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समाधानः- ... उपादान तैयार होवे तो निमित्त आ जाता है। उपादान मुख्य रहता है और निमित्त उसके साथमें रहता है। ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- निमित्त तो साथमें रहता ही है।
समाधानः- उपादान तैयार होवे तो उसको निमित्त मिल जाता है। पुण्यका उदय है। भावना हुयी, शुभभाव हुआ अपना और वह पुण्यका उदय है। जो भाव होता है तो निमित्त मिल भी जाता है, कभी देर भी होती है। भावना शुभभाव होता है उसका लाभ होता है।
मुमुक्षुः- उपादान ..
समाधानः- उपादान भाव... मैं स्वरूपकी प्राप्ति करुँ, पुरुषार्थ करुँ, यह सब उपादान है। पुरुषार्थ करनेका भाव होता है, वह उपादान है। वह उपादान है। भावना हुयी वह तो शुभभाव है, वह भी उपादान है। शुभभाव होवे तो पुण्य बन्ध जाता है। फिर पुण्यका उदय कब होवे, तुरन्त होवे या बादमें होवे, निमित्त कब आये, उसका कोई नियम नहीं रहता है। शुभभावना होती है तो शुभभावका फल होता है। पुरुषार्थ करे तो उसका फल जरूर होता है। भीतरमें पुरुषार्थ करे तो उसका फल आता है। भावना होवे तो मिल जाता है, परन्तु कब मिले उसका नियम नहीं है।
.. करते-करते स्वानुभूति प्रगट होती है, यह मार्ग गुरुदेवने बताया है। स्वानुभूति प्रगट करो, आत्माका अनुभव करो, भेदज्ञान करो, अपना पुरुषार्थ करो। उसमें देव- गुरुका निमित्त होता है। मुख्य उपादान.. बाकी तो शुभभावके अनुसार पुण्य बन्ध जाता है।
मुमुक्षुः- उस विकल्पोंको हम अपने परिणामोंमें कैसे स्थिर करें?
समाधानः- विकल्प तो अपना स्वभाव नहीं है। स्वभाव तो मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ, इसमें ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त गुण.. उसमें परिणतिको दृढ करो, उसका भेदज्ञान करो, विकल्प ओरसे परिणतिको हटाकर अपने स्वरूपकी ओर परिणतिको मोडना, यह करना है। क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करना। विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्य स्वभाव हूँ, मैं विकल्प नहीं हूँ। विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा बारंबार उसका अभ्यास करना। ऐसा चिंतवन,
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मनन, शास्त्र अभ्यास, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और चैतन्यका चिंतवन करना। ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। जो विकल्प आता है, उसको मैं जाननेवाला चैतन्य हूँ। मैं ज्ञायक हूँ। ऐसा बारंबार (प्रयास करना)। उसकी रुचि, महिमा करना
जन्म-मरण टालनेका वह उपाय है। संसारमें जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। आना-जाना ऐसा बहुत किया, शाश्वत एक आत्मा है। शरीरका स्वभाव शरीरमें है। ऐसे बहुत जन्म-मरण किये। बहुत माताको छोडकर आया, अपने छोडकर गया। ऐसा बहुत हुआ। अपने चैतन्यतत्त्वको पहचाना नहीं। अंतर दृष्टि करके चैतन्यकी स्वानुभूति करना वह मुक्तिका मार्ग है। इसका अभ्यास करना, बारंबार भेदज्ञान करना।
मुमुक्षुः- माताजी! एक प्रश्न है। ... लेकिन पुदगलका परिणमन अन्दरमें बैठता नहीं है। कभी तो बैठ जायेगा, कभी-कभी। कभी समझमें ही नहीं आता है।
समाधानः- समझनेका अभ्यास करना। यह जड पुदगल है, मैं जाननेवाला हूँ। यह स्वतंत्र है। शरीरका स्वभाव स्वतंत्र है। विकल्प अपना स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्य ज्ञायक स्वभाव हूँ। शान्ति, आनन्द आत्मामें है। ऐसे बारंबार उसका विचार करना। बैठता न हो तो बिठानेका अभ्यास करना। बारंबार विचार करना। स्वभाव दृष्टिको पहचानकर उसका अभ्यास करना।
जैसा स्फटिक निर्मल है, वैसा मैं निर्मल हूँ। पानीका स्वभाव निर्मल है, वैसा निर्मल हूँ। मलिनता पानीमें बाहरसे आती है, कीचडके कारण। पानीका स्वभाव निर्मल है, वैसे मैं निर्मल हूँ। संकल्प-विकल्प विभाव है, अपना स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करना।
मुमुक्षुः- दिनभरकी क्रियाएँ, जैसे खाने बैठे, घरका कोई काम करते हैं तो उपयोग तो ऊधर लग जाता है, तो फिर उस वक्त ज्ञायक हूँ, कैसे लक्ष्य रहे? यह मेरा बहुत दिनसे प्रश्न है।
समाधानः- उपयोग लग जाता है (उसमें) अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। उपयोग लग जाय तो भी श्रद्धा तो, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी रुचि रखना।
मुमुक्षुः- अन्दरसे क्या रटते रहे मन ही मनमें? हम उसको रटे? रटते जाएँ कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे हम घोंटे क्या उसको?
समाधानः- उसका अभ्यास करना। घोंटना तो रटन जैसा हो जाता है। लेकिन उसको पहले पहचानना, सच्ची समझन करना कि मैं चैतन्य हूँ। उसका स्वभाव जब तक यथार्थ जाननेमें नहीं आवे तबतक उसे घोंटना, पढना, उसका अभ्या करना, रटन करना। जब तक यथार्थ नहीं होवे तबतक रटना, पढना ऐसा करना।
परन्तु जिसको यथार्थ होता है उसको तो सहज हो जाता है, उसको रटना नहीं
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पडता। जिसको सहज स्वभाव पहचानमें आ गया, उसको सहज हो जाता है कि मैं ज्ञायक हूँ। कामकाज करते हुए भी उसे सहज भेदज्ञानकी दशा चलती है। जिसको सहज होता है उसको तो। परन्तु सहज नहीं होता है, वह अनादिका विभावका अभ्यास है। इसलिये अभ्यास करनेके लिये रटना, पढना आदि सब बीचमें होता है।
मुमुक्षुः- जैसे कि आपने अभी बोले कि विकल्पसे अपनेको अलग करना। जैसे मैं आपसे बात कर रही हूँ। बात करते-करते मैं अन्दर ऐसा विचार करुँगी कि मुझको राग आ रहा है यह मैं नहीं हूँ। ऐसा बार-बार विचार करुँगी क्या?
समाधानः- बार-बार (विचार) नहीं, ऐसी श्रद्धा करना कि मैं इससे भिन्न हूँ। एकत्वबुद्धि चल रही है, एकत्वबुद्धिको तोडना, फिर उसे रटना नहीं पडता। एकत्वबुद्धि तोडनेका अभ्यास करना। एकत्वबुद्धि हो रही है, मैं शरीर हूँ, मैं विकल्प हूँ। एकत्वबुद्धि निरंतर चलती है तो उसको तोडनेका अभ्यास करना।
मुमुक्षुः- तोडनेके लिये अभ्यास करना, उसके लिये मुख्य मार्ग क्या है?
समाधानः- मुख्य मार्ग, उसकी रुचि, महिमा करना। उसकी महिमा लगे, बाहर सुख नहीं लगे, बाहर चैन नहीं पडे, मैं चैतन्यको कैसे पहचानूं? उसकी महिमा (लगे)। बाहर कहीं चैन न पडे, अन्दर ही चैन पडे। ऐसे बारंबार स्वभावको पीछानना। जैसे बाहर वस्तु देखनेमें आती है, वैसे मैं चैतन्यको कैसे पीछानूँ? ऐसे बारंबार पीछाननेका अभ्यास करना। नहीं होवे तबतक अभ्यास करना। एकत्वबुद्धि तो अनादिसे चल रही है। बातचीत करते-करते, खाते-पीते एकत्वबुद्धि चलती रहती है, परन्तु उसको भिन्न करनेका अभ्यास करना। उसकी महिमा लगे तो अभ्यास होवे। श्रद्धा तो रखना। रटन कहाँसे करेगा? रुचि तो बाहरकी है। लेकिन जितना हो सके उतना अभ्यास करना।
मुमुक्षुः- ध्यानमें हम बैठे तो ध्यानमें किस तरहका चिंतवन ले कि ज्ञायककी ओर हमारी प्रवृत्ति जाये? कैसा चिंतन करे? हमको तरीका बताईये।
समाधानः- तरीका, पहले तो यथार्थ ज्ञान करना। पहले, ज्ञायक कैसा है? द्रव्य कैसा है? गुण कैसा है? पर्याय कैसी है? यह पुदगल द्रव्य है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श है। यह अलग है, मैं चैतन्य अलग हूँ। ऐसे पहले यथार्थ ज्ञान करना। बादमें यथार्थ ध्यान होता है। मैं यह चैतन्य हूँ, उसका अस्तित्व ग्रहण करके ध्यान यथार्थ होता है। ज्ञान यथार्थ हुए बिना ध्यान यथार्थ हो सकता नहीं। पहले तो यथार्थ ज्ञान करना। जो गुरुदेवने मार्ग बताया उसका पहले यथार्थ ज्ञान करना। क्या मार्ग है? कैसे मिलता है? कैसा स्वभाव है? कैसे मैं निर्मल हूँ? यह विभाव है, यह स्वभाव है, कैसा मुक्तिका मार्ग है? कैसे मोक्षस्वरूप आत्मा है? उसको यथार्थ पहचानकरके बादमें ध्यान करना। तो ध्यान यथार्थ जमता है। और ज्ञानके बिना ध्यान जमता नहीं है।
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मुमुक्षुः- जैसे कि हम शास्त्र पढे, जानकारीमें आया तो ध्यानमें उसका क्या विचार करे?
समाधानः- विचार करना। पहले ध्यान कैसे होवे? मुमुक्षुः- जैसे शास्त्र पढे, पूरे समय पठन भी करेंगे तो फिर गहराई नहीं आयेगी।
पठन किया जिस चीज पर, उसका ध्यान नहीं किया, उसकी चिंतवन नहीं हुआ।
समाधानः- शास्त्रका अभ्यास (किया), उसमें आचार्यदेव क्या बताते हैं उसका विचार करना। क्या मार्ग शास्त्रमें आया? वस्तुका स्वरूप कैसा है? ऐसा विचार करना, चिंतवन करना कि यह वस्तु है, आत्मा है, यह स्वभाव है, यह विभाव है, यह ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, मैं आत्मा हूँ। यह गुणका भेद है। मैं अनन्त चैतन्यस्वरूप हूँ। पहले ऐसी यथार्थ समझन करनी, बादमें ध्यान होता है। सच्ची समझनके बिना ध्यान नहीं हो सकता। समझे बिना ध्यान करता है तो ऐसी उलझन होती है, यथार्थ जमता नहीं। पहले यथार्थ ज्ञान करके, यथार्थ श्रद्धा करके, बादमें ध्यान करना। प्रयोजनभूत तत्त्वको यथार्थ पहचान लेना।
मुमुक्षुः- बार-बार आता है कि पुदगलका परिणमन स्वयं अपने-अपनेमें हो रहा है। हमको तो मोटा-मोटा दिखता है। दिनभर ऐसी हमको अस्ति क्यों नहीं आ रही है? ऐसे कैसे आयेगी अस्ति? इसकी बात मालूम हो जाय तो हमारी करु-करुकी बुद्धि खत्म हो जाय। यहीं हमारा गडबड खा रहा है कि पुदगलका परिणमन प्रतिपल स्वयं हो रहा है, ज्ञानमें नहीं आ रहा है। पढ तो लेती हूँ, बोल तो देती हूँ, ज्ञानमें यह बात आ नहीं रही है।
समाधानः- यह सब पुदगलका परिणमन है। ज्ञानमें कैसे आवे? अनादि कालसे भ्रम हो रहा है, ज्ञानमें कैसे आवे? विकल्प और संकल्प, ज्ञान सब एकत्वबुद्धि हो रही है। उसको यथार्थ समझन करके बिठाना कि यह सब पुदगलका परिणमन है। मैं चैतन्य हूँ। शरीरका परिणमन है, वह पुदगलका है। बाहरका तो है, लेकिन इस शरीर भी पुदगलका (परिणमन है)। इसमें रोग आता है वह भी पुदगलका परिणमन है। वह कोई आत्माका परिणमन नहीं है। ऐसी यथार्थ श्रद्धा करके बिठाना।
अनादिका अभ्यास है, कैसे बैठे? एकत्वबुद्धि अनादिसे ऐसी जोरदार हो रही है। यथार्थ श्रद्धा करे, बारंबार अभ्यास करे, बारंबार उसका अभ्यास करे तब बैठता है। चुतर्थ कालमें तो अंतर्मुहूर्तमें बैठ जाता है। पंचमकालमें ऐसा नहीं होता है। एक बार विचार करके बैठ गया, ऐसा हो जाता है, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा तो कोई- कोईको होता है।
मुमुक्षुः- कई बार वह बात समझमें आ जाती है। कई बार ऐसा कैसा-कैसा
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हो जाता है, समझमें ही नहीं आती बात। जैसे अपने अभ्यास करते हैं तो पढते- पढते ऐसा होता है, कई बार तो बडा अच्छा लगता है। कई बार समझमें ही नहीं पडती है बात।
समाधानः- वह तो अपना दोष है। क्या करे? अनादि कालसे ऐसे विकल्पमें विभ्रम हो रहा है, क्षयोपशमज्ञान ऐसा है नहीं, रुचि ऐसी है नहीं, पुरुषार्थ ऐसा है नहीं, कहाँसे होवे? कभी पुरुषार्थ चले, कभी नहीं चले। अपनी मन्दता है, अपनी मन्दता है।
मुमुक्षुः- आप ध्यानमें कैसा विचार करती हैं?
समाधानः- यह कोई कहनेकी बात थोडी है।
मुमुक्षुः- नहीं मतलब ऐसा, जैसा शास्त्रमेें (आता है), ४८ मिनिटमें केवलज्ञान हो जाता है। तो कितना.. जैसे ध्यान होता है तो अंतर्मुहूर्त होनेके बाद आप... हमको उत्सुकता हुयी किस प्रकारके विकल्प आते हैं? हम नहीं कर पाते हैं तो जाननेकी इच्छा होती है न। कैसे विचार आते हैं आपको?
समाधानः- विकल्प तो विकल्प है। विकल्प विकल्पमें है, आत्मा आत्मामें है।
मुमुक्षुः- ऐसा ही आपके मनमें हमेशा चलता रहता है?
समाधानः- जिसको यथार्थ ज्ञान होता है, उसको भेदज्ञानकी धारा चलती रहती है। विकल्प तो विकल्पमें है, आत्मा आत्मामें है।
मुमुक्षुः- यह बात ऐसी अन्दरमें पक्की जम जानी चाहिये?
समाधानः- ऐसी सहज धारा होनी चाहिये। सहज। विकल्प होते नहीं, वह तो केवलज्ञानीको नहीं होते। परन्तु भेदज्ञानकी धारा तो सम्यग्दृष्टिको होती है।
मुमुक्षुः- अन्दरमें भावमें आने लगता है न? ज्ञान अलग है, राग अलग है, ज्ञान अलग है।
समाधानः- वह तो सहज होता है।
मुमुक्षुः- हम लोगोंको महेनत लगती है।
समाधानः- एकत्वबुद्धिको याद नहीं करनी पडती है ना? यह शरीर और मैं आत्मा एक हैं, ऐसी एकत्वबुद्धि तो सहज चलती है। अनादिसे सहज चलती है न? यह शरीर और आत्मा सब एक है, विकल्प सब एक है, एसी एकत्वबुद्धि चलती है। उसी तरह भेदज्ञान भिन्नता ऐसे चलती है।
मुमुक्षुः- आपको सोचना नहीं पडता। हम लोगोंको बहुत सोच-सोचके लाना पडता है। आपकी पुस्तक पढते हैं, हम तो यहाँ आये नहीं, सुने नहीं। उसमें कहा है, मैं ज्ञायक, मैं ज्ञायक। उसमें भी हमको तो महेनत पडती है, हम तो भूल जाते
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हैं। फिर थोडी देर बाद याद आता है कि अरे..! हम तो भूल गये अपनेको। ऐसा हमको बहुत जोर लगता है। भूल जाते हैं। .. याद करते हैं तो उसमें भी हमको महेनत पडती है। ऐसे ही अभ्यास करें?
समाधानः- श्रीमद राजचन्द्रमें ऐसा आता है कि, प्रथम भूमिका विकट होती है। समझ पीछे सब सरल है, बिन समझे मुश्किल। प्रथम भूमिकामें ऐसी विकटता होती है, भूल जाते हैं। जिसको ज्ञान होता है, उसको सहज होता है। समझ पीछे सब सरल है।
मुमुक्षुः- तो हम लोग मतलब ऐसे रटे? आपने जितनी बात बतायी वह तो .. किसीकी बात ही नहीं है। अभी तो हमारी बात है। अभी हम तो इसीलिये आये हैं। क्योंकि हमारे जीवनमें यह घट रहा है। हमको बडी आतुरता थी, भूल जाते हैं, फिर बैठ-बैठकर याद करते हैं। और फिर काम-धन्धा करने जाते हैं, फिर भूल जाते हैं।
समाधानः- एकत्वबुद्धि अनादिसे है। ऐसी महिमा नहीं है, ऐसी रुचि नहीं है।
मुमुक्षुः- रुचि तो आती है, रुचि तो आती है।
समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता है।
मुमुक्षुः- नहीं, अब करेंगे पुरुषार्थ। रुचि आती है, रुचि तो होती है मेरेको।
समाधानः- अभ्यास करना। भूल जाये तो बारंबार याद करना। ऐसे रूखा नहीं होना चाहिये। बारंबार उसकी महिमापूर्वक कि ज्ञायकमें सबकुछ भरा है, वह खाली नहीं है। महिमावंत पदार्थ है। चैतन्य भगवान महिमासे भरपूर है। उसको रूखा करके मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे नहीं करना। महिमापूर्वक करना, भूल जाय तो भी।
मुमुक्षुः- कभी तो रूखा भी आयेगा, कभी तो ऐसा भी आयेगा, जैसी गहराई आयेगी। कभी-कभी यह भी आ जाता है, कभी लूखा-लूखा भी आता है।
समाधानः- महिमापूर्वक होना चाहिये।
मुमुक्षुः- जैसे कि हम अकेले खा रहे हैं, छत पर। तो जाननेके तत्त्वको हमको लक्ष्यमें लेना है। तो यह सबको जाननेवाला मैं हूँ, ऐसा बार-बार, बार-बार ऐसे अकेलेमें अपनी तरफलक्ष्य ले? यह प्रक्रिया कैसी रहेगी?
समाधानः- पहले यथार्थ ज्ञान करना, विचार करना, चिंतवन करना। बारंबार मैं जाननेवाला हूँ, यह मैं नहीं हूँ, मैं जाननेवाला हूँ। पहले उसका यथार्थ ज्ञान होना चाहिये। फिर यह सब प्रश्न ही नहीं उठेंगे कि कैसे करुँ। ऐसा विचार करना, बारंबार ज्ञान यथार्थ करना। समझना। बिना समझे करने बैठ जाय तो मूढता जैसा (हो जायेगा), कुछ मालूम ही नहीं पडता, ऐसा हो जाय।
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मुमुक्षुः- नहीं, नहीं। पहले समझेंगे ना। पहले समझेंगे फिर करेंगे। समझेंगे तब तो विचार आयेंगे।
समाधानः- समझे तो आये। बिना समझे तो कुछ समझमें नहीं आता, ऐसा हो जायेगा। उसकी रुचि, महिमा आवे। पहचान करे, ऐसा प्रयत्न करना। भेदज्ञान साथ- साथ करे, उसमें देर लगे तो भी उतावली नहीं करना।
मुमुक्षुः- एक तो मैं श्वेतांबर मतसे निकली, एक तो भाषा यहाँकी सब नयी है। द्रव्य-गुण-पर्याय, हमारा सुना हुआ नहीं है। मेरेको घरमें बोलते हैं, क्या सुनती है? कुछ समझमें नहीं आता था। लेकिन इतना अच्छा लगता है। छः महिने कुछ पल्ले नहीं पडा। मैंने कहा, क्यों नहीं आयेगा?
समाधानः- पहले ऐसा लगा, द्रव्य-गुण-पर्यायकी बात कोई अलग ही दुनियाकी बात है। जब समझता जाय, तब महिमा आती जाय।
मुमुक्षुः- ज्ञेय-ज्ञायक पुस्तक मेरेको बहुत अच्छी लगी, बहुत ही अच्छी लगी थी। पीछेके प्रकरण, वस्तुविज्ञानसार, मेरेको उससे बहुत महिमा आयी। पहले तो समझमें नहीं आया। अभी एक-दो महिनेसे चालू किया है। ज्यादा पढ नहीं सकती, देढ- दो पेज ही पढती हूँ, फिर विचारती हूँ।
समाधानः- ऐसे समझन यथार्थ होवे तब ख्यालमें आयेगा कि कैसे करुँ? कैसे भेदज्ञान? कैसे ध्यान? यह सब बादमें जब समझमें आता है तब ख्यालमें आता है। समझे बिना चलने लगे तो दूसरा मार्ग आ जाता है। भावनगर कैसे जाना? क्या मार्ग है? पहले मार्ग जान लेना चाहिये, फिर चलने लगे तो यथार्थ मार्ग पर चले।
मुमुक्षुः- नहीं, नहीं। जबही तो हम यहाँ आये हैं। जबही तो हम यहाँ आये हैं। हमने थोडे ही सुना है, हमने तो स्वामीजीका नाम भी सुना दो साल पहले। पुस्तक पढे, बात दिमागमें लगने लगी कि सही है। मन तो कहता है, सही है। अब तरीका भी तो मालूम होना चाहिये न? कि किस तरीकेसे अब हम आगे अभ्यास करे? बात तो पक्की बैठ गयी। बात तो ऐसी ही है। अब मार्गमें हम आगे कैसे चले?
समाधानः- पहले यथार्थ समझ करनी। रुचि, महिमा, यथार्थ समझन करनी। समझना, अभी और विशेष समझना।
मुमुक्षुः- ... शास्त्र पढे, हम तो ज्यादा नहीं पढते हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक..
समाधानः- अपनेआप समझना (पडता है)।
मुमुक्षुः- पहला हम कौनसा पढे, जिससे हमको सही मार्ग मिले।
समाधानः- मोक्षमार्ग प्रकाशक?
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मुमुक्षुः- वह तो पढे। समाधानः- गुरुदेवका.. मूल शास्त्र समझमें नहीं आयेगा, नहीं तो समयसार आदि.. समयसार शास्त्र है....