PDF/HTML Page 1038 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- .. अनुभूति करनेके लिये बहुत पुरुषार्थ भी करते हैं, लेकिन उसमें ऐसा कैसा दोष हो जाता है कि जिस कारणसे प्राप्त नहीं होता है। गहराई नहीं आती। कौन-सा दोष है?
समाधानः- पुरुषार्थकी क्षति रह जाती है। अंतरमें अभ्यास-एकत्वबुद्धि रह जाती है। पर-ओरकी रुचि (रहती है)। अंतरकी रुचि जितनी प्रगट होनी चाहिये, उतनी होती नहीं। कारण कम आता है, इसलिये कार्य नहीं होता है। महिमा आये, सब आये लेकिन अन्दर पुरुषार्थकी क्षति रह जाती है। भेदज्ञान करनेका जो प्रयत्न चाहिये, चैतन्यको पहिचाननेका वह नहीं हो रहा है। बारंबार उसे अभ्यास करनेकी आवश्यकता है।
छाछको बिलोते-बिलोते मक्खन बाहर आता है। वैसे बारंबार-बारंबार उसका अभ्यास करता रहे। आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है। स्वयं ज्ञायक है। परन्तु पर-ओर दृष्टि है इसलिये उसे कर्ताबुद्धि हो गयी है, मानों मैं परका कर सकता हूँ। परन्तु स्वयं अपने स्वभावका कर सकता है, बाहरका कुछ नहीं कर सकता। वह सब तो उदयाधीन होता है। परन्तु उसके पुरुषार्थकी मन्दताके कारण बाह्य दृष्टि है। अंतर दृष्टि करे तो अंतरमेंसे प्रगट हो। ज्ञान, दर्शन आदि सब अंतरमेंसे ही आता है। अंतरमें यथार्थ दृष्टि करनेके लिये, शाश्वत चैतन्य पर दृष्टि करने हेतु, अंतरके भेद परसे भी दृष्टि उठा लेनी है। ज्ञान सब करे, परन्तु एक चैतन्य पर दृष्टि करनी। उस दृष्टिको उसमें स्थिर करना। वह करनेका है। तो उसे ज्ञायकका ज्ञायकरूप परिणमन हो तो विकल्प टूटे, तो स्वानुभूति हो। वह न हो तबतक उसकी रुचि, उसका अभ्यास बारंबार करते रहना।
आचार्यदेव कहते हैं न, तीव्र अभ्यास करे तो छः महिनेमें प्राप्त होता है। परन्तु उसका वह अभ्यास कितना उग्र होता है। परन्तु वह न हो तब तक उसका बारंबार पुरुषार्थ करता ही रहे। स्वयं अपनेको भूल गया है। अपने पास ही है। चैतन्य अनादिअनन्त शाश्वत है। पारिणामिकभावस्वरूप अनादिअनन्त है। उसे पहिचान लेना।
मुमुक्षुः- ... मूल अज्ञानीको वह प्राप्त नहीं होता है।
समाधानः- बालगोपालको लक्ष्यमें चेतन चेतनरूप ही अनुभवमें आ रहा है, परन्तु वह लक्ष्यमें लेता नहीं। चेतन जडरूप अनुभवमें नहीं आता, चेतनरूप अनुभवमें आता
PDF/HTML Page 1039 of 1906
single page version
है। उसका मूल जो मूल स्वभाव निधि है, वह उसे ख्यालमें नहीं है। परन्तु ज्ञान चेतनता चेतनतारूप अनुभवमें आ रही है, परन्तु वह लक्ष्यमें लेता नहीं है। वह लक्ष्यमें ले, गुरुदेवने बताया है कि तेरा आत्मा जाननेवाला है, ज्ञायक है, चेतनस्वरूप है, जडरूप नहीं हुआ है। यह विभाव तो अनादिसे स्वयं उसमें जुडता है, इसलिये विभाव दिखता है। परन्तु अंतर दृष्टि करे तो चेतन चेतनरूप ही दिखे। उसे दिखता नहीं है।
उसकी चेतनता सदा शाश्वत रही है। अनादि काल गया तो भी उसकी चेतनता मिटकर जड नहीं हो गया है। निगोदमें गया तो भी उसकी शक्ति तो ज्योंकी त्यों अनन्त शक्ति भरी है। उसका लक्ष्य करे तो वह प्रगट हो सके ऐसा है। उसकी प्रतीति करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे। ऐसा अंतरमें गहराईमें जाकर पुरुषार्थ करे तो प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं।
गुरुदेवने वह एक ही मार्ग बताया है। उसकी रुचि, उसका अभ्यास, उसकी लगन सब करने जैसा है। जैसे पानी मलिन हो तो उसमें औषधि डालनेसे निर्मल होता है। वैसे स्वयं प्रयास करे तो उसमेंसे मलिनता टल जाय। क्योंकि निर्मलता अन्दर भरी ही है। उसमेंसे प्रगट होता है। जो है वह उसमेंसे निकलता है। कहीं बाहर लेने नहीं जाना पडता। अंतरमें ज्ञान, आनन्द सब अन्दर भरचक भरा है। उसमें वह प्रयास करे तो प्रगट हो सके ऐसा है। उसका घोटन करनेसे वह जो है वह प्रगट होता है। उसकी परिणति उस ओर जाती नहीं, परिणति बाहर जाती है। परन्तु परिणतिको उसमें यदि दृढ करे, उस ओर ले जाय तो उसीमेंसे शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं। इसलिये वही करने जैसा है।
उसकी स्वानुभूति एक बार प्रगट हो तो फिर उसके भवका अभाव होता है। फिर तो बारंबार उसीमें जाता है। जिसे अंतरमें लगी उसे फिर बाहर जानेका, उसने चैतन्यका आश्रय लिया, बाहरकी रुचि छूट गयी तो आचार्यदेव कहते हैं, फिर उसे रमनेका स्थान अपना क्रिडावन-बाग अपना ही है, उसीमें जाता है, बाहर जाता नहीं। हर जगहसे छूटकर निराला हो गया, निरालंबी। चैतन्यके आलंबनसे, स्वावलंबनसे स्वयं अपनेमें जाता है। परन्तु स्वयं अपना आलम्बन लेता नहीं है और बाहरके आलम्बनमें रुक जाता है। स्वयंका स्वालम्बन ले तो उसीमेंसे सब स्वालंबी पर्यायें, स्वलम्बनसे प्रगट होती है। ज्ञानकी, दर्शनकी, चारित्रकी, आनन्दकी सभी पर्यायें अपना आलम्बन लेनेसे उसमेंसे प्रगट होती हैं। इसलिये उसीमें विश्राव कर, उसीमें संतुष्ट हो, आचार्यदेव कहते हैं, उसीमेंसे तुझे अनुपम सुख उत्पन्न होगा। बाहरसे कुछ होता नहीं। उसके लिये उसीका विचार, उसका चिन्तवन, उसका मनन सब करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, सब एक चैतन्यकी गहरी रुचि करके ज्ञायक आत्माको प्रगट करना। ज्ञायक ज्ञायकतारूप परिणमित
PDF/HTML Page 1040 of 1906
single page version
हो जाय, वह वास्तवमें करने जैसा है।
वह कैसे प्रगट हो? उसीका अभ्यास करने जैसा है। स्वयंमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त होकर स्वयं स्वयंमेंसे प्रगट होता है। उसमें ही उसे विश्राम मिले, उसीमें उसे शान्ति मिले ऐसा है। यदि अनादिकी उसे थकान लगे तो अंतरमें ही विश्राम (है)। आनन्द, ज्ञान सब अंतरमें भरा है। बाहर कहीं लेने जाना नहीं पडेगा।
मुमुक्षुः- माताजी! अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा कहकर क्या कहना चाहते हैं?
समाधानः- अनुभूति अर्थात स्वयं चैतन्य चैतन्यरूप अनुभवमें आ रहा है। अर्थात उसका मूल स्वभाव, जो उसकी निधि-उसे मूल स्वभावरूपका ख्याल नहीं है। परन्तु चेतनता चेतनतारूप अनुभवमें आती है। अनादि काल हुआ तो वह जड नहीं हो गया है। ज्ञान ज्ञानरूप अनुभवमें आ रहा है। वह स्वयं लक्ष्य करे तो ज्ञान ज्ञान ही है। ज्ञान मिट नहीं गिया है। ज्ञान ज्ञानरूप अनुभवमें आ रहा है। उसका मूल स्वानुभव जो उसका शुद्ध स्वभाव है, वह उसे ख्यालमें नहीं है। परन्तु उसकी चेतनता तो चेतनारूप अनुभवमें आ रही है।
मुमुक्षुः- अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा यानी ज्ञायक लेना है?
समाधानः- ज्ञायक। पूरा ज्ञायक अनुभूतिरूप ही है। अनुभूति यानी उसके स्वभावका मूल आनन्द है, ऐसा नहीं है। परन्तु वह ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहा है। पररूप नहीं हुआ है। उसका असाधारण स्वभाव जो ज्ञायकता है, वह ज्ञायकता ज्ञायकतारूप रहा है, पररूप नहीं हुआ है। अपनेरूप अनुभवमें आ रहा है। स्वयं अपनेमें ही रहा है। बाहर वास्तविक रूपसे नहीं गया है।
मुमुक्षुः- अज्ञानी जीवोंको भी सदा ज्ञायक ही अनुभवमें आता है?
समाधानः- सदा ज्ञायक अर्थात ज्ञायकता, ज्ञायकरूप परिणमन नहीं है। परन्तु उसका अस्तित्व ज्ञायक, ज्ञायकरूपका अस्तित्व है। उसका लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य बाहर जाता है। परन्तु चेतनता चेतनतारूप ही स्फुरायमान है। ये जड तो कुछ जानता नहीं। ये चेतन चेतनतारूप स्फुरायमान अनुभवरूप है।
मुमुक्षुः- सदा काल?
समाधानः- सदाके लिये चैतन्य चैतन्यरूप ही है। समता, रमता, ऊर्ध्वता। उसका रम्य स्वभाव है, ज्ञायक स्वभाव है, उसका वह सब स्वभाव स्फुरायमान है। लेकिन उसे प्रगट अनुभव-अनुभूति नहीं है। स्वभावरूप अनुभवमें आ रहा है। उसे ख्याल नहीं आता है। ... चेतनता चेतनतारूप अनुभूतिरूप है। मूल उसे अपने स्वभावकी अनुभूति नहीं है। लक्ष्यमें ले तो प्रगट हो ऐसा है।
मुमुक्षुः- अज्ञानीको भी सदाकाल भगवान आत्मा ही अनुभवमें आता है?
PDF/HTML Page 1041 of 1906
single page version
समाधानः- हाँ, हाँ। अज्ञानीको भी सदाकाल भगवान आत्मा ही अनुभूतिस्वरूप है। स्वयं ही है। लेकिन उसे लक्ष्यमें नहीं लेता है।
मुमुक्षुः- लक्ष्यमें नहीं आनेका कोई कारण?
समाधानः- लक्ष्यमें नहीं लेनेका कारण अनादिके अभ्यासके कारण पर-ओर दृष्टि है। परको अपना मानता है। मानों मैं परको जानता हूँ, स्वयं अपनी ओर जाननेका प्रयत्न नहीं करता है, अपनी प्रतीति नहीं करता है। ज्ञानकी दिशा अपनी ओर नहीं मोडता है। स्वयंकी प्रतीति नहीं करता है। लीनता अपनी ओर नहीं करता है। पर- ओर ज्ञान, प्रतीत, आचरण सब पर ओर जाता है।
समाधानः- .. गुरुदेवने बहुत समझाया है।
मुमुक्षुः- वह तो आप कहते हो, गुरुदेवको हमने सुना था। लेकिन अब ज्यादा समय हो गया इसलिये भूलनेकी प्रकृति हो गयी है, इसलिये भूल जाते हैं।
समाधानः- आपने तो बहुत सुना और बहुत ग्रहण किया है।
मुमुक्षुः- मैं तो कहता हूँ, बहुत नहीं, सब सुना है। उसमें मेरी स्वीकृति है।
समाधानः- ... पहचाननेका कहा है। ज्ञायक आत्माका परिणमन करनेको कहा है।
मुमुक्षुः- बराबर है। उसे कैसे पहचानना, यह बात है।
समाधानः- स्वानुभूति करनेको गुरुदेवने कहा है।
मुमुक्षुः- ज्ञायकको मुख तो है नहीं।
समाधानः- मुख नहीं है, परन्तु लक्षणसे पहिचानना। लक्षणसे पहचाननेका गुरुदेवने कहा है। उसका लक्षण पहिचानना। ज्ञायक लक्षण पहचानमें आता है। उसकी परिणति करनेको कहा है।
मुमुक्षुः- लेकिन जैसे .. इन्द्रियोंसे दिखे नहीं, मनसे उसका कुछ नक्की होता नहीं, अब करना कैसे?
समाधानः- स्वयं है न, अन्य नहीं है। इसलिये स्वयं अपनेसे पहचानमें आता है। स्वयं अपने लक्षणसे..
मुमुक्षुः- स्वयं अपनेसे पहचानमें आता है। उसका साधन इन्द्रिय तो नहीं है। उसका साधन मन नहीं है। अपनी पर्याय अपने सन्मुख हो तब आत्माको पहिचाना कहा जाय। लेकिन पर्यायको अपनी ओर मोडनी कैसे?
समाधानः- स्वयं ही मोड सकता है।
मुमुक्षुः- मोड तो स्वयं ही सकता है। दूसरा कोई वजुभाई मोड दे?
समाधानः- .. बताया है और मोडनेको कहा है। वह करनेका है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवका महा उपकार है।
PDF/HTML Page 1042 of 1906
single page version
समाधानः- महा उपकार किया है।
मुमुक्षुः- सबको रहनेवाला है। क्योंकि समवसरणमें भी सुननेवाले जायेंगे न?
समाधानः- यहाँ सबको तैयार कर दिया। गुरुदेवने सबको...
मुमुक्षुः- जहाँसे मोक्ष जल्दी हो वहाँसे। आपको कृपाका ज्यादा लाभ मिला है, वह बात सत्य है।
समाधानः- बहुत कृपा थी। गुरुदेवका सान्निध्य यहाँ सबको मिला। सबको प्राप्त हो, उसमें...
मुमुक्षुः- मैंने तो सुना है, परन्तु ... ने सुना नहीं है, उसका क्या करना?
समाधानः- ... बचपनसे संस्कार है इसलिये मैं तो यहीं आता हूँ। वांचनमें और हर जगह पहुँच जाते हैं।
मुमुक्षुः- .. वहाँसे हटती नहीं और यहाँ आती नहीं। तो ऐसा माहात्म्य, पदार्थका ऐसा स्वरूप कैसे ज्ञानमें लेना कि जिससे रुचिका पलटा सहज हो जाय? क्योंकि हठपूर्वक तो रुचि (बदलती नहीं)।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते हैं कि समझनमें सब गर्भितरूपसे रहा है। किस प्रकारकी ऐसी समझ आये? ज्ञानका विचार करें तो ज्ञानकी असाधारणता या एक विशेष प्रकार थोडा ख्यालमें आता है। परन्तु वह ऊपर-ऊपरसे थोडा विचार करे तो रहे, फिर दूसरी वस्तुमें ... उतना होता है कि वहाँ रुचि चिपकी है। .. जड पदार्थ है, उसमें सुख नहीं है, उससे कुछ होता नहीं। ऐसा धारणाज्ञानमें तो सब आया है। इसमें बहुत उलझन (हो जाती है किः) ऐसा कब तक?
समाधानः- ऐसा है कि वह ज्ञानमें लिया, लेकिन वह ज्ञान.. जो उसकी यथार्थ महिमा आनी चाहिये अंतरमेंसे महिमा उतनी (नहीं आती है)। महिमा बाहर नहीं है, अंतरमें ही है। उस परसे उतनी समझनमें आये तो उसके साथ उसकी विरक्ति चाहिये, उसकी महिमा चाहिये। ज्ञानके साथ सब हो तो वह रुचि पलटती है। उस ओरसे विरक्ति आनी चाहिये कि इसमें कुछ नहीं है। आत्मामें ही है। उससे निरालापन आना चाहिये कि इसमें अटकने जैसा नहीं है। इसमें कुछ रस नहीं है। उसका निर्णय ऐसा दृढ होना चाहिये कि रुचि पलट जाय। उतना ज्ञान समझमें आना चाहिये। मात्र समझनका दोष है ऐसा नहीं। समझ, विरक्ति, महिमा सब अन्दर साथमें हो तो पलटता है।
मुमुक्षुः- वह सब कैसे कब आये?
समाधानः- स्वयं करे तो हो। करे बिना कहाँसे (हो)?
मुमुक्षुः- करनेमें क्या बाकी रह जाता है?
समाधानः- करनेमें बाकी...
PDF/HTML Page 1043 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- बुद्धिपूर्वक तो मानो संयोग छोडकर मुंबई छोडकर सोनगढ चलते हैं। तो अपना उस प्रकारका लक्ष्य छूट जाय, अमुक हो जाय। वह प्रयत्न भी होता है। यहाँ भी बुद्धिपूर्वकका प्रयत्न शास्त्रमेंसे पढकर विचार करनेका मन होता है।
समाधानः- फिर भी अटकता है। रुचि वहीं है। जितनी चाहिये उतनी अन्दर तीव्रता नहीं है। जितना चाहिये उतना अंतरमेंसे वापस नहीं मुडता है। जितना चाहिये उतना स्वयंको ग्रहण नहीं करता है। तो उतनी विरक्ति आती नहीं, उतनी महिमा आती नहीं। इसलिये उसमें क्षति रहती है। मन्दता रहती है।
सो रहा हो और जागृत होनेका निर्णय किया हो, परन्तु जागता हूँ, जागता हूँ करे, परन्तु प्रमादके कारण जागृत नहीं होता। जागना है, जागना है, उठना है, लेकिन स्वयं प्रमादके कारण जितनी चाहिये उतनी अपनी ओर ज्ञान, विरक्ति, महिमा जितनी चाहिये उतनी, जितना कारण देना चाहिये उतना करता नहीं। इसलिये होता नहीं। अपनी आलसके कारण नहीं हो रहा है।
जितनी तीव्रता चाहिये उतनी (नहीं है)। वहाँ अटकता है। अटकता है तो उतनी अंतरमेंसे चटपटी लगनी चाहिये कि वहाँ अटक ही न सके और अपनेमेें चला जाय, उतनी अन्दरसे लगन लगनी चाहिये। तो वहाँसे भिन्न पडे। बादमें अल्प अस्थिरता रहती है, परन्तु उसकी दृष्टि वहाँ थँभती नहीं और वहाँसे छूटता नहीं है उसका कारण स्वयंका ही है। उसका आश्रय प्रबलपने ले और इसका आश्रय छोड दे तो निरालंबन हो जाय। अपना आश्रय सहज... आश्रयका जोर हो तो वह छूट जाता है। स्वयं छोडे तो छूटे। स्वयं ही नहीं छोडता है, अपना कारण है। द्रव्यदृष्टि वह तो उसमें गया नहीं है, उसे ग्रहण नहीं किया है, परन्तु पर्यायमें हर जगह अटका है।
मुमुक्षुः- उसके लिये कुछ...?
समाधानः- विशेष महिमा आये उसके लिये, ज्ञायकमें ही सर्वस्व है, उसकी दृढता करे। इसमें सर्वस्व नहीं है, चैतन्यमें सब है। भले बुद्धिपूर्वक स्वयं विचार करके करे, परन्तु अन्दरसे पलटनेके लिये तो उसकी विशेष तैयारी होनी चाहिये। परिणति पलटे। बुद्धिमें आये लेकिन जब तक परिणति नहीं पलटती, तब तक कचास है। परिणति एकत्वकी ओर ढल रही है तो अपनेमें कचास है। बुद्धिमें निर्णय करे कि महिमा इसमें है, सुख इसमें है, इसमें सुख नहीं है, वहाँ तक स्वयं आता है, परन्तु परिणति पलटती नहीं, वह अपनी कचास है।
.. बारंबार उसकी परिणति रहा करे। बारंबार ऐसा करते-करते पलटे। परन्तु ज्ञायककी ओर टिके कब? उतनी अपनी ओर रहनेकी जरूरत लगे, यही जरूरतवाला है, दूसरी ओरसे वापस हटे तो हो। परिणतिका पलटना अपने पुरुषार्थसे होता है। गुरुदेवने सबको
PDF/HTML Page 1044 of 1906
single page version
ग्रहण हो उस प्रकारसे स्पष्ट कहा है। तेरा स्वरूप तेरेमें है, पर तुझमें नहीं है। पूरा मार्ग स्पष्ट करके दिखा दिया है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो उस अनुसार परिणति ही इस ओर मुडती नहीं।
समाधानः- परिणति पलटनी चाहिये। उसमें पुरुषार्थकी तैयारी करनी पडती है।
मुमुक्षुः- "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता'। उसका अर्थ क्या समझना?
समाधानः- रुचिपूर्वक वार्ता सुनी है, भावि निर्वाण भाजनं। अंतरकी रुचिपूर्वक सुना है तो उसकी परिणति पलटे रहेगी ही नहीं। लेकिन वह पलटे कब? स्वयं करे तो हो। भावि, भावि है। कभी भी पलटे ऐसा उसका अर्थ है। भविष्यमें निर्वाणका भाजन है। अंतरकी रुचिपूर्वक जिसने बात भी सुनी है, उसकी परिणति पलटे बिना रहेगी नहीं। भविष्य निर्वाण भाजनं। उसका अर्थ स्वयं पुरुषार्थ करके उसका पलटना होगा। लेकिन जो जिज्ञासु हो उसे ऐसा होता है कि मेरी परिणति कैसे पलटे? उसे पुरुषार्थ करनेकी स्वयंको भावना रहती है।
मुमुक्षुः- वह ऐसे कथनोंका आधार नहीं लेता। समाधानः- हाँ, आधार नहीं लेता। उसकी भावना ऐसी होती है कि कैसे पलटे? कैसे पुरुषार्थ करुँ? कैसे करुँ? ऐसी भावना और वैसी लगन लगानेवालेको पलटती है। फिर कब पलटे वह उसकी योग्यता अनुसार (होता है), परन्तु उसकी भावना ऐसी होती है कि कैसे पुरुषार्थ करुँ? कैसे हो? कैसे पुरुषार्थ करु तो पलटे? ऐसी उसकी भावना होती है। पुरुषार्थ करनेकी ही भावना होती है।