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मुमुक्षुः- माताजी! ... और बराबर बैठता नहीं था, क्योंकि दोनों विरोधाभासी दिखता था। दर्शनसे मिलान करनेका आता नहीं था। क्योंकि यह ज्ञानगुणकी पर्याय, ... उसके अविभाग प्रतिच्छेद, या गुण-पर्याय स्वतंत्रपने परिणमे, फिर भी द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय होती है... एक अपेक्षासे तो द्रव्य ही कर्ता, कर्म,..
समाधानः- हाँ, द्रव्य ही कर्ता-कर्ता (है)। द्रव्यके आश्रयसे (होती है)। ... कहीं खीँचा जाता हो, ऐसे वजन देनेमें आता है। अपेक्षा तो यहाँ गुरुदेव जो कहते थे, वह सबको बरसोंसे ख्यालमें है कि गुरुदेव निश्चय मुख्य रखकर व्यवहार कहते थे यह सबने ग्रहण किया है। परन्तु गुरुदेव व्यवहारको निकाल देनेको नहीं कहते थे। बरसोंसे सुना है इसलिये उस प्रकारका सबको ख्याल है। ... उसकी पक्कड नहीं करनी, वैसे पर्यायको निकाल नहीं देना तथापि पर्याय पर दृष्टि नहीं करनी। ऐसे गुरुदेवका आशय वह था।
... तो स्वयं उस बात पर भी उछल पडते और निश्चयकी बात आये तो उसमें भी। इसलिये गुरुदेवके (प्रवचनमें) दोनोंकी सन्धि है। उनका उस प्रकारका वर्तन, परिणमन ही ऐसा था। निषेध करे, उसे करना क्या बाकी रहा? दृष्टि उसकी नहीं होती, परन्तु भावना आये, सब बीचमें आये। उस पर वजन नहीं देना है।
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मुमुक्षुः- ...यह पर्याय इस द्रव्यकी और यह पर्याय इस गुणकी है। सब पर्याय स्वतंत्ररूपसे परिणमती है। अब आपके शब्द ग्रहण किये थे, वास्तवमें तो पर्याय स्वतंत्र है... यह पुरुषार्थ करनेमें ऐसी भावना हो कि मैं ऐसा करुँ, ऐसा करुँ। तो यदि दोनों एक न हो अथवा द्रव्यका आश्रय न हो तो... ऐसे शब्दोंमें रहा कि ये स्वरूपसे भिन्न है, वस्तु भी वह है। परन्तु भावमें कहाँ अलग पड जाता है, वह अंतरमें ख्यालमें नहीं आता।
समाधानः- द्रव्य कूटस्थ होने पर भी उसे पारिणामिक भी कहनेमें आता है। इसलिये अखण्डमें ऐसे आता है। फिर भी पर्याय परिणमे तो भी वह द्रव्यकी शक्तियाँ हैं, द्रव्यमेंसे परिणमती है। सब पर्याय प्रगट होती है वह द्रव्यमेंसे प्रगट होती है। द्रव्यसे बाहर नहीं है। द्रव्यकी शुद्धि, द्रव्यकी निर्मलता और द्रव्यदृष्टिमेंसे प्रगट होती है। फिर उसकी जो तारतम्यता प्रगट होती है वह सब स्वतंत्र प्रगट होता है। वह स्वयं....
...द्रव्यके स्वभावमेंसे ... परिणमती है। .. कुछ लोग ऐसा मानते हैं। जैसे द्रव्य स्वतंत्र है, वैसे पर्याय (स्वतंत्र नहीं है)। स्वतंत्रता उतनी कि पर्याय परिणमनेवाली है, एक क्षणका सत... द्रव्य जो अखण्ड सामर्थ्यसे भरा हुआ, परिपूर्ण सामर्थ्यसे भरा हुआ, पर्याय कहाँ वैसी है। जितना सामर्थ्य द्रव्यमें, उतना सामर्थ्य पर्यायमें कहाँ है। पर्याय तो द्रव्यमें है। मुझे वह याद नहीं आया। ... कोई खीँचता हो तो उसे प्रयोजनवशात कहना पडे कि इसका ऐसा है। कोई कुछ खीँचता है। नहीं है, पर्याय सर्वथा नहीं है, पर्याय है ही नहीं, ऐसा थोडा ही है। ऐसा नहीं है। व्यवहार नहीं है, पर्याय नहीं है... ... पर्याय स्वतंत्र है, जब परिणमना होगा तब परिणमेगी। स्वयंके कुछ होता नहीं। पर्यायके सब कारक स्वतंत्र हैं। एक गुण दूसरे गुणकी पर्यायको कर सकता नहीं। द्रव्य भिन्न, पर्याय भिन्न, सबके कारक स्वतंत्र। भावना करे, पुरुषार्थ करे तो कौन रहे? बलगुण है वह उसे कर सकता नहीं। तो फिर भावना किसके आधारसे? कौन किसका निमित्त हो और उपादान रहे? कुछ नहीं होगा। ... गुण भिन्न, पर्याय भिन्न, द्रव्य भिन्न, सब भिन्न। किसीको किसीका आश्रय ही नहीं है। आश्रय मात्र बोलने तक सिमीत रह जाता है। फिर अन्दर क्या समझता है, वह कुछ नहीं रहता। आश्रय है, आश्रय है कहने पर भी टूकडे-टूकडे मान लेता है। गुरुदेव स्वतंत्रता कहते थे, परंतु ऐसे टूकडे थोडे ही कहते थे।
... पर्याय है, स्वतंत्र तो वह स्वयं तक सिमीत है। द्रव्य तो एक वस्तु है। पर्याय तो क्षण-क्षणमें होती है। द्रव्यके आश्रयसे होती है। स्वयं स्वतंत्र है, उसकी तारतम्यता होती है वह स्वतंत्र, उस प्रकारसे स्वतंत्र है। परन्तु उसका पूरा सामर्थ्य द्रव्यमें भरा है। द्रव्यके आश्रयसे होनेवाली है। ऐसा कहनेमें आय, ... सब स्वतंत्र है। तो भी द्रव्य
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परिणमता है। अभेद लेने जाय तो द्रव्य परिणमता (है)।
.. अनन्त-अनन्त ... परिणमे तो भी खत्म नहीं होता ऐसे सामर्थ्यसे परिपूर्ण है, इसलिये पर्याय ऐसे ही परिणमती रहती है। पर्याय ऊपरसे होती है? द्रव्यके सामर्थ्यमें अनन्त-अनन्त शक्ति (भरी है)। चाहे जितनी पर्याय परिणमो, अनन्त काल जाय तो भी द्रव्य वैसाका वैसा है। उसमें कुछ कम नहीं होता। ऐसी शक्तिसे भरपूर सामर्थ्ययुक्त द्रव्य है, उसमेंसे पर्याय आती है। उसे द्रव्यका आश्रय है। वह क्षणिक है। परिणमनेवाली, उसमें-पर्यायमें परिणमनेकी शक्ति है। पर्याय स्वतंत्र परिणमे। उसका संप्रदान स्वतंत्र, उसका अपादान, उसका अधिकरण (स्वतंत्र)। उस अपेक्षासे पर्याय स्वतंत्र (कहा)। इसलिये उसे द्रव्यका आश्रय नहीं है, ऐसा नहीं मानना। उस अपेक्षासे है। कर्ता, कर्म, करण (आदि)। जैसे द्रव्यके षटकारक स्वतंत्र है, वैसे ही उसके (हैं), ऐसा नहीं मानना। दोनोंमें अंतर है। दूसरे द्रव्यका और इस द्रव्यका कर्ता, कर्म सब स्वतंत्र हैं, ऐसी स्वतंत्रता पर्यायमें है, ऐसा नहीं मानना। ऐसी ही स्वतंत्रता पर्यायमें नहीं है, पर्याय तो क्षणिक है। द्रव्य तो अनन्त सामर्थ्यसे भरा हुआ है। उसके षटकारक स्वतंत्र (आता है), वह अलग है।
... इसलिये उसकी स्वतंत्रता है। पर्यायमें उतना सामर्थ्य नहीं है, वह तो क्षण भरके लिये परिणमती है, दूसरे क्षणमें दूसरी पर्याय आती है। ज्ञान परिणमता ही रहे, ज्ञान खत्म नहीं होता। अनन्त काल पर्यंत आनन्द परिणमता ही रहे तो भी खत्म नहीं होता। द्रव्यके सामर्थ्यसे ... है। संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनसे भेद है। वस्तुभेद है क्या उसका? वह तो शास्त्रमें भी आता है। वस्तु पर्याय एक भिन्न द्रव्य थोडा ही है। द्रव्य नहीं है। तो फिर कितने द्रव्य हो जाय? चैतन्यद्रव्य और चैतन्यका पर्यायद्रव्य, गुणद्रव्य ऐसा हो जाय। जैसा द्रव्य स्वतंत्र है, वैसी ही जातकी पर्याय स्वतंत्र नहीं है। स्वतंत्र कही जाती है, परन्तु स्वतंत्र-स्वतंत्रमें अंतर है।
.. राजा उसका स्वामी है। उसके आश्रयमें रहनेवाले सब स्वतंत्रपने काम करते हो, परन्तु उसका मालिक तो राजा है। ऐसी स्वतंत्रता, जो काम करनेवाले होते हैं वे स्वतंत्रतासे करते हों। राजा उसे पूछे भी नहीं, कुछ नहीं, स्वतंत्ररूपसे करते हों, तो भी मालिक तो राजा ही है। राजाकी ... है। (दृष्टान्तमें) तो भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं।
(यहाँ सिद्धान्तमें तो) राजा जैसे चलता हो, वैसे ही पर्याय चलती है। उसकी दृष्टि द्रव्य पर जाय तो ऐसे ही पर्याय चलती है। स्वयं अन्दर स्वभावमें, स्वभावकी ओर जोर बढ जाय तो पर्याय ऐसे ही चलती है। विभावकी ओर जाय तो वैसे ही पर्याय चले। मूल द्रव्य पर दृष्टि देनेवाला है, वह जैसे चलता हो वैसे ही पर्यायकी डोर चले, दूसरे प्रकारसे नहीं चले। वैसे ही चले।
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जो द्रव्य पर दृष्टि है, उसके बलमेंसे जो चलता है, उसी प्रकार पर्याय चले। दूसरे प्रकारसे चले नहीं सकती। उसे आश्रय द्रव्यका है। विभावकी ओर दृष्टि हो तो वैसे ही विभाव चले। ऐसे दृष्टि फिरे तो स्वभाव चले। उसमें यदि उसकी परिणति जोरसे वृद्धिगत हो तो वैसे चले। तो पूरा चक्र वैसे चले। एक उसकी दृष्टि फरि और लीनता फिर तो पूरा द्रव्य, सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन, पूरा चक्र वैसे चले। जिस ओर दृष्टि और परिणति, लीनता जैसे चले वैसे सब चले। यह इस ओर चले तो वह उस ओर नहीं चलता। ... पर्याय दूसरी ओर चले ऐसा नहीं होता।
.. शुद्धात्माकी शुद्धरूप पर्याय परिणमे तो स्वतंत्र परिणमे। परन्तु जैसे द्रव्यकी दृष्टि और लीनता जैसे चले वैसे वह चले। दूसरे प्रकारसे नहीं चल सकता। फिर उसे अलग- अलग करने नहीं जाना पडता कि वह भिन्न-भिन्न (चले)। एक चला, उसमें सब परिणति सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन, स्वतः अनन्त गुणका परिणमन शुद्ध होता है। भिन्न-भिन्न अनन्त पर दृष्टि करके भेद करके नहीं करना पडता कि सब पर अलग-अलग दृष्टि करके (करना पडे)। एक पर दृष्टि (देता है) इसलिये पूरा चक्र सुलटा (चलता है)। उसकी उस पर्यंतकी स्वतंत्रता होती है।
... समझाये इसलिये ऐसा लगे कि ये भिन्न कहते हैं। दूसरोंको बिठानेके लिये, दूसरे लक्षण कहकर (कहते थे)। मैं दूसरे प्रकारसे कहती हूँ। .. इस प्रकारसे कहती हूँ और वे दूसरे प्रकारसे कहते हैं। उनको ... करना होता है, मैं दृष्टिकी ओरसे कहती हूँ कि दृष्टि द्रव्यकी ओर मुडे तो सब पर्याय (इस ओर झुक जाती है)। पर्यायको द्रव्यका आश्रय है।
... देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं, उपादान तो स्वयंको तैयार करना पडता है। पहले तो अंश प्रगट होता है, बादमें पूर्णता होती है। पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना। बाहरसे नहीं... ज्ञायक आत्माका स्वरूप पहचाने, भेदज्ञान करे, शरीर मैं नहीं हूँ, विभावपर्याय मेरा स्वभाव नहीं है। शुभाशुभ भाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं भिन्न चैतन्यद्रव्य हूँ। ऐसी श्रद्धा-प्रतीत करके उसकी स्वानुभूति करे तो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। आगे बढकर केवलज्ञान तो बादमें होता है।
स्वानुभूतिमें लीन होते-होते, विशेष-विशेष स्थिरता होती है तब पंचम गुणस्थान, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें मुनि अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें झुलते हैं, बादमें श्रेणि लगाकर केवलज्ञान होता है। शुरूआत तो ऐसे होती है। उसकी जिज्ञासा करना, महिमा करना, नहीं होवे तब तक उसका अभ्यास करना, ये सब करना।
मुमुक्षुः- माताजी! षटखण्डागममें आता है न कि मतिज्ञान केवलज्ञानको बुलाता है।
समाधानः- मतिज्ञान बुलाता है। मति-श्रुत (ज्ञान) जिसको प्रगट होता है तो
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वह केवलज्ञानको आओ.. आओ... (कहता है)। मतिज्ञान जब आये, मतिज्ञानका अंश प्रगट होता है तब केवलज्ञान अवश्य आता ही है। जिसको स्वानुभूति प्रगट होती है,.... मतिज्ञान परसन्मुख होता था। मति-श्रुत स्वसन्मुख हुआ, स्वानुभूति प्रगट हुयी तो उसको मतिज्ञान प्रगट हुआ। जिसको वह मतिज्ञानका अंश प्रगट हुआ उसे केवलज्ञान अवश्य होता है।
अनादिकालसे उघाड तो है, बादमें जब स्वसन्मुख होता है, तब उसे स्वानुभूति प्रगट होती है। स्वसन्मुख मति-श्रुत (होता है)। विकल्प टूटकर स्वसन्मुख होता है तो निर्विकल्प स्वानुभूति होती है। जिसको स्वानुभूति होती है, (उसको) अवश्य केवलज्ञान होता है। मतिज्ञान अवश्य केवलज्ञानको बुलाता है। उसको तो अवश्य केवलज्ञान आता है। वह अवश्य आता है। मतिज्ञान-श्रुतज्ञान केवलज्ञानको बुलाता है। केवलज्ञानको आना ही पडता है। मतिज्ञान-डोरीको खिँचती है स्वानुभूति तो केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
मुमुक्षुः- आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता ही है।
समाधानः- प्रत्यक्ष ज्ञाता है। अनादिअनन्त ज्ञाता है, परन्तु ज्ञाताका भान नहीं है। ज्ञायक-ज्ञाता जब प्रगट होता है, ज्ञायकका परिणमन सम्यग्दर्शनमें आंशिक प्रगट होता है, पूर्ण प्रगट होता है केवलज्ञानमें। प्रत्यक्ष ज्ञाता है।
मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय ज्ञानमें?
समाधानः- अतीन्द्रिय ज्ञानमें प्रत्यक्ष ज्ञाता ज्ञायकका वेदन होता है। अतीन्द्रिय ज्ञानमें। बादमें पूर्ण अतीन्द्रिय (ज्ञान प्रगट होता है)।
मुमुक्षुः- श्रुतज्ञानसे जो आत्माको जाने और केवलज्ञानसे आत्माको जाने, उसमें क्या फेर है?
समाधानः- श्रुतज्ञानसे जानता है वह स्वानुभूति प्रत्यक्ष है और वह केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। मति-श्रुतको कोई अपेक्षासे परोक्ष कहनेमें आता है, परन्तु स्वानुभूति प्रत्यक्ष है। मतिज्ञानमें मनका थोडा अबुद्धिपूर्वक अंश रहता है इसलिये परोक्ष (कहनेमें आता है), परन्तु स्वानुभूति प्रत्यक्ष है। मति-श्रुत प्रत्यक्ष है। केवलज्ञानमें तो मनका अवलम्बन भी नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष ज्ञायक है-प्रत्यक्ष ज्ञाता हो गया। प्रत्यक्ष-परोक्षका भेद पडता है। परन्तु मति-श्रुत स्वानुभूति प्रत्यक्ष है।
मुमुक्षुः- माताजी! आप बारंबार कहते हैं कि देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता रखे तो अन्दर जानेका अवकाश है। थोडा इसके बारेमें...
समाधानः- देव-गुरु-शास्त्र जिसके हृदयमें रहते हैं, उसकी भावना रहती है कि मुजे देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य हो। क्योंकि जिसको आत्माकी रुचि होवे उसको ऐसी भी रुचि होती है कि मुजे गुरुका सान्निध्य हो, देवका हो, शास्त्रका भी (सान्निध्य
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हो)। उसके श्रवण-मननकी भावना रहती है। फिर संयोग बने, न बने वह बाहरकी बात है, परन्तु उसकी भावना बहुत रहती है कि मुझे सान्निध्य हो। क्योंकि जिसे आत्मा रुचे उसको उसे साधनेवाले पर भी आदर आता है। गुरु साधकदशामें साधते हैं और देव पूर्ण हो गये। इसलिये जिसने इसकी साधना प्रगट करी, उस पर उसको बहुत आदर रहता है। क्योंकि अपनी रुचि है तो अपनेको नहीं होता है, जिसने प्रगट किया उस पर बहुत आदर रहता है। इसलिये ध्येय आत्माका है और देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यकी भावना रहती है। मैं आत्माको कैसे पहचानूं? जिसने पीछाना हो उस पर आदर आता है। जिसको आत्माकी रुचि होती है (उसको)।
मुमुक्षुः- माताजी! आता है न, "सेवे सदगुरु चरणको तो पावै साक्षात'। माताजी! ऐसी कोई ताकत दो कि सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान प्रगट कर सके हम।
समाधानः- "सेवे सदगुरु चरण' चरण (सेवे) लेकिन उपादान अपनेसे प्रगट होता है। निमित्त गुरु होते हैं, उपादान अपना होता है। उपादान प्रगट करे तो उसे निमित्त कहनेमें आता है। उपादान अपनेको (तैयार) करना पडता है। चरण सेवनेकी भावना अपनी होती है कि मैं चेरण सेवन करके मेरे आत्माको कैसे प्रगट करुँ? ऐसे उपादान अपना तैयार करना पडता है।
जो भगवानको जानता है, वह अपने आत्माको जानता है। भगवानके द्रव्य-गुण- पर्यायको जाना, (वह) अपनेको (जानता है)। अपनेका जानता है, वह भगवानको जानता है। उसे भगवानका कैसा द्रव्य है, गुण है, पर्याय है अपने उपादानसे (जानता है), निमित्तसे इसमें भगवान होते हैं। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवानको जानता है वह आत्माको जानता है, आत्माको जानता है वह भगवानको जानता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। उपादान अपना और निमित्त देव-गुरु होते हैं।
मुमुक्षुः- माताजी! श्रुतज्ञान द्वारा आत्माको जाने या अरिहंतके द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने? उसमें दोनों बराबर युक्तिसंगत है।
समाधानः- श्रुतज्ञान द्वारा..?
मुमुक्षुः- श्रुतज्ञान द्वारा आत्माको जाने या अरिहंतक भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने, तो यही अलौकिक युक्ति स्वसंवेदनज्ञान प्राप्त कराती है?
समाधानः- उसमें आ जाता है। जिसने भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जाना उसमें श्रुतज्ञान भी साथमें आ जाता है। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय जाने, उसमें श्रुत अपने आपसे अपने भीतरमें श्रुतज्ञान प्रगट होता है। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जान या श्रुतज्ञान द्वारा जाने, दोनों साथमें होते हैं। उपादान अपना अन्दरमें होता है और भगवानका द्रव्य-गुण-पर्याय (जानना) सब साथमें होता है। श्रुतज्ञानसे केवली जाने, वह ज्ञान द्वारा
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या भगवान द्वारा या देव-गुरु-शास्त्र द्वारा कहो या श्रुतज्ञान द्वारा कहो। दोनों साथमें होते हैं।
श्रुतज्ञान ओरसे बात करनेमें आती है तो श्रुतज्ञानकी ओरसे कहते हैं। देव-गुरुकी ओरसे बात करे तो देव-गुरुकी ओरसे (बात आती है)। दोनों साथमें होते हैं। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने उसमें श्रुतज्ञान आ जाता है। श्रुतज्ञान द्वारा आत्माको जाने उसमें देव-गुरु भी आ जाते हैं। दोनोंमें ऐसा सम्बन्ध आ जाता है।
... कोई कहनेकी बात नहीं है। स्वानुभूति तो अलौकिक है, आत्माकी वस्तु है। आत्मा है, आत्माकी स्वानुभूति (होती है)। विभाव तो अनादि कालमें बहुत वेदनमें आया है, स्वानुभूति तो वेदनमें नहीं आयी है। सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं हुआ है, वह तो अलौकिक है। विकल्प टूटकर निराकुल आत्माका आनन्द, अनन्त गुणसे भरा आत्मा, वह तो कोई अलौकिक वस्तु है। स्वानुभूतिमें आती है।
मुमुक्षुः- माताजी! सम्यग्दर्शनकी पात्रता क्या होनी चाहिये? समाधानः- पात्रतामें तो ऐसी भावना होवे कि मैं आत्माको कैसे प्रगट करुँ? मैं कैसे आत्माको पहचानूँ? विभावमें चैन न पडे, बाहरमें कहीं चैन (न पडे), बाहर उपयोग जाय उसमें चैन नहीं पडे, विभावमें कहीं चैन न पडे। सुख और शान्ति मेरे भीतरमेंसे कैसे आ जाय? ऐसी बहुत भावना (हो)। मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो, ऐसी जिज्ञासा, चैतन्य ज्ञायककी महिमा, मैं ज्ञायकको कैसे पीछानूँ, उसकी महिमा, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा, बारंबार उसका अभ्यास, तत्त्व विचार, शास्त्र अभ्यास, उसमें मैं आत्माको कैसे पीछानूँ? प्रयोजनभूत आत्मा। ज्यादा जान लूँ (ऐसा नहीं), परन्तु मैं प्रयोजनभूत आत्मा ज्ञायक उसको कैसे पीछानूँ? उसकी बहुत भावना, जिज्ञासा, लगनी रहती है।