Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 131.

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ट्रेक-१३१ (audio) (View topics)

समाधानः- आलसके कारण ही, निज नयननी आळसे रे, निरख्या न नयणे हरि। गुरुदेव प्रवचनमें बोलते थे। अपने नेत्रकी आलसके कारण, अपने पास रहे हरिको स्वयंने देखा नहीं। स्वयंने देखनेकी आलस की है। स्वयं दिखाई दे ऐसा होनेपर भी पर अभ्यास, विभावके अभ्यासके कारण अपने देखनेके नेत्रसे स्वयं अपने चैतन्यहरिको देखा नहीं, उसके दर्शन नहीं किये। स्वयं अपने नेत्रकी आलससे अनादि काल गँवाया है। कहीं- कहीं गया तो कहीं न कहीं अटक गया, कोई क्रियामें, शुभभावमें। और अभी इस पंचमकालमें ऐसे गुरुदेव मिले, जिन्होंने कहा कि शुभभावमें धर्म नहीं है। अन्दर शुद्धतासे भरे आत्मा शुद्धात्माको पहचान है। तो भी जीव अपने प्रमादके कारण अटक रहा है।

मुमुक्षुः- अनुभवदृष्टि द्वारा, ऐसा शब्दप्रयोग करते थे। अर्थात स्वयंको जो अनुभवमें आ रहा है, उसी अनुभव द्वारा देखना ऐसा? उसमें क्या कहना था?

समाधानः- अनुभवको, स्वयं अपने स्वभावका अनुभव करके उस दृष्टि द्वारा देख। स्वयं अपने स्वभावदृष्टि द्वारा देखे, अनुभवदृष्टि। उसका वेदन करके, यदि अन्दर गहराईमें जाकर उसका आंशिक वेदन करके भी देखे। अनुभवदृष्टि करके उसकी शान्तिका वेदन कर।

मुमुक्षुः- कहीं तो रुकावट तो है, किस प्रकारकी रुकावट है वह सीधा लक्ष्यमें नहीं आता है। कुछ मार्गदर्शन मिलता रहे, ऐसी भावना होती है, परन्तु आपका स्वास्थ्य अनुकूल (नहीं रहती है)।

समाधानः- स्वास्थ्य ऐसा रहता है। कोई-कोई बार कोई प्रश्न पूछता है तो जवाब देती हूँ। ... कुछ बाकी नहीं रखा, एकदम स्पष्ट कर दिया है।

मुमुक्षुः- टेप सुनते हैं तो भी कई बार ऐसा लगता है कि गुरुदेवको सुनते थे, उस वक्त इस भाव पर ध्यान नहीं दिया, इस भाव पर ध्यान नहीं दिया। जैसे- जैसे टेप सुनते हैं तो बहुत बार ऐसा ख्यालमें आता है।

मुमुक्षुः- यह सब जानता है वह कौन है? ... यह सब जानता है इसलिये मैं ज्ञानी हूँ। दूसरेने कहा, यह सब नहीं, लेकिन वही मैं हूँ...


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समाधानः- अग्नि उष्ण है इसलिये...

मुमुक्षुः- गर्म करती है इसलिये उष्ण है, ऐसा नहीं। स्वयं उष्ण है।

समाधानः- बहुत पहलू नयविभागके (हैं)। समझे सबकी योग्यता अनुसार। ... जानता है, ऐसा नहीं कह सकते। दोनों बात रहस्ययुक्त है, ...

आत्माको कोई जन्म-मरण नहीं है, वही करनेका है। कितने जन्म-मरण किये, अनन्त कालमें अनन्त किये। आत्मा ज्ञायक जाननेवाला है। यह शरीर भिन्न है। विकल्प होता है वह भी अपना स्वभाव नहीं है। आत्मा ज्ञान और आनन्दसे भरपूर है।

मुमुक्षुः- विकल्प आत्माका स्वभाव नहीं है, विकल्प आत्माका स्वभाव नहीं है। ज्ञायककी महिमा रखनी, ज्ञायककी महिमा रखनी और बाहरमें देव-शास्त्र-गुरुी महिमा रखनी, बाहरमें। अन्दरमें ज्ञायक। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र।

मुमुक्षुः- कभी ऐसा लगता है, ऐसा नहीं किया होगा? यहाँ तक नहीं पहुँचे होंगे?

समाधानः- जीवने किया, लेकिन अपूर्वता नहीं लगी है। अपूर्व लगे कि यह कुछ अलग है। अंतरमें यथार्थ देशनालब्धि जिसे हुयी हो वह जाती नहीं। ऐसी अपूर्वता प्रगट हुयी हो वह जाती नहीं। अनन्त कालमें किया लेकिन अपूर्वता नहीं लगी कि यह कुछ अपूर्व है। स्वयंको अपने आत्माको अंतरमेंसे विश्वास आये कि कितनी गहराई है, कितनी अपूर्वता लगे, वह स्वयंको विश्वास आये अंतरमे।

मुमुक्षुः- कभी थोडा काल जाय तो भूल जाते हैं। फिर तो...

समाधानः- भूल जाते हैं, लेकिन करनेका यही है। जीवनमें कुछ अलग ही करनेका है। अंतरका मार्ग अंतरमें है। और चैतन्यकी अंतरमेंसे महिमा आये कि चैतन्यतत्त्व भिन्न है और यह सब बाहरका कुछ अपूर्व नहीं है। ऐसे अंतरमें रुचिके बीज गहरे जाय तो वह नहीं जाते।

मुमुक्षुः- .. त्याग वैराग्यकी...

समाधानः- आत्मा कैसे प्राप्त हो? तत्त्व विचार, स्वाध्याय होता है। त्याग, वैराग्य तो उसमें जितना स्वयं आत्माकी ओर मुडे उतनी अंतरसे विरक्ति, अंतरसे उसे रस ऊतर जाय, ऐसा सब उसे अंतरमें अमुक प्रकारसे होता है। लेकिन प्रथम उपाय तो सच्ची समझ करनी। सच्ची समझके लिये तत्त्व विचार, स्वाध्याय, श्रवण, मनन आदि होता है। त्याग वैराग्य तो जितना उसे अंतरमेंसे विभावका रस छूटे, अंतरमें थोडा विरक्त तो होना ही चाहिये। वह तो बीचमें होता ही है। उसके साथ मार्ग तो सच्ची समझ करनी वह है। उसमें स्वाध्याय, विचार, मनन आदि सब होता है। मुख्य उपाय वह है, सच्ची समझ करनी।


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... विरक्ति तो होनी ही चाहिये। इतना त्याग करना चाहिये, ऐसा उसका कोई नियम नहीं होता। परन्तु अंतरमेंसे उसे विभाव ओरका रस ऊतर जाये। आत्माका रस लगे, इतना तो उसे होना चाहिये।

मुमुक्षुः- तत्त्वज्ञानकी लहरें, आँखमेंसे आँसू गिरते हैं, कहाँ वह बात, .. वाणीका योग नहीं, वेदना हो...

समाधानः- यह तो साधना भूमि है।

मुमुक्षुः- .. वह बात बोलते थे तो दिमागमें असर कर जाती थी।

समाधानः- साक्षात विराजते हो वह तो बात ही अलग है।

मुमुक्षुः- .. ज्ञानकी स्पष्टता आपसे हुयी तो हमें बहुत आनन्द हुआ कि बातकी स्पष्टता करनेवाले कोई है। नहीं तो कहाँ स्पष्टता करने जाना? ज्ञानका जो मुख्य लक्षण है, ज्ञानका लक्षण छूट जाय तो तकलीफ हो जाय, तो आत्मा जवाब नहीं देता। ज्ञानमें स्थिर होना मतलब क्या?

समाधानः- ज्ञान यानी चैतन्यस्वभाव, ज्ञानस्वभाव है। पूरा ज्ञायक। वह ज्ञायक स्वयं स्वयंंमें स्थिर हो जाय। ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना। ज्ञानका अर्थात ज्ञायकका अपने स्वभावमें स्थिर होना, ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना। ज्ञाता अपने ज्ञायक स्वभावमें स्थिर हो जाय। ज्ञान शब्दका मतलब वहाँ ज्ञायक ले लेना। ज्ञायक स्वयं स्वयंमें स्थिर हो जाय। ज्ञायककी परिणति ज्ञानरूप होकर स्वयंमें स्थिर हो। भेदज्ञान करके ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना। अर्थात ज्ञायक स्वयं अपनेमें स्थिर हो। ज्ञातारूप होकर स्वयंमें स्थिर होना, यानी ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना।

मुमुक्षुः- कर्म खडे हों, वह थोडा भी परेशान नहीं करते?

समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। वह परेशान नहीं करते हैं। स्वयं भेदज्ञान करे उसमें कहीं रोकते नहीं, अपने पुरुषार्थकी मन्दताके कारण स्वयं रुकता है। अपने पुरुषार्थकी मन्दताके कारण परेशान करते हैं, ऐसा कहनेमें आता है, बाकी वह परेशान नहीं करते हैं। स्वयं ही उसमें अटक गया है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो भेदज्ञान हो। प्रगट करना अपने हाथकी बात है। स्वानुभूति प्रगट करनी आदि अपने हाथकी बात है। कोई रोकता नहीं है। रुका है अपने प्रमादके कारण। पुरुषार्थ करे (वह) स्वयं स्वयंसे करता है।

मुमुक्षुः- सहज है, सरल है, सुगम है, ऐसा लगता तो नहीं है। सर्वज्ञ उसकी प्राप्ति है।

समाधानः- आत्माका स्वभाव है, इसलिये सहज है। वह कहीं बाहर नहीं खोजने जाना पडता, किसीके पास माँगने नहीं जाना पडता या पर वस्तुमेंसे आता नहीं। स्वयंका


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स्वभाव है इसलिये सहज है, सुगम है, सरल है। परन्तु अनादिके अभ्यासके कारण, विभावके अभ्यासके कारण दुर्लभ है। अपना स्वभाव है इसलिये सहज है। स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है, इसलिये सहज है। प्रगट करे तो अंतर्मुहूर्तमें होता है, न करे तो अनन्त काल जाता है। वह उसका अनादिका विभावका अभ्यास है इसलिये, बाकी स्वभाव अपना है। स्वयंमेंसे प्रगट होता है, बाहरसे नहीं आता है या बाहर कहीं खोजने नहीं जाना पडता, अपनेमें भरा है वह प्रगट करनेका है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- जब तक उसकी अधूरी पर्याय है, उसमें अमुक प्रकारका कर्तृत्व आये बिना नहीं रहता। परन्तु उसकी कर्ताबुद्धि तोडनेकी बात है। मैं परपदार्थको कर सकता हूँ और विभावपर्यायका मैं कर्ता हूँ, ऐसे स्वामीत्व बुद्धि छोडनी। परपदार्थका तो कर ही नहीं सकता, विभावपर्यायमें अपने पुरुषार्थकी मन्दताके कारण .. उस अपेक्षासे स्वयं अज्ञान अवस्थामें कर्ता होता है। ज्ञान अवस्थामें वह परिणति अपनी अस्थिरताके कारण अपनी स्वयंमें होती है, परन्तु उसकी कर्ताबुद्धि छूट जाती है। ऐसे पुरुषार्थ जो होता है, वह स्वयं करता है, परन्तु मैं कर सकता हूँ, ऐसी कर्ताबुद्धि छूट जाती है। बुद्धि। विकल्प करके कि मैं यह करुँ, मैं यह करुँ, यह बुद्धि तोडनी है। बाकी ऐसा कर्तृत्व तो अमुक जातकी अधूरी भूमिकामें बीचमें आता है। पलटता है, परिणामको पलटता है।

.. विभावका कर्तृत्व और परपदार्थका कर्तृत्व और पुरुषार्थ करता है, उस प्रकारका कर्तृत्व, उन सबमें फर्क है। परको तो कर नहीं सकता। विभावपर्यायको, .. कोई अपेक्षासे स्वयं उसमें जुडता है। अज्ञान अवस्थासे कर्ता (होता है)। ज्ञान अवस्थामें उसके पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। और पुरुषार्थ करता है, वह भी स्वयं स्वभावकी ओर (जाता है), उन सबमें फर्क है। परन्तु उसमें कर्ताबुद्धि छूट जाती है।

समाधानः- .. दूसरेको उष्ण करती है, इसलिये उष्ण है, ऐसा नहीं, स्वयं उष्ण है। दूसरेको ठण्डा करता है इसलिये नहीं, बर्फ स्वयं ठण्डा है। वैसे स्वयं ज्ञायक है। अब उसका अर्थ क्या करना, किसके साथ मिलान करना, वह सबके दिमाग पर आधारित है। परको जाने, न जाने वह बात ही नहीं थी। स्वयं ज्ञायक है। स्वयंक ज्ञायकको पहचान। परको जानता हूँ इसलिये जानता हूँ, ऐसे नहीं, लेकिन मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। अब, उसका अर्थ क्या करना, वह सबके दिमाग पर आधार रखता है। अगम अगोचर नय कथा। नय कथामें ऐसा ही है, ऐसा ही है, ऐसा बोल नहीं सकते। आपकी योग्यता अनुसार जैसे समझना हो वैसे। स्वयं कोई अपेक्षासे स्वयं अपनेको जानता है और परको जानता है वह भी साथमें है, स्वपरप्रकाशक है। दोनों अपेक्षाएँ हैं, जिसको


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जो ग्रहण करना हो वह करे, सबकी योग्यता पर आधारित है।

... उस ओरकी अपेक्षा लेनी हो तो वैसे ले, ऐसी अपेक्षा लेनी हो तो ऐसे ले। जीव अनादि कालसे ऐसे ही समझता नहीं है। निश्चय-व्यवहारकी सन्धि आती नहीं। .. अथवा तो सन्धि आती नहीं। उसका अर्थ कैसे करना वह आना चाहिये। परके साथ एकत्व नहीं होता है, लेकिन परको नहीं जानता है इसलिये परका ज्ञान ही नहीं होता है, ऐसा नहीं है। ज्ञेयको जानता नहीं है तो उसका ज्ञान .. हो गया। ऐसा हो गया। ज्ञानकी अनन्तता कहाँ रही? उसमें प्रवेश करके नहीं जानता है। अपेक्षा समझनी। जैसे चलता है चलने दो, सबकी योग्यता।

... पडते नहीं थे। बहुत लोग चर्चा-प्रश्न करो, चर्चा-प्रश्न करो। गुरुदेव कहते थे, वह मेरा काम नहीं है। किसीके साथ चर्चा-प्रश्न करते ही नहीं थे। जयपुरमें की, सब पण्डितोंने की। बहुत पहलू हैं। गुरुदेव चर्चा-प्रश्नमें नहीं पडते थे। वह कहे, व्यवहारसे ऐसा तो है। एकदूसरेका खीँचते थे, उसमें कहाँसे सन्धि हो? दोनों बात अपेक्षासे होती है, उसमें वह एक बातको खीँचे, दूसरा दूसरी बातको खीँचे। मेल कहाँसे हो?

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!