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समाधानः- ... अन्दर आत्माको पहिचाने, आत्माकी ओर जाय, आत्माकी रुचि करे, आत्माकी महिमा (करे)। सच्ची समझ करे कि मैं कौन हूँ? ऐसी उसे अंतरसे लगन लगनी चाहिये। कहीं चैन न पडे, विभावमें कहीं चैन न पडे, अंतर दृष्टि होनी चाहिये। फिर उसे बाहरकी रुचि तो सहज ही ऊतर जाती है। उसे बाहरका कोई रस नहीं रहता। अंतरमेंसे छूट जाय, इसलिये बाहर एकदम तीव्रतासे कहीं तन्मय नहीं होता। वह तो निरस हो जाता है। बाहरकी अमुक क्रियाएँ होनी चाहिये ऐसा नहीं होता। निरस हो जाता है। सहज-सहज उसे ऐसी विरक्ति आ जाती है। उसे अन्दरसे रस ऊतर जाता है। फिर उसे विचार, वांचन, स्वाध्याय आता है। अंतर आत्माको कैसे पहिचानूँ, उसकी सच्ची समझ, उसके विचार, वांचन होता है। अन्दर खोज (चलती है कि) आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मा क्या है? ये विभाव क्या है? उसका लक्षण पहिचाननेके लिये सब प्रयत्न चलता है।
उसके लिये इतनी क्रिया होनी चाहिये या इतना होना ही चाहिये, ऐसा नियम नहीं होता। उसे रस नहीं आता, इसलिये सहज ही छूट जाता है। बाहर जो तीव्र रागके प्रसंग और सब क्रियाएँ छूट जाती है, परन्तु उसका नियम नहीं होता कि इतनी क्रिया होनी ही चाहिये, ऐसा नियम नहीं है।
मुमुक्षुः- द्रव्य, भावका कारण बनता है?
समाधानः- द्रव्य भावका कारण... भाव जहाँ यथार्थ होते हैं, वहाँ उसके योग्य ऐसा होता है। द्रव्य लाभ करता है ऐसा नहीं है, भाव उसका यथार्थ हो उसे ऐसा निमित्त बनता है। जहाँ सच्ची रुचि जागृत हो, वहाँ सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको वह ग्रहण करता है। सच्ची रुचि जागृत होती है इसलिये उसे अमुक जातके कषाय मन्द हो जाते हैं। उसके कषाय तीव्र नहीं होते। अंतरमें जाय इसलिये उसे कषायका रस कम हो जाता है। अमुक होना चाहिये ऐसा नहीं, लेकिन उसे कम हो ही जाता है।
मुमुक्षुः- स्वाभाविक है।
समाधानः- स्वाभाविक हो जाता है।
मुमुक्षुः- चटपटी लगे उसे ..
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समाधानः- चटपटी लगे इसलिये उसे कषाय कम हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- चटपटी लगानेके लिये भी प्रयत्न तो करना पडता है न?
समाधानः- चटपटी लगानेके लिये प्रयत्न करना पडता है। प्रयत्न करना चाहिये। अंतरमें जानेका प्रयत्न तो करना चाहिये। कषाय तो उसे सहज ही कम हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- सहज ही कम हो जाते हैं? प्रयत्न ज्यादा नहीं करना पडे।
समाधानः- उसे रस ही नहीं रहता। जिसे आत्माकी ओर जानेका वैराग्य आ जाय, उसे ये सब रुचि, बाहरकी रुचि कम हो जाती है। रस कम हो जाता है।
मुमुक्षुः- .. उसे दृढता रहा करे कि मैं तो, चाहे जो भी उपयोग हो, कोई भी अवस्था हो, मैं तो ज्ञायक ही हूँ।
समाधानः- सर्व प्रथम तो बुद्धिपूर्वक निर्णय होता है। लेकिन उसे निर्णय ऐसा ही होता है कि यह यथार्थ निर्णय है और इसी प्रकारसे आगे जाया जाता है। ऐसी उसे अंतरमेंसे श्रद्धा हो जाती है। यह ज्ञायक है और इस ज्ञायकको ग्रहण करनेसे और उसमें तीव्रता करनेसे, उसकी उग्रता करनेसे अवश्य इसमेंसे आगे बढा जाता है। ऐसा उसे निर्णय आ जाता है। उसका वह निर्णय यथार्थ होता है। ज्ञायकके मूलमेंसे ही उसे स्वभाव ग्रहण होकर निर्णय होता है कि यही ज्ञायक है और ये सब पर है, यह विभाव है, यह स्वभाव है। और इस स्वभावको ग्रहण करनेसे अंतरमेंसे शान्ति प्रगट हो, अंतरमेंसे आनन्द आता है, ऐसा उसे यथार्थ निर्णय जोरदार होता है। और जहाँ उसका पुरुषार्थ उठता नहीं है, वह जानता है कि मेरा पुरुषार्थ नहीं है। लेकिन इस ज्ञायकको ग्रहण करनेसे, ज्ञाताधाराको उग्र करनेसे अवश्य इसमेंसे स्वानुभूति प्रगट होती है। ऐसा उसे जोरदार निर्णय होता है।
और उसके बाद भी, स्वानुभूतिके बाद भी उसे भेदज्ञानकी धारा चलती है। पहले तो उसे निर्णय होता है, परन्तु भेदज्ञानकी धारा उसकी सहज नहीं होती है। ज्ञायक ग्रहण हो और फिर छूट जाय, उसे ऐसी पुरुषार्थकी तीव्रता-मन्दता होती रहती है। परन्तु उसका निर्णय जोरदार होता है कि ऐसा पुरुषार्थ करनेसे, इस ज्ञायककी उग्रता करनेसे अवश्य इसी मार्गसे आगे बढा जाता है। उतना जोरदार निर्णय होता है। फिर तो उसकी ज्ञायककी धारा जोरदार रहती है। क्षण-क्षणमें कहीं भी उपयोग जाय, उपयोग बाहर जाय, अनेक जातके उसे विभावके विकल्प आये तो भी उसे ज्ञायककी धारा तो ज्ञायक उसे भिन्न ही, प्रतिक्षण भिन्न ही रहता है। बाहरमें कोई भी कार्य होता हो, अंतरमें कोई भी विकल्प आते हो तो भी उसे ज्ञायक उससे न्यारा, ज्ञायककी धाराकी परिणति भिन्न ही रहती है। खाते-पीते, चलते-फिरते कोई, कहीं भी सोते-जागते उसे भेदज्ञानकी धारा (चलती है)। एकत्व होता ही नहीं, ऐसी सहज धारा होती है। और सहज धाराकी
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उग्रता होनेसे उसे स्वानुभूति भी ऐसे ही होती है। फिक्षर तो सहज धारा ही रहती है।
पहले तो उसे मात्र निर्णय होता है। उसकी सहज धारा नहीं होती। लेकिन निर्णय होता है कि इस ज्ञायकको ग्रहण करनेसे, इसकी उग्रता करनेसे, भेदज्ञान करनेसे अवश्य स्वानुभूति होती है। भेदज्ञानकी धारा उसे टिकती है, क्योंकि वह सहज नहीं है इसलिये। उसकी उग्रता करते-करते अवश्य स्वानुभूति होगी, ऐसा उसे निर्णय होता है। फिर तो उसकी सहज धारा (हो जाती है)। वह एकत्व होता ही नहीं। उपयोग बाहर जाय तो भी उसकी परिणति तो न्यारी ही रहती है। परिणति भिन्न ही रहती है।
मुमुक्षुः- उसे कोई भी उदयभाव आये तो भी शंका नहीं होती कि मेरा निर्णय बदल गया...?
उत्तरः- उसे शंका होती ही नहीं। उसकी सहज धारा भिन्न ही रहती है। शंका ही नहीं पडती। जिस क्षण विकल्प आये उसी क्षण उसे ज्ञायककी धारा रहती है। जिस क्षण.. फिर उसे याद नहीं करना पडता। जब वह विकल्प हो, उसी वक्त ज्ञायककी धारा (होती है)। उसी क्षण भिन्न होता है। अपना अस्तित्व जो ज्ञायकरूपसे ग्रहण हुआ, वह ज्ञायककी परिणति जोरदार (होती ही है)। उसके साथ एकमेक-तन्मय होता ही नहीं, न्यारा ही रहता है। विकल्प आये तो न्यारा रहकर ही आता है। कोई भी आवे। फिर तो याद भी नहीं करना पडता, सहज (होता है)। सहज अपना अस्तित्व ज्ञायककी परिणतिपूर्वक वह विकल्प होता है। वह भिन्न रहता है। उसे शंका नहीं पडती।
मुमुक्षुः- शरीरमें रोग आवे, प्रमाद हो जाय, उसके साथ उसे ऐसा नहीं हो जाता कि मेरे निर्णयमें कुछ फेरफार हो गया?
समाधानः- नहीं, उसे बिलकूल शंका नहीं पडती।
मुमुक्षुः- क्योंकि ऐसा तो बने कि शरीरमें रोग आवे तो उस ओर लक्ष्य जाय, प्रमाद भी हो जाय।
समाधानः- तो भी उसे ज्ञायककी धारा, अमुक जातका जो पुरुषार्थ सहज है, वह उसे मन्द होता ही नहीं। उसकी स्थिरतामें उसे विशेष कम हो, बाकी ज्ञायककी धारा, वह सहज धारा रहती ही है।
मुमुक्षुः- विचार करे तो ही रहे ऐसा कुछ नहीं?
समाधानः- विचार करे तो रहे ऐसा नहीं, सहजपने रहती है।
मुमुक्षुः- निर्णयवालेकी भी वह स्थिति होती है?
समाधानः- प्रथम भूमिकावालेको ऐसी सहज धारा नहीं होती। उसे निर्णय होता है। उसे याद भी करना पडे। उसे निर्णय है। धारा या अमुक अंशमें उसे शान्तिका वेदन हो, पहले उसे ऐसी सहज धारा नहीं होती। उसे याद करना पडता है। वैसा
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सहज नहीं होता। बार-बार उसका अभ्यास करता है। ... उसे दृढता होती है, पहले।
एकत्वबुद्धि जो अनादिकी है वह जैसे सहज है, वैसे उसे भेदज्ञानकी धारा सहज रहती है। उस जातका पुरुषार्थ उसे सहज हो गया है।
मुमुक्षुः- सहज है, फिर भी पुरुषार्थ तो है।
समाधानः- पुरुषार्थ है। सहज होने पर भी पुरुषार्थ है। इसलिये उसे बार-बार विचार करके टिकाना नहीं पडता इसलिये वह सहज है। विकल्प करके या विचार करके या स्मरणमें लेकर ऐसे उसे टिकाना नहीं पडता। इसलिये सहज है। परन्तु परिणतिकी धारा है वह उसे पुरुषार्थपूर्वक है।
मुमुक्षुः- .... स्वकी अपेक्षारूप परिणतिमें पुरुषार्थ रहा है।
समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ रहा है। अपनी ओरका जो आश्रय है उसमें पुरुषार्थ रहा है।
मुमुक्षुः- बदलता नहीं। धारणाज्ञान पर्यंत पहुँचता है, समझमें भी बिठाता है, परन्तु परिणति नहीं बदलता। परिणति बदलता नहीं है अर्थात परका लक्ष्य..
समाधानः- परिणति जो एकत्वकी परिणति बन गयी है, उस परिणतिको भिन्न नहीं करता है। निर्णय हो गया कि मैं भिन्न ही हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। लेकिन वह ज्ञायक जो क्षण-क्षणमें विकल्पोंके साथ एकत्वबुद्धि करके जो वर्तता है, एकत्व होकर परिणमन कर रहा है, उस एकत्वताको तोडता नहीं। इसलिये परिणति बदलता नहीं है। वह एकत्वता तोडनेका प्रयास करे तो प्रयास उसे हो सकता है। अभ्यासरूप हो सकता है। परन्तु सहज होनेमें तो उसे स्वानुभूति हो तो उसे अधिक सहज होता है। पहले वह एकत्वता तोडनेका अभ्यास कर सकता है।
... परिणति हो रही है, फिर उसे विचार करना पडता है कि यह एकत्व हो रहा है, मैं भिन्न हूँ, ऐसा विचार करना पडता है, प्रयास करना पडता है। सहज नहीं है न इसलिये। विचारपूर्वकका अभ्यास (होता है)। ... वह सहज काम करता है। उपयोग बाहर जाय तो भी परिणति जो सहज होती है वह कार्य करती रहती है।
मुमुक्षुः- पुुरुषार्थ तो प्रतिक्षण चलता रहता है।
समाधानः- चलता ही रहता है, प्रतिक्षण। जिस क्षण विकल्प आये उसी क्षण पुरुषार्थ चालू ही है।
मुमुक्षुः- अंतर स्वभावको पकडनेका कोई पुरुषार्थ?
समाधानः- जो सहज सम्यग्दर्शनके बादका है, वह तो उसे सहज ज्ञायक ग्रहण ही हो गया है। ज्ञायकरूप ही मैं हूँ, ज्ञायकरूप ही हूँ। ऐसी उसकी परिणति पुरुषार्थपूर्वक वर्तती ही है। और पहले जो है वह ज्ञायकको ग्रहण करनेका प्रयत्न है। उसने बुद्धिमें
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नक्की किया परन्तु ज्ञायक अभी परिणतिरूपसे भिन्न नहीं हुआ, तब तक ज्ञायकको ग्रहण करनेके लिये उसका प्रयत्न चालू रहता है।
... इस तरह दृष्टि पलटे तो पहिचाने। ये तो दृष्टि बाहर पुदगलमें है, इसलिये बाहरका पहिचानता है। अंतर दृष्टि करे तो पहिचाने। मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, शाश्वत हूँ, अनादिअनन्त हूँ, ऐसे स्वयं विचार करे तो पहचान सके। दृष्टि बदले तो पहचान सके। उसकी जरूरत महसूस हो, उस ओर पुरुषार्थ करे तो पहचान सके। उसके लक्षणसे पहिचान सकता है। ज्ञान लक्षण, ज्ञायक लक्षण है। ये सब लक्षण पुदगलका है वह जड है, बाहरका है। सब विभाव है।
मुमुक्षुः- ज्ञानलक्षण तो पर्यायमें है और पहिचानना स्वभावको है।
समाधानः- पर्यायमें है लेकिन वह पर्याय अंतरमें मैं शाश्वत कौन हूँ, ऐसे पहचान सकता है। भले पर्याय हो तो भी दृष्टि द्रव्यकी ओर कर सकते हैं। ये जो क्षणिक ज्ञानलक्षण है उसमें शाश्वत मैं जाननेवाला हूँ। ऐसे दृष्टिको स्वयं शाश्वत पर पहिचानकर स्थिर कर सकते हैं। ये जो ज्ञानकी पर्याय बदलती रहती है, वह बदलती है सो मैं नहीं, परन्तु जो शाश्वत ज्ञायक है, एक समान रहता है, वह मैं ज्ञायक जाननेवाला हूँ। बदलता रहे, एकके बाद एक ज्ञेयको जाने, उस ज्ञेयको जाने इसलिये मैं नहीं, परन्तु मैं स्वयंसिद्ध ज्ञायक हूँ। ज्ञेयको जाननेवाला ज्ञायक मैं स्वतःसिद्ध ज्ञान-जाननेवाला ही हूँ। एकके बाद एक पर्याय बदले क्षण-क्षणमें, वह तो बदलती रहती है। जो बदलता है वह मेरा शाश्वत लक्षण नहीं है। मैं शाश्वत ज्ञायक हूँ, ऐसे पहिचान सकता है। ... तो लीनता हो, तो उसमें स्थिरता हो।
मुमुक्षुः- जरूरत पर सब आधार है?
समाधानः- जरूरत लगे, उसकी लगन लगे, जरूरत लगे..। बाहरका सब जरूरतवाला लगे, उसे रसयुक्त लगता है। परन्तु अंतरकी जरूरत, उसीमें सर्वस्व है। वही सुखरूप है, वही आनन्दरूप है, वही मेरा स्वभाव है। ऐसे जरूरत लगे तो पुरुषार्थ उस ओर मुडे। ऐसी अंतरमेंसे लगन लगनी चाहिये। जरूरत लगे तो उस ओर प्रयत्न-पुरुषार्थ करता रहे, उसके पीछे लगता है। ये तो उसे इतनी जरूरत ही नहीं लगती है, अंतरमें उतनी लगन नहीं लगती है। लगन लगे तो उसके पीछे प्रयास करता ही रहे। बारंबार उसका प्रयास करता रहे।
मुमुक्षुः- १७-१८ गाथामें आता है कि प्रत्येक जीवको अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अनुभवमें आता है।
समाधानः- वह अनुभूति यानी वास्तविक अनुभूति जो अन्दर आनन्दका वेदन, ऐसा नहीं कहना चाहते हैं। ऐसा कहते हो तो फिर कहते हैं, तुझे उसकी श्रद्धा नहीं
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है, नहीं जाना उसका श्रद्धान गधेके सिंग बराबर है। ऐसा सब कहते हैं। नहीं जाना उसका श्रद्धान। तो गधेके सिंगके बराबर आदि कहते हैं, अर्थात वास्तविक अनुभूति वहाँ नहीं कहते हैं।
वहाँ तो कहते हैं, तेरा स्वभाव उस रूप परिणमता है। जो स्वभाव तेरा ज्ञायकरूप है जाननेवाला, उस रूप तू अनादिसे हो रहा है। अनुभवका अर्थ वहाँ उसका अनुसरण करके तू हो रहा है, उस रूप। ऐसा कहना चाहते हैं। अनुभूति अर्थात तू उस रूप हो (रहा है), तेरा स्वभाव उस रूप परिणमता है, तेरे स्वभावरूप तू अनादिसे हो रहा है। चेतन चेतनरूप परिणमता है। उसे तू पहिचान ले।
मुमुक्षुः- प्रश्न यह होता है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा कहा, वह किसका विशेषण कहा?
समाधानः- विशेषण भले स्वयंका चैतन्यका है।
मुमुक्षुः- परन्तु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अर्थात ज्ञायकभाव?
समाधानः- हाँ, ज्ञायकभाव।
मुमुक्षुः- आबालगोपाल सभीको सदाकाल अनुभवमें आ रहा है यानी स्वभाव तो ज्ञात हो रहा है। उपयोगात्मकका सवाल नहीं है।
समाधानः- उस रूप परिणति हो रही है। पारिणामिकभावरूप वह परिणमता है। आत्मा, ज्ञायक स्वयं।
मुमुक्षुः- परन्तु उस आनन्दकी अनुभूतिकी बात नहीं है। ऐसे नहीं लेना चाहिये।
समाधानः- आनन्दकी अनुभूति, वेदनकी अनुभूति नहीं है। नहीं तो फिर ऐसा क्यों आया कि नहीं जाना है उसका श्रद्धा गधेके सिंग बराबर है। अर्थात आचार्यको दूसरा कहनेकी अपेक्षा है। अनुभूति कहकर तू ज्ञायकरूप भगवान अनुभवमें आ रहा है। अर्थात उस स्वरूप तू सदाके लिये शाश्वत है। तेरा नाश नहीं हुआ है। तू तेरे स्वभावको टिका रहा है, ज्ञायकरूपसे। अतः तू है उसे पहिचान, ऐसा कहना है। उस स्वरूप ही तू है।
मुमुक्षुः- आत्माको उसका प्रतिभास हो रहा ऐसा कह सकते हैं?
समाधानः- प्रतिभास यानी तू उस रूप ही, ज्ञायक ज्ञायकरूपसे परिणमन कर रहा है। ज्ञायककी ज्ञायकता छूट नहीं गयी है, चेतनकी चेतनता छूट नहीं गयी है। ज्ञायकरूप तू भले विभावमें गया तो भी तेरी चेतनता ज्योंकी त्यों परिणमती है। सदाकाल परिणमती है। उस चेतनताको तू अन्दरसे पहिचान ले, ऐसा कहते हैं। गुरुदेवकी टेपमें अभी आया था, अनुभूति अर्थात उस रूप होना, उस स्वरूपरूप परिणमना।
मुमुक्षुः- होना।
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समाधानः- हाँ, होना। उस रूप होना।
मुमुक्षुः- स्वभाव.. स्वभाव। ... अगुरुलघुगुणके कारण जो अनेकपनाकी ... अनुभूति और वह पर निमित्तके कारण आ पडती आपत्ति। उसमें आ पडी है, इसमें अनुभूत ली। इतना फर्क है। उसमें आया था। आज अनुभूति आया था, इस अर्थमें। मैं यहाँ आया उस दिन। आज ही यह आया-अनुभूति।
मुमुक्षुः- दो दिन पहले माताजीको १७-१८ गाथाका प्रश्न पूछा था। दो-चार दिन पहले।
मुमुक्षुः- मुझे मालूम नहीं था।
समाधानः- उस रूप वह हो रहा है, ज्ञायक ज्ञायकरूप ही हो रहा है। वह हो रहा है लेकिन उसे प्रगटरूपसे ख्याल नहीं है। स्वयं उस रूप हो रहा है। अनुभूतिस्वरूप अर्थात ज्ञायक ज्ञायकरूप, लेकिन वह मालूम नहीं है।
मुमुक्षुः- मालूम नहीं है अर्थात उपयोगात्मक नहीं करता है ऐसा?
समाधानः- उसका उपयोग-प्रगट नहीं करता है। उपयोगात्मक...
मुमुक्षुः- उपयोगमें भी नहीं है और लब्धमें नहीं है। .... तो उपयोगात्मक कहें। जानता ही नहीं।
मुमुक्षुः- नहीं, नहीं ऐसा कहना है कि छद्मस्थ जीव है इसलिये दो जगह तो उपयोग रहता नहीं। यानी उपयोगात्मक...
मुमुक्षुः- एक जगह उपयोग और बाकी सब लब्धमें। मुमुक्षुः- वह तो एक बार अनुभव होनेके बादका बराबर है। मुमुक्षुः- इसलिये यहाँ नहीं है। उपयोगात्मकका कोई मतलब नहीं है। किसी भी प्रकारसे जानता ही नहीं। उपयोगात्मक नहीं है, तो कोई अपेक्षासे जानता है, ऐसा होता है। जानता ही नहीं।
मुमुक्षुः- वह स्वीकार्य नहीं है। वह हमें स्वीकार्य नहीं है।
समाधानः- आचार्यदेव कहते हैं कि तू अनुभूतिस्वरूप हो रहा है। लेकिन तुझे उसका श्रद्धान नहीं है। और नहीं जाने हुएका श्रद्धान गधेके सिंगके बराबर है। इसलिये तू जानता भी नहीं, श्रद्धान नहीं है, आचरण नहीं है। परन्तु आचार्यदेव उसे कहते हैं, नहीं है उसका अर्थ तेरा नाश नहीं हुआ है। तू जड नहीं हो गया है। तू स्वयं है अनुभूतिस्वरूप आत्मा, बालगोपाल सबको अनुभूतिरूप हो रहा है। तू पहिचान ले। तू स्वयं ही है। तू उस रूप ही है, ज्ञायक ही है, उसे तू जान ले। तू जान ले, तेरा नाश नहीं हो गया है, तू है उसको जान ले, ऐसा कहते हैं। तू उस रूप अनुभूति स्वरूप भगवान आत्मा आबालगोपाल सदा शाश्वत है। ज्ञायक ज्ञायकरूप ही है, तू उसे
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पहिचान ले। पहिचना ले।
मुमुक्षुः- आबालगोपाल सबको उस रूप हो ही रहा है। कैसे हो रहा है, मालूम नहीं। उत्पाद-व्यय-ध्रुवकी एकतास्वरूप अनुभूति, दूसरी गाथा। सात बोल।
समाधानः- अनुभूतिस्वरूप यानी ज्ञायकरूप है। वेदन प्रगट नहीं है। उसे अपने स्वभावका वेदन नहीं है। लेकिन जड हो तो उसे अनुभूतिस्वरूप नहीं कहते। तो भी उसमें जडकी अनुभूति कहा है। लेकिन तू ज्ञायकरूप ही हो। आबालगोपालको ज्ञायकरूप अनुभूतिरूप ज्ञायक है। ज्ञायक ही है, लेकिन तू कहाँ खोजता है? तू स्वयं ही है। तू उसकी श्रद्धा कर, उसे जान। तू स्वयं ही है। तू स्वयं ही है और दूसरी-दूसरी जगह खोजने जा रहा है। दूसरी जगह खोजता रहता है। तू ही है। तेरी ओर दृष्टि कर।
मुमुक्षुः- बाहर व्यर्थ महेनत करता है।
समाधानः- बाहर व्यर्थ महेनत करता है।
मुमुक्षुः- सदा काल स्वयं ही अनुभवमें आता होने पर भी, उसका अर्थ आपने ऐसा लिया कि अनुभवमें आता होने पर भी...
समाधानः- श्रद्धा नहीं है, आचरण नहीं है, कुछ नहीं है तो भी तू है। भगवान आत्मा तू ज्याेंका त्यों है। आबालगोपाल सबको।