Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 139.

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ट्रेक-१३९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. हाँ, सब उसीमें आ गया, सम्यग्दर्शनका उपाय। भेदज्ञानकी धारा प्रगट करनी, अन्दर ज्ञायकको पहचाननेका प्रयत्न करना। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, ज्ञायक चैतन्यतत्त्व क्या है? और भेदज्ञानकी धारा, विकल्पसे भिन्न आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है उसे पहचानना। उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। अंतरमेंसे ज्ञाताकी धारा प्रगट करनी। क्षण-क्षण लगन लगानी।

... कहीं और नहीं है, धर्म आत्मामें है। धर्म.. भगवानने तीर्थंकर भगवंतोंने यही ... स्वभावमेंसे धर्म प्रगट किया। अतः आत्माको पहचानना। बाहरसे क्रिया करनी, उसमें धर्म नहीं है। धर्म आत्मामें है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- बाहरसे ऊपरी दृष्टिसे ... सब ऐसा कहे न, दया पालो, समता करो, ऐसा सब आये इसलिये वह सब एकसमान लगे। कषायकी मन्दता आदि सबको ... कहे। अंतर चैतन्यतत्त्वको पहचानना वह अलग बात है। स्वभावमें धर्म रहा है। वह बात ही अलग है। शुद्धात्मामें धर्म है। शुद्ध स्वरूपको प्रगट करना सो धर्म है। वह सब शुभभाव पुण्यबन्धका कारण है। उसमेंसे पुण्यबन्ध हो। देवलोक मिले, भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव शुद्धात्माको पहचाननेसे होता है। .. बादमें विचार करना, पहले आत्माको पहचानना। आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करनेसे वह सब क्या है, वह समझमें आ जायगा।

इस आत्माका स्वभाव कैसे प्रगट हो? मोक्ष कहाँ रहा है? मोक्ष आत्मामेंसे प्रगट होता है, मोक्षस्वरूप आत्माका है। उसे विभावसे भिन्न करनेका प्रयास कैसे हो? वह वस्तु स्वरूप क्या है? आचार्य क्या कहते हैं? उसका विचार करके अन्दर निर्णय करना। तो बाकी सब बादमें समझमें आयगा। मोक्ष स्वभाव कैसे प्रगट होता है, इसका प्रथम निर्णय करना। इसलिये सच्चा धर्म कौन-सा है, अंतरमें है वह मालूम पडेगा, बादमें संप्रदाय आदि समझमें आयेगा। पहले संप्रदायका विचार करे तो उसमें कुछ मालूम नहीं पडता, पहले निर्णय आत्माका करने जैसा है। उसमें सब प्रकारका समाधान आ जाता है। कोई कर नहीं देता। निर्णय तो स्वयंको ही करना पडता है।


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तत्त्व है वह स्वयं स्वभाव आनन्दस्वरूपसे भरा है। उसमेंसे (प्रगट होता है)। शुभभाव करे तो उस क्रियासे पुण्य बन्ध होता है। पुण्यसे देवलोक मिलता है। पुण्य भी विकल्प है। वह आकुलता है, परन्तु बीचमें आता है। शुद्धात्मा.. शुद्ध स्वभाव प्रगट न हो तब तक बीचमें शुभभाव आते हैं, लेकिन उससे पुण्यबन्ध होता है।

... क्रिया करे तो धर्म होता है, इतनी सामायिक की, फलाना किया, पूजा की, ... ऐसी मान्यता (थी)। परका कर सकते हैं, परका कुछ कर देते हैं, ऐसी सब मान्यता (थी)। गुरुदेवके प्रतापसे कोई किसीका कर नहीं सकता। स्वयं .. बाह्य क्रियासे धर्म नहीं होता। अंतर स्वभाव परिणति प्रगट (हो), स्वभावकी चैतन्य ओरकी क्रियामें धर्म रहा है, यह गुरुदेवने प्रगट किया। .. जैनोंमें ऐसा आये कि अनादि अनन्त आत्मा है, परन्तु मान्यतामें कुछ नहीं। मानों भगवान कर देते हों, ऐसा। अन्दर मान्यता देखो तो ऐसी पडी हो। भगवान कर देते हों।

अपना उपादान तैयार करे तो होता है। कोई द्रव्य किसीका कर नहीं सकता। भक्तिभाव आये, हे प्रभु! आप मुझे तारिये, ऐसा कहे। परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो भगवान निमित्त होते हैं। वह सब दृष्टि गुरुदेवने (दी), मार्ग बताया। .. सब पडे थे। दृष्टि ही यथार्थ नहीं थी वहाँ मार्ग कहाँ स्पष्ट होगा? इतना पढ लो तो ज्ञान होता है। सब छोड तो वैराग्य हो गया। अंतर परिणतिमें वैराग्य, विभाव परिणतिसे तुझे वैराग्य आये, स्वभावकी ओर तेरा वेग जाय, वह सब वैराग्य (है)। स्वभावकी ओर झुके तो परसे निवृत्ति हो और स्वभावकी ओर तू झुके तो वैराग्य (है), वह सब वैराग्यकी परिणति अंतरमें (होती है)। .. तो वैराग्य हो गया।

प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचान तो तेरा सच्चा ज्ञान है। बाकी पढ ले, धोख ले उसमें सच्चा ज्ञान नहीं आता। गुरुदेवने पूरी दृष्टि बदल दी। नौ तत्त्व सीख ले, ये स्थानकवासी गुणस्थान सीख ले, वह सब सीख ले, कंठस्थ कर ले तो मानों बहुत सिख लिया।... ज्ञान है, ऐसा कहनेमें आता था। गुरुदेवने सब पर चौकडी रख दी। ज्ञान उसमें नहीं है। ज्ञान आत्मामें, सब आत्मामें है। प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचान तो वह सच्चा ज्ञान है। ... वह बेचारा उपवास न करे तो उसे धर्म कैसे करना? ऐसी परिस्थिति (थी)। उसके बजाय, तेरे स्वभावको पहचान, भेदज्ञान कर, ज्ञायक तत्त्वको पहचान, अन्दर स्वानुभूति होती है वह मुक्तिका मार्ग है।

.. वह कहे, सिद्ध शिलामें ऊपर जाय उसे मोक्ष हुआ ऐसा कहते हैं। सिद्ध शिलामें ऊपर सिद्ध भगवान विराजते हैं, उसे मुक्ति कहते हैं। गुरुदेव कहते हैं, मुक्ति तेरेमें ही है। स्वभावसे द्रव्य मुक्त ही है। और पर्याय, स्वानुभूति होती है तब आंशिक मुक्ति यहाँ भी होती है। पूरी दृष्टि बदल दी। .. हो, उसके बाद पूर्ण मुक्ति (होती है)।


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भावसे मुक्ति अन्दर स्वभावमें होती है। भगवान जैसा है। सब शास्त्रमें आता था, लेकिन दृष्टि किसके पास थी? दिगम्बर पढ लेते होंगे, परन्तु दृष्टि (नहीं थी)। मोक्षमार्ग तो बस धोख जाना। दर्शन किसे कहते हैं, ज्ञान किसे कहते हैं और चारित्र किसे कहते हैं। नव तत्त्वकी श्रद्धा, उसका ज्ञान वह ज्ञान और पंच महाव्रत और अणुव्रत पाले वह चारित्र। ... स्थानकवासीमें दूसरा था, देरावासीमें दूसरा था। इतना शास्त्रका ज्ञान है, इसे गोम्मटसार आता है। आत्माकी प्राप्ति नहीं है...

.. स्वभाव था वह प्राप्त हुआ, उसमें क्या है? पूर्णता हो वह करना है। सबकी दृष्टि कितनी बदल दी! निमित्त कर देता है, देव-गुरु-शास्त्र कर देते हैं, इससे ऐसा होता है, उसके बजाय तू तैयार हो तो होता है। सब द्रव्य स्वतंत्र है। कोई किसीको कर नहीं देता। इसलिये तू तेरा उपादान तैयार कर। भक्ति भी आये कि प्रभु! आपने मुझे समझाया, आपने उपकार किया। मेरा उपादान तैयार हो तो होता है, ऐसा ज्ञान भी रखना। गुरुने मार्ग बताया, ऐसी भावना बराबर हो। हम कुछ नहीं जानते थे, आपने ही मार्ग दिया, आपने ही सब दिया, आपने ही आत्मा दिया। भावनामें ऐसा आये, भाव ऐसे आये। लेकिन होता है अपनेसे ऐसा समझे। दिया गुरुने, हमारे पास दृष्टि नहीं थी, दृष्टि देनेवाले आप हैं, हम कुछ नहीं जानते थे। हम कुछ नहीं जानते थे। परन्तु उपादान-निमित्तका सम्बन्ध हुआ।

वह सब द्रव्य-गुण-पर्यायमें उलझ गये थे। ... गुण और पर्याय, सब उसमें आ जाता है। .. एक द्रव्य पर दृष्टि करे तो उसमें सब आ जाता है। ... कुन्दकुन्दाचार्य ऐसे हाथ जोडकर खडे हैं। बराबर पूर्व दिशामें.. जैसे यहाँ हमने हाथ जोडकर रखे हैं, वैसे ही उसमें हाथ जोडे हैं। हमने किया वह नया नहीं है, पुराने समयमें भी ऐसा किया हुआ है। ... सीमन्धर भगवानका मालूम नहीं था। शिलालेक पढकर... अभिषेक किया करते थे। गुरुदेवने सब शिलालेख पढकर कहा। ... मानुषोत्तर पर्वत आया तो विमान अटक गया। मनुष्य जा नहीं सकते हैं। ... आ गया, तो वहाँ मुनि बन गये। ... मानो सच्चा हो ऐसे। समवसरणमें कोई वनस्पति नहीं होती है। ऐकेन्द्रिय जीव हों, ऐसा कुछ नहीं होता। वहाँ कुछ ऊगा नहीं होता। ... सुगन्ध... जात- जातका पूजन करे और जात-जातकी स्तुति करे और बोलनेकी शक्ति, सब रचना करनेकी शक्ति, गांधर्व गीत गाये उन्हें गीत गानेकी शक्ति...

भगवान तीर्थंकर .... शाश्वत प्रतिमाएँ हैं और सब देवोंसे पूजित हैं। ... देव जिसकी पूजा करते हैं। देवोंकी स्तुति, भक्ति, पूजा, वाजिंत्र होते हैं। आत्मा द्रव्य कैसा है, तीर्थंकरका द्रव्य उसमें आ जाता है। वह सब प्राप्त करने जैसा है। ... देवों द्वारा पूज्य ... आत्मा भी वैसा है। इसलिये तू तेरे आत्माको प्राप्त कर। आत्माको बता


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रहे हैं। भगवानका द्रव्य है, कितना महिमावंत चैतन्य द्रव्य है, ऐसा बता रहे हैं।

... भगवान कैसे और आत्मा कैसा... जैसा भगवानका आत्मा, वैसा अपना आत्मा, ऐसा आता है। इसलिये तू अंतर दृष्टि कर। भगवानकी महिमामें तेरी चैतन्य महिमा समायी है। तू तेरे ध्येयपूर्वक भगवानकी महिमा कर। ... कुदरती ऐसी रचना (है)।

.. मुमुक्षु जहाँ-तहाँ आत्माकी ही बात करते हैं। गुरुदेव विराजते हों वह अलग बात है, परन्तु अभी वर्तमानमें आत्माकी ही बात चलती है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव विराजते थे, अभी आप विराजते हो तो इतनी ... ऐसा लगे...

समाधानः- करना (एक ही है), आत्मा ज्ञायकको पहचानना वही करना है। करना तो यही है।

मुमुक्षुः- ... आपने भी बहुत (दिया है)। अन्दरसे विचार करते हैं तो ज्ञायक.. ज्ञायक.. यह भिन्न ज्ञायक है, वह सब प्रत्यक्ष...

समाधानः- गुरुदेवने तो ... वह भाव, स्वरूप, पहचान सब गुरुदेवने (बताया)।

मुमुक्षुः- गुरुदेव ज्ञायक बताते थे, परन्तु सामान्य जो ध्रुव.. ध्रुव.. ध्रुव कहते थे, परन्तु ध्रुवका चित्र मस्तिष्कमें नहीं आता था। परन्तु ज्ञायक कहने पर...

समाधानः- ... दिशा बदल दी, सबके जीवनका परिवर्तन कर दिया, दृष्टि बदल दी। फिर अंतरसे करना वह स्वयंको बाकी रहता है। पंचमकालमें गुरुदेवने जन्म धारण किया, उनका इतना सान्निध्य मिला वह भी महाभाग्यकी बात है।

मुमुक्षुः- वास्तवमें तो पंचम कालका (आश्चर्य) है। इस कालमें वे यहाँ कहाँ? गुरुदेव यहाँ पधारे, माताजी यहाँ पधारे, विदेहकी यहाँ पूरी रचना हो, ...

समाधानः- गुरुदेवने वाणी बरसायी। एक स्थानमें रहकर इतने साल तक वाणी बरसायी। ऐसा तो कवचित ही इस पंचम कालमें बनता है। विहार करके, गुरुदेवने विहार भी किया और इतने काल तक वाणी बरसायी। कोई त्यागी हो तो जंगलमें हों, कोई कहाँ हो, गुरुदेव तो इस पंचम कालमें कुछ अलग ही हो गया। सबको उपदेश दिया। ... जो सान्निध्य मिला, वैसे ज्ञायकका सान्निध्य प्राप्त कर लेना, वह करनेका है। .. गुरुदेवने इस कालमें शास्त्रके अर्थ सूलझाये। एक-एक शास्त्र पर कितनी बार (प्रवचन किये)। गुरुदेव जागे तो सब बदल गया। सबकी दिशा बदल गयी।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- गुरुदेवका सान्निध्य...

मुमुक्षुः- .. गुरुदेवके साथ प्रसंग, उसमें यह प्रसंग..

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी कृपा और आपके आशीर्वाद, आपका सान्निध्य...

समाधानः- सब पेपरोंमें तत्त्वके विरूद्ध सब आते रहता था। मंगलमूर्ति थे, सब


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मंगल-मंगल कार्य हुए। जहाँ पधारे वहाँ मंगल, जहाँ विराजते हों वहाँ मंगल, आत्माकी बातें हों... शास्त्रके अर्थ इतने बरसोंमें किसीने नहीं किये होंगे। समयसार, प्रवचनसार सबके ऊपर कितने अर्थ किये! इक शब्दका इतना विवरण करनेवाले इतने बरसोंमें (कोई नहीं हुआ)। इतनी शक्ति गुरुदेवकी! जहाँ विराजे वहाँ मंगल।

मुमुक्षुः- गुरुदेव स्वयं मंगल थे। समाधानः- मंगलमूर्ति थे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!