Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 15.

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ट्रेक-०१५ (audio) (View topics)

समाधानः- ... मैं चैतन्य हूँ, बाहरमें इष्ट-अनिष्ट कुछ भी नहीं है, ऐसी प्रतीति दृढ (हो गयी है)। ज्ञायकको ग्रहण किया, ज्ञायककी परिणति प्रगट हो गई। प्रतीतमेंसे छूट गया है, भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। अस्थिरतामें अल्प विभाव है, लेकिन वह बाह्य वस्तु इष्ट है और बाह्य वस्तु अनिष्ट है, ऐसा उसे नहीं है। अन्दर विभाव परिणति स्वयंकी है, पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। उसमें जो होता है, विभाव होता है उस विभावकी परिणतिके कारण, मन्दताके कारण रुकता हूँ। बाकी बाहरमें उसे इष्ट-अनिष्टपना उसे है ही नहीं। चतुर्थ गुणस्थानमें।

मुमुक्षुः- श्रद्धा अपेक्षासे निकल गया।

समाधानः- हाँ, श्रद्धा अपेक्षासे निकल गया है। अस्थिरतामें है।

मुमुक्षुः- बाह्य दृष्टिसे देखें तो बहुत ही संयोग दिखाई देते हैं।

समाधानः- दिखाई देते हैं, परन्तु उसे प्रतीतमें नहीं है, अंतरसे छूट गया है। एकत्वबुद्धि नहीं है, तन्मयता नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ, मुझे कोई कुछ नहीं कर सकता। बाह्य वस्तु या अन्य कुछ मेरा बिगाडता नहीं और कोई सुधारता नहीं। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे राग-द्वेषसे उसमें जुडना होता है, वह मेरी स्वयंकी भूलके कारण मैं रखडा और मेरे ही कारण, पुरुषार्थकी मन्दतासे इसमें जुडता हूँ। बाकी मेरा इष्ट-अनिष्ट कोई नहीं है। मैं स्वयं ही इष्ट हूँ। मेरे चैतन्यमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता। मेरा कोई बिगाड-सुधार नहीं कर सकता। मैं स्वयं ज्ञायक स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त हूँ, उसमें किसीका प्रवेश नहीं है। व्यवहारमें अस्थिरताके कारण वैसा दिखाई देता है। कोई भाषा बोले तो अंतरमें उसे एकत्वबुद्धिकी परिणति या श्रद्धाकी परिणति नहीं है, अल्प अस्थिरता है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- स्वयं अपनी परिणतिको समझे। उसके परिचय वाले हो वह पकड सकते हैं। जिसकी वैसी देखनेकी दृष्टि हो, किसीका अंतरंग देख सके ऐसी जिसकी दृष्टि हो वह देख सकता है। सच्चा आत्मार्थी, कोई मुमुक्षु हो तो वह देख सकता है। उसके परिचित। वैसी देखनेकी जिसकी शक्ति हो, वह देख सकता है। बाकी उसके


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कार्य परसे दिखे। अंतर अभिप्रायमें परिणति एकत्वबुद्धि नहीं है, अंतर गहराईमें नहीं है। उसका आत्मा ऊर्ध्व ही रहता है, उसमें एकत्व होता ही नहीं। बाह्य सब संयोग पुण्य-पापके उदय अनुसार होते हैं। किसीके करनेसे कुछ नहीं होता।

मुमुक्षुः- मिथ्यादृष्टि छोड दे तब सम्यग्दर्शन होता है।

समाधानः- वह बात सत्य है। मिथ्यात्व जाये तो सम्यग्दर्शन होता है। अन्दर पुरुषार्थ करे तो सम्यग्दर्शन (होता है)। उसकी दृष्टि मिथ्यात्व है इसलिये उसे ऐसा लगता है किसीने मेरा बिगाडा, किसने सुधारा। कोई बिगाडता है, ऐसी दृष्टि मिथ्यादृष्टिकी होती है। सम्यग्दृष्टिको ऐसी दृष्टि नहीं है।

मुमुक्षुः- एकदम मन्द कषाय हो, उसमें कैसे भेद करना?

समाधानः- मन्द कषाय हो तो भी विकल्प है। विकल्पकी एकत्वबुद्धि (है)। मन्द कषाय हो तो भी एकत्वबुद्धि (है)। आत्माका अस्तित्व ग्रहण नहीं हुआ है, उसका ज्ञायक प्रगट नहीं हुआ है। जिसे स्वानुभूति होती है उसकी दशा तो अलग ही होती है। स्वानुभूतिके कालमें उसकी दशा आनन्दमय, अन्दर चैतन्यमय, चैतन्य चैतन्यमयरूप परिणमित हो गया, उसकी दशा अलग ही होती है। और मन्द कषाय वालेकी दशा और स्वानुभूतिकी दशा वालेके बीच प्रकाश एवं अन्धकार जितना अंतर है। भले मन्द कषाय हो तो भी।

वर्तमान भेदज्ञानकी धारा और एकत्वबुद्धि एवं मन्द कषाय हो तो भी भेदज्ञानकी धारा अलगी ही होती है। और यह मन्द कषाय हो तो उसे एकत्वबुद्धि है। उसने ज्ञायकका अस्तित्व (ग्रहण नहीं किया है)। उसे अन्दरसे जो ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण होकर अन्दरसे जो शांति आनी चाहिये वह नहीं आयी। उसकी दशा अलग होती है।

मुमुक्षुः- जिसको कभी अनुभव नहीं हुआ हो और प्रथम बार अनुभव होता है, उस वक्त वह मन्द कषायको भिन्न कर सकता है?

समाधानः- कर सकता है, कर सकता है। सच्चा आत्मार्थी हो, जिसे आत्माको ग्रहण करना है वह पकड सकता है। जो नहीं पकडे उसकी दृष्टि बराबर नहीं है। पकडे नहीं और जूठमें कल्पना कर ले, जूठमें-मन्द कषायमें संतुष्ट हो जाये, जिसे अंतरसे लगी है, उसे मन्द कषायमें संतुष्टता होती ही नहीं। अंतरमेंसे उसे शांति नहीं आये, अन्दरसे भिन्नता भासित नहीं हो, आकूलता टूटी नहीं, अंतरमेंसे आकूलता टूटी नहीं, शांति आयी नहीं, इसलिये यदि उसमें मान ले तो उसकी यथार्थ जिज्ञासा भी नहीं है। उसमें मान ले तो।

जिसे सच्ची जिज्ञासा हो वह कहीं भी भूलता नहीं और अटकता नहीं। उसे वैसे (परिणाममें) संतुष्टता ही नहीं होती। मुझे अभी तक कुछ हुआ ही नहीं है, ऐसा उसे


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लगे, मन्द कषाय हो तो भी। मुझे अन्दरसे कोई अलग दशा भासित होनी चाहिये वह भासी ही नहीं। इसप्रकार भिन्न दशा नहीं हो, वह अन्दर संतुष्ट नहीं होता। संतोष हो जाये तो उसने थोडेमें मान लिया, इसलिये उसके पुरुषार्थकी मर्यादा आ गयी। सच्चा आत्मार्थी हो तो उसे पुरुषार्थकी मर्यादा आये ही नहीं। उसे ऐसा लगता है, अभी अन्दर करना बाकी है, अंतरसे जो शांति और बदलाव आना चाहिये, वह नहीं आया है। भले मन्द कषाय हो, परन्तु कुछ भासता नहीं। शांति लगती है लेकिन आत्माका कोई भिन्न स्वरूप हाथ नहीं आया है। जो सच्चा आत्मार्थी है, वह कभी संतुष्ट होता ही नहीं।

मुमुक्षुः- मानना नहीं हो, परन्तु माताजी! जो धोखा खा जाये तो उसका क्या? जिसे अनुभव हुआ है वह तो भेद कर सकता है कि यह मन्दसे मन्दतर कषाय है, परंतु जिसे वैसा अनुभव नहीं हुआ है, वह तो उसमें धोखा खाता है। उसे ऐसा लगता है कि मुझे तो साक्षात अनुभव हो गया है।

समाधानः- उसे संतोष नहीं आता। सच्चा जिज्ञासु हो उसे संतोष नहीं होता। अन्दर शान्ति लगे तो भी अन्दर संतोष नहीं होता। अन्दरसे जो मुझे आकूलता छूटनी चाहिये, वह अभी छूटी नहीं है। अन्दरसे कुछ भासित नहीं हो रहा है। वह धोखा नहीं खाता। जो सच्चा आत्मार्थी है वह धोखा नहीं खाता। मेरी अभी भी कहीं भूल होती है। ऐसा उसे लगता है।

जो महापुरुष ज्ञानी और गुरुदेव एवं आचायाके शास्त्रमें आता है, वह जो मुक्तिके मार्गकी बात करते हैं, वैसा मुझे अन्दर नहीं लगता है। उसे वैसा संतोष नहीं होता। स्वयंने देखा नहीं है, परन्तु गुरुके पास सुना हो, शास्त्रमें स्वानुभूतिकी, भेदज्ञानकी बातें पढी हो, वह सब बातें आती है, ऐसा मुझे अंतरमेंसे उस जातिका उल्लास या वैसी शान्ति (नहीं लगती)। मुझे ऐसा लगे कि, यही मार्ग है, वैसा अन्दरसे जो निर्णय आना चाहिये ऐसा जोरदार नहीं आता। इसलिये इसमें कुछ भूल है।

सच्चा जिज्ञासु हो वह थोडे पुरुषार्थमें अटक नहीं जाता। उसे ऐसा लगता है कि ऐसे अटक जानेसे मेरी भूल होती है, ऐसी खटक उसे निरंतर रहती है। मेरी कहीं न कहीं भूल होती होगी, इसलिये वह अन्दर अटकता नहीं। जिसे थोडेमें मान लेना हो कि मुझे जल्दी करना है, मुझे कुछ करना है, अब मुझे हो गया, अब मुझे हो गया, ऐसा संक्षेपमें जिसे मान लेना हो, ऐसी कल्पना करनी हो वही उसमेें संतुष्ट हो जाता है।

जो सच्चा खोज करनेवाला है, मुझे आात्माका ही करना है, आत्माका ही प्रयोजन है, वह किसीको दिखानेके लिये या मुझे गलत तरीकेसे मनानेके लिये नहीं करना है,


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यह तो मुझे मेरे आत्माके लिये करना है। ये अनन्त कालका परिभ्रमण कैसे मिटे और अन्दरसे मेरा सुख प्रगट हो और यह दुःख कैसे टले, ऐसा अनुपम आत्मा मुझे कैसे प्राप्त हो, यह मुझे मेरे खातिर करना है। यदि मैं संतुष्ट हो जाऊँ, मुझे कुछ लगता नहीं है, तो आगे नहीं बढ (पाऊँगा)। सच्ची खटक लगी हो, वह संतुष्ट नहीं होता। मात्र मुझे कर लेना है और मुझे कुछ करना है, ऐसा हेतु अन्दर हो तो संतुष्ट हो जाता है। आकूलता और अधैर्यसे पुरुषार्थ कर लूँ, ऐसी अधीरता जिसे होती है वह संतुष्ट हो जाता है।

अन्दर धोखा खानेके तो अनेक रास्ते होते हैं। जिज्ञासा हो, फिर होता ही नहीं हो तो थोडा पुरुषार्थ करके (मान लेता है कि), अब मुझे हो गया, अब मुझे हो गया। ऐसी कल्पना करता हो उससे (कोई कार्य हो नहीं जाता)। सच्चा आत्मार्थी हो वह अन्दर संतुष्ट नहीं होता। अन्दर उसे आत्मा यथार्थरूपसे भास्यमान होकर जो अन्दरसे यह आत्मा और यही स्वरूप, ऐसा जो अंतरसे आना चाहिये वह नहीं आता है, वह अन्दर संतुष्ट होता ही नहीं।

भले ही उसे ऐसी शांति, शांति लगे, परन्तु अन्दर एकत्वबुद्धि टूटी नहीं है और अंतरमेंसे जो भिन्न भास्यमान होना चाहिये वह होता नहीं। उसे कोई मार्ग हाथ नहीं लगा है, कोई ज्ञायक (प्राप्त) नहीं हुआ है, उस ओर जानेका अन्दर यथार्थ मार्ग नहीं मिला है। मात्र शांति-शांति लगे, उसमें अटक जाये, जो सच्चा आत्मार्थी होता है वह अटकता नहीं। बहुत लोग ध्यान करते हैं उसमें उसे ऐसी शांति लगे, विकल्प मन्द हो जाये और मानो विकल्प छूट गये, ऐसा उसे लगता है। अन्दर सूक्ष्मतासे देखे तो अन्दर मन्द विकल्प होते ही हैं। उससे भिन्न नहीं हुआ है। आत्माके अस्तित्वपूर्वक, ज्ञायकका अस्तित्व कुछ प्रगट हो उसके साथ छूटना चाहिये। वह तो छूटा नहीं। सच्चा आत्मार्थी अटकता नहीं।

समाधानः- .. यह किसीको दिखानेका मार्ग या स्वयं गलत तरीकेसे संतुष्ट हो जाना, वह मार्ग नहीं है। अंतरसे आना चाहिये। सच्चे आत्मार्थीकी दृष्टि अन्दर घुमती रहती है कि अभी कुछ नहीं लगता है। सच्चा आत्मार्थी अटकता नहीं। मेरे लिये है, अन्य किसीके लिये है क्या? अटक जाऊँ, रुक जाऊँ तो वही जन्म-मरण इत्यादि सब खडा ही है। मेरे लिये है या कोई और के लिये है?

मुमुक्षुः- पूर्ण सिद्धि तो द्रव्यदृष्टिसे होगी।

समाधानः- द्रव्यदृष्टि किसे कहते हैं? द्रव्यदृष्टिके साथ, द्रव्य पर दृष्टि करे उसके साथ ज्ञान सम्यक होता है। और वह ज्ञान दोनोंको जानता है। द्रव्यको जाने और पर्यायको जाने। ज्ञान दोनोंका स्वीकार करता है। द्रव्यदृष्टिका जोर रहता है, परन्तु उसके


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साथ ज्ञान भी काम करता है। वह ज्ञान जानता है कि पर्यायमें मेरा अधूरापन है, पर्यायमें अभी विभाव है, द्रव्यमें शुद्धता है और वह शुद्धता-साधना करनी बाकी है। ज्ञान सब जानता है। इसलिये वह साधना करनी बाकी रहती है।

सम्यग्दृष्टि और ज्ञान, दोनों साथमें रहते हैं। द्रव्यदृष्टि, सम्यक द्रव्यदृष्टि हो उसके साथ ज्ञान भी, द्रव्य और पर्यायका ज्ञान भी होता है। अकेली द्रव्यदृष्टि हो और ज्ञान कोई काम नहीं करे तो वह दृष्टि सम्यक नहीं हो सकती। सम्यक द्रव्यदृष्टि हो, भले मुख्यरूपसे हो तो भी ज्ञान उसके साथ काम करता है। उसमें पर्याय है ही नहीं और पर्यायकी अशुद्धता नहीं है, पर्यायदृष्टि यानी पर्याय नहीं है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसकी अपेक्षा अलग है। अपेक्षा यानी वस्तुमें पर्याय ही नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। पर्याय है, परन्तु उसकी अपेक्षा अलग है।

समयसारमें आता है कि भूतार्थ दृष्टिसे देखें तो कमलिनीका पत्र जो है, वह कमल निर्लेप है। अभूतार्थ दृष्टिसे देखें तो वह पानीमें है और लिप्त है। भूतार्थ दृष्टिके समीप जाकर देखें तो वह शुद्ध है। अभूतार्थ दृष्टिसे देखो तो वह कमलमें पानीमें है। जैसे वह कीचडमें रहा है, फिर भी निर्लेप है। लेकिन वह कीचडमें है ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

(पानी स्वभावसे) निर्मल है, शीतल है। लेकिन पानीमें किसी भी अपेक्षासे मलिनता हुई ही नहीं है, ऐसा नहीं है। मलिनता है परन्तु निर्मली औषधि डालनेसे वह निर्मलता प्रगट होती है। मूलमें स्वभाव शीतल है। स्वभावका नाश नहीं हुआ है। परन्तु वह पुरुषार्थ करनेसे प्रगट होता है। शीतलताका लक्ष्य रखकर यानी द्रव्य पर दृष्टि करके, उसे निर्मलता प्रगट करनी बाकी है। अकेली द्रव्यदृष्टि हुई, एक ही है और उसमें और कुछ है ही नहीं, तो साधना (किसकी)? तो शुद्धताका अनुभव होना चाहिये। तो जीवको अभी सिद्धदशाका अनुभव होना चाहिये। सिद्धदशाका अनुभव तो है नहीं। यदि अशुद्धता हो ही नहीं तो सिद्धदशाका अनुभव होना चाहिये। पर्याय यानी किसी भी अपेक्षासे अशुद्धता हो ही नहीं तो शुद्धताका अनुभव होना चाहिये। जीवको शुद्धताका अनुभव तो है नहीं। वस्तुस्थिति, स्वभाव उसका नाश नहीं होता।

स्वभाव पर दृष्टि करनेसे साधना तैयार होती है। परन्तु उसके साथ यदि पर्यायका ध्यान नहीं रखे तो-तो साधना हो ही नहीं सकती। यथार्थ द्रव्यदृष्टि उसे प्रगट होती है कि जिसके साथ साधना हो, जिसके साथ पर्यायमें अशुद्धता है उसका उसे ध्यान होता है कि पर्यायमें अशुद्धता है, अभी शुद्धता प्रगट करनी बाकी है। द्रव्यदृष्टिसे मैं परिपूर्ण शुद्ध हूँ, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। दोनोंका उसे ध्यान रखना है। दोनों वस्तुको बराबर यथार्थ समझे तो मुक्तिका मार्ग प्रारंभ होता है।


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मुमुक्षुः- सम्यक एकान्तपूर्वक अनेकान्त..

समाधानः- हाँ, सम्यक एकान्त। सम्यक एकान्तके साथ अनेकान्त होना चाहिये। सम्यक एकान्त किसे कहते हैं? कि, जिसके साथ अनेकान्त हो तो ही उसे सम्यक एकान्त कह सकते हैं। यह शरीर आत्माका स्वरूप नहीं है। जो कुछ रोग आता है वह शरीरमें आता है, आत्मा तो भिन्न है। आत्मा ज्ञायक जानने वाला है। उसका भेदज्ञान करे कि शरीर भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। अन्दर जो विकल्प आते हैं, वह स्वयंका स्वभाव नहीं है। उससे आत्मा भिन्न है। उस पर दृष्टि करके, उसका भेदज्ञान करके और उसकी भावना प्रगट करनी, वही करना है। और जबतक वह नहीं होता, तबतक उसकी भावना करनी। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और अन्दर शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो, ऐसी भावना, वही जीवनमें करने जैसा है।

समाधानः- ... अर्थात स्वयं विभावसे भिन्न होता हुआ, ज्ञायक ज्ञायकरूपसे परिणमित होता हुआ, विभावसे भिन्न हुआ वह कर्मसे भिन्न होता है। अन्दर स्वयंकी जो विभाव परिणति है, वह विभाव परिणति स्वयंका स्वभाव नहीं है। स्वयं मन्दतासे जुडता है। उसे एकत्वबुद्धिमेंसे तोड दे। उससे भिन्न हुआ वह सबसे भिन्न होता है। उसे कर्मकी निर्जरा ही होती है। उसे उसप्रकारसे एकत्वरूप कर्म बन्ध होता ही नहीं। शरीरसे भेदज्ञान हुआ, विभावसे भेदज्ञान (हुआ), सबसे ज्ञायक भिन्न हुआ, सबसे भिन्न ही भिन्न, ज्ञायक तैरता ही रहता है। इसलिये जो कर्म आते हैं, मात्र आकर चले जाते हैं। ऐसे अल्प बंधते हैं। थोडे रसपूर्वक बँधते हैं, तीव्र रससे उसे नहीं बँधते। ऐसी ज्ञायककी धारा उसे वर्तती ही रहती है।

निर्जरा अधिकारमें सब ज्ञायककी अपेक्षासे लिया है। ज्ञानीको अन्नका परिग्रह नहीं है, पानीका परिग्रह नहीं है, सबकुछ होनेके बावजूद, नहीं है, नहीं है ऐसा कहा है। ज्ञायक उससे भिन्न पड गया है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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