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समाधानः- बाह्य संयोग तो पलटते रहते हैं। अभी ऐसा दिखे, फिर ... तो कुछ (दिखे)। पहली बात तो शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा मानते थे, पुण्यमें धर्म मानते थे। उसमेंसे गुरुदेवने भवका अभाव होनेका (पंथ बताया)। गुरुदेवने ही पूरे हिन्दुस्तानमें प्रचार किया है, दूसरा कौन जानता था? हिन्दुस्तानमें भी वह सब हिन्दी लोग तत्त्वार्थ सूत्र पढ ले और दूसरा पढ ले तो मानो कितना जान लिया। उसमेंसे समयसार आदि पढना सिखाया गुरुदेवने। हिन्दी लोगोेंमें भी गुरुदेवने ही प्रचार किया।
मुमुक्षुः- जी हाँ, गुरुदेवने पूरे हिन्दुस्तानमें..
समाधानः- सबको जागृत किया है। बाकी सब तो तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढकर मानों हम (कितना जानते हैं), गोम्मटसारको मानते थे। उसमेंसे गुरुदेवने सबको तत्त्वकी रुचिकी ओर मोडा है। उसमें पुराने लोगोंको क्रियाकाण्डका (आग्रह) होता है। गुरुदेवने सबको सुलझाकर एक आत्माकी ओर सबको मोडा है। इस ओर तो गुरुदेवका बडा उपकार है। पूरे हिन्दुस्तानमें। गुरुदेवकी महिमा जितनी हो उतनी करने जैसी है। जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र। एक ज्ञायक आत्मा कैसे जाननेमें आये? बाहरमें सब होता रहता है, दूसरा क्या हो सकता है? शान्ति रखनी। जयपुरमें कुछ अध्यात्मका पढते हों तो गुरुदेवसे ही सब (जाना है)। बरसोंसे सबको संस्कार पडे हैं। गुरुदेवने प्रचार किया। जयपुर आदि हर जगह गुरुदेवका ही प्रताप है। सब सीखे हैं वे गुरुदेवके पास सीखे हैं।
समाधानः- .. स्वकी ओर अभ्यास करे। मैं चैतन्य हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ये मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसे निज स्वभावमें दृष्टि करे। मैं चैतन्य द्रव्य हूँ, उसका स्वभाव बराबर पहचानकर उस ओर जाय तो परिणति पर-ओरसे हटे। गुजरातीमें समझमें आता है?
मुमुक्षुः- जी हाँ।
समाधानः- स्वयंको-चैतन्यको स्वका आश्रय है। परका आश्रय तो अनादिसे लिया है। चैतन्य अपने स्वभावका आश्रय करे, उस पर दृष्टि करे, उस ओर ज्ञान करे उस दिशा पलट दे। पर ओर जो दिशा है, (उसे पलटकर) स्वसन्मुख दिशा करे तो अपनी ओर बारंबार अभ्यास करता रहे तो होता है। जैसे छाछमेंसे मक्खन जुदा पडे तो बारंबार,
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बारंबर उसका मन्थन करते-करते मक्खन बाहर आये। वैसे स्व-ओरका अभ्यास करे तो निराला होनेका प्रयत्न हो। किसीको हो उसे अंतर्मुहूर्तमें होता है। न हो उसे देर लगती है, परन्तु उसका अभ्यास करता रहे, छोडे नहीं, उसमें थके नहीं, परन्तु बारंबार अभ्यास करे। उसकी आकुलता नहीं, धैर्यसे और भावना करके भी उस ओर अभ्यास करे तो होता है। बाकी चैतन्यद्रव्य तो अनादिअनन्त अनन्त शक्तिओंसे भरपूर है। उसमें उसकी एक भी शक्ति नहीं हुयी है। अनन्त काल हुआ तो भी शक्तियाँ परिपूर्ण हैं। परिपूर्ण शक्तिओंका भण्डार अनन्त महिमासे भरपूर है। अनन्त अदभूतता उसमें भरी है। ऐसा चैतन्यद्रव्य है। उसकी महिमा करके उस ओर जाय, उसका भेदज्ञान करे तो हुए बिना रहता ही नहीं।
मुमुक्षुः- मनमें एक प्रश्न यह उठता है कि उधर यदि देखभाल नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा? दुकानका बिगाड हो जायगा, घर खराब हो जायगा, यह प्रश्न अन्दरमें बहुत चलता है।
समाधानः- वह तो अपना राग है, विकल्प है। जो होनेवाला होता है वह होता है। रागके कारण सब विकल्प आते हैं कि ये खराब हो जायगा। रागके कारण प्रयत्न होता है, बाकी जो होनेवाला है वही होता है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो होगा, ऐसा नहीं होता। परन्तु अपने रागके कारण उसे विकल्प आते रहते हैं।
अनन्त काल हुआ। यह मनुष्यभव दुर्लभतासे मिलता है। उसमें इस पंचमकालमें ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग बताया, ऐसा मार्ग बतलानेवाले कोई नहीं है। सब क्रियामें धर्म मानते थे, शुभभाव-पुण्यभावमें धर्म (मानते थे)। उसमें शुद्धात्मामें धर्म बतानेवाले गुरुदेव मिले। मनुष्यभवमें आत्मामें कुछ हो तो वह सफल है। मनुष्यजीवन चला जाय... मनुष्यभवमें ही उसके गहरे संस्कार बोये, भेदज्ञान करे, भिन्न आत्माको जाने तो सफल है। बाकी बाहरका चाहे जितना ध्यान रखे तो भी जो होनेवाला होता है वह होता है, अपने हाथकी बात नहीं है। कुछ भी करे तो भी होनेवाला है।
परन्तु यह चैतन्यद्रव्य तो अपने हाथकी बात है। पुरुषार्थ करे तो प्रगट हो ऐसा है। अपनी मन्दताके कारण अनन्त काल व्यतीत किया है। इसलिये ऐसा पुरुषार्थ, अन्दर अपनी महिमा लगकर उस ओर पुरुषार्थ करना चाहिये। अंतरमें सब भरा है। स्वघरमें अनन्त निधि भरी है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब स्वमेंसे प्रगट होता है, परमेंसे नहीं आता है।
अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति भरी है, अनन्त आनन्द भरा है। विकल्प टूटकर स्वानुभूति हो तो उसमेंसे अनन्त आनन्द प्रगट होता है। सब चैतन्यमेंसे प्रगट होता है, बाहरसे कुछ नहीं आता। बाहरका तो होनेवाला होता है वह होता है। इसलिये इस मनुष्य
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भवमें ये मनुष्यभव चला जायगा, मेरे आत्माका क्या होगा? उसकी चिंता करने जैसी है। ये बाहरकी चिन्ता अनन्त काल बहुत की, परन्तु मेरे चैतन्यकी चैतन्यके अन्दर कुछ सफलता हो, शुद्धात्मामें शुद्ध पर्याय प्रगट हो, वह करने जैसा है।
मुमुक्षुः- नहीं .. होने पर भी अनुमानमें भी विषय आता है, तो भी आत्माका बहुमान इतना क्यों नहीं आता है?
समाधानः- परका बहुमान आता है। चैतन्यमें अनन्त शक्ति, अनन्त आनन्द है। अदभूत द्रव्य है। परमें महिमा जाती है, चैतन्यकी महिमा नहीं आती है। इसलिये बारंबार उसका विचार करके, स्वभावको पहचानकर उसकी महिमा लाने जैसा है। वह लाता नहीं। महिमाका भण्डार आत्मा ही है। बाहर कहीं महिमा नहीं है। नहीं लाता है, वह स्वयंकी कचास है। स्वयंको पहचानता नहीं है और पर-ओर सब महिमा लगती है। निज स्वभाव पहचाने तो महिमा आये बिना नहीं रहती। जगतसे भिन्न चैतन्यद्रव्य कोई अदभूत द्रव्य है, उसकी महिमा आये परकी महिमा छूट जाय। लेकिन वह महिमा प्रयत्न करके, विचार करके भी लाने जैसी है। उसका निर्णय करके।
मति-श्रुतज्ञानसे स्वयं निर्णय करे कि मैं यह चैतन्यद्रव्य हूँ, ये सब मैं नहीं हूँ। क्षणिक विचार, पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। फिर पर्याय तो उसमें प्रगट होती है, शुद्ध पर्याय। उसका वेदन हो। परन्तु द्रव्य पर दृष्टि करे, शुद्धात्माका वेदन हो, सबका यथार्थ निर्णय करके बारंबार उसका अभ्यास करे। स्वकी एकत्वबुद्धि परसे विभक्त। क्षण-क्षणमें मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, बारंबार उसका अभ्यास करे। जो- जो विकल्प आये वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञाता ही हूँ। इस प्रकार अंतरसे, बुद्धिसे हो वह ठीक, परन्तु अंतरसे हो और भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो तो विकल्प छूटकर स्वानुभूति हो, कैसे हो, वही करने जैसा है। उसकी महिमा लाये, न आये तो महिमा लाने जैसा है।
मुमुक्षुः- आप जैसे महापुरुषोंका योग मिलने पर भी, ऐसी प्रेरणा मिलने पर भी जितनी आत्माको पुरुषार्थकी जागृति होनी चाहिये उतनी नहीं होत पाती। भाव तो है ऐसा कि ऐसी हमारी जागृति हो। विकल्प तो ऐसे बहुत उठते हैं।
समाधानः- अपना प्रमाद है। गुरुदेव कहते थे न? "निज नयननी आळसे निरख्या नहीं हरिने जरी'। अपनी आलसके कारण स्वयं स्वयंको देखता नहीं है, प्रयत्न नहीं करता है। चैतन्यप्रभु अपने पास ही है, स्वयं ही है। परन्तु स्वयं स्वयंको देखता नहीं है, उसके दर्शन करता नहीं और पर-ओर जाता है। अपनी आलस है, अपनी रुचिकी क्षति है। इसलिये करता नहीं है। अतः उसीकी जरूरत लाकर वही करने जैसा है, आदरणीय वही है, कल्याणरूप वही है, मंगलरूप वही है। बस, ऐसा करके उसीकी
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ओर दृढ निर्णय करके वही करने जैसा है। जितना ज्ञानस्वभाव है, वही कल्याणरूप है। जो ज्ञायक है वही कल्याणरूप है। बाकी कुछ कल्याणरूप नहीं है। बाकी सब आकुलतारूप है, दुःखरूप है।
जो ज्ञायक ज्ञानस्वभाव है वही कल्याणरूप है और ज्ञानस्वभावमें ही सब भरा है। ज्ञानमें आनन्द है, अनन्त गुण है, अनन्त शक्तियाँ, अनन्त अदभूतता सब ज्ञायकमें ही भरा है। वही करने जैसा है, बाकी कुछ करने जैसा नहीं है। "इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे' समयसारमें आता है। "इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।' उसमेंसे सुख प्राप्त कर। उसमें ही तुझे तृप्ति होगी। फिर बाहर जानेका मन ही नहीं होगा। वही करने जैसा है।
बाहरकी कर्ताबुद्धि छोडकर ज्ञायककी ज्ञाताधारा उग्र करके वह करने जैसा है। सूक्ष्म छैनी, ज्ञानसे बराबर पहिचानकर उसका भेदज्ञान कर, (ऐसा) शास्त्रमें आता है। विकल्प छूटकर साक्षात अमृत पीवन्ति। विकल्प जाल छूटकर अन्दरसे अमृतकी धारा, अमृतका सागर उछलेगा। परन्तु वह स्वयं उतनी उग्रता करे, भेदज्ञानकी धारा प्रगट करे तो होता है। शुभाशुभ विकल्प, क्षणिक पर्याय जितना मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। गुणोंका भेद पडे वह सब ज्ञानमें आये, परन्तु दृष्टिमें तो मैं एक ज्ञायक ही हूँ, ऐसा लक्ष्यमें लेकर सब ज्ञान करे और पुरुषार्थ करे। उसकी उग्रता करे तो विकल्प टूटकर स्वानुभूति हुए बिना नहीं रहती।
(मुनिराज) आत्मामें ही लीन रहते हैं। उन्हें परिणति जो बाहर जाती है वह दुष्कर लगती है। स्वयंमें ही-चैतन्यमें ही बारंबार अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें विश्राम लेते हैं। जगत जहाँ जागता है, वहाँ वे सोते हैं और जहाँ जगत सो रहा है, वहाँ मुनि आत्मामें जागृत हैं। उन्हें बाहर आना मुश्किल है। उन्हें अंतरमें ही शान्ति और आनन्द लगे। अंतरमें ही क्षण-क्षणमें चले जाते हैैं। बाहर आये, नहीं आये, अंतरमें चले जाते हैं। ऐसी उनकी परिणति है। ऐसा करते-करते शाश्वत आत्मामें विराजमान हो जाय तो वीतरागदशा और केवलज्ञानकी प्राप्ति करते हैं। .. विभाव प्रगटे, विभावमेंसे स्वभाव नहीं प्रगट होता। स्वयं अपनेमें दृष्टि करे तो उसमेंसे ही शुद्धता प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- ... अब तो मेरा घर ही यही है। एक पैसा नहीं जेबमें, मांड-मांड भाडा खर्चे तो भी मुझे कोई फिकर नहीं है। आपकी कृपासे वह सब दूर हो गयी। अब तो मेरा घर है, मेरा पियर तो यह है।
समाधानः- आत्माका जो स्थान है, वही अपना निजघर है। अंतरमें आत्माका घर वह विश्राम (स्थान है)। जहाँ देव-गुरु-शास्त्र विराजते हो, वही अपना विश्राम- घर है।
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मुमुक्षुः- जहाँ साक्षात चैतन्यप्रभु विराजते हो, वह तो अहोभाग्य है। दर्शन मिलना इस कालमें...
समाधानः- .. जल्दी आते थे। आत्माका करना वही जीवनकी सफलता है। मुुमुक्षुः- आपने जो आशीर्वाद दिया वह तो मेरा कल्याणका कारण है। मेरा कल्याण होकर ही रहेगा।
समाधानः- ... बहुत ग्रहण किया है, वही करना है। ... ये तो कोई प्रश्न पूछे तो कहते हैैं, स्वास्थ्य ऐसा है न।
मुमुक्षुः- जी हाँ, आपकी घणी कृपा हुयी, बहुत कृपा है।
समाधानः- कैसेटमें बहुत ऊतरा है।
मुमुक्षुः- आपके वचनामृतकी कैसेट मेरे पास है।
मुमुक्षुः- ...कर्ता-धर्ता नहीं है, रागमें धर्म होता नहीं, .. जो लक्षण है, ... ख्यालमें आता है। भूले रह जाती है कि कुछ पुरुषार्थकी कमी है?
समाधानः- पुरुषार्थकी कमी है। जो निर्णय होता है वह निर्णय भीतरमें कार्य नहीं करता है। निर्णय निर्णयमें रह जाता है। जो निर्णयका कार्य होना चाहिये कि... एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको करता नहीं है, ऐसा निर्णय तो किया और जो कार्य करता है, उसमें मैं करता हूँ, मैं करता हूँ, वह बुद्धि तो छूटती नहीं। और बुद्धिमें निर्णय होता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको करता नहीं है। फिर भी जो कार्य करता है वह प्रतिक्षण मैं करता हूँ, मैं करता हूँ, ऐसी परिणति तो हो रही है। पुरुषार्थ कम है तो उसमें श्रद्धाकी भी क्षति है।
मुमुक्षुः- श्रद्धाकी भी क्षति है?
समाधानः- हाँ। यथार्थ सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं? जिसको यथार्थ प्रतीति होवे। जब यथार्थ प्रतीत नहीं हुयी, सम्यग्दर्शन नहीं हुआ तब निर्णय भी बुद्धिसे हुआ है। प्रतीतमें भी परिणति नहीं होती है, मैं कर्ता नहीं हूँ, ये बुद्धिमें तो आया, परन्तु करता हूँ, करता हूँ उसकी परिणति तो हो रही है। विकल्पमें एकत्वबुद्धि और राग-द्वेषकी एकत्वबुद्धि चल रही है। मैं ऐसा करता हूँ, ऐसा करता हूँ, ऐसी बुद्धि तो भीतरमें चालू रहती है। भीतरमें देखे तो भीतरमें कर्ताबुद्धि चल रही है। बुद्धिमें कर्ता नहीं हूँ आता है, तो भी परिणति तो वैसी चलती है। परिणतिमें यदि देखे कि परिणतिमें ऐसा चलता है कि मैंने यह कार्य किया, मैंने ऐसा किया, मैंने ऐसा किया ऐसी एकत्वबुद्धि तो भीतरमें चलती है। इसलिये पुरुषार्थकी भी कमी है और परिणतिमें जो निर्णय किया वैसी परिणति नहीं हुयी है।
मुमुक्षुः- सम्यकके पहले सम्यककी सन्मुखतावाला जो जीव है, वह सविकल्प
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जो स्वसंवेदन होता है, वह पूरे असंख्य प्रदेशमें होता है कि कोई ... प्रदेशोंसे होता है?
समाधानः- कोई प्रदेशमें ऐसे नहीं होता है। चेतन अखण्डमें होता है। कोई अमुक प्रदेशमें होता है ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- मनसे निर्णय किया तो मनसे ... पूर्ण हूँ, ऐसा विशेष जो ... शान्ति मिलती है, वह नियत प्रदेशसे ही आती है कि सर्वांगसे आती होगी?
समाधानः- नहीं, सर्वांगसे आती है। मन तो विकल्प है। मन तो वहाँ रहता है, तो इधरसे लगता है। इधरसे लगता है।
मुमुक्षुः- तो आनन्द भी सर्वांग ही आना चाहिये।
समाधानः- हाँ, सर्वांग आता है। पूर्ण नहीं आता है। सम्यग्दर्शनमें तो अंश आता है। सर्वांग आता है। अमुक प्रदेशमें आता है और अमुक प्रदेशमें नहीं आता है, ऐसा नहीं है। आत्मा तो अखण्ड है। तो अखण्डमें ऐसा खण्ड नहीं पडता कि अमुक प्रदेशमें आनन्द आता है और अमुक प्रदेशमें नहीं आता है, ऐसा नहीं है। आत्मा तो अखण्ड है। सबमेंसे आता है। मुख्य यहाँ मन है न, इसलिये मनके द्वारा हुआ ऐसा कहनेमें आता है। यह मन है इसलिये।
मुमुक्षुः- ... सर्व प्रदेशमेंसे होता होगा?
समाधानः- सर्व प्रदेशमें अंश प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- ये बात ख्यालमें आयी कि जो निर्णय हो, उसमें श्रद्धाकी भी .... है, उसमें खामी है।
समाधानः- खामी है, जो निर्णय है ऐसा कार्य नहीं है, परिणति नहीं हुयी। तो निर्णयमें भी खामी है। बुद्धिसे निर्णय हुआ। बुद्धिमें निर्णय तो हुआ, निर्णय तो हुआ कि मैं कर्ता नहीं हूँ, राग मेरा नहीं है, ऐसा नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ ऐसा निर्णय तो किया परन्तु ज्ञायक कौन है? एकत्वबुद्धि तो चलती रहती है।
मुमुक्षुः- ऐसे ही लगता है कि ज्ञायक ही हूँ, ऐसा जोर आता है।
समाधानः- जोर आता है, परन्तु इसका लक्षण पहचानकरके मैं ये ज्ञायक हूँ, ये ज्ञायक हूँ, ऐसा भीतरमें तो नहीं होता। ये ज्ञायक हूँ, ये मेरा नहीं है, ऐसी ज्ञाताबुद्धि (होकर) कर्ताबुद्धि टूट जाय ऐसा तो नहीं हुआ। इसलिये जोरदार निर्णय पहले आता है, परन्तु जैसा वह सहज परिणतिरूप होता है, ऐसा निर्णय नहीं हुआ। इसलिये पुरुषार्थकी भी कमी है और निर्णय भी जैसा कार्यरूप होता है, वैसा नहीं हुआ।
मुमुक्षुः- ऐसा उपाय फरमाओ कि कमी निकल जाय और पुरुषार्थकी, .. श्रद्धाकी गलती निकल जाय और पुरुषार्थकी ठोसता-मजबूती आ जाय।
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समाधानः- क्या उपाय है? अपना निर्णय दृढ करना वह भी पुरुषार्थ करनेसे होता है और सब पुरुषार्थसे ही होता है। गुरुदेवने जो कहा वह यथार्थ... अपना ही कारण है, दूसरा कोई कारण नहीं है। निर्णय जो दृढ होता है, अपने पुरुषार्थसे होता है। रुचि जहाँ-तहाँ हो, एकत्वबुद्धिमें रुचि चली जाती है, जितनी रुचि ज्ञायकमें और भेदज्ञानमें होनी चाहिये उतनी नहीं होती है। इसलिये एकत्वबुद्धि चलती रहती है। जो भेदज्ञान होवे तो यथार्थ ज्ञायकका जोर, ज्ञायकको पहचानकरके जोर आना चाहिये। विचार किया कि मैं ज्ञायक हूँ, तो जोर तो है, परन्तु ज्ञायक ज्ञायकरूप नहीं होता है, इसलिये निर्णय निर्णयरूप रह जाता है। निर्णय तो किया परन्तु कार्य नहीं आया तो पुरुषार्थ करना चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति कैसे होवे? विकल्प टूटनेकी बात तो पीछे रह गयी और ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ ऐसी परिणति तो अपनी होनी चाहिये और कर्ताबुद्धि टूटनी चाहिये। निर्णय तो किया लेकिन ऐसी परिणति हुयी नहीं। विचार करे तो क्षण-क्षणमें देखे कि कर्ताबुद्धि होती रहती है, विकल्पमें एकत्वबुद्धि, खाते- पीते, चलते-फिरते सबमें कर्ताबुद्धि चलती है कि मैं एसा करता हूँ, मैं ऐसा करता हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि परिणति तो चलती है। इसलिये पुरुषार्थ करके तोडना चाहिये।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसा करे? समाधानः- ज्ञायककी धारा प्रगट करे। ज्ञायककी ज्ञायकरूप धारा (प्रगट करे) तो कर्ताबुद्धि टूटे। निर्णय करके रह जाता है, बुद्धिमें ज्ञायककी धारा तो नहीं हुयी। ज्ञायककी धारा प्रगट करे तो कर्ताबुद्धि टूटे।