें भी मर्यादा होती होगी?
समाधानः- हाँ, कुछ काल तक ऐसे जीवोंका ही जन्म होता है। अच्छे जीव होते हैं वह दूसरे क्षेत्रमें जन्म लेते हैं। पंचमकाल आये तो उसमें अमुक प्रकारके जीव जन्म लेते हैं। धर्म तो रहता है, अमुक प्रकारका धर्म तो रहता है, परन्तु देखिये, अभी तो कपट, मायाचारी आदि बढ गया है। ऐसे लोगोंका जन्म हो उसे पंचमकाल कहते हैं। पंचम आरा। छठ्ठे आरेमें तो उतना होगा कि हिंसा बढ जायेगी। उसे छठ्ठा काल कहते हैं।
समाधानः- ... आत्मा बन्धा नहीं है। अबद्ध यानी बन्धा हुआ नहीं है। गाथामें है, हरिगीत है न? आत्मा किसी भी कर्मसे वास्तविकरूपसे बन्धा हुआ नहीं है, आत्मा भिन्न ही है। मकडीकी जाल होती है उसमें मकडी भिन्न ही है। वैसे आत्मा भिन्न ही है। कर्मसे वैसे नहीं बन्धा है कि वह भिन्न नहीं हो सके। अन्दर भिन्न ही है। अबद्ध है, अस्पृष्ट है। वह किसीसे स्पर्शित नहीं हुआ है। जैसे कमल पानीमें हो, पानीमें कमल हो तो ऐसे दिखता है कि मानो पानीमें और कीचडमें लिप्त हो गया
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हो। परन्तु वह कमल लिप्त नहीं होता है, कमल तो भिन्न ही रहता है।
ऐसे आत्मा तो अन्दर भिन्न ही है। अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य। आत्मा अन्य कोई भी शरीररूप नहीं हो जाता। जन्म-मरण करे। मनुष्य, नारकी, देव आदि रूप हो नहीं जाता। आत्मा तो आत्मा ही रहता है। आत्मा अन्य-अन्य, अलग-अलग नहीं हो जाता। अनन्य-एकरूप जो अपना स्वरूप है वैसा ही रहता है। भिन्न-भिन्न अवस्था धारण करे, अलग-अलग पर्याय हो, आत्मा वैसा ही रहता है।
मुमुक्षुः- .. शुद्धतामें केलि करे, उसका मतलब क्या?
समाधानः- केलि यानी उसमें खेलते हैं, लीला करते हैं, ऐसा नहीं कहते? शुद्धतामें केलि करे, शुद्धता रस बरसे, अमृतधारा बरसे। आत्मामें सम्यग्दर्शन हो, आगे बढे, स्वानुभूतिमें खेलता हो तो शुद्धतामें केलि करे, अमृतरस बरसे। केलि-खेलता है, केलि यानी खेलता है।
मैं शुद्ध ही हूँ। शुद्धताको ध्यावे, शुद्धताका ध्यान करे, शुद्धतामें केलि करे, शुद्धतामें खेल करे, अमृतधारा बरसे। ऐसा करनेसे अन्दर अमृतकी धारा बरसती है। शुद्धताका ध्यान करता है।
मुमुक्षुः- गणधरदेवको ऐसी ऋद्धि होती है कि बारह अंगको गूंथते हैं। हमें ऐसी कोई ऋद्धि दीजिये कि हम विरोधियोंके बीचमें रहते हुए भी ज्ञानीके प्रति शंका उत्पन्न न हो और हमारी शांति भंग न हो, ऐसी कोई ऋद्धि दे दीजिये।
समाधानः- वह तो अपने पुरुषार्थके हाथकी बात है। विरोधियोंके बीचमें रहकर भी आत्माकी आराधना करना (कि) मैं ज्ञायक हूँ। बाहर नहीं आना। ज्ञायकस्वरूप आत्मा हूँ, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमाकी आराधना, आत्माकी आराधना। ऐसी भावना, पुरुषार्थ करना। भीतरमें लक्षण पहचानकर दृढता करनी। बाहरकी बात सुन-सुनकर नक्की नहीं करना। प्रत्यक्ष देखे बिना कोई बात नक्की नहीं करना। जो प्रत्यक्ष देखा हो उसे ही नक्की करना। आत्माका स्वभाव भी अपना लक्षण पहचानकर नक्की करना। .. स्वाध्याय करना, दूसरी बातोंमें नहीं पडना।
मुमुक्षुः- वादविवादमें भी नहीं पडना?
समाधानः- वादविवादमें भी नहीं पडना। किसीमें नहीं पडना। अपनी उतनी शक्ति नहीं हो तो वादविवादमें नहीं पडना। आत्मा है तो पुरुषार्थ कर सकता है। आत्माका प्रयोजन साधना अपने हाथकी बात है। उसे कोई रोक नहीं सकता। न्यारे रहकर अपने आत्माकी साधना पुरुषार्थ करनेसे हो सकती है।
मुमुक्षुः- माताजी! कोई, ज्ञानियोंके लिये या गुरुदेवके लिये या किसीके भी लिये मानों कि दो-चार ऊलटे-सीधे शब्द बोले तो हम तो संसारी हैं, ऐसा भक्तिका राग
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आ जाये कि गुरुदेवके लिये ऐसा क्यों? अथवा दूसरे ज्ञानीके लिये ऐसा क्यों बोले? ऐसा विकल्प आये तो... माताजी! हम तो अज्ञानी हैं, ऐसे समयमें क्या करना?
समाधानः- ऐसे विकल्प नहीं करना, ऐसे विकल्प नहीं करना। (मुमुक्षुका) कार्य है कि मर्यादाके बाहर नहीं जाना। मर्यादासे बाहर जाये तो...
मुमुक्षुः- माताजी! अपने कोई भी मुमुक्षु मर्यादाकी हदका उल्लंघन करे, ऐसे हैं ही नहीं। गुरुदेवका अपार उपकार और आपका अपार उपकार है कि मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते हैं। परन्तु सामनेवाले उल्लंघन करके यहाँ आ जाये और अपनेको कुछ भी करे तो क्या खडे रह जाना?
समाधानः- सामनेवाला मर्यादाका उल्लंघन करे तो उसका वह जाने, स्वयं मर्यादाका उल्लंघन नहीं करे। ...
मुमुक्षुः- बहिनश्री! कुन्दकुन्दस्वामी केवलज्ञानका स्वरूप जब गाथामें वर्णन करते हैं, तब तो सब अनुभवसिद्ध वर्णन करते हैं। केवलज्ञानका स्वरूप शास्त्रके आधारसे वर्णन करते हैं या उसप्रकारकी तर्कणासे केवलज्ञानका स्वरूप ख्यालमें लेते हैं? अनुभव तो केवलज्ञान..
समाधानः- आचायाकी क्या बात करनी, कैसे वर्णन करते हैं। आचार्य हैं सो आचार्य हैं। उनकी शक्ति तो कोई अलग ही होती है। उसमें भी कुन्दकुन्दाचार्यकी क्या बात! उन्हें तो अन्दर श्रुतज्ञान कोई अलग ही था। उनके अन्दर ऐसी कोई शक्ति थी, स्वयं अन्दरसे समझ सके। स्वानुभूतिमें केवलज्ञान प्रगट नहीं हुआ है, परन्तु सम्यग्दर्शनपूर्वक उनकी दशा अन्दर कहाँ तक टिकती है, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए मुनि (हैं)। और उनका ज्ञान यानी इस पंचमकालमें चारों ओर कुन्दकुन्द आम्नाय, कुन्दकुन्द आम्नाय (हो गया)। उनकी शक्ति कोई अलग थी। मात्र ऊपरसे विचार करके (कहते हैं), ऐसा नहीं। उनकी बात यानी बस... अंतर श्रुतज्ञान उनका कोई अलग था। श्रुतज्ञानसे बात करते हैं।
आता है न? श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, दोनोंमें कोई नहीं देखना। मात्र प्रत्यक्ष, परोक्षका अंतर है। केवलज्ञानी प्रत्यक्ष देखते हैं, श्रुतज्ञानी परोक्ष देखते हैं। लेकिन दोनों समान है, ऐसा शास्त्रमें आता है। उसमें आचायाकी बात क्या करनी! आचायाने उसका रहस्य समझाया है। केवलज्ञानी सब प्रत्यक्ष देखते हैं, तो श्रुतज्ञानी सब परोक्ष देखते हैं।
मुमुक्षुः- उसमेंसे ऐसा अर्थ निकले कि केवलज्ञानीकी साक्षात भेंट हुई थी?
समाधानः- उसमेंसे विचार करे तो निकले कि केवलज्ञानीकी भेंट हुई थी। भेंट हुई थी, मानों नहीं भी हुई हो तो श्रुतज्ञानका स्वरूप ही ऐसा है कि श्रुतज्ञानी और
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केवलज्ञानी दोनों समान हैं, ऐसा शास्त्रमें आता है। उनका श्रुतज्ञान ऐसा है। प्रवचनसारमें भी केवलि भगवानके पास गये थे वह बात तो गाथाओंमेंसे निकलता है। वर्तमान क्षेत्रमें विचरते सीमंधर भगवान एवं प्रत्येक-प्रत्येक सबको वन्दन करता हूँ, आदि सब आता है। निकलता है क्या, कितने ही आचायाने लिखा है कि कुन्दकुन्दचार्य विदेहक्षेत्रमें गये थे। ऐसे लेख आते हैैं, उसके सब शिलालेख आते हैं। उसका तो विचार करना पडे ऐसा कहाँ है? शिलालेखोंमें, पंचास्तिकायमें, देवसेनाचार्य आदि सब कहते हैं। उनकी लेखनीके बारेमें कहाँ विचार करना पडे ऐसा है। उनकी गाथाओंमें (आता है), प्रत्येक- प्रत्येकको विदेहक्षेत्रमें विचरते भगवंतोंको नमस्कार करता हूँ।
मुमुक्षुः- उनकी वाणीमें ॐ ही आता है, ऐसा है क्या?
समाधानः- केवलज्ञानीकी वाणीमें ॐ आता है। आचायाकी वाणीमें ॐ नहीं आता। भगवानकी वाणीमें ॐ आता है। भगवानको इच्छा टूट गई है, वीतराग हो गये हैं, इसलिये वाणीमें ॐ आता है। आचार्य तो मुनि हैं, शास्त्रमें द्रव्य-गुण-पर्यायका विस्तार करके वर्णन करते हैं। भगवानकी वाणीमें ॐ आता है, परन्तु उसमें अनन्त रहस्य आता है। पूरे लोकालोकका स्वरूप आता है।
मुमुक्षुः- आपश्री केवलज्ञानका स्वरूप बताते हो तब ऐसा लगता है कि आपको भी भेंट हुई हो और सुना हो, ऐसे ही कहते हो।
समाधानः- जिसको जैसा अर्थ करना हो वैसा करे।
मुमुक्षुः- माताजी! लोगोंको तो शिलालेक आदिका आधार लेना पडता है, हमें तो साक्षात आपका आधार मिला है। कुन्दकुन्दाचार्य वहाँ पधारे थे, आपने साक्षात देखा है, इससे बढकर और क्या आधार चाहिये? हम तो अधिक भाग्यशाली हैं, आप साक्षात मोजूद हैं। लोगोंको मात्र शिलालेख देखने मिलते हैं, आप तो साक्षात हमें प्राप्त हुए हैं।
समाधानः- शास्त्रमें सब प्रमाणभूत है। शिलालेख है, सब टीकाओंमें है, सब प्रमाणभूत है। जैनसमाजमें, दिगम्बर समाजमें (आधारभूत है)। आप सब मानते हो वह माने।
मुमुक्षुः- माताजी! हमें तो आपका मानना है, दूसरोंको जो मानना है वह माने, हमें क्या? हमने एक ज्ञानीको पकडे हैं, दूसरेको क्यों पकडना? बकरेका झुंड होता है, सिंहका नहीं होता।
समाधानः- .. चतुर्थ गुणस्थान यानी सम्यग्दर्शनकी भूमिका है। सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, उसे चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं। स्वानुभूति हो, भेदज्ञान हो, आत्माकी स्वानुभूति होती है वह चतुर्थ गुणस्थान है।
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मुमुक्षुः- साथ-साथ सम्यग्दर्शन होता है, तीनों साथमें होता है?
समाधानः- सम्यग्दर्शन-ज्ञान होता है, चतुर्थ गुणस्थानमें अभी चारित्र नहीं है। वास्तविक चारित्र मुनिदशामें (होता है)। ये तो गृहस्थाश्रममें होते हैं इसलिये थोडी लीनता है। बाकी चारित्रदशा रत्नत्रय नहीं, सम्यग्दर्शन कह सकते हैं। स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। लेकिन जो मुनि होते हैं, ऐसा चारित्र नहीं।
मुमुक्षुः- पौन सेकण्डसे अधिक निद्रा नहीं होती, ऐसा कैसे?
समाधानः- छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें आत्मामें जाते हैं। उसमें निद्रा कैसे हो? क्षण-क्षणमें जागृत होते हैैं, क्षण-क्षणमें जागृत होते हैं।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन यानी क्या? और उसे प्राप्त करनेके लिये इस पामर जीवको ... कैसे हो?
समाधानः- सम्यग्दर्शनका स्वरूप, इस पंचमकालमें गुरुदेवने यहाँ पधारकर कितना विस्तार करके समझाया है। समझना मुश्किल, प्राप्त करना मुश्किल, सब मुश्किल था। परन्तु गुरुदेवने कितना मार्ग (स्पष्ट किया)।
.. आत्माकी ओर देखता भी नहीं। बाहरमें ही उसकी दृष्टि है। बाहरसे धर्म होता है, सबकुछ बाहरसे ही मान लिया है। बाहरसे ज्ञान आता है, बाहरसे सुख आता है, बाहरसे सब आता है। दृष्टि बाहर ही है, इसलिये उसे दुर्लभ हो गया है। अंतर दृष्टि करे तो पहचान सकता है। अंतर दृष्टि किये बिना जन्म-मरण होते ही रहते हैं। ज्यादासे ज्यादा शुभभाव करे, बाह्य क्रिया करे, कुछ करे, कुछ छोडे, कुछ करे, (उसमें भी) शुभभाव हो तो पुण्यबन्ध होता है। पुण्यसे देवमें जाता है। परन्तु भवका अभाव तो होता नहीं। भवका अभाव तो एक आत्माको पहचाने कि मैं चैतन्यतत्त्व अनादिसे क्यों रखडा? मेरा क्या स्वरूप है? और ये विभावका दुःख कैसे टले? अन्दर विचार करे, अन्दर जिज्ञासा करे, लगनी लगाये, उसे इस संसारकी थकान लगे तो अंतरमें जाये। उसे थकान नहीं लगी और अन्दरसे उसे छूटनेकी इच्छा हो कि मैं कैसे छूटूं? अंतरमेंसे मार्ग मिल जाता है। स्वयं ही है, गुप्त नहीं है, स्वयं नहीं है। मार्ग अंतरसे मिल जाता है।
आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है। उसका ज्ञानलक्षण है, ज्ञानलक्षणसे पहचानमें आये ऐसा है। और उसका स्वरूप गुरुदेवने बहुत बताया है। उसे समझानेवाले गुरुदेव प्रत्यक्ष थे और उनकी वाणी मूसलाधार बरसती थी। आत्माका स्वरूप क्या है? उसके द्रव्य- गुण-पर्याय क्या है? पुदगलके क्या है? दोनों वस्तु अत्यंत भिन्न हैं। अंतर आत्मा अनन्त गुणोंसे विराजमान अनुपम तत्त्व है। लेकिन उसे पहचाने तो अंतरमें जाये। उसकी लगनी लगाये, उसकी जिज्ञासा करे तो होता है। जिज्ञासा हुए बिना, अंतर लगनी लगे बिना,
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उसका स्वरूप पहचाने बिना आगे नहीं जा सकता। उसका स्वरूप पहचाननेका प्रयत्न करना चाहिये। उसका स्वरूप पहचाननेेके लिये विचार करे, वांचन करे, शास्त्र स्वाध्याय करे, गुरुदेवने क्या कहा है, उसका विचार करे तो आगे बढ सकता है।
मुुमुक्षुः- ऐसी शक्ति स्वयंमें है कि जिसके आधारसे वह आगे बढ सके। समाधानः- है, स्वयं अनन्त शक्तिसे भरा आत्मा है। कोई दे तो हो जाये, ऐसा नहीं है। स्वयं ही है, स्वतंत्र है। वह पराधीन नहीं है कि कोई कर दे तो हो जाये। स्वयंमें अनन्त शक्ति है। जैसे भगवान हैं, वैसा स्वयं है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, जैसे तीर्थंकरदेव हैं, उनका जैसा आत्मा है, वैसा ही स्वयंका आत्मा है। उसमें और इसके स्वभावमें कुछ भी अंतर नहीं है।
भगवानने जो प्राप्त किया वह स्वयं कर सके ऐसा है। अंतरमें पुरुषार्थ करे तो (होता है)। उतनी अनन्त शक्तिसे भरा चैतन्यदेव विराजता है। उसमें अनन्त शक्ति भरी है। लेकिन पुरुषार्थ करे तो होता है, पुरुषार्थ किये बिना (नहीं होता)। बारंबार उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। क्षण-क्षणमें उसका विचार करना चाहिये, उसकी लगनी लगाये। छाछमेंसे मक्खन बनाना हो तो बारंबार उसे बिलोये तो ऊपर आता है। बिना प्रयत्न नहीं आता।
इसप्रकार भिन्न होनेके लिये, विभावसे भिन्न होनेके लिये... अंतरमें भिन्न ही है, लेकिन एकत्वबुद्धि (हो गयी है)। बारंबार उसका विचार करे, मंथन करे, बारंबार करे, लगनी लगाये तो भिन्न हो सकता है। अनन्त शक्तिसे भरा है।
मुमुक्षुः- शक्ति तो प्रगट हो तब आती है न?
समाधानः- अन्दर अनन्त शक्ति भरी है। प्रगट हो तब आये, ऐसा नहीं। उसमें शक्ति भरी ही है। स्वयं प्रयास करे तो होता है। पानी स्वभावसे निर्मल ही है। कीचडके कारण मैला दिखता है, परन्तु उसका स्वभाव निर्मल है। उसमें निर्मली औषधि डाले तो निर्मल होता है। वैसे स्वयं स्वभावसे निर्मल है। अनन्त शक्तिसे भरा है। पुरुषार्थ करके, अन्दर यथार्थ ज्ञान करके, ज्ञानकी औषदि डाले, प्रज्ञाछैनी प्रगट करे तो आत्मा अन्दरसे प्रगट हो ऐसा है।
मुमुक्षुः- आपने दो बात कही, शक्ति भरी भी है और पुरुषार्थ भी करना पडे। समाधानः- भरी है, परन्तु उसे कार्यान्वित नहीं की है। कार्यमें रखे तो होता है। शक्ति तो भरी ही है। स्वयं करता नहीं है।