Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 149.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 146 of 286

 

PDF/HTML Page 940 of 1906
single page version

ट्रेक-१४९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उसे अंतरसे बैठना चाहिये। उस प्रकारसे कुछ आपका जवाब था। बुद्धिसे नहीं, अपितु अंतरसे। इन दोनोंमें क्या अंतर है?

समाधानः- बुद्धिसे विचार करके निर्णय किया वह तो बुद्धिसे (हुआ)। अंतरमेंसे प्रगट करे। जो स्वभाव है, उस स्वभावमें पहुँचकर ग्रहण होना चाहिये कि यह चैतन्य सो मैं हूँ। विचार किया कि यह चैतन्य मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसा विचारसे निर्णय किया वह विचारसे निर्णय नहीं, अंतरमेंसे होना चाहिये। अंतरमेंसे कि जो अन्दरमें अपना अस्तित्व है वह अस्तित्व ग्रहण होना चाहिये कि यह चैतन्यका अस्तित्व सो मैं, यह बाहरकी जो परिणति होती है वह मेरा मूल स्वभाव नहीं है, वह तो पर्यायें हैं। उसका अस्तित्व ग्रहण होना चाहिये। विचारसे निर्णय करे। पहले आता है, परन्तु अंतरमेंसे दृष्टि प्रगट होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- जैसे रागका स्वामीत्व है कि यह मेरा है, मैं हूँ। ऐसे उसे अपने चेतनत्वका स्वामीत्व, मेरापना, अहंपना प्रगट होना चाहिये। उसे अंतरमेंसे प्रगट हुआ (ऐसा कहते हैं)?

समाधानः- मैं यही हूँ, यह मैं नहीं हूँ। स्वमें स्वबुद्धि (करे) कि मैं यही हूँ। मैं उसका स्वामी, वह विकल्प हुआ। लेकिन मैं जो चैतन्य है वही मैं हूँ। उतनी बुद्धि उसमें तदाकार-तदरूप दृष्टि उस रूप परिणमित हो जाय। जो एकत्वकी परिणति चल रही है, वह भिन्न होकर यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ऐसी अंतरमेंसे उस प्रकारकी परिणति प्रगट हो जाय।

मुमुक्षुः- उसका उपयोग..

समाधानः- उसका उपयोग बाहर जाता है, परन्तु अन्दर दृष्टि प्रगट होनी चाहिये, उस प्रकारकी।

मुमुक्षुः- राग हो ऐसा कोई गुण जीवमें नहीं है। राग हो ऐसा जीवमें कोई गुण नहीं है। और ऐसे सीधा ले तो चारित्रगुणकी पर्याय है, उसमें राग चारित्रगुणकी विपरीतताके कारण होता है, वहाँ कहनेका भावार्थ क्या है?

समाधानः- आत्माके मूल स्वभावमें राग हो ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। उसमेें


PDF/HTML Page 941 of 1906
single page version

अमुक प्रकारकी योग्यता है, वैभाविक योग्यता है (तो) चैतन्यमें विभाव परिणमन होता है। उसके मूल स्वभावमें कहीं राग नहीं होता है। स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, वैसे स्वभावसे तो स्वयं निर्मल ही है। उसके मूल स्वभावमें अन्दर प्रवेश (नहीं हुआ है)। स्फटिकमें मूल स्वभावमें लाल-कालेका प्रवेश नहीं होता है। वैसे उसका मूल स्वभाव, उसमें राग हो ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। स्वभावमें उसका प्रवेश नहीं होता। उसकी परिणतिमें ऐसा हो जाता है। उस प्रकारकी उसमें योग्यता है, पर्यायमें हो वैसी। वैभाविक शक्ति है, उसमें ऐसी योग्यता है। वह होता है। वह नहीं हो तो उस जातका वेदन, आकुलता कुछ नहीं होता। उस जातकी विभावपर्याय होती है। लेकिन मूल स्वभावमें नहीं है। मूल स्वभावमें जाकर देखे तो, जैसे स्वभावसे पानी निर्मल है, स्फटिक निर्मल है, वैसे उसका स्वभाव निर्मल है। निर्मलता पर दृष्टि करे तो निर्मल ही है। इसलिये निर्मलको ख्यालमें लेना और ये सब जो विभावकी पर्याय है, स्वयं अपनी ओर आये तो उसकी विभाव परिणति छूटकर स्वभाव परिणति हो। फिर अल्प अस्थिरता रहती है, वह भी पुरुषार्थसे क्रम-क्रमसे छूट जाती है।

सर्वगुणांश सो सम्यकत्व। चैतन्यकी ओर परिणति गयी तो सर्व गुणोंका अंश स्वभावकी ओर परिणति प्रगट (होती है)। इस ओर दिशा है तो सब विभावपर्याय होती है। पूरा चक्कर दृष्टि इस ओर मुडी तो सब ऐसे मुड जाता है। फिर अल्प अस्थिरता रहती है, उसकी भी धीरे-धीरे शुद्धि होती जाती है। चारित्रकी निर्मलता (होती है)। एक तत्त्वको ग्रहण करे तो उसमें सब आ जाता है। ज्ञान, आनन्द आदि सब उसमें प्रगट होता है। एक उसकी दृष्टि बदले तो।

मुमुक्षुः- .. पुरुषार्थ क्यों उठता नहीं है?

समाधानः- सबका एक ही प्रश्न आता है। क्यों नहीं उठता है? अपना ही कारण है, किसीका कोई कारण नहीं है। स्वयंकी रुचिकी क्षति है और अपनी मन्दता है। गुरुदेव कहते थे, किसीका कारण नहीं है। नहीं कर्म रोकते, नहीं और कोई रोकता। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। अपनी रुचि बाहर विभावमें रुकी है, इसलिये रुक गया है। स्वयं अपनी ओर जाय तो स्वतंत्र है। उसे कोई रोकता नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। स्वयं विभावमें जानेवाला स्वतंत्र (है), स्वभावमें आनेवाला स्वयं स्वतंत्र है। अपनी स्वतंत्रतासे स्वयं अपनेमें आ सकता है। स्वयं स्वयंको पहचान सकता है।

स्वयं अपना स्वभाव पहचानकर स्वयंकी ओर जाना है। बाहर अटका है। स्वयंकी ओर जाना। मैं चैतन्यदेव चैतन्यस्वभावसे भरा हुआ, ज्ञायकतासे भरा हुआ आत्मा हूँ। अपनी ओर जाना। सब विभाव आकुलतारूप है। स्वभाव शान्ति और आनन्दसे भरा है। उस ओर जाना, उस ओर परिणतिको मोडना आदि सब अपने हाथमें है। भेदज्ञान


PDF/HTML Page 942 of 1906
single page version

करना, स्वानुभूति करना, सब मुक्तिका मार्ग गुरुदेवने प्रकाशित किया है। आनन्द स्वभावमें भरा है। ज्ञान, आनन्द सब आत्मामें है, बाहर कहीं नहीं है।

मुमुक्षुः- .. विकल्पका जोर बढ जाता है। स्वभाव हाथमें आता नहीं है, विकल्प उत्पन्न हो जाता है। स्वभावको स्वयं प्रयत्न करके ग्रहण करना। प्रज्ञासे भिन्न करना और प्रज्ञासे ग्रहण करना, (ऐसा) शास्त्रमें आता है। और गुरुदेव भी ऐसा ही कहते थे। विकल्पका जोर बढे तो उसके सामने अपना जोर बढाना। चैतन्य परिणतिका जोर बढे तो वह टूटे। स्वयं अपने स्वभावको ग्रहण करना और विभावसे भिन्न करना। प्रज्ञासे ग्रहण करना, प्रज्ञासे भिन्न करना अपने हाथकी बात है। विकल्पका जोर बढे तो उसके सामने नहीं देखकर स्वयं अपने स्वभावका जोर बढाना। बारंबार उसीका अभ्यास करना। उसीका अभ्यास करना, उसमें थकना नहीं। उसीकी ओर अभ्यास करते रहना।

... सबका सार एक है-मैं एक शुद्ध ममत्वहीन ज्ञान-दर्शनसे भरा आत्मा हूँ। मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ। अनादि अनन्त शाश्वत हूँ। चैतन्य ज्योति है। ये सब तो जड है, ये सब दिखाई देता है वह। चैतन्यकी ज्योति अनादिअनन्त शाश्वत है। प्रत्यक्ष ज्ञात हो ऐसा है, कहीं अपरोक्ष नहीं है। स्वयं प्रत्यक्ष है। परोक्ष नहीं है, परन्तु प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष ज्योति है, अनादि अनन्त है। नित्य उदयरूप है। वह गुप्त नहीं है, नित्य प्रगट ही है। उदित आत्मा है। उसे अनुभव नहीं होता है, अनुभव हो तो उदय कहा जाय। परन्तु स्वभाव उदयरूप है, नित्य उदयरूप है। प्रत्यक्ष चैतन्यकी ज्योति है। चैतन्यस्वभाव है, ज्ञानघन स्वभाववान है। उसका स्वभाव ज्ञानसे भरा ऐसा चैतन्य प्रत्यक्ष अनुभवमें आये ऐसा है। ऐसा एक स्वरूप आत्मा है। अखण्ड ज्योति है। उसमें खण्ड नहीं पडता। ऐसा आत्मा है। उसे ग्रहण करने जैसा है।

बाकी सब अनादिसे परिणमन हो रहा है, वह सब परिणमन परके साथ एकत्वयुक्त है। चैतन्य एक स्वरूप आत्मा, शुद्ध चैतन्यज्योति उसे ग्रहण करने जैसा है। अनादिअनन्त शाश्वत चैतन्य है। प्रत्यक्ष है। दिखायी नहीं देता है, फिर भी प्रत्यक्ष है। स्वयं प्रत्यक्ष है, गुप्त नहीं है। परोक्ष तो अपेक्षासे कहनेमें आता है। परोक्ष नहीं है। केवलज्ञानकी अपेक्षासे कहा है। उसका वेदन तो स्वानुभूतिमें प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्ष ज्योति है। ये बाहरकी ज्योति नहीं, ये तो चैतन्यकी ज्योत ऐसा आत्मा है। एक स्वरूप आत्मा शुद्धात्मा, उसे ग्रहण करने जैसा है। उसे ग्रहण करे और उसकी महिमा आये तो सब विभाव परिणतिका रस टूट जाय, चैतन्यकी महिमा आये तो। ऐसा एक शुद्धात्मा है।

एक शुद्धात्मा है। सब प्रक्रियासे पार। उसमें कर्ता, क्रिया, करण, संप्रदान, अपादान आदि प्रक्रिया .... स्वभावरूप है। किसी भी प्रकारका भेद नहीं है। ऐसा शुद्ध है। किसी भी प्रकारका उसमें कर्ता, परका कर नहीं सकता, परकी क्रिया कर नहीं सकता।


PDF/HTML Page 943 of 1906
single page version

उसे कुछ दे सके, उसमेंसे कुछ ले सके, उसका वह आधार नहीं है। ऐसा आत्मा है। ऐसी सब प्रक्रियासे पार आत्मा ऐसा चैतन्यतत्त्व है। उस तत्त्वको ग्रहण करने जैसा है।

.... अनादि कालसे कर रहा है, फिर भी ममत्वहीन हूँ। परका ममत्व, स्वामीत्वबुद्धि कर रहा है, तो भी कहते हैं, मैं ममत्वहीन हूँ। उसका स्वामीत्व पुदगलका है, स्वयंको नहीं है। फिर भी स्वामीत्व मान तो लेता है। तो भी कहते हैं, मैं उससे स्वामीत्व रहित, उससे भिन्न चैतन्यतत्त्व है। विभावका विश्वरूपपना। विभाव तो पूरे विश्वमें व्याप्त, ऐसा विभाव है। परन्तु मैं उसका स्वामी नहीं हूँ।

... अपने स्वभावमें शान्ति और आनन्द भरा है। वह तो बाहरका संयोग है। देव- गुरु-शास्त्र आत्माको प्राप्त करनेमें निमित्त हैं। देव-गुरु-शास्त्र, जिन्होंने आत्माकी साधना करके पूर्णता प्रगट की, उसकी भावना बीचमें आये बिना नहीं रहती। साधकोंको शुभभावमें भावना आती ही है कि देव-गुरु-शास्त्र मुझे समीप हो, ऐसी भावना आती है। परन्तु वह हेयबुद्धिसे आती है। हेय होने पर भी उसे भावना होती है कि देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता हो। वह होनेपर भी भावना आती है।

गुरुदेवकी वाणी जोरदार थी कि सेवक ऐसा ही कहे कि, प्रभु! मैं आपके कारण तिरा। ऐसा कहे। परन्तु उपादान अपना है। भावना ऐसी (आती है)। निमित्त पर आरोप करके (कहता है कि), प्रभु! आपने मुझे तारा। शुभभावमें तो ऐसा आता ही है। आचाया भी ऐसा कहते हैं, सब ऐसा ही कहते हैं। ... वह तो उसका स्वभाव नहीं है, अपना स्वभाव नहीं है ऐसा जाने। परन्तु शुभभावमें ऐसा आये कि प्रभु! आप मुझे तारिये, ऐसा आये।

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके प्रति बहुमान आये बिना नहीं रहता।

समाधानः- रहता ही नहीं। जिसे ज्ञायकओरकी परिणति हो, उसमें ऐसा बहुमान आता ही है। आचायाको भी ऐसा बहुमान आता है। आचार्य भी शास्त्र लिखे तब जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करते हैं।

मुमुक्षुः- सभी वस्तुएँ क्रमबद्ध हैं तो पुरुषार्थकी महत्ता नहीं रही।

समाधानः- क्रमबद्ध, पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। जिसमें पुरुषार्थ समाविष्ट है। क्रमबद्ध होनेके बावजूद उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। उसका जो पुरुषार्थ करे, जिसे पुरुषार्थकी भावना होती है, उसीका क्रमबद्ध सुलटा होता है। जिसे पुरुषार्थ नहीं करना है, प्रमाद करना है, उसका क्रमबद्ध भी उलटा होता है। उसे संसारका क्रमबद्ध होता है। जिसे पुरुषार्थकी भावना हो, उसीका क्रमबद्ध मोक्षकी ओर होता है। जिसे पुरुषार्थ नहीं होता, उसे क्रमबद्ध सुलटा नहीं होता। पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है।


PDF/HTML Page 944 of 1906
single page version

... क्रमबद्धके साथ सब कारण साथमें होते हैं। पुरुषार्थ, स्वभाव आदि सब साथमें होते हैं। जिसका पुरुषार्थ सुलटा, उसका क्रमबद्ध सुलटा होता है। पुरुषार्थपूर्वकका क्रमबद्ध समझना।

... महिमा गाये। गुरुदेव गाते थे। सब आचार्य गाते हैं। उसका स्वभाव .... आत्मामें अनन्त शक्ति भरी है। आत्मामें ज्ञान अनन्त, आत्मामें आनन्द अनन्त। आत्मा अदभुत तत्त्व है। ये बाहरका जो दिखाई देता है वह सब तुच्छ है। वह कुछ आत्माको सुखरूप नहीं है। इसलिये उसका विचार करके आत्माका स्वभाव पहचाने तो महिमा आये। देवलोकके देव भी आश्चर्यभूत नहीं हैं। देवलोकका सुख भी आश्चर्यभूत नहीं है। देवोंको भी भगवान जिनेन्द्र देवकी महिमा आती है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आती है। जिन्होंने आत्मस्वरूपको प्रगट किया, ऐसे देव-गुरु-शास्त्रकी साधना करे, उसकी महिमा, जो उन्होंने प्रगट किया। इसलिये करने जैसा है वैसा आत्मा है। इसलिये आत्माकी महिमा करनी। आत्माका स्वभाव ऐसा है। जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा अपना आत्मा है। इसलिये उसका- आत्माका स्वभाव पहिचानना। जो जिनेन्द्र देव-गुरु कहते हैं, उसे अन्दर पहिचानना कि आत्मा ऐसा ही है। आत्मामें कोई अदभूतता भरी है, आत्मा कोई आश्चर्यकारी तत्त्व है। ये सब दिखाई देता है, वह अलग है और अंतरमें आत्मा कोई अलग है। उसकी महिमा लानी।

... विशेषता नहीं है। जीवनकी विशेषता आत्मामें कुछ प्रगट हो तो जीवनकी विशेषत है, तो मनुष्यजीवनकी सफलता है। बाकी ये सब संसार तो पुण्यके कारण चलता रहता है। वह प्रयत्न करे तो भी अपनी इच्छानुसार नहीं होता है। इसलिये अंतरमेंसे-आत्मामेंसे कुछ प्रगट हो, कुछ नवीनता आत्माका स्वभाव। तो वही जीवनका कर्तव्य है। इसलिये उसकी रुचि, महिमा, उसका विचार, उसका घोलन, वांचन आदि सब उसका करने जैसा है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!