Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 171.

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ट्रेक-१७१ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- सत स्वयंको त्रिकाल ज्ञात करवा रहा है, क्षणिक नहीं ज्ञात करवाता। तो वह कैसे कहना है?

समाधानः- सत सत है। जो त्रिकाली सत हो, सत उसको कहें कि जो सत स्वयं अस्तित्वरूप टिकनेवाला है। क्षणिक हो वह तो उसकी एक पर्याय है। क्षणिक हो वह... वास्तविक रूपसे सत किसे कहते हैं? जो स्वतःसिद्धरूपसे है, जो अस्तित्व रखता है, अनादिअनन्त जो अस्तित्व रखता है उसीको सत कहते हैं। सत स्वयंको त्रिकाल ज्ञात करवा रहा है। सत जो है वह स्वयं स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त है। जो क्षणिक हो, वह तो उसकी पर्याय हो। जो क्षणिक हो वह अनादिअनन्त सत उसे नहीं कह सकते।

वास्तविक सत उसे कहें कि जो त्रिकाल हो वही वास्तविक सत है। अनादिअनन्त जो त्रिकाल टिकनेवाला है, वह सत है। अनादिअनन्त जो सत है, वह सत स्वयंको त्रिकाल बतला रहा है। सतको किसीने बनाया नहीं है। सत स्वयं अस्तित्वरूप है, त्रिकाल है। पर्यायको सत कहते हैं। वह तो उसकी पर्याय है, क्षण-क्षणमें पलनेवाली।

यहाँ सतकी, त्रिकाल सतकी बात की है। जो सत अनादिअनन्त त्रिकाल हो, वह सत स्वयंको सतरूपसे त्रिकाल बतला रहा है। सत है, ऐसे। सत कहीं बाहरसे नहीं आता, उसे कोई बनाता नहीं है। सत है वह स्वयंसिद्ध सत है। जो स्वयंसिद्ध सत हो वह त्रिकाल ही होता है। वह किसीसे नाश होता नहीं, किसीसे उत्पन्न होता नहीं। ऐसा सत वह त्रिकाल सत है। और सत है वह सत ज्ञायकरूप सत है। उसका जिसे भरोसा आये तो...

मुमुक्षुः- उसे स्वयंके वेदन परसे ही ख्यालमें आता है न कि ये जो वेदन है, जो जानना होता है, वह जानना टिका हुआ है और वह टिका हुआ है वह एक शाश्वत वस्तुकी परिस्थिति है। ऐसे उस परसे..

समाधानः- सतको नक्की करना है कि यही सत है। यह ज्ञान है वह स्वयं त्रिकाल सत है और त्रिकाल सतका यह ज्ञानस्वभाव है। उसमेंसे यह परिणति आती है। त्रिकाल सतमेंसे परिणमित हुयी यह ज्ञानकी परिणति है। स्वयं नक्की करता है। अपना


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स्वयं ऐसा अस्तित्व अनन्त शक्तिसे भरा है। वह सत अनन्त शक्तिसे भरा है। जिसमें अनन्तता भरी है। वह ज्ञानस्वभाव उसमें उसका है। ऐसा स्वयं नक्की करे, उसकी प्रतीत करे तो उसमेंसे शान्ति प्रगट होती है। उस पर्यायमें शान्ति प्रगट हो, उस अनुसार परिणति प्रगट करे प्रतीत करके। उसकी भेदज्ञानकी परिणति प्रगट करे कि मैं सत-ज्ञायक सत सो मैं हूँ। यह विभाव परिणति मेरा मूल स्वभाव नहीं है। यह ज्ञानस्वभावका जो अस्तित्व है वही मैं हूँ, ऐसी परिणति प्रगट करके उसमें दृढता करे, उसमें लीनता करे तो उसमेंसे उसे स्वानुभूति प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ..ऐसा कहनेके पीछे क्या प्रयोजन है?

समाधानः- दो स्वभाव-एक रागस्वभाव विभाव और ज्ञानस्वभाव। दोनों ख्यालमें (आते हैं)। ज्ञायक सो मैं हूँ, ऐसा कहनेका प्रयोजन यह है कि तू क्षणिकमें मत अटकना, जो शाश्वत है उसे ग्रहण कर। ये सब पर्यायें हैं, वह क्षण-क्षणमें पलटनेवाली हैं। उसका तू ज्ञान कर, उसमें अटकना मत, ऐसा कहना है।

जो साधक दशाकी पर्याय है, ये अधूरी ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर्याय है उतना ही तेरा स्वरूप नहीं है। तेरा स्वरूप अनादिअनन्त सत, ज्ञायक जो अनादिअनन्त है वही मैं हूँ। उसमें क्षणिकमें तू मत अटकना। परन्तु जो मूल स्वभाव है उसे ग्रहण कर। उसे नहीं अटकनेके लिये (कहते हैं)। मूल वस्तु ग्रहण करवानेको, द्रव्य ग्रहण करवानेका उसका प्रयोजन है। द्रव्यदृष्टि प्रगट कर और इन सबका ज्ञान कर।

पर्याय नहीं है इसलिये उसमें साधक दशा प्रगट नहीं होती है, ऐसा नहीं। साधक दशा प्रगट होती है। सब पर्यायें होती हैं। साधक दशाकी पर्याय (प्रगट होती है), परन्तु तू उतना ही नहीं है। तू तो मूल वस्तु है उसे ग्रहण कर। पर्यायमें नहीं अटकते हुए मूल द्रव्य पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है। पर्याय बीचमें आती है, उसका ज्ञान कर। स्वानुभूति प्रगट हो वह भी पर्याय है। सब पर्याय हैं। वेदनकी पर्याय प्रगट होती है वह भी पर्याय है। लेकिन तू द्रव्य पर दृष्टि कर। उसमें बीचमें शुद्ध पर्यायें तो प्रगट होती है। वह वेदनमें आती है। परन्तु दृष्टि तू द्रव्य पर रख। दृष्टि प्रगट करनेके लिये...

समाधानः- ... ऐसे मैं तो भिन्न चैतन्यतत्त्व हूँ। ये विभावस्वभाव चैतन्यका स्वभाव नहीं है। ऐसे आकुलता स्वभाव मेरा नहीं है, मेरा तो निराकूलता हूँ। मैं तो चैतन्य हूँ, उसमें आनन्द भरा है, ज्ञान भरा है। ज्ञायकतत्त्व मैं हूँ। ज्ञायकका लक्ष्य करना, ज्ञायककी पहचान करना। उसका अभ्यास करना। ऐसे तन्मयता-एकत्वबुद्धि तोडनेका प्रयत्न करना। स्वरूपमें एकत्व और परसे विभक्त, ऐसे प्रयत्न करना। बारंबार उसका अभ्यास करना। ऐसा तत्त्वविचार, मनन, आत्माकी महिमा, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा उसके साथ ज्ञायककी महिमा करना। उसका विचार (करना)। एक आत्माको ग्रहण करनेका प्रयत्न


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करना।

मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक अनन्त गुणसे भरपूर हैं। लेकिन ऐसा भेदविकल्प भी विकल्प है। लेकिन दृष्टिमें अभेदको ग्रहण करना। उसका प्रयत्न करना। ज्ञान तो साथमें आता है कि यह ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, ऐसा सब विचार तो आता है, लेकिन वह भेदविकल्प है। मैं तो अखण्ड निर्विकल्प स्वरूप हूँ। ऐसी दृष्टि करनेका प्रयत्न करना। बारंबार उसका अभ्यास करना।

निराकूलता होनेका यह उपाय है। आत्माको ग्रहण करना-ज्ञायकको ग्रहण करना- निर्विकल्प स्वरूप आत्माको ग्रहण करना। अंतर दृष्टि करनेसे वह ग्रहण होता है। पहले ज्ञान करनेके लिये सब विचार बीचमें आते हैं। तो भी मैं अखण्ड चैतन्यतत्त्व निर्विकल्प हूँ। उसमें दृष्टि, ज्ञान, उसमें लीनता ऐसे करनेका प्रयत्न करना। वह उसका उपाय है। बारंबार उसका अभ्यास करनेसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति करनेका प्रयत्न करना। वह उसका उपाय है।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका अभ्यास?

समाधानः- हं..?

मुमुक्षुः- ज्ञायकका अभ्यास।

समाधानः- ज्ञायकका अभ्यास, बस, ज्ञायकका अभ्यास। मैं ज्ञायक हूँ। मैं ज्ञायक शून्य नहीं हूँ, परन्तु भरपूर भरा हूँ। महिमा(वंत) अनन्त गुणोंसे भरपूर हूँ। अनुपम तत्त्व है। उसका अभ्यास करना।

समाधानः- ... गुरुदेवने कहा वह करना है। जो मार्ग बताया है उस मार्गका शरण लेने जैसा है। गुरुदेवने कहा, आत्मा तो शाश्वत है। ऐसे जन्म-मरण, जन्म-मरण जीवने अनन्त किये हैं। किसीको छोडकर स्वयं चला जाता है और अपनेको छोडकर दूसरे चले जाते हैं। ऐसे अनन्त जन्म-मरण किये। उसमें यह मनुष्यभव मिला। इस मनुष्यभवमें आत्माकी कुछ रुचि और आत्माको पहिचाने तो वह सफल है। बाकी जन्म-मरण संसारमें चलते रहते हैं। ऐसे शान्ति रखनी।

आत्मा शरणरूप (है)। देव-गुरु-शास्त्र शरण है और आत्मा शरण है। सच्चा तो यह है, वास्तवमें यह करना है। गुरुदेवने सच्चा मार्ग बताया है कि तू अंतर आत्माको पहिचान ले। शान्ति रखना। बडे चक्रवर्तीओंका आयुष्य पूर्ण हो जाता है। परन्तु इस मनुष्य भवमें आत्माका कुछ हो तो वह सफल है।

इस जीवने अनन्त जन्म-मरण किये हैैं। जितने जगतके परमाणु हैं पुदगलके, सबको ग्रहण किया और त्याग किया। इस आकाश प्रदेशके एक-एक क्षेत्रमें वह अनन्त जन्म- मरण कर चूका है। ऐसे अनन्त जन्म-मरण जीवने किये हैं। द्रव्य परावर्तन और क्षेत्र


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परावर्तन, ऐसे अनन्त परावर्तन किये। जिसका कोई माप नहीं है, उतने जन्म-मरण किये। उसमें इस मनुष्य भवमें पंचमकालमें गुरुदेव मिले। उन्होंने धर्म बताया कि आत्मा भिन्न है। तू ज्ञायक है, तू शाश्वत है, तेरा आनन्द स्वभाव है उसे ग्रहण कर।

रागके कारण दुःख होता है, लेकिन विचारोंको बदलकर आत्माका शरण ग्रहण करने जैसा है। बडे देवलोकके देवोंके आयुष्य भी पूर्ण हो जाते हैं। सागरोपमका आयुष्य हो तो भी पूरा हो जाता है, तो इस मनुष्यभवमें और इस पंचमकालमें तो आयुष्य पूरा होनेमें देर नहीं लगती। एक क्षणमें फेरफार हो जाते हैं।

मुमुक्षुः- ऐसे महान पुण्य कि ऐसे संतोंका योग हुआ। सब पुण्यवान कि ऐसा धर्म..

समाधानः- ऐसा धर्म और ऐसे गुरु मिलना महा मुश्किल है। शान्ति रखनी। ऐसे प्रसंगोंमें शान्ति रखने जैसा है। शास्त्रमें आता है न कि अनन्त माताओंको स्वयंने रुलाया है और अनन्त माताओंने स्वयंको रुलाया है। स्वयंको रुलाकर अनन्त (जीव) चले गये। ऐसे अनन्त जन्म-मरण जीवने किये हैं।

जगतमें एक सम्यग्दर्शन दुर्लभ है कि जिससे भवका अभाव होता है। एक जिनवरस्वामी मिलना दुर्लभ है। मिले तो स्वयंने स्वीकार नहीं किया-उनको पहिचाना नहीं। एक जिनवरस्वामी और एक सम्यग्दर्शन, ये दो वस्तुएँ प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है। बाकी अनन्त कालमें सब प्राप्त हो चूका है। कुछ नहीं मिला ऐसा नहीं है। देवलोकके भव अनन्त, मनुष्यके अनन्त, तिर्यंचके अनन्त, नर्कके अनन्त, जीवने अनन्त-अनन्त भव किये हैं। उसमें एक सम्यग्दर्शन प्राप्त करना महादुर्लभ है। वह सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त वह मार्ग गुरुदेवने बताया है। वह करने जैसा है।

एक जिनवर स्वामी और एक सम्यग्दर्शन (प्राप्त नहीं हुआ)। जिनवर स्वामी मिले। जिनवरको पहिचाने वह स्वयंको पहिचाने, स्वयंको पहिचाने वह जिनवरको पहिचानता है। इसलियेे वह ग्रहण करने जैसा है कि आत्मा कैसे पहचानमें आये? वह वस्तु दुर्लभ है। अन्दर भेदज्ञान और स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो, वही ग्रहण करने जैसा है। बारंबार विचारोंको बदलकर शान्ति रखने जैसा है। जितना राग होता है उतना दुःख होता है। परन्तु जीवको पलटने पर ही छूटकारा है। शान्ति रखनी वही एक उपाय है। अन्य कोई उपाय अपने हाथमें नहीं है। एक शान्ति और एक आत्माका धर्म- स्वभाव ग्रहण करना। देव-गुरु-शास्त्रको हृदयमेंं रखकर आत्माको ग्रहण करना, वह करने जैसा है। ज्ञायक आत्माका शरण ग्रहण करने जैसा है।

मुमुक्षुः- विचार किया हो मतलब क्या?

समाधानः- विचार आत्माको ग्रहण करना कि मैं ज्ञायक हूँ। कोई पर पदार्थके


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साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र परिणमते हैं। मैं स्वतंत्र हूँ, मेरे आत्माका शरण ग्रहण करुँ। वह विचार करने जैसा है। बाकी जीवने सबको अपना माना है। शास्त्रमें आता है कि एक पागल आदमी (था)। राजाका लश्कर और सब आते हो तो कहता है कि ये मेरा है, मेरा है। फिर समय होने पर सब चले जाते हैं। तो कहता है कि ये सब मेरे थे। ये लश्कर आदि सब क्यों चले जाते हैं? तेरा था ही नहीं, इसलिये जाते हैं। उसमें तूने मूर्खताके कारण माना है कि ये सब मेरा है। इसलिये अपना स्वामीत्व उठाकर, मेरा ज्ञायक आत्मा वही मेरा है, अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। ऐसा निश्चय और ऐसी प्रतीत करने जैसा है। रागके कारण जूठी तरह स्वयं अपना मान लेता है।

मुमुक्षुः- एक ज्ञायकको ग्रहण करने जैसा है।

समाधानः- एक ज्ञायक आत्मा शरण, बस। एक ज्ञायककी महिमा, ज्ञायकका विचार, ज्ञायकका अभ्यास, उसका मनन, उसका अभ्यास, सब करने जैसा है। कठिन तो लगे, अनादिका अभ्यास नहीं है इसलिये कठिन लगता है। परन्तु उसे पलटने पर ही छूटकारा है। अपना स्वभाव है इसलिये सहज है। परन्तु अनादिका परमें गया है, इसलिये दुर्लभ हो गया है। इसलिये उसे पुरुषार्थ करे, बल करके बदलने जैसा है। उसे पलटकर अपने स्वघरकी ओर आने जैसा है। परके साथ मेरा कोई नाता या सम्बन्ध अनादि कालसे है नहीं, लेकिन स्वयंने माना है।

प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। सबके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र हैं। सबके कर्म, सबके भाव, सब स्वतंत्र हैं। इसलिये स्वयंको अपना विचार बदलकर, एक ज्ञायक आत्मा वही (मैं हूँ)। अनन्त गुणोंसे भरा हुआ, अनन्त गुण-पर्यायसे भरा हुआ आत्मा वही मैं हूँ। स्वभावको ओर मुडे तो शुद्ध पर्याय होती है और विभावकी ओर मुडे तो विभावपर्याय होती है। इसलिये स्वयंको ग्रहण करके अपनी शुद्धात्माकी शुद्ध पर्याय कैसे प्रगट हो, वह करने जैसा है।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल


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पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

आपके घरमें आपकी बहनोंको सबको यह रुचि है। आप शान्ति रखना। गुरुदेवने जो मार्ग बताया है उसका विचार करके शान्ति रखने जैसा है। राग हो उसे बदलकर, पुरुषार्थ करके,.... रागके कारण दुःख हो, लेकिन शान्ति रखनी वही उसका उपाय है। वही रुचि सबको (करने जैसी है), गुरुदेवने वही मार्ग बताया है।

ऐसे प्रसंग देखकर वैराग्यका कारण होता है कि ऐसे प्रसंग बनते हैं। घरमें सबको रुचि है। उसका विचार, मनन, रुचि, महिमा, स्वाध्याय वह सब करने जैसा है। अंतरमें उतने विचार न चले तो स्वाध्याय करना। गुरुदेवने जो कहा है, उसका विचार करना। गुरुदेवने जो प्रवचन किये हैं उसका मनन करना, वांचन करना, वह सब करने जैसा है।

देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, एक ज्ञायक कैसे पहिचानमें आये? वह द्रव्य क्या है? गुण क्या है? उसका स्वभाव क्या? वह कैसे प्रगट हो? उसके लिये उसका विचार, मनन सब (करने जैसा है)।

समाधानः- .. तू उसमें आ नहीं सकेगा। भेदज्ञानकी डोर द्वारा वह पीछे पड जाता है और गुप्त घरमें आ नहीं सकता है। खडा तो होता है, वह सब विभावके शत्रु खडे होते हैं, परन्तु भेदज्ञानका हथियार उसके पास ऐसा है कि वह पीछे पड जाता है और स्वयंका घर उसके हाथमें है। स्वघर उसके हाथमें है। स्वघरमें जाता है। वह उसे पहुँच नहीं सकता है। फिर भी वह साथ-साथ जब तक केवलज्ञान नहीं हो जाता तब तक खडा है। लेकिन भेदज्ञानके पुरुषार्थकी डोर है। उसे तोडता हुआ और निज स्वभावको प्रगट करता हुआ चला जाता है।

स्वभावघरकी परिणति वर्धमान करता हुआ इसको तोड देता है। स्वघरका निवास उसे बढता जाता है। उसमें विश्राम करते जाता है। आस्रव-विभाव टूटता जाता है। चैतन्यके घरमें... चैतन्य विज्ञानघन स्वभावमें आकर मिलता है। पूरा हो गया तो भी पीछेसे आया। ... नीचे आदमी कैसे पहुँच सके? वह तो ऊपर-ऊपर चढता जाता है। ज्ञानपरिणतिमें ऊपर-ऊपर चढता जाता है, विभाव कम होता जाता है। अंतर तलमें जाय तो अन्दर गहराईमें गुप्त हो जाता है। उसमें पहुँच नहीं सकता। मार्ग और पानीका दृष्टान्त एकदम सुन्दर आचार्यदेवने (दिया है)।

स्वयंको जो परिणति प्रगट हुयी है, उस परिणतिको अपनी खीँचता जाता है। परिणति अपनेको खीँचती जाती है। अपने स्वघरके अन्दर, चल रे चल, परिणति कहती है, यहाँ अन्दर जाना है, बाहर नहीं जानेका है। बाहर नहीं जाना है, अन्दर (जाना है)। ऐसा कहकर परिणतिको खीँचता है। अन्दर चल, अन्दर चल। बाहरमें कहीं... बाहर


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अपना घर नहीं है। यह स्वघर अपना है, यहाँ आओ। आचार्यदेव कहते हैं, यहाँ आओ, यहाँ आओ। पुरुषार्थ करता हुआ विकल्पको तोडकर निर्विकल्पताको प्राप्त करता है। पुरुषार्थ करता है। फिर सदा विज्ञानघन हो जाता है। परिणति भी दोडकर आती है।

मुमुक्षुः- घर पर ऐसा कहते थे कि देह छूटनेका समय आ जाय तो उस वक्त मुझे सावधानी रखनेके लिये क्या करना? ऐसा मन्त्र माताजी..

समाधानः- जाननेवाला है। आनन्द, ज्ञान सब आत्मामें है। उसका जाननेवाला ज्ञायक है।

मुमुक्षुः- परन्तु जब रोग होता है उस वक्त घिर जाना होता है।

समाधानः- पुरुषार्थ करना, बारंबार अभ्यास करना।

मुमुक्षुः- क्या पुरुषार्थ करना?

समाधानः- मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, आत्मा हूँ। जाननेवाला ज्ञायक आत्मा हूँ। वेदना मेरेमें नहीं है। दोनों वस्तुएँ-तत्त्व भिन्न-भिन्न हैं। पुरुषार्थ करना। मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, शाश्वत हूँ। आत्माका नाश नहीं होता है, शरीर बदलता है। आत्मा तो अनादिअनन्त शाश्वत है, मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। गुरुदेवने यह कहा है।

देव-गुरु-शास्त्रका स्मरण करना और ज्ञायकका स्मरण करना। शुभभावमें देव-गुरु- शास्त्र और अंतरमें ज्ञायक। ज्ञायक अदभुत आत्मा अचिंत्य है, अनुपम है। उसकी महिमा करनी, उसे लक्ष्यमें लेना, उसका अभ्यास करना। वेदना भिन्न और ज्ञायक आत्मा भिन्न है। यह एक ही मन्त्र गुरुदेवने कहा है।

जाननेवाला ज्ञायक अनन्त गुणोंसे भरपूर, उसका भेदज्ञान करना। अपनेमें एकत्व है और परसे भिन्न विभक्त है। आँखमें कम दिखाई देता है। आत्मा जाननेवाला, आत्मामें आनन्द, सब आत्मामें है। पुरुषार्थ करना चाहिये, बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। बारंबार बदल जाय तो बारंबार अभ्यास करना। बारंबार उसे-आत्माको लक्षणसे पहिचानना। उसकी महिमा अनादि कालसे नहीं की है इसलिये बाहर दौडा जाता है। उसमें ही सर्वस्व, सब उसीमें है, ऐसे बारंबार पुरुषार्थ करना। मैं भिन्न हूँ।

... जीवने बहुत जन्म-मरण किये। भवका अभाव होनेका मार्ग गुरुदेवने बताया है। आत्मा भिन्न है-भिन्न है। बारंबार मैं चैतन्य भिन्न हूँ-भिन्न हूँ। ऐसे बारंबार भिन्नताकी भावना करनी। (भवका) अभाव करनेका मार्ग गुरुदेवने बताया है। अभाव करनेका मार्ग बताया है। शुद्धात्मा शुद्धतासे भरा है।

मुमुक्षुः- बार-बार चलायमान हो जाते हैं।

समाधानः- बारंबार पुरुषार्थ करना। शास्त्रमें आता है न?


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मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे,
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे!।।३८।।

मैं शुद्धतासे भरा हुआ सदा अरूपी, ज्ञान-दर्शनसे भरा आत्मा हूँ। एक परमाणुमात्रके साथ भी मेरा सम्बन्ध नहीं है। उससे मैं भिन्न हूँ।

एक ही, गुरुदेवने सब शास्त्रोंका सार, गुरुदेवका कहनेका सार-एक ज्ञायकको भिन्न करना वह है। विकल्प आये वह विकल्प भी अपना स्वभाव नहीं है। निर्विकल्प तत्त्व है। .. भरा, ज्ञान-दर्शनसे भरा (हूँ)। परमाणुमात्रके साथ सम्बन्ध नहीं है।

समता ऊर्ध्वता ज्ञायकता सुखभास,
वेदकता चैतन्यता ए सब जीवविलास।

बस, वह जीवका स्वरूप है। बारंबार-बारंबार वही घोटन करवाया है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!