Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 162.

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ट्रेक-१६२ (audio) (View topics)

समाधानः- ... ये जो विभाव है, विभावका लक्षण दिखता है वह आकुलतारूप है, विपरीत भाव है। मेरा स्वभाव आनन्दरूप, शान्तिरूप, ज्ञायकता (है)। ज्ञायकतत्त्व है वही मैं हूँ। उसका अदभुत आनन्द तो उसे निर्विकल्प दशा होती है तब प्रगट होता है। परन्तु उसे ज्ञायकता तो पहिचानमें आती है। इसलिये ज्ञायकलक्षणको पहिचानना। उसका ज्ञान, उसकी दृष्टि, उसकी लीनता सब उसमें करे। बाहर विभावकी महिमा टले और विभावमें आकुलता लगे, उसकी विरक्ति हो तो स्वभावकी ओर स्वयं जाता है। और उसे यथार्थ लक्षणसे पहिचानना, यह उसका उपाय है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। स्वयंको पहिचानकर, उस पर यथार्थ दृष्टि करके उसमें लीनता करे। लेकिन उसके लिये तत्त्व विचार आदि करना। यथार्थ वस्तुका स्वरूप पहिचाननेका प्रयत्न करना।

सच्चे देव-गुरु-शास्त्र तो उसके हृदयमें होते हैं। जिन्होंने प्रगट किया उनकी महिमा और उसका हेतु क्या? कि ज्ञायकतत्त्वको पहिचानना है। पहिचाना जाता है स्वयंसे, अपने पुरुषार्थसे पहिचान होती है। जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, उसमें प्रतिबिंब जो बाहरसे उठते हैं, लाल-काले फूलके, वह प्रतिबिंब (स्फटिकका) मूल स्वभाव नहीं है। स्फटिक स्वभावसे निर्मल है।

वैसे आत्मा स्वभावसे निर्मल है। शुद्धात्मा अनादिअनन्त (है)। उसका नाश नहीं हुआ। अनादिअनन्त उसके अनन्त गुण ज्योंके त्यों हैं। जैसे स्फटिक निर्मल है, वैसे आत्मा निर्मल है। जैसे पानी स्वभावसे शीतल और निर्मल है, वैसे आत्मा निर्मल है। परन्तु विभाव उसे हुआ है निमित्त-ओरसे, परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। स्फटिकमें जो लाल-काले फूलके निमित्तसे (प्रतिबिंब) उठे, परन्तु परिणमन स्फटिकके स्वयंकी पुरुषार्थकी मन्दताके कारण विभाव होता है। अतः पुरुषार्थ अपनी ओर बदलकर, मैं शुद्धात्मा चैतन्य हूँ, ये विभाव मैं नहीं हूँ, (ऐसा भेदज्ञान करना)। फिर तुरन्त सब टल नहीं जाता। अल्प अस्थिरता रहती है। ... गृहस्थाश्रममें हो, परन्तु उसकी भेदज्ञानकी धारा चालू ही रहती है। क्षण-क्षणमें उसे भेदज्ञान वर्तता है।

परन्तु पहले उसे मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ ऐसा अभ्यास अंतरसे होना चाहिये। पहले ऊपर-ऊपरसे हो उससे होता नहीं, बीचमें वह विचार आये, परन्तु अंतरसे


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अभ्यास होना चाहिये। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी लगन उसे दिन और रात, मैं ज्ञायक हूँ, मैं यह नहीं हूँ, यह विभाव से मैं नहीं हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी लगन अंतरमें लगनी चाहिये, तो हो। तो शक्तिमेंसे प्रगट हो। ज्ञायककी विशेष भेदज्ञानकी धारा चले तो उसे विकल्प टूटकर निर्विकल्प दशा होकर स्वानुभूतिका तो प्रसंग आता है। परन्तु उसे पहले ज्ञायककी धारा (चलनी चाहिये)।

मुमुक्षुः- ज्ञायक होनेके पूर्व क्या विचार करना?

समाधानः- पहले सच्चा समझ (करके) उसका लक्षण पहिचानना। ज्ञायक होने पूर्व उसका लक्षण पहिचाननेका प्रयत्न करे। तत्त्वका विचार करे। मैं कौन हूँ? ये पर कौन हूँ? उन सबका यथार्थ विचार करे। तत्त्व समझनेका पहले विचार करना। सच्ची समझ होनेके विचार करे। उसका मंथन, उसका घोलन, उसकी लगन सब करे। यथार्थ विचार (करे)। समझनेका विचार। ज्ञायक होने पूर्व उसके विचार, गहरे विचार करे। और विचारको टिकानेके लिये शास्त्रका अभ्यास करे। ज्यादा जाने तो ही हो, ऐसा नहीं है। परन्तु मूल प्रयोजनभूत (तत्त्वको) समझनेका प्रयत्न करे। प्रयोजनभूत तत्त्वको विचारसे जानना चाहिये। विचार करके निर्णय करना कि, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। ऐसे यथार्थ प्रतीत करनी। यह मैं नहीं हूँ और यह ज्ञायक है वही मैं हूँ।

मुमुक्षुः- शहरका जीवन और प्राथमिक मुमुक्षुके लिये दो शब्द।

समाधानः- शहरमें तो... मुमुक्षुकी भावना ऐसी होती है कि जहाँ देव-गुरु- शास्त्र विराजते हों, जहाँ साधर्मीओंका संग मिलता हो तो उसकी रुचिका पोषण हो। ऐसी उसकी अन्दर भावना रहे कि ऐसे संगमें रहना। ऐसी भावना रहे। सदगुरुका उपदेश मिलता हो या कोई साधर्मीका संग मिलता हो। उसमें मुमुक्षुता अधिक दृढ होनेका कारण बनता है। लेकिन वैसे संयोग न हो तो... ऐसे बाहरके संयोग न हो तो भी उसे भावना तो ऐसी ही होती है कि मुझे अच्छा संग मिले। निमित्तोंकी भावना रहे। परन्तु उपादान तो अपना तैयार करना पडता है। जहाँ रहता हो, बाहर दूसरे देशमें, उसके संगमें या देव-गुरु-शास्त्रके संगमें रहता हो, परन्तु उपादान स्वयंको तैयार करना पडता है। परन्तु उसे ऐसा आये बिना नहीं रहता कि, मुझे देव-गुरु मिले, साधर्मीओंका संग मिले, गुरुका उपदेश मिले, ऐसी भावना उसे रहती है। और वैसा संयोग जहाँ दिखाई दे, वहाँ रहता भी है। और वहाँ बस भी जाय। परन्तु मुमुक्षुको यह सब बीचमें होता है। बाहरके दूसरे साधनोंमें तो उसका उतना पुरुषार्थ न हो तो उसको टिकना मुश्किल पडता है। पुष्टि होनी, मुमुक्षुताकी पुष्टि होनी मुश्किल पडता है, बाह्य संगमें।

मुमुक्षुः- असत प्रसंग छोडने चाहिये न?

समाधानः- हाँ, छोडनेकी उसे भावना आये। उसे ऐसा हो कि यह छूट जाय,


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अच्छे संगमें जाय, छोड दे। उसके ऐसे संयोग न हो, न छूटे तो क्या करे? स्वयं अपने उपादानकी तैयारी करे। बाह्य संयोग ऐसे हो कि छूटे ही नहीं, तो करे क्या?

मुमुक्षुः- स्वसंवेदन कब होता है?

समाधानः- स्वसंवेदन तो आत्माको पहिचाने, पहले आत्मा-ज्ञायकको पहिचाननेका प्रयत्न करे। आत्माका क्या स्वरूप है? ऐसे ज्ञायकको पहिचाननेका प्रयत्न करे। लगन लगाये, दिन-रात उसकी झँखना हो कि मुझे ज्ञायक कैसे पकडमें आय? ज्ञायक ग्रहण हो, ज्ञायककी भेदज्ञानकी उग्रता हो कि मैं यह चैतन्य हूँ, अनन्त गुणसे भरपूर (हूँ)। ऐसा विकल्प नहीं, अपितु ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करे। ज्ञानमें जाने कि अनन्त शक्तिसे भरपूर मैं चैतन्यतत्त्व कोई अदभुत हूँ! उसे ग्रहण करे, उसकी उग्रता करे, ज्ञायकताकी उग्रता करे। क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी उग्रता होते-होते उसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होनेका प्रसंग आता है। परन्तु उसकी ज्ञायकताकी उग्रता होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- अवलम्बनकी कोई आवश्यकता नहीं है?

समाधानः- अवलम्बन तो देव-गुरु-शास्त्र उसमें बीचमें होते हैं। उसके शुभभावके अन्दर होते हैं। परन्तु अंतरमें पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना रहता है। कहीं देव-गुरु- शास्त्र उसे करवा नहीं देते। वे तो निमित्तमात्र होते हैं। करना तो स्वयंको ही है, पुरुषार्थ स्वयंको ही करना पडता है। उसे गुरु क्या कहते हैं? देव क्या कहते हैं? शास्त्रमें क्या आता है? उसका अवलम्बन लेकर विचार करे। मुक्तिका मार्ग किस प्रकारसे बताया है, उसका स्वयं विचार करे कि गुरुने यह मार्ग बताया है। स्वयं कैसे समझता है, उसका मिलान करे कि गुरुने यह कहा है, ज्ञायकको पहिचाननेको कहा है, यह सब पर है, ऐसे मिलान करे। ऐसे विचारमें अवलम्बन ले, परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। निर्णय स्वयंको ही करना पडता है कि वस्तु तो यही है। यह ज्ञायक है वही मैं हूँ और यह विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा निर्णय तो स्वयं अपनेसे करता है। अपनेसे करके उसमें पुरुषार्थकी उग्रता करके उसकी बारंबार दृढता करे तो विकल्प टूटकर उसे स्वानुभूति होनेका प्रसंग आता है।

समाधानः- .. गुरुदेवके शब्द है।

मुमुक्षुः- हाँ, गुरुदेवके शब्द है। गुरुदेव बहुत बोलते थे।

समाधानः- "बंध समय जीव चितीये उदय समय शा उचाट'। देव-गुरु-शास्त्रसे दूर रहनेका...

मुमुक्षुः- ये उनकी सांस है।

समाधानः- करनेका तो यही है न। दूर रहे तो भी यही रटन करना। देव- गुरु-शास्त्र हृदयमें रखना। पहले बचपनमें जो सुना है, वह सब याद करना। गुरुदेवकी


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वाणी सुनी है, सब किया है। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र सबको याद करना। गुरुदेवने आत्माको प्राप्त करनेका अपूर्व मार्ग बताया है, वह याद करना। शरीर और आत्मा दोनों तत्त्व भिन्न हैं। चैतन्यतत्त्व कोई अपूर्व है, उसकी महिमा रखनी। वही महिमा करने जैसा है। अंतरमें गुरुकी महिमा रखनी। दो तत्त्व भिन्न हैं। उसका भेदज्ञान (करना)। स्वानुभूति कैसे हो? मुक्तिका मार्ग कैसे प्रगट हो? वह सब अन्दर रटन करना। उसकी रुचि रखनी। समय मिले तब वांचन करना। टेप सुनना, वांचन करना। वही संस्कार कैसे दृढ रहे, वह रखना। बारंबार उसे याद करते रहना।

मुमुक्षुः- भावसे तो एक पल भी दूर नहीं हुआ जाता। सततरूपसे आपके साथ ही..

समाधानः- वही भावना रखनी। अनन्त कालमें सब मिला, एक जिनेन्द्र देव... शास्त्रमें आता है कि सम्यग्दर्शन जीवने प्राप्त नहीं किया। अनन्त कालमें जिनेन्द्र देव, गुरु आदि सब मिलना मुश्किल है। वह मिले तो अंतरसे स्वयंने ग्रहण नहीं किया है। तो वह कैसे ग्रहण हो? गुरुदेवने जो स्वरूप बताया वह कैसे ग्रहण हो? सम्यग्दर्शनका क्या स्वरूप बताया है, वह सब याद करना। ऐसे पंचमकालमें ऐसे गुरु मिले, ऐसा मार्ग मिला, ऐसा अपूर्व मार्ग बताया तो इस मनुष्यजीवनमें कुछ अंतरमें रुचि दृढ हो वह रखना।

मैं किसी भी क्षेत्र होऊँ, परन्तु मुझे आपके पादपंकजकी भक्ति मेरे हृदयमें रहो। ऐसे अंतरमें देव-गुरुकी भक्ति और चैतन्यदेवकी भक्ति, चैतन्य मेरे हृदयमें रहना, देव- गुरु मेरे हृदयमें रहना। ... निवासमें होऊँ, ऐसा शास्त्रमें आता है। प्रभु! आप मेरे हृदयमें रहना और एक आत्मा मेरे हृदयमें रहना। ... सब याद करना।

मुमुक्षुः- वह तो अपूर्व काल था।

समाधानः- हाँ, अपूर्व काल था। यात्रा आदि.. उस वक्त छोटी थी न यात्राके समय? ... याद करना। ऐसा करके अन्दर उल्लास रखना। बस! ऐसा ही मेरे हृदयमें रहना। वह सब प्रसंग और चैतन्यदेव कैसे प्राप्त हो, उसकी भावना रखनी। वह सब करते रहना।

अनन्त कालमें जन्म-मरण करते.. करते.. करते.. बडी मुश्किलसे मनुष्यभव मिलता है। उसमें भी इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले वह तो महाभाग्यकी बात! ऐसे गुरुदेव मिले, उनका सान्निध्य मिला, उनकी वाणी मिला वह तो महाभाग्यकी बात है। तो उसमेंसे आत्मा कैसे समझमें आये, उसकी भावना रखनी।

मुमुक्षुः- ज्यादासे ज्यादा..

समाधानः- उसका रटन करते रहना। आत्माका क्या स्वरूप है? आत्मा ज्ञायक


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है। उसके लिये उसके विचार करना। गुरुदेवने क्या कहा है, उसका चिंतवन करना। उसकी रुचि अंतरमें रखनी। चाहे किसी भी प्रसंगमें मुझे चैतन्यकी रुचि रहो। कहीं तन्मयता या बाह्य प्रसंगोंमें रुचि नहीं बढकरके चैतन्यकी रुचि विशेष (रूपसे होनी चाहिये)। आत्मामें सर्वस्व है, बाहर कहीं कुछ नहीं है। ऐसी रुचि रखनी।

एक देव-गुरु-शास्त्र जीवनमें सर्वस्व और एक आत्मा मुख्य सर्वस्व है। कहीं ओर रुचि नहीं बढकरके आत्माकी रुचि और देव-गुरु-शास्त्रकी ओर ज्यादा (रुचि) रहे ऐसी भावना रखनी। ... के लिये प्रयत्न होना चाहिये। आत्माका लक्षण क्या? ज्ञायक लक्षण, यह विभाव लक्षण। उसे भिन्न करनेकी अंतरमें कितनी तैयारी हो तब वह भिन्न पडता है। समझन हो और अन्दरसे अपनी कितनी पुरुषार्थकी तैयारी हो, तब होता है। वह न हो तबतक उसकी भावना रखनी।

... आत्मामेंसे प्रगट होता है। कोई अपूर्वता.. आत्माका ज्ञान अपूर्व, आनन्द अपूर्व, सब आत्मामेंसे प्रगट होता है। परन्तु उसका पुरुषार्थ धारावाही हो तब होता है। वह न हो तबतक भावना रखनी।

मुमुक्षुः- ... एक ही रास्ता है। बाहर....

समाधानः- वह बात सच्ची है। अनादिका अभ्यास है इसलिये कहीं-कहीं हो जाय। परन्तु प्राप्त करनेका रास्ता तो एक ही है।

मुमुक्षुः- बाहर कहीं रुचि और मोह, देखकर चौंधिया नहीं जाते।

समाधानः- गुरुदेवने ऐसे संस्कार, उनकी वाणीसे ऐसे संस्कार डल गये हैं कि दूसरेमें जीव जाता नहीं। अंतर अपूर्व रुचिसे, सच्चा रुचिसे जिसने सुना हो..

मुमुक्षुः- भक्ति करते हो, एकदम महिमा आती हो, ऐसा होता है कि दो भाव एकसाथ चलते हो, ऐसा लगता है। क्या करना उसके लिये? जो पढा होता है वह भी बराबर याद होता है कि यही पढा है। फिर भी बाह्य वस्तुका विचार आ जाता है।

समाधानः- अन्दर सब संस्कार पडे हैं, वह आ जाते हैं। ज्यादा दृढता करनी। वांचन आदिकी ज्यादा दृढता करनी। अन्दर दूसरे विचारोंका जोर हो जाता है। उसमें उपयोग तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें बदलता रहता है। इसलिये ऐसा लगता है कि यह विचार और वह विचार दोनों साथमें आते हैं। साथमें नहीं, अन्दर होता है क्रमसर, परन्तु उसे साथमें लगता है। परन्तु उपयोग एकदम पलटता है न, (इसलिये ऐसा लगता है)। अभी यह पढा हो उतनेमें दूसरे विचारमें चढ जाय। जीवका उपयोग पलटता रहता है। जो संस्कार है पूर्वके, वह संस्कार आ जाते हैं। ज्यादा दृढता करनी। विचारमें, दर्शनमें। स्थिर नहीं हुआ हो इसलिये दूसरे विचार आ जाय। अन्दर संस्कार पडे हैं।

मुमुक्षुः- बहुत बार तो एकदम ऐसा होता है कि ऐसे वांचनके साथ ऐसा दिमाग


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हो जाय, ... उस रूप ही मन ... दस मिनट.. दूसरी कोई प्रवृत्तिमें कैसा उसीमें चित्त रहता है। ऐसा कैसे होता होगा?

समाधानः- उसका उसे अभ्यास है, इसलिये ऐसे ही चला जाता है। जो संसारकी प्रवृत्तिका कार्य और विचार ऐसे ही चलते रहते हैं। इसमें अन्दर विचार करके नया कुछ विचार करने जाता है, पुरुषार्थ करने जाता है तो अन्दरका दूसरा अभ्यास है वह चला आता है। पुरुषार्थके बलसे उसे पलटना पडता है। दूसरा सहज हो गया है, यह इतना सहज नहीं है। इसलिये उसे पुरुषार्थसे सहज हो, ऐसा करे तो वह थोडी देर भी टिके। बाकी उपयोग तो पलटता रहता है। इसलिये उसे बारंबार जोडते रहना। विचारमें, दर्शनमें, वांचनमें। क्योंकि उपयोग तो अंतर्मुहूर्तमें पलटता रहे। उतनी स्थिरता नहीं है, इसलिये जल्दी पलटता है। अन्दर उस प्रकारका रस होता है, इसलिये पलटता रहता है।

जिसे अन्दर इस ओरके विचार ज्यादा स्थिर हो गये हो, तो उसे जल्दी नहीं पलटता। वह चलता हो इसलिये जल्दी पलटता है। अन्दर ज्यादा घोलन करना। इसीलिये आता है न? देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें तू रहना। तेरा पुरुषार्थ उतना जोरदार नहीं है कि तू अकेला तेरे आधारसे टिक सके। इसलिये देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें उपादान तेरा, परन्तु उसमें उसे सहज-सहज पुरुषार्थ होता है। इसलिये ऐसा कहनेमें आता है। जहाँ करे, वहाँ स्वयंको ही करना होता है। परन्तु उपादान तो स्वयंका होता है। परन्तु ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध होता है। विचार, शास्त्रका चिंतवन, श्रुतका चिंतवन, उसका ज्यादा अभ्यास करे, चित्तको स्थिर करे तो होता है। .. कैसे समझमें आय, वह ध्येय होना चाहिये। देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें रहना, साधर्मीके सत्संगमें रहना, ऐसा कहनेमें आता है, उसका कारण यही है कि तेरी उपादानकी उतनी तैयारी न हो तो ऐसे सान्निध्यमें तू रहना। तू स्वयंसे बारंबार पुरुषार्थ करते रहना। कुछ पढना, टेप सुने तो उसीमें चित्त स्थिर रहे तो उसकी भावना दृढ रहे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!