Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 159.

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ट्रेक-१५९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. क्रमबद्ध है..

मुमुक्षुः- क्रमबद्धका स्वरूप उसने ही जाना है।

समाधानः- उसने ही वास्तविकरूपमें जाना है। जो पुरुषार्थ करता है, उसीने क्रमबद्धका स्वरूप जाना है, उसे ही क्रमबद्ध है।

मुमुक्षुः- उसीका सच्चा क्रमबद्ध है।

समाधानः- उसका सच्चा क्रमबद्ध है।

मुमुक्षुः- दूसरा क्रमबद्ध-क्रमबद्ध बोलता है, लेकिन उसका क्रमबद्ध मात्र कल्पना ही है।

समाधानः- वह कल्पना है। फिर क्रमबद्ध अर्थात बाह्य पदार्थ जैसे होने हों वैसे हो, कर्ताबुद्धि छोड दे कि मैं यह नहीं करता हूँ, वह क्रमबद्ध अलग। स्वभावका क्रमबद्ध तो पुरुषार्थपूर्वक ही होता है।

मुमुक्षुः- ये तो थोडा दिलासा लेनेकी बात है।

समाधानः- हाँ, बाहरका जो होनेवाला है वह क्रमबद्ध ही है। बाह्य संयोग अनुकूलता- प्रतिकूलताके वह सब तो क्रमबद्ध है। परन्तु अन्दर स्वभावपर्याय प्रगट होनी वह तो पुरुषार्थपूर्वक प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- वह मुद्देकी बात है।

समाधानः- वह पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। पुरुषार्थ बिना क्रमबद्ध नहीं होता। अपनेआप हो जाता है, उसमें पुरुषार्थ नहीं होता और ऐसे ही हो जाता है, ऐसा नहीं है। जिसे स्वभाव प्रगट करना हो उसकी दृष्टि तो मैं स्वभावकी ओर जाऊँ, ऐसी उसकी भावना होती है। उसकी ज्ञायक-ओरकी धारा होती है। उसे ऐसा नहीं होता है कि भगवानने जैसा देखा होगा वैसा होगा। ऐसा नहीं, उसे अंतरमें परिणति प्रगट करुँ ऐसा होता है। अंतर शुद्धिकी पर्याय प्रगट होनेकी ओर उसकी पुरुषार्थकी गति परिणमती है। जिसकी पुरुषार्थकी गति अपनी ओर नहीं है, उसे स्वभावकी ओरका क्रमबद्ध होता ही नहीं।

मुमुक्षुः- मुख्यता तो पुरुषार्थकी ही है।


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समाधानः- पुरुषार्थकी मुख्यता है।

मुमुक्षुः- ... नहीं आये तो क्रमबद्ध समझमें ही नहीं आया।

समाधानः- तो क्रमबद्ध समझमें नहीं आया है।

मुमुक्षुः- वास्वतमें तो ऐसा है न?

समाधानः- हाँ, वास्तवमें ऐसा है कि क्रमबद्ध समझमें ही नहीं आया। होनेवाला होगा, स्वभावका जो होनेवाला होगा, पुरुषार्थ होनेवाला होगा तो होगा, ऐसा करे तो उसकी अंतरकी सच्ची जिज्ञासा ही नहीं है। जिज्ञासुको ऐसा अंतरमेंसे संतोष आता ही नहीं। जिसे स्वभावपर्याय प्रगट होनेवाली है उसे ऐसा संतोष नहीं होता कि होना होगा वह होगा, भगवानने कहा है वैसे होगा, ऐसा संतोष नहीं आता। उसे अंतरमें खटक रहती है कि कब मुझे अंतरमें स्वभावपर्याय कैसे प्रगट हो? कैसे हो? ऐसी उसे खटक रहा करती है। इसलिये वह स्वभावकी ओर उसके पुरुषार्थकी गति मुडे बिना रहती नहीं। इसलिये पुरुषार्थ उसका स्वभावकी ओर जाता है, (इसलिये) उस प्रकारका क्रमबद्ध है।

बाहरके जो फेरफार होते हैं, उसमें स्वयं कुछ नहीं कर सकता। बाहरके संयोग- वियोग, अनुकूलता-प्रतिकूलता सब। विभावपर्यायमें जैसा होना होगा वैसा होगा, ऐसा अर्थ करे तो वह नुकसानकारक है।

मुमुक्षुः- वह स्वच्छन्द है।

समाधानः- वह स्वच्छन्द है। अपनी मन्दतासे होता है, ऐसी खटक रहनी चाहिये। नहीं तो उसे स्वच्छन्द होगा। उसमें जैसा होना होगा वैसा होगा, तो उसे स्वभाव- ओरकी जिज्ञासा ही नहीं है। ऐसी मुमुक्षुको अंतरमें खटक रहनी चाहिये। क्रमबद्ध है...

जिज्ञासुको तो पुरुषार्थ पर लक्ष्य जाना चाहिये। क्योंकि पुरुषार्थ करना वह उसके हाथकी बात है। उसे खटक रहनी चाहिये। पुरुषार्थकी ओर उसका लक्ष्य जाना चाहिये। क्रमबद्ध आदिको वह गौण कर देता है। बाहरके कायामें क्रमबद्ध बराबर है, परन्तु अंतरमें स्वयं स्वभावकी ओर मुडनेमें क्रमबद्ध उसके ख्यालमें तो उसे खटक रहा करे कि मैं कैसे पुरुषार्थ करुँ, आगे कैसे बढूँ, ऐसे अपनी ओर आता है।

गुरुदेव तो ऐसा ही कहते थे। बीचवाली कोई बात ही नहीं। जो स्वभावको समझा और ज्ञायक हुआ उसको ही क्रमबद्ध है। दूसरोंको क्रमबद्ध है ही नहीं। बीचमें जिज्ञासुकी कोई बात ही नहीं। जो स्वभाव प्रगट हुआ और ज्ञायककी ओर गया, उसे ही क्रमबद्ध है। ऐसा ही कहते थे।

मुमुक्षुः- वही शैली।

समाधानः- वही शैली।

मुमुक्षुः- स्वभाव परिणति ही ली है।


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समाधानः- स्वभाव परिणति प्रगट हुयी तो क्रमबद्ध। नहीं तो तूने क्रमबद्ध जाना ही नहीं।

मुमुक्षुः- गुुरुदेवकी शैली ऐसी ही आयी है।

समाधानः- जिज्ञासुकी कोई बात बीचमें नहीं। दो विभाग, बस।

मुमुक्षुः- आपने तो जिज्ञासुका बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया। आपके वचनामृतमें भी बहुत बातें जिज्ञासुकी स्वभाव परिणतिसे ही प्रवचनमें आयी है। भावना आदिकी सब बातें हैं, ज्ञानीकी भावना ऐसे आयी है।

समाधानः- दो भाग ही कर देते थे। बीचवाली यहाँसे वहाँ, यहाँसे वहाँ प्रश्नेत्तरीकी कोई बात ही नहीं। दो विभाग ही कर देते थे।

मुमुक्षुः- शुद्ध परिणतिका क्रम शुरू होता है, वही बात लेते थे।

समाधानः- बस, वही बात। यहाँ सब जिज्ञासाके प्रश्न करे इसलिये जिज्ञासुकी बात बीचमें (आ जाती है)। आचार्य, गुरुदेव सब शास्त्रमें दो भाग-एक पुदगल औरएक आत्मा। बस! ऐसी ही बात। रागको यहाँ डाल दिया, स्वभावको इस ओर रख दिया।

मुमुक्षुः- रागको जडमें और पुदगलमें डाल दिया। और वहाँ तककी उसके षटकारक उसकी पर्यायमें, पर्यायके षटकारक.... आत्मा शुद्ध है। .. वह क्या आता है? पर्यायके षटकारक पर्यायमें? ऐसे तो वस्तुको छः कारकोंकी शक्ति है। उस हिसाबसे तो वस्तु दर्शन एकदम बराबर है। छः गुण है, छः शक्तियाँ हैं।

समाधानः- दो द्रव्य स्वतंत्र। इस द्रव्यके षटकारक इसमें और उस द्रव्यके षटकारक उसमें। दोनों द्रव्यके षटकारक तो एकदम भिन्न स्वतंत्र है। फिर पर्याय एक अंश है। पर्याय अंशरूप (होने पर भी) स्वतंत्र है। ऐसा बतानेके लिये उसके षटकारक कहे। परन्तु जितना द्रव्य स्वतंत्र (है), उतनी पर्याय स्वतंत्र है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसी द्रव्यकी पर्याय है। और उस द्रव्यके आश्रयसे वह पर्याय होती है। चेतनकी चेतन पर्याय। वह जो स्वभावपर्याय होती है वह उसकी पर्याय है। इसलिये दो द्रव्य जितने षटकारक रूपसे स्वतंत्र हैं, उसी द्रव्यकी पर्याय, उतने द्रव्य और पर्याय स्वतंत्र नहीं है। फिर भी एक अंश है और एक त्रिकाली द्रव्य शाश्वत है। अनादिअनन्त द्रव्य है और वह क्षणिक पर्याय है। परन्तु वह एक अंश है, इसलिये उसकी स्वतंत्रता बतानेके लिये उसके षटकारक कहे। बाकी उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि द्रव्य जितना स्वतंत्र है, उतनी पर्याय (स्वतंत्र है)। पर्याय उतनी स्वतंत्र हो तो दो द्रव्य हो गये।

मुमुक्षुः- वह भी द्रव्य हो जाय। समाधानः- हाँ, वह भी द्रव्य हो गया और यह भी द्रव्य हो गया। ऐसा उसकाअर्थ नहीं है। उसे उसकी स्वतंत्रता बताते हैं कि पर्याय भी एक अंशरूपसे स्वतंत्र है। परन्तु

Paryay Ek Ansh hai, SATT hai yeh Apeksha se Paryay Ke Kshatkarak ki baat ati
hai lekin usse Paryay Sarvatha bhinn hai aisa nahi hai.

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जैसा यह द्रव्य है, वैसी उसकी स्वतंत्रता नहीं है। क्योंकि वह पर्याय द्रव्यके आश्रयसे है। उस पर्यायका वेदन द्रव्यको होता है। इसलिये वह द्रव्यकी ही पर्याय है। वैसी ही स्वतंत्रता उसमें नहीं है। परन्तु उसकी स्वतंत्रता बतायी है। पर्याय भी एक सत है। द्रव्य सत, गुण सत, पर्याय सत। उसका सतपना बताते हैं। परन्तु उसकी स्वतंत्रता, जैसी द्रव्यकी है वैसी स्वतंत्रता (पर्यायकी नहीं है)।

मुमुक्षुः- षटकारकोंकी मर्यादा ही अलग है। वह तो स्पष्ट किये बिना समझ नहीं सकते।

समाधानः- पर्याय भी एक सत है, इसलिये उसके षटकारक भिन्न। परन्तु उसकी अपेक्षा समझनी चाहिये। वह द्रव्यकी पर्याय है। कोई भिन्न द्रव्य नहीं है। नहीं तो पर्यायका द्रव्य हो जाय। पूर्ण नहीं हो जाती, पर्यायमें कुछ न्यूनता रहती है। इसलिये पर्याय भी एक सत है। द्रव्यमें परिणति अभी न्यून है, (तो) पर्याय सत है, ऐसा बताते हैं। इसलिये वह कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। पर्याय है वह द्रव्यके आश्रयसे उसकी परिणति है। जैसी द्रव्यकी दृष्टि वैसी पर्याय परिणमती है। पर्याय कहीं और परिणमती है और द्रव्य कहीं और परिणमता है, ऐसा नहीं है। वजन किस पर कितना वजन देना, वह ...

मुमुक्षुः- उसके बदले ऊलटा-सुलटा हो जाता है।

समाधानः- ऊलटा-सुलटा हो जाता है।

मुमुक्षुः- वजन गलत तरीकेसे जाय तो भी व्यर्थ है।

समाधानः- हाँ, व्यर्थ है। वजन कहाँ देना, वह उसे समझना चाहिये न। भूतार्थ और अभूतार्थ। पर्याय अभूतार्थ कहलाती है और कोई अपेक्षासे-पर्याय पर्यायकी अपेक्षासे भूतार्थ कहलाती है। वह भूतार्थ किस प्रकारका? और वह भूतार्थ किस प्रकारका? उसे समझना चाहिये। वैसे यह षटकारक और वह षटकारक, वह किस जातके षटकारक है और यह किस जातके षटकारक, वह समझमें आना चाहिये। पर्याय अभूतार्थ और भूतार्थ। द्रव्यको भूतार्थ कहते हैं, द्रव्यदृष्टिसे। फिर कोई अपेक्षासे-पर्याय पर्याय अपेक्षासे कहलाती है। परन्तु वह दोनों भूतार्थ-भूतार्थ एकसमान नहीं है। वैसे दोनों षटकारक एकसमान (नहीं है)। उसकी अपेक्षा अलग है।

मुमुक्षुः- वैसा ही प्रवचनसार-११४ गाथामें हुआ है कि पर्यायार्थिकनयको सर्वथा बन्द करके, वह चक्षु सर्वथा बन्द करके द्रव्यको देखना। और द्रव्यार्थिकनयके चक्षुको सर्वथा बन्द करके। दोनों जगह सर्वथा शब्दप्रयोग किया है, फिर भी दोनों जगह सर्वथाका वजन एकसमान तो ले नहीं सकते।

समाधानः- नहीं, एकसमान नहीं लिया जाता।

मुमुक्षुः- नहीं तो शब्दप्रप्रोग दोनों जगह एकसमान ही है। प्रवचन पढे तो भी


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तात्पर्य निकालना मुश्किल (पडे)।

समाधानः- द्रव्यार्थिकनयके चक्षु सर्वथा बन्द करके पर्यायार्थिकको देखे। परन्तु उसकी अपेक्षा तो हृदयमें रखनी चाहिये। द्रव्य और पर्याय दोनोंकी अपेक्षा समझे तो समझमें आये।

मुमुक्षुः- नय तो सापेक्ष ली है। नय तो सब सापेक्ष होते हैं। उसमें सर्वथा बन्द करना तो कैसे बने? फिर भी वहाँ ऐसे शब्द लिये हैं, सर्वथा बन्द करके।

समाधानः- सर्वथा बन्द करके ऐसा लिया है। उसमें अर्थ दूसरे प्रकारका लेना पडे, आँख बन्द करनी अर्थात।

मुमुक्षुः- आँख बन्द करनी माने क्या? दोनों जगह समान अर्थ करना अथवा आँख बन्द करनी उसका क्या करना?

समाधानः- मुख्य-गौण करना। आँख बन्द करनी यानी उसमें दूसरा तो कोई (अर्थ नहीं है)।

मुमुक्षुः- सर्वथा बन्द करना... ज्ञान कैसे बन्द हो? बन्द करना हो तो भी कैसे हो?

समाधानः- किस प्रकारका है, पर्यायका स्वरूप जाननेके लिये द्रव्यकी अपेक्षा एक ओर रखकर पर्यायका स्वरूप क्षणिक है और द्रव्यका स्वरूप शाश्वत त्रिकाल है। इस प्रकार उसका स्वरूप समझनेके लिये वह चक्षु बन्द करना। यह द्रव्यका स्वरूप अलग जातका है और पर्यायका स्वरूप अलग जातका है। अर्थात द्रव्यका जो त्रिकाल स्वरूप है, उसे लक्ष्यमें नहीं लेकरके पर्याय क्षणिक है, ऐसा समझना। इसलिये वह चक्षु बन्द करना। जो त्रिकालको (देखनेका) चक्षु है उसे बन्द करना और इसे उसके स्वरूपमें समझना। पर्यायको पर्यायके स्वरूपमें समझना, द्रव्यको द्रव्यके स्वरूपमें समझना। उसका स्वरूप समझनेके लिये उसके चक्षु बन्द करना, ऐसा अर्थ है।

इसका स्वरूप उसमें नहीं आता, उसका स्वरूपमें इसमें नहीं आता। इसलिये उसके चक्षु बन्द करना। किसीका स्वरूप किसीमें जाता नहीं। दोनोंका स्वरूप दोनोंमें रहता है। इसलिये उसका जैसा स्वरूप है, उस स्वरूपमें समझना। इसलिये उसके चक्षु बन्द करना, ऐसा उसका अर्थ है। त्रिकालके स्वरूपको उसमें (क्षणिकमें) प्रवेश नहीं होने देना और क्षणिकका स्वरूप त्रिकालमें प्रवेश नहीं होने देना, इस तरह दोनोंको भिन्न रखना।

मुमुक्षुः- बराबर है, बहुत स्पष्ट।

समाधानः- उसका स्वरूप उसमें। क्षणिकका स्वरूप उसमें नहीं आने देना और त्रिकालका स्वरूप उसमें (क्षणिकमें) नहीं आने देना। दोनोंको भिन्न रखना। चक्षु सर्वथा


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बन्द करना।

मुमुक्षुः- सर्वथा चक्षु बन्द करना, ऐसा शब्द वहाँ पडा है।

समाधानः- सर्वथा चक्षु बन्द (करना)। द्रव्यार्थिकनयके चक्षु सर्वथा बन्द करके पर्यायार्थिकको देखना। अर्थात त्रिकाल स्वरूप जो आत्माका है, त्रिकालके स्वरूपको पर्यायमें नहीं आने देना। पर्याय तो क्षणिक है, वर्तमानमें परिणमनेवाली है। इसलिये जैसी है वैसी वर्तमानमें परिणमती है, ऐसे समझना। और वर्तमानमें परिणमनेवाली है और वह त्रिकाल परिणमनेवाला है उसमें क्षणिक परिणमनेवाला है, ऐसा स्वरूप उसमें आने नहीं देना। ऐसा अर्थ समझना। पुनः द्रव्य ही पर्यायरूप परिणमता है, वह बात वहाँ अलग रख दी है।

मुमुक्षुः- .. रखकर ही आते हैं। अकेले कथनको पकडने जाय तो मुसीबत होगी।

समाधानः- सिर्फ शब्दोंको पकडे तो... उसमें ऐसा है.. गुरुदेव ऐसा कहते थे, कोई कहता है गुरुदेव ऐसा कहते थे। गुरुदेवका आशय समझना वह सत्य है। .. पूर्वक ही उनका परिणमन और कहनेकी शैली... वे स्वयं ही जब पद्मनंदी आदि सब पढते थे तब उछल जाते थे। और वे स्वयं ही जब निश्चयकी बात आये तो निश्चयकी बात जैसा हो वैसा बराबर पढते थे। इसलिये उनका हृदय सन्धियुक्त था। उनका पूरा परिणमन ही वैसा था। भले व्यवहारकी बात गौण करके कोई-कोई बार पढते थे। परन्तु जब भी वह पढते थे तब उसे ओप चढाकर पढते थे।

मुमुक्षुः- जगतको..

समाधानः- गुरुदेवका सब प्रताप है। तत्त्वदृष्टि तो अनादिसे जीवने जानी नहीं है। इसलिये तत्त्व तो गुरुदेवने खूब (दिया है)। अनादि कालसे तत्त्व ही समझमें नहीं आया है। मुख्य बात तो वह है। हजारों जीवोंको जागृत कर दिये। गुजराती, हिन्दी सबको।

मुमुक्षुः- आत्मामेंसे ज्ञान आता हो तो शास्त्र आदि पढना क्यों?

समाधानः- ज्ञान तो ज्ञानमेंसे ही आता है। जिसमें हो उसमेंसे आये, कुछ बाहरसे नहीं आता है। स्वयंको उतनी अंतरमें शक्ति नहीं है न। ज्ञानमेंसे ज्ञान.. आता है ज्ञानमेंसे, परन्तु शास्त्र निमित्त होते हैैं। उपादान अपना परन्तु उसमें शास्त्र निमित्त बनते हैं। वस्तुका स्वभाव क्या है उसे जाना नहीं है। भगवान क्या कहते हैं? वस्तु स्वरूप क्या है? मुक्तिका मार्ग क्या है? स्वयं अनजाना है। आचाया जो कह गये हैं, महा मुनिवरो, गुरुदेवने जो मार्ग बताया, भगवानकी वाणी-दिव्यध्वनिमें आया है, आचायाने शास्त्रोंमें लिखा है। शास्त्र निमित्त बनते हैं। उपादान अपना होता है। स्वयंने अनादिसे मार्ग जाना नहीं है। भ्रान्तिमें पडा है। मुक्तिका मार्ग कैसा है, यह मालूम नहीं है। इसलिये शास्त्र


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निमित्त बनते हैं।

जबतक स्वयं अंतर वस्तु स्वरूप जानता नहीं, तबतक शास्त्रका निमित्त होता है। परन्तु वह ख्यालमें यह रखे कि मात्र शास्त्रसे नहीं होता है, होता है अपने ज्ञानसे। शास्त्र तो निमित्त है। शास्त्र कुछ कहते नहीं कि तू जान। परन्तु जानता है स्वयंसे। शास्त्र निमित्त बनते हैं।

गुरुदेव यहाँ वाणी बरसाते थे। गुरुदेवकी वाणी प्रबल निमित्त थी। परन्तु ज्ञान तो स्वयं जाने तो हो न। गुरुकी वाणी एक सरीखी बरसती थी तो ग्रहण तो स्वयंको करना होता है। जिसकी जैसी लायकात हो उस अनुसार ग्रहण करता है। उपादान स्वयंका। निमित्त गुरुकी वाणी और आचायाके शास्त्र निमित्त बनते हैं। वह तो महान निमित्त है।

अनादि कालका अनजाना मार्ग, स्वयं कहाँ-कहाँ अकटता है, जूठे मार्गमें। कैसे मुक्ति हो? किस प्रकारसे वस्तुका स्वरूप है? स्वानुभूति कैसे हो? मालूम नहीं है। इसलिये आचाया और गुरु सब मार्ग दर्शाते हैं। वे निमित्त बनते हैं। अनादि कालसे मार्ग जाना नहीं है तो एक बार देव एवं गुरुकी वाणी सुने तो उसे अन्दरसे देशना लब्धि होती है। ग्रहण करता है स्वयंसे, परन्तु निमित्त-नैमित्तिक ऐसा सम्बन्ध है। वे निमित्त बनते हैं-गुरुकी, आचार्यकी वाणी आदि।

मुमुक्षुः- हम लोग तो शुभको भी निकाल देते हैं, फिर अपने पास साधन क्या रहा?

समाधानः- शुभ अपना स्वभाव नहीं है। वस्तु स्वभाव ऐसा है। शुभ परिणाम भी आकुलतारूप है। अन्दर संकल्प-विकल्प सब आकुलता है। वह प्रवृत्ति आत्माका मार्ग नहीं है। आत्माका परिणमन आत्मामें करना। यह शुभ परिणाम तो कृत्रिम है, अपना स्वभाव नहीं है। बीचमें आये बिना नहीं रहता। उसे श्रद्धामें जानना कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। उसे हेय मानना। क्योंकि वह अपना स्वभाव नहीं है। इसलिये उसे जानना बराबर, उसकी श्रद्धा करनी कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु बीचमें आये बिना नहीं रहता। जब तक स्वयंमें पूर्ण लीनता नहीं हो जाती, तबतक बीचमें आते हैं।

समाधानः- .. सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो तो उसके लिये बहुत प्रयत्न करना पडता है। बाह्य क्रिया, शुभ भावसे पुण्यबन्ध होता है और पुण्यसे देवलोक मिलता है। तो उससे भवका अभाव नहीं होता। शुद्धात्माको पहचाने तो भवका अभाव होता है। शुद्धात्मा कैसे जाननेमें आवे? उसके लिये सब वांचन, विचार, तत्त्व-विचार आदि करना चाहिये। तो स्वानुभूति होती है।


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करना तो स्वयंको है पुरुषार्थ करके। उसके तत्त्व विचार, भेदज्ञानका प्रयत्न, परसे एकत्वबुद्धि तोडनी, भेदज्ञान करना सब स्वयंको करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, ज्ञायक- -ज्ञायकका रटन सब अपनेको करना है।

मार्ग बतानेवाले गुरुदेव इस मनुष्यभवमें मिले। अनुभूति मुक्तिका मार्ग है। विकल्प तोडकर आकुलता (छोडकर)... निराकुल स्वभाव आत्मा है, ज्ञानस्वभाव आत्मा है। मैं ज्ञान हूँ, ये सब कुछ मैं नहीं हूँ। मैं तो शुभाशुभ भावसे भिन्न मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ। शुभाशुभ भाव अपना स्वभाव नहीं है। बीचमें आते हैं, तो भी अपना स्वभाव नहीं है। तो उसको हेय जानकर ज्ञायक स्वभावका अभ्यास करना, वह करना है। अपना स्वभाव है उसको भूल गया है। तो उसको ग्रहण करना चाहिये। शास्त्रमें आता है न? वह परका वस्त्र ओढकर सो जाता है। गुरु बताते हैं कि, उठ! तेरा यह स्वभाव नहीं है। ये तो परका है। तू ग्रहण कर ले। तेरे स्वभावको लक्षण देखकर पहचान ले। जब लक्षण ख्यालमें आवे तब भेदज्ञान करता है। यह करना है, वही एक स्वानुभूतिका मार्ग है। भेदज्ञान करना वही। गुरुदेवके पास समझे हैं।

मुमुक्षुः- आपके पास सीखने मिलेगा। समाधानः- अनन्त कालसे समझ बिना परिभ्रमण हुआ है। सच्चा समझन करे तो मुक्तिका मार्ग मिले। अंतर आत्माका लक्षण पहचाने। आत्माका किस स्वभावसे है, उसे ग्रहण करे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!