Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 148.

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ट्रेक-१४८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उसे पछतावा होता है, रोता है।

समाधानः- बहुत रोता है।

मुमुक्षुः- वह तो हो गया।

समाधानः- भूतकालमें गया। अब फिरसे न होवे ऐसे आराधना करे। देव-गुरु- शास्त्रकी आराधना ही जीवनमें करना और आत्माकी आराधना करना। उसे पछतावा होता है। जो गया सो गया, फिरसे आत्मामें जागृति उत्पन्न करके आत्माकी और देव- गुरु-शास्त्रकी आराधना करना।

मुमुक्षुः- बहुत विराधना की।

मुमुक्षुः- मैंने कहा, वह बदला जा सकेगा। .... राजश्रीका दृष्टान्त दिया था।

समाधानः- बदल जाये तो एक क्षणमें बदल जाता है। एक क्षणमें आत्मा बदल जाता है। गुरुदेव इस पंचमकालमें तीर्थंकरका द्रव्य था। लोगोंको जागृत किये। जितनी हो सके उतनी आराधना, भक्ति गुरुकी अंतरमें लाकर चैतन्यतत्त्वकी ओर मुड जाना। बस, वही है। उसका पश्चाताप करके फिरसे न हो, ऐसी आराधना अंतरमें करनी।

मुमुक्षुः- गुरुदेव रातको स्वप्नमें आये थे। गुरुदेवने संबोधन किया। मैं एकदम खडा हो गया, साहब! आईये, पधारिये। रातको बराबर स्वप्नमें आते हैं।

समाधानः- गुरुदेव पधारे ऐसा कहते हैं। संबोधन किया। गया सो गया, जागे तबसे सबेरा। जब जागे तब सुबह होती है। जो भी भूल हुयी अनन्त कालमें, पीछले अनन्त कालमें बहुत भूल हुई उसमें वह भूल गयी। अब आराधना करना।

मुमुक्षुः- ... आप याद रखो।

समाधानः- बस, आराधना करना, आराधना करना। गया सो गया। पहले तो उसे बहुत भक्ति थी।

मुमुक्षुः- हाँ, पूरा धंधा छोड दूँ।

समाधानः- हाँ, उतनी भावना थी।

मुमुक्षुः- आपके भावको जाँचकर करना, फिर बादमें...

समाधानः- गुरुदेव तो क्षमाके भण्डार, क्षमामूर्ति थे। सबको क्षमा देनेवाले थे।


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गुरुदेवके हृदयमें कुछ नहीं था।

मुमुक्षुः- क्षमाके भण्डार थे। गुरुदेवके पास कोई नर्म होकर आये तो गुरुदेव कहे, अब वह बात याद मत करना।

समाधानः- हाँ, ऐसा ही कहते, याद मत करना। ऐसा ही कहते थे। पहलेसे सबको गुरुदेव पर भक्ति थी।

मुमुक्षुः- हाँ, सब भाईओंको।

समाधानः- .. ग्रहण कर लेना। जो हो गया सो हो गया। गुरुदेव पर उन लोगोंको भक्ति तो थी।

मुमुक्षुः- गुरुदेवके प्रति तो थी।

समाधानः- गुरुदेव प्रति थी।

मुमुक्षुः- गुरुदेव भी याद करते थे। गुरुदेव बारंबार कहते थे।

समाधानः- .. सब याद करना। बीचमें हो गया, अब फिरसे ऐसा न हो ऐसी आराधना आत्मामें प्रगट करनी। .. विचार करते थे, दिल्हीमें सब चलता था। देव- गुरु-शास्त्र शरण है, गुरुदेवको हृदयमें रखना। आत्माकी महिमा, ज्ञायकके पंथ पर जाना। गुरुदेवका समुद्र भर जाय उतना विस्तार था। भगवानकी दिव्यध्वनिका पार नहीं है, वैसे गुरुदेवका एक शब्द पर विस्तार, बहुत विस्तार होता है। कितने शास्त्र लिखे तो भी भण्डार भरे हैं।

करना तो एक ही है, एक करना है-आत्माका स्वरूप पहचानना। उसके लिये तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्याय आदि उसके लिये है। करना तो एक ही है। एक आत्माका स्वरूप पहचानना। जो तत्त्व है, उसमें स्वभाव पीछानकर बराबर उसे ग्रहण करना। आत्माको ग्रहण करना वही करना है। शरीर भी आत्मा नहीं है, विभाव अपना स्वभाव नहीं है। शुभाशुभ भावसे भी भिन्न आत्मा तत्त्व कोई अलग है-न्यारा है, उसको पीछानना। करना तो एक ही है, ध्येय तो एक ही है। उसके लिये विचार आदि चलते हैं। शास्त्र स्वाध्याय सब उसीके लिये हैै।

एक आत्माको जाने वह सबको जानता है। उसके लिये सब जानना, विचारना, सब उसके लिये है। गुरुदेवका व्याख्यान सुना है? दिल्हीमें?

मुमुक्षुः- हाँ, दो दफे दिल्हीमें सुना है।

समाधानः- आप इधर नहीं आये हो?

मुमुक्षुः- इधर नहीं आये हैं। एक दफे जयपूर आये थे। वहाँ जयपूर चले गये। वहाँ रहने गये हम।

समाधानः- ... अपने कारणसे स्वानुभूति नहीं करता है, अपने कारणसे भेदज्ञान


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नहीं करता है।

मुमुक्षुः- हमारे लिये ऐसा भाव हो कि जिसमें हमारा कार्य हो, हमारी भाषामें..

समाधानः- कैसे बताये? करना तो अपनेको ही पडता है। उपादान तो अपना तैयार करना पडता है न। अपनेको करना पडता है। स्वभावकी ओर जाना, स्वभावकको पहचानना, सब अपनेको करना पडता है। स्वभावको ग्रहण करना, ज्ञानको पकडना, ज्ञाताका लक्ष्य करना, ज्ञाताकी धारा प्रगट करना, (स्वमें) एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त होना, सब अपनेको करना पडता है। एक ही जवाब है। सब अपनेको करना पडता है, अपनी ही क्षति है। धैर्य रखना, उतावल या आकूलता नहीं करना। अपना ही कारण है, दूसरा कुछ कारण नहीं है। पुरुषार्थकी मन्दता है, रुचि बाहर जाती है, अभ्यास अनादिका है वहाँ चला जाता है। इसलिये टिकता नहीं।

पहले तो यथार्थ दृष्टि होती है। बादमें अल्प अस्थिरता तो रहती है और पूर्ण वीतरागता तो बादमें होती है। सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें हो तो भेदज्ञानकी धारा चलती है, ज्ञायककी धारा (होती है) तो भी अल्प अस्थिरता रहती है। पूर्ण वीतराग दशा बादमें होती है। परन्तु अपनी ओर दृष्टि करनेके लिये पुरुषार्थ उग्र करना पडता है। अपनी दृष्टि जमानेके लिये भी उग्र पुरुषार्थ करना पडता है।

मुमुक्षुः- असंख्य प्रदेशी आत्माको किस विधिसे ख्यालमें आये? कैसे लक्ष्यमें लेना कि आत्मा यही है?

समाधानः- असंख्य प्रदेश पर लक्ष्य जाये या नहीं जाये, अपने स्वभावको ग्रहण करना कि मैं ज्ञायक चैतन्य हूँ। अपने अस्तित्वको ग्रहण करना। अपना अस्तित्व कि मैं ज्ञायक हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ। मैं जाननेवाला ज्ञायक तत्त्व हूँ। अपने ज्ञायकमें सब है। शान्ति, सुख, आनन्द सब। अपने अस्तित्वको ग्रहण करना। विभावका अस्तित्व मेरा नहीं है। विभावकी मेरेमें नास्ति है, मैं चैतन्यस्वभाव हूँ। ऐसे चैतन्यके स्वभावको ग्रहण करना।

.. अपना और परका जानकर भेदज्ञान करना। स्वमें, अपने स्वमें परिणति करना। विभाव ओरकी दृष्टि हटा देना। वह करनेके लिये पुरुषार्थ अपनेको करना पडता है, बारंबार करना पडता है। छूट जाय तो भी करना पडता है। उपयोग छूट जाता है तो भी करना पडता है। बारंबार करते-करते होता है। विचार, वांचन ऐसे उपयोग बदले। तो भी दृष्टि तो अपनी ओर कैसे आवे, ऐसा प्रयत्न करना। जैसी योग्यता हो, जैसे पुरुषार्थ उठे ऐसे करना। ऐसे उतावली या उलझनमें आनेका कोई (मतलब) नहीं है। स्वभावको ग्रहण करना। स्वभाव कैसे ग्रहण होवे?

मुमुक्षुः- मार्ग पसंद है, रुचिकर है, उसीमें उपयोग खूब लगाते हैं और खूब


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समय उसको देते हैं, फिर भी स्थिरता नहीं हो पाती है।

समाधानः- समय देते है, ... होता है, रुचि होती है फिर भी टिकता नहीं वह अपनी क्षतिका कारण है। जितना कारण होना चाहिये उतना कारण नहीं मिलता है इसलिये कार्य नहीं होता है। कारण मन्द, मन्द, मन्द पुरुषार्थसे हो नहीं सकता। मन्द, मन्द, मन्द होता है तो उसमें टाईम दे, विचार करे, वांचन करे, सब करे, तत्त्वका विचार करे परन्तु स्वभावको ग्रहण करना चाहिये। ध्येय एक होना चाहिये-स्वभावको ग्रहण करे, भेदज्ञान करे। ऐसे मूल प्रयोजनभूत कार्यको करना चाहिये। तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्यायका मूल प्रयोजन चैतन्यको ग्रहण करना और भेदज्ञान करना। अपने स्वभावको ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- आप और गुरुदेवने बताया वह तो सही है। भूलका पता नहीं चलता है, कहाँ भूल रह जाती है, वह नहीं (समझमें नहीं आता)।

समाधानः- विश्वास तो ऐसे बुद्धिसे होता है, परन्तु भीतरमें परिणति उस ओरकी करनी चाहिये न। बुद्धिमें निर्णय तो होता है कि गुरुदेवने कहा है, वह सच्चा है। वस्तु स्वरूप ऐसा है, विचार करके भी निर्णय करे कि मैं ऐसा हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा विचार करके निर्णय करे, परन्तु परिणतिको तन्मय करनी चाहिये न। परिणति तो विभावमें जाती है। निर्णय करता है कि मैं यह हूँ, यह हूँ, यह हूँ। परन्तु मैं यह नहीं हूँ, ऐसे भेदज्ञानकी परिणति जबतक प्रगट नहीं होती, (तबतक) नहीं हो सकता। परिणति प्रगट होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- उसीका उपाय बताईये कि परिणति अपनेमें कैसे आये?

समाधानः- उसका उपाय अपना पुरुषार्थ करना, परिणतिको पलटनेका उपाय करना। परिणति कैसे पलटे वैसे करना। परिणतिको बारंबार अपनी ओर लाना। क्षण-क्षणमें परिणतिमें विभावमें एकत्वबुद्धि हो रही है। ऐसे स्वभावमें एकत्व होना चाहिये। जैसा निर्णय होवे वैसा कार्य होना चाहिये। निर्णय तो किया लेकिन कार्य ऐसा नहीं किया। कार्य ऐसा करना चाहिये कि जैसी रुचि हो कि मैं पर नहीं हूँ, मैं तो स्व चैतन्य हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा निर्णय तो किया लेकिन एकत्वबुद्धि तो हो रही है। नक्की तो किया परन्तु कार्य नहीं किया। कार्य करनेका प्रयत्न करना।

मुमुक्षुः- यहाँका कण-कण जो है, वह गुरुदेवकी वाणीसे गूँज रहा है। और गुरुदेव दो बार तो आते ही हैं।

समाधानः- गुरुदेव बोलते हैं। गुरुदेव बोलते हो ऐसा लगता है। कण-कण पावन है। ४५ साल तक सोनगढमें गुरुदेवकी निरंतर वाणी बरसती रही। ४५ साल तो सोनगढमें विराजे।


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मुमुक्षुः- ४५ साल चौमासे किये गुरुदेवने? हाँ, ४५ साल।

समाधानः- ... थोडा समय सौराष्ट्रमें घुमकर आते थे। बादमें हिन्दुस्तानमें जाने लगे। पहले तो बहुत रहते थे।

मुमुक्षुः- ये आशीर्वाद दो कि क्षयोपशम जाग जाय।

मुमुक्षुः- क्षयोपशमकी कोई कीमत नहीं है।

समाधानः- कम जाने उसकी विशेषता नहीं है। रुचि आत्माकी होवे, प्रयोजनभूत ज्ञान होवे कि मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वभाव है, यह विभाव है, ऐसे मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने तो उतना क्षयोपशम तो होता ही है। परन्तु विशेष तर्क, वादविवादमें न जा सके तो उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। मूल क्षयोपशम ऐसे प्रयोजनभूत तत्त्वको जान लेना। छः द्रव्यमें मैं एक जीवतत्त्वको ग्रहण करुँ। नौ तत्त्वमें एक जीवतत्त्वको ग्रहण करुँ। अपना अनादिअनन्त पारिणामिकभाव, अनादि ज्ञायकभाव ऐसी मूल वस्तुको ग्रहण करु। और दूसरा सब ज्ञानमें जाननेमें आता है कि गुणका भेद है, पर्याय है, गुण है, पर्याय है। ऐसा जान लेना।

दृष्टि तो एक आत्मा पर रखनी और ज्ञानमें जान लेना कि ये गुण है, पर्याय है, सब जान लेना। पुरुषार्थ तो अपनेमें करना है। वह विभाव है, शुभभाव भी अपना स्वभाव नहीं है। बीचमें आता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा सब आती है। परन्तु वह अपना स्वभाव तो नहीं है। शुद्धात्माको ग्रहण करना और बीचमें आता है, ऐसा शुभभाव तो आता है, परन्तु वह दुःखरूप है-आकुलतारूप है। इसलिये अपने स्वभावको ग्रहण करना। ये विभाव है, ये स्वभाव है, उसका भेदज्ञान करना। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्तबुद्धि, ऐसा जानकर भेदज्ञानकी धारा प्रगट करना। मूल तत्त्वको समझ लेना। ज्यादा क्षयोपशम नहीं होवे, तर्क, वादविवाद आदि समझमें न आवे तो उसकी कोई जरूरत नहीं है। मूल वस्तुको (जान लेना)।

ज्ञायककी धारा कैसे प्रगट होवे? विकल्प टूटकर स्वानुभूति कैसे प्रगट होवे? वही जीवनका कर्तव्य है। उसका बारंबार अभ्यास करना, वही करना है। एक कल्याणरूप, मंगलरूप ज्ञायक स्वभाव है, उसको ग्रहण करना। ... बढते-बढते भीतरमें स्वानुभूति बढकर मुनिदशा आती है, वह सब स्वानुभूतिका प्रताप है, उसके कारणसे आती है। उसमें केवलज्ञान (होता है)। स्वानुभूति प्रगट होनेसे होता है। मुख्य तो सम्यग्दर्शन है। अनादि कालमें जीवने सम्यग्दर्शन नहीं प्रगट किया। शास्त्रमें आता है कि जिनवर स्वामी और सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुए। जिनवर स्वामी मिले तो सही परन्तु स्वयंने ग्रहण नहीं किया-पहचाना नहीं। और सम्यग्दर्शन तो प्रगट ही नहीं हुआ है। उसको प्रगट करनेका पुरुषार्थ करना, वही जीवनका कर्तव्य है।


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मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन ही मूल है।

समाधानः- मूल सम्यग्दर्शन, मूल सम्यग्दर्शन है। ... आनन्द है, स्वानुभूतिमें सब है। अनन्त गुण स्वानुभूतिमें हैं। अनन्त ऋद्धि स्वानुभूतिमें है, आत्मामें सब है।

... उसमेंसे सब प्रगट होता है। ऊपरसे ग्रहण करे तो कुछ प्रगट नहीं होता। वह तो तल-स्वभावको ग्रहण करे तो उसमेंसे स्वभावमेंसे स्वभावपर्याय आये। स्वभावमें जाये तो स्वभावमेंसे स्वभावपर्याय प्रगट होती है। अन्दरमें जाये तो स्वभावमेंसे स्वभावपर्याय प्रगट होती है। विभावकी ओर दृष्टि है तो विभावपर्याय होती है। दृष्टि विपरीत है तो दृष्टिमें सब ऊलटा ही आता है। सुलटी दृष्टि होकर स्वभावकी ओर दृष्टि जाय, स्वभावकी परिणति हो तो स्वभावपर्याय होती है। तो परिणति पलटे, परिणति पलट जाय। यदि स्वभाव पर दृष्टि जाय तो परिणति पलटती है। शुद्धात्मा पर दृष्टि जाय तो शुद्धपर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ... स्वभावमेंसे पर्याय आयी, ऐसे कहना है?

समाधानः- ... नहीं, जैसा स्वभाव है वैसी दृष्टि हो। पर्याय प्रगट होती है वही एक दशा है। दशा कहो या पर्याय कहो। स्वभाव पर दृष्टि जाये तो उस जातिकी दशा होती है। जैसे दृष्टि वैसी उसकी दशा है। दृष्टि अनुसार सृष्टि, ऐसा गुरुदेव कहते थे। जैसी दृष्टि हो वैसी उसकी सृष्टिकी रचना होती है। जैस ओर दृष्टिकी परिणति हुई, स्वभावकी ओर दृष्टि गयी, स्वभावकी ओर (हुयी) तो उस जातिकी सृष्टि उसे स्वभावकी ही रचना होती है। स्वभावकी ओर गया तो स्वभावकी रचना होती है और विभावकी ओर जाय तो विभावकी रचना होती है। दशा भी वैसी (होती है), जैसी दृष्टि वैसी दशा होती है।

ज्ञायक पर दृष्टि गयी तो ज्ञायकरूप परिणमित हुआ, ज्ञायककी धारा हुयी। विकल्पसे रहित आत्मा है, ऐसी दृष्टि हुई, वैसी धारा उसने प्रगट की तो विकल्प टूटकर निर्विकल्प दशा हुयी। जैसी दृष्टि उसने ग्रहण की, वैसी उसकी दशा होती है। दशा कहो या पर्याय कहो, सब एक ही है।

मुमुक्षुः- स्वभावकी दृष्टि करनी यानी क्या?

समाधानः- स्वभाव पर दृष्टि, स्वभावकी ओर दृष्टि। दृष्टि, जो अपना चैतन्यका स्वभाव है कि मैं ज्ञायकरूप चैतन्य हूँ, उस ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करके उस पर दृष्टिको स्थिर कर देना कि मैं यह चैतन्य ही हूँ। मैं ये विभाव नहीं हूँ, परन्तु मैं चैतन्यद्रव्य चैतन्य सामान्य तत्त्व सो मैं हूँ। उसमें गुणके भेद, पर्यायके भेद गौण हो जाते हैं, जहाँ दृष्टि एक अभेद पर गयी तो। स्वभाव पर दृष्टि गयी, चैतन्य पर दृष्टि गयी, वहाँ दृष्टि जम गयी। दृष्टि उसे ही लक्ष्यमें लेती है कि मैं यह चैतन्य हूँ, चैतन्य


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हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ये शरीरादि, ये विभावकी परिणति, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु मैं चैतन्य हूँ। मैं चैतन्य हूँ, ऐसी दृष्टि प्रगट होती है। दृष्टि कहो, प्रतीत कहो। उसकी दिशा बदल गयी है। दृष्टि स्वयं चैतन्य पर थँभ गयी है। मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, मैं ज्ञायक ही हूँ, अन्य कुछ नहीं। अंतरमेंसे ऐसी दृष्टि प्रगट हो जाती है। और ऐसी दृष्टि हुयी तो परिणति उस ओर जाती है कि मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसी धारा प्रगट हो। ऐसी यथार्थ परिणति हो तो उसे निर्विकल्प दशा होती है। वह उसका कारण और कार्य आता है स्वानुभूति। यथार्थ कारण प्रगट हो, यथार्थ दृष्टि प्रगट हो तो स्वानुभूति प्रगट होती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!