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समाधानः- ... इतने साल बीत गये, उसमें कितने प्रसंग बने, वह बात याद करें तो पूरी नहीं हो सकती। कितने ही प्रसंग बने। बादमें तो एकदम तेजीसे गुरुदेवका प्रभावनाका योग था। यात्रा, प्रतिष्ठा आदि एकदम (होने लगे)। पहले शुरूआतमें सब शास्त्रके प्रसंग बन गये। समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि प्रकाशित हुए। शुरूआतमें सब शास्त्रसे ही (प्रभावना योग) शुरू हो गया। (संवत) १९९७की सालमें भगवान पधारे। सब प्रसंगकी एक-एक बात करें तो पूरी ही नहीं हो सकती।
... वह सब गुरुदेवके नामसे कहा, गुरुदेव ऐसा कहते हैं। ऐसा कहते थे। कितनी बार कहते हैं। कोई अर्थ पूछे तो...
... चाहे जैसी तबियत हो, स्वाध्याय भवनमें स्वयं अकेली ही बैठती हूँ। मुझे ऐसा कुछ नहीं होता।
गुजराती समयसार प्रकाशित हुआ तब इतना सुन्दर उत्सव हुआ था कि गुरुदेव घरपर पधारे थे। सर्व प्रथम गुजराती हिंमतभाईने किया, गुरुदेवने बहुत प्रमोद (था), शास्त्रका बहुत प्रमोद था। गुरुदेवने हिंमतभाईको कहा, हिंमतभाई निकट मोक्षगामी है, ऐसा कहा। वह प्रसंग तो अलग ही है। गुरुदेवके प्रतापसे बहुत प्रसंग बने हैं, इतने वषामें।
हिंमतभाईकी आत्मार्थी तो सच्ची आत्मार्थीता है। दोपहरको बात चली थी। इसलिये वह आ गया। ... आत्मार्थीता वह है, हिंमतभाईकी तो आदर्श आत्मार्थीता है। बचपनसे सत्य शोधक, वैरागी आदि बहुत था। (अधिक) क्या कहना? उनकी आदर्शता, आदर्श आत्मार्थीता है। गुरुदेवकी बहुत कृपा, हिंमतभाई गुरुदेवके कृपापात्र हैं। दोपहरको (वह बात हुई थी), इसलिये वह आ गया।
आत्मार्थीता वह है, हिंमतभाईकी तो आदर्श आत्मार्थीता है। बचपनसे सत्य शोधक, वैरागी आदि बहुत था। (अधिक) क्या कहना? उनकी आदर्शता, आदर्श आत्मार्थीता है। गुरुदेवकी बहुत कृपा, हिंमतभाई गुरुदेवके कृपापात्र हैं।
..जिनेन्द्र देव सर्वोत्कृष्ट पूजनयी हैं, परन्तु यह जिन प्रतिमा भी सर्वोत्कृष्ट (पूजनीय हैं)। उसकी भी महिमा उतनी ही है। जिन प्रतिमा जिन सारखी। उसकी महिमा भी
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उतनी ही है।
सूर्यकीर्ति भगवानकी.. उसकी बातका मेल था। लोग पूछते थे इसलिये... वाजिंत्र बजते हैं। उसमें भगवानकी वाणीका कैसा लगता है? मैंने कहा, भगवान भिन्न। देव, देवियाँ, सभा, मुनि आदि सब होते हैं। श्रावक, श्राविका, राजा-रानीके बीचमें नीकली। वहाँ उत्सव हुआ था। समवसरणमें आनन्द छा गया।
.. आया कि यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होने वाले हैं। एक-दो बार शुरूआतमें बोली, फिर बादमें मेरे पास बुलाने लगे तो फिर मैं...
गुरुदेव बादमें तो बहुत बोलते थे, "घट-घट अंतर जिन वसे, घट-घट अंतर जैन'। उन्हें जिनका हृदयमें (बहुत था)। "घट-घट अंतर जिन वसे,' ऐसे ही बोलते थे। उनका अंतरंग सहज कहता था।
... गुरुदेव बोलते थे, त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, और क्या चाहिये? ऐसा बोलते थे। उनके भाव परसे जिसे मालूम हो उसे पकडमें आये, दूसरेको पकडमें नहीं आये। लेकिन उन दिनोंमें शुरूआतमें बोलते नहीं थे। कहते नहीं थे कि मुझे ऐसा होता है। मालूम नहीं था। ... उसे कहा होगा, परन्तु बाहर नहीं बोले थे। बाहरमें नहीं बोलते थे। मेरे मनमें भी ऐसा नहीं था, परन्तु मुझे एकदम आया है, ऐसा मैंने कहा। मैंने ऐसा विचार किया हो कि गुरुदेव महापुरुष तीर्थंकर जैसे लगते हैं। ऐसी कल्पना मेरे हृदयमें भी नहीं आयी थी। ये तो महापुरुष है, इतना आया था। बाकी कुछ नहीं आया था। गुरुदेवने कहा भी नहीं था, मुझे मालूम भी नहीं था।
.. गुरुदेवको कहनेसे क्या? फिर हिंमत करके कहती थी। राजकुमारकी महिमा होती थी। राजकुमार.. राजकुमार..। भरत चक्रवर्तीने ऋषभदेव भगवानको ऐसा पूछा है। भरत चक्रवर्ती थे न। चक्र (था)। भगवान! आप अभी तीर्थंकर हो, वैसे इस समवसरणमें दूसरा कोई तीर्थंकर है? कोई तीर्थंकरका जीव है? ऐसा भरत चक्रवर्तीने पूछा है। तो भगवानने कहा, तेरा पुत्र मरिचीकुमार है वह तीर्थंकर होने वाला है। इसलिये भरत चक्रवर्तीको स्वयंको उत्साह आया होगा कि मेरे पिता तीर्थंकर और मेरा पुत्र तीर्थंकर। वह चौबीसवें तीर्थंकर होंगे, ऐसा भगवानने कहा। तेरा पुत्र मरिची चौबीसवें तीर्थंकर होगा। उन्हें उत्साह आया या कुछ भी हुआ, उन्होंने तीन चौबीसीके रतन्मय बिंब बनाये। उसप्रकारका आनन्द आता है।
देवलोकका सागरोपमका काल कहलाता है, परन्तु देवोंको वह सागरोपमका काल कुछ नहीं लगता। उसका जीवन ही (वैसा होता है)। सागरोपम यानी देवोंको कुछ नहीं लगता। उनका काल एकदम व्यतीत हो जाता है। यहाँ थोडा समय जाये तो कितना काल चला जाता है। सागरोपमका काल (वैसे चला जाता है)। उन लोगोंको ऐसा
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लगता है, कितना काल! उस प्रकारका जीवन (होता है)। जैसे अभी इस पंचमकालमें इतने आयुष्य है, परन्तु चतुर्थ कालमें बहुत होता है, क्रोड पूर्वका आयुष्य (हो) तो उसे ऐसा ही लगता है कि इसप्रकारका आयुष्य है। उसके शरीरका बंधारण आदि सब वैसा ही होता है।
.. क्रोड सागरोपमके यह छह काल है। क्रोडा-क्रोड चार क्रोड ऐसा कुछ आता है, दस क्रोडा-क्रोड ऐसा कुछ आता है। इस उत्सर्पिणीका गुरुदेवका आये। क्योंकि क्रोडा-क्रोड सागरोपम है न, इसलिये। देवोंका आयुष्य सागरोपमका होता है, क्रोडा- क्रोड नहीं होता। इसलिये उत्सर्पिणी-ऊँचा काल आये उसमें १७० भगवान होते हैं। उस कालमें आये, ऐसा उसका अर्थ निकलता है। १७० तीर्थंकर होते हैं, वे सब बढिया काल होता है उसमें होते हैं। सब जगह भगवान होते हैं। उत्सर्पिणी काल।
विदेहक्षेत्रके जितने खण्ड है, ३२ खण्ड, उन ३२ खण्डमें भगवान (होते हैं)। भरत क्षेत्रमें, ऐरावत क्षेत्रमें, पाँच भरत, पाँच ऐरावत सब जगह भगवान होते हैं। ऐसा काल आये तब सब जगह भगवान होते हैं। यहाँ पंचमकाल है इसलिये ऐसा सब हो गया है। विदेहक्षेत्रमें तो अभी बीस भगवान विचरते हैं। उसके सिवा दूसरे क्षेत्रमें केवलज्ञानी विचरते हैं। वहाँ तो अभी केवलज्ञान है, इसलिये केवलज्ञानी दूसरे क्षेत्रमें विचरते हैं। यहाँ तो केवलज्ञानी या कुछ नहीं है। मुनि भी नहीं दिखाई देते।
मैंने कोई शास्त्र नहीं पढे थे या पुराण नहीं पढे थे। उसके पहले मुझे यह सब आया है। समवसरणकी कैसी रचना पुराणोंमें आती है! मैंने कोई पुराण नहीं पढे थे। उस वक्त तो मूल शास्त्र हाथमें आये थे न। मोक्षमार्ग प्रकाशक, समयसार, प्रवचनसार आदि। ये सब पुराण उस वक्त हाथमें नहीं लिये थे। समवसरणका वर्णन नहीं पढा था।
कुन्दकुन्दचार्य, सीमंधर भगवान तीर्थंकर भगवान, तीर्थंकर होनेवाले हैं, यह सब शुरूआतसे (आता था)। वहाँ थी न इसलिये। समवसरणमें तीर्थंकरका जीव कभीकभार होता है। महावीर भगवान थे तो उनके समवसरणमें श्रेणिक राजाका जीव था। ऋषभदेव भगवानके समयमें उनकी सभामें मरिचीका जीव था। बहुभाग कहीं-कहीं आता है।
जिनेन्द्र प्रतिमा जिन सारखी है। भगवान जब होंगे तब वन्दन करेंगे, वह योग्य है। पूजा-भक्ति करनी वह बराबर है, अभी नहीं, उसका क्या मतलब है? ऐसे वादे करनेका कोई अर्थ है? भगवान सामने पधारते हैं, प्रतिमाके रूपमें। महाभाग्यकी बात कि जिनप्रतिमाके रूपमें गुरुदेवका भाविका रूप देखने मिलता है, महाभाग्यकी बात है। भावि तीर्थंकर होनेवाले हैं। वह अभी वर्तमान प्रतिष्ठित भगवान हमारे सन्मुख आये। ऐसा कुदरतका योग बना। भले विरूद्धता हुयी, परन्तु कुदरतके योगमें तो यह सब बननेवाला
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ही था।
.. मैंने कहा, घातकीखण्ड द्विपमें भगवान हुए हैं और फिर यहाँ जन्म लिया है। भगवानका पूर्व भव वहाँ था। ऐेसे घातकीखण्ड द्विपमें पूर्व भवमें बहुत भगवान थे और यहाँ आये हैं। यहाँ तो चार भगवानका चित्र किया है, बाकी वैसे तो बहुत भगवान घातकीखण्डमें हुए हैं। सबको ऐसा लगता है कि घातकिखण्ड द्विप क्या है? घातकिखण्ड द्विपमेंसे बहुत भगवान आये हैं, पूर्व भवमें वहाँ थे।
... पूछते हैं, प्रभु! अपराजित विमानमें तीर्थंकरोंकी... एक जाते हैं विदेहक्षेत्रमें। सर्वार्थसिद्धि या अपराजित विमान ... उसमें दो तीर्थंकरके जीव हैं। दो तीर्थंकरके जीव साथमें रहते थे। अहमिन्द्र। सर्वार्थसिद्धि हो या अपराजित विमान हो, उसमें रहते थे। एक विदेहक्षेत्रके भगवान और एक भरतक्षेत्रके भगवान। नमिनाथ भगवान यहाँ आते हैं न? एक भगवान विदेहक्षेत्रमें और एक भगवान यहाँ (आते हैं)। ऐसा कुछ आता है न? पूर्व भवका देव लेने आता है।
भगवान! अपराजित विमानमें जो तीर्थंकर भगवान साथमें रहते थे, वे कहाँ है? देवोने पूछा है। अभी वे भरतक्षेत्रमें (है)। वसंतऋतु खिली है, वहाँ वे विहार करते हैं। परन्तु वे दीक्षा लेंगे, ऐसा कुछ कहते हैं। फिर वहाँ-से देव देखने आते हैं। देवको पूछते हैं कि विदेहक्षेत्रके भगवानने कहा कि अपराजित विमानमें जो मेरे साथ थे, वे भरतक्षेत्रमें वर्तमानमें वसंतऋतु है, वहाँ विचरते हैं। इसलिये हम देखने आये हैं। तो भगवानको तुरन्त वैराग्य हो गया। अरे..! मेरे साथ जो भगवान थे उन्होंने दीक्षा ली और मैं अभी भी इसमें हूँ? उन्हें वैराग्य आया तो तुरन्त दीक्षा ले ली। ऐसा बनता है। कोई तीर्थंकर बने, कोई तीर्थंकरका जीव देवलोकमें साथमें होता है।
... राजकुमारके रूपमें थे, सीमंधर भगवानकी सभामें। वहाँ-से यहाँ आया। भगवानकी सभामें गुरुदेव सम्बन्धित वाणी निकली। वह सब कितनी महाभाग्यकी बात है! ऐसे जीव यहाँ आये। गुरुदेवका तीर्थंकरका जीव, महाभाग्य पंचमकालका कि यहाँ आये। नहीं तो यहाँ कैसे? भगवानके समवसरणमें जो हो और जो तीर्थंकरका जीव हो, वे इस पंचमकालमें आये कहाँ-से? लेकिन वह तो पंचमकालका महाभाग्य कि यहाँ पधारे। नहीं तो वे यहाँ कैसे आये? .. तीर्थंकरका जीव यहाँ पंचमकालमें कैसे आये?
... इतना ही काल गया है। भगवान जानेके बाद २५०० वर्ष हुए। कुन्दकुन्दाचार्यके समयमें भी एक नवीन हुआ। यहाँके आचार्य महाविदेहमें जाये कैसे? वह एक आश्चर्य हुआ, कुन्दकुन्दाचार्यके समयमें। कुछ नवीन ही था। यहाँ आचार्य विदेहक्षेत्रमें जाये। कहाँ विदेहक्षेत्र! वह कोई चलकर जा सके ऐसा है? विदेहक्षेत्रमें कुन्दकुन्दाचार्य पधारे। वह एक नयी बात (बनी)। गुरुदेव विदेहक्षेत्रसे यहाँ आये, वह एक नयी बात है। अभी
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भगवानके चरण इस भरतक्षेत्रमें हैं, महावीर भगवानको हुए इतने ही साल हुए हैं। इसलिये यह सब बनता है। नहीं तो इस पंचमकालमें ऐसा बनना बहुत मुश्किल है।
उस वक्त कैसी नवीनता हुई होगी कि यहाँके आचार्य विदेहक्षेत्रमें जाकर वाणी सुनकर आये। साक्षात, साक्षात भगवानके दर्शन करके आये। गुरुदेव कहते थे, विदेहक्षेत्रकी यात्रा करके आये। ... जोरदार। मानो साक्षात तीर्थंकर जैसी ही वाणी बरसायी! बरसों तक। यह महाभाग्यकी बात है। तीर्थंकर होऊँगा, इसलिये ऐसा कहते थे। उनके जैसा वर्तमानमें कोई दिखता है? उनकी वाणी, दिदार आदि सब कुछ अलग ही था।
प्रतिमाजी विराजमान करनेका काल आया वह भी कुछ अलग ही है। प्रतिमाजी, ऐसे निकृष्ट कालमें, इतने विरूद्ध माहोलमें प्रतिमा विराजमान करनेका काल (आया)। वह भी जैसा बनना होता है, कुदरके घरमें जैसा बनना होता है, वह बना है। वह कैसा काल आया, ऐसे पंचमकालमें।
गुरुदेवने प्रसिद्ध किया, दिगम्बर मार्ग सच्चा है। परन्तु उसमें संप्रदाय वाले इसप्रकार घुस जाते हैं।
मुमुक्षुः- वचनामृत मैंने पढे, जो महत्त्वपूर्ण था उसके नीचे लकीर की। बादमें फिरसे पढा। फिरसे लकीर की, तीसरी बार पढा तो एक भी लकीर करनी हो तो एक भी अक्षर बचा नहीं था। ऐसा पत्र उन्होंने लिखा था।