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समाधानः- .. वह प्रतीत स्वयं अन्दरसे विचार करके निर्णय करे कि यह स्वभाव सो मैं हूँ और ये स्वभाव सो मैं नहीं हूँ। जैसे बाहरमें प्रतीत करनी हो...
मुमुक्षुः- सतत चिंतन?
समाधानः- हाँ, चिंतन करना पडे। कोई निर्णय करना हो, कोई मनुष्यकी परीक्षा करनी हो तो स्वयं विचार करके जैसे नक्की करता है या बाहरकी जरूरत महसूस हो कि इसमें अपनेको लाभ है। तो उसकी दुकान कैसी है? इसमें लाभ है? मुनाफा है? वह जैसे परीक्षा करके नक्की करता है, वैसे परीक्षा करके नक्की करना कि यह मेरा स्वभाव है और यह मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसे यथार्थ पहिचान करे, प्रतीत करे। आखीर तक पहुँच सकता है। स्वयं आत्मा है, अनन्त शक्तिसे भरा है।
मुमुक्षुः- बहिन! इसमें सत्संगका माहात्म्य कहाँ आता है?
समाधानः- इसमें सत्संगका माहात्म्य अनादि कालसे अनजाना मार्ग है, स्वयं कुछ जानता नहीं। तो जानते हैं ऐसे गुरु और ऐसे जो साधर्मी हों, उनका सत्संग करे तो स्वयंको जानने मिलता है। स्वयं अपनेआप तो कुछ जान नहीं सकता। इसलिये सत्संग करनेका महापुरुषोंने कहा है कि तू सत्संग कर।
संसारमें जो अनेक जातके परिचयमें रहता है, तो उस जातके उसे विचार स्फुरित होते हैं। इसलिये सत्संगमें यथार्थ मार्ग प्राप्त होनेका (कारण बनता है)। सत्संगमें जो- जो जीव साधर्मी हों,.. गुरुसे तो कोई अपूर्व मार्ग प्राप्त होता है। इसलिये गुरु हो तो गुरुकी वाणी सुननी। स्वयंको मार्ग मिलता है। आत्माकी रुचि पलटती है कि यही सत्य है। आत्मामें ही कोई अपूर्वता अनुपमता भरी है। ऐसी गुरुकी वाणीसे अंतरमें श्रद्धा प्रगट होनेका, रुचि प्रगट होनेका कारण बनता है।
मुमुक्षुः- अपनेआप तथ्य प्राप्त हो सकता है? अपनेआप मालूम पडे कि यही आत्माका स्वरूप है?
समाधानः- हाँ, मालूम पडे। परन्तु जो महापुरुष कह गये हैं, उसके साथ स्वयं मिलान करे, विचार करे। अपनेआप मालूम पड सकता है। स्वयं स्वतंत्र आत्मा है, कहीं पराधीन नहीं है। कोई उसे करवा नहीं देता। अपनेआप मालूम पडता है। परीक्षा
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करके स्वयंको नक्की करना है। सत्पुरुषको पहिचानना हो तो स्वयं ही नक्की करना है।
जिसे सतकी रुचि जागृत हुयी, उस रुचिवालेके हृदयके नेत्र ही ऐसे हो जाते हैं कि वह सत्पुरुषको पहिचान लेता है कि ये सत्पुरुष है। इस प्रकार उसके हृदयके नेत्र ही निर्मल हो जाते हैं।
वैसे स्वयं अपनेआप आत्माका स्वभाव निश्चित कर सकता है कि यह मेरा स्वभाव है और यह मैं नहीं हूँ। कोई अपूर्वता मेरेमें भरी है, ऐसा स्वयं नक्की कर सकता है। ऐसा कोई आत्माका नक्की करनेका स्वभाव है।
मुमुक्षुः- जिसे आत्माकी अनुभूति होती है, और हम सामान्य मनुष्य हो और जिसे आत्माकी अनुभूति हुयी हो, उनके जीवनमें क्या फर्क पडता है?
समाधानः- उनका जीवन बाहरसे देखना बहुत मुश्किल है। अंतरमें उसे आत्मा भिन्न ही रहता हो। जो अंतरमें विकल्प होते हैं, उससे भिन्न, उसका आत्मा भिन्न (रहता है)। उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती। शरीरके साथ, विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि (नहीं होती)। उसका आत्मा भिन्न ही (रहता है)। उसे क्षण-क्षणमें मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी उसकी सहज धारा चलती हो। ज्ञायककी धारा। और कोई बार उसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति (होती है)। आत्मामें ऐसा एकाग्र हो जाय कि बाहरमें क्या हो रहा है, वह उसे मालूम नहीं पडे। वह आत्मामें ऐसा लीन हो जाता है और ऐसा अनुपम आनन्द उसे आता है कि जगतमें कोई वस्तुमें ऐसा आनन्द नहीं है। ऐसा अनुपम आनन्द उसे प्रगट होता है।
उसका आत्मा भिन्न ही भिन्न अंतरमें काम करता है। उसे भेदज्ञानकी धारा रहती है। लेकिन वह उसके बोलनेमें, उसके परिचयसे ख्यालमें आता है कि अंतरमें इनका हृदय भिन्न है। उसकी दृष्टि कोई अलग काम करती है, उसकी परिणति कोई अलग काम करती है।
आत्माकी अनुभूति कोई जगतमें जान न सके, ऐसा अनुपम आत्मा है, उसकी अनुभूति उसे होती है। ऐसी शान्ति और आनन्द। आकुलतासे छूटकर ऐसा ज्ञान और ऐसा आनन्द (अनुभवमें आता है)। अनन्त गुणोंसे भरा, अनन्त शक्तियोंसे भरा ऐसा चैतन्यदेव विराजता है, उसकी उसे अनुभूति होती है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो न कि वांचन और कोई ज्ञानीपुरुषको सुनना। ऐसे बरसों बीत जाते हैं। जहाँ कोई मिले वहाँ सुनने जाते हैं। यहाँ बहिनश्री अच्छा बोलती हैं तो यहाँ चलते हैं। लेकिन मेरा ऐसा अनुभव है कि ऐसे सुननेसे सिर्फ जानने मिलता है।
समाधानः- रुचि ही नहीं लगी है, इसलिये ऐसा हो जाता है। खरी रुचि और श्रद्धा नहीं है कि अंतरमें ही सबकुछ है। उतनी श्रद्धा नहीं है। इसलिये वापस मुड
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जाता है। अपने पुरुषार्थकी क्षति है। अंतरमें कोई अपूर्वता भरी है। आत्मामें कोई अनुपमता भरी है, वह प्रगट करने जैसा है। ये सब निःसार है, सारभूत नहीं है। विभावके साथ एकत्वबुद्धि करने जैसी नहीं है। उतनी जो अंतरमें स्वयंकी रुचि होनी चाहिये, उस रुचिकी क्षति है। इसलिये वह वापस आ जाता है। वापस आनेका कारण अपना ही है। कुछ पढे, विचार करे, परिचय करे तो भी कोई फर्क न पडे तो अपनी ही क्षति है।
यथार्थ रुचि जिसे अंतरसे हो कि आत्मामें कोई अपूर्वता भरी ही है और यह निश्चित है, इतना यदि विश्वास हो तो उसे देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं, सच्चे देव, सच्चे गुरु... गुरुने ऐसी साधना प्रगट की, भगवानने ऐसी पूर्णता प्रगट की, ऐसे आत्माको प्राप्त किया। उन पर उसे कोई अपूर्व महिमा आये। आचायाने शास्त्रमें (ऐसा कहा है), उसे कोई अपूर्व महिमा उन पर आती है। अपने स्वभावकी महिमा आये। इसलिये उसके जीवनमें अमुक प्रकारसे परिवर्तन तो उसकी रुचिके कारण हो ही जाता है, नहीं होनेका कारण अपनी रुचिकी क्षति और अपने विश्वासकी क्षति है। उसे बाहरका विश्वास आया है, परन्तु अंतरका विश्वास ही नहीं आया है। इसलिये वह पलट जाता है।
भले उसे स्वानुभूति होनेमें देर लगे, लेकिन अंतरमें यथार्थ रुचि जागृत हो कि करना तो यही है, तो उसका जीवन पलट जाय, तो उसे कहीं चैन नहीं पडता। उसे कोई लौकिक कायामें खडा हो तो भी मुझे कुछ अलग ही करनेका है, मुझे अंतरमें जाना है, इसमें मुझे कहीं नहीं रस नहीं है। उसे रस नहीं लगता है, उसे आत्मामें रस लगे, आत्माकी बातोंमें रस लगे, ऐसे ज्ञानीपुरुषोंको देखकर उसे रस लगे। ऐसा सब उसे आत्माकी रुचि पलटे तो उसे हर जगह रस लगे। आत्मा-ओरकी बातोंमें रस लगे, दूसरी सब बातें उसे रसयुक्त नहीं लगती। इस प्रकार उसे जीवनमें परिवर्तन हो जाता है।
मुमुक्षुः- .. रुचि कैसे हो?
समाधानः- रुचि, अन्दर यथार्थ विश्वास करना कि इसीमें सबकुछ है, कहीं और नहीं है। इतना स्वयं विश्वास करके नक्की करे तो परिवर्तन होता है।
मुमुक्षुः- बुद्धिसे समझकर रुचि उत्पन्न हो, ऐसा नहीं परन्तु जिसे ऐसा कहें कि तुरन्त एकदम उत्पन्न हो जाय, बेचैन कर दे, कहीं चैन न पडे, ऐसी तीव्रता कैसे हो?
समाधानः- अंतरसे स्वयंको पुरुषार्थ करना पडता है। वास्तवमें इसमें कुछ नहीं है, ये निःसार ही है, ऐसी तैयारी स्वयंको ही करनी पडती है, कोई कर नहीं देता। यदि कोई कर देता हो तो स्वयं पराधीन हो गया। तो कोई कर दे और कोई ले ले। पराधीन नहीं है, स्वयं स्वाधीन है। जगतमें रखडना और जन्म-मरण करना अपने
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हाथकी बात है, उससे छूटना वह भी अपने हाथकी बात है। जन्म-मरण करनेवाला स्वयं स्वतंत्र और मोक्ष करनेवाला भी स्वयं स्वतंत्र है। ऐसी स्वतंत्रता आत्माकी है। अपनी स्वतंत्रतासे स्वयं पलटता है। उसमें गुरु निमित्त होते हैं, देव निमित्त हों, शास्त्र निमित्त हों, परन्तु पलटनेका मूल कारण तो स्वयंका ही है। रखडनेवाला भी स्वयं और मोक्ष करनेवाला भी स्वयं ही है।
मुमुक्षुः- सब आत्माको साक्षात्कार हो, ऐसा कुछ है? अथवा उसमें भी कोई भिन्न-भिन्न स्तर होगा?
समाधानः- आत्माका स्वभाव तो ऐसा ही है कि आत्म साक्षात्कार कर सके।
मुमुक्षुः- कर सके, कोई भी आत्मा कर सकता है।
समाधानः- कोई भी आत्मा कर सकता है। परन्तु उसका पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है।
मुमुक्षुः- उसमें भी कोई भूमिका है कि यह प्रथम भूमिका है, दूसरी भूमिका है, एक उससे ऊँचा है। कोई थोडे पुरुषार्थसे ऊपर आ जाय, किसीको आजीवन, दूसरे जन्ममें भी पुरुषार्थ करना पडे?
समाधानः- जिसके पुरुषार्थकी मन्दता होती है वह लंबे समय तक पुरुषार्थ करता रहे। थोडा-थोडा, थोडा-थोडा पुरुषार्थ करता रहे, उग्रता न हो तो लंबे काल तक चलता है। कोई जीवको ऐसी उग्रता हो जाय तो क्षणमात्रमें स्वयं पलट जाता है, तो जल्दी करे। जिसका पुरुषार्थ धीरे-धीरे, धीरे-धीरे चलता हो तो लंबा काल चलता रहे। और उग्रता आये तो तुरन्त हो जाय।
मुमुक्षुः- नहीं, जैसे हमारे धर्ममें कहते हैं कि कर्मकी थीयरी गिने। आपके कर्म ही अमुक प्रकारसे खत्म होते जाय, ऐसे तुम्हे आत्माके साथ...?
समाधानः- नहीं। कर्म है न वह कर्म तो मात्र निमित्त है। कर्मके कारण जीव रखडता है (ऐसा नहीं है)।
मुमुक्षुः- तो फिर अपनेमें एक घरकी दो बहनें हों, उनका ब्याह हुआ हो, एक ही घरमें बडी हुई हैं, तो कोई एक साधारण घरमें जाती है, एक बडे घरमें जाती है, तो वह उसके कर्म अनुसार है?
समाधानः- वह कर्म अनुसार है। वह तो पुण्य-पापका कारण है। पुण्य-पापका कारण है। पूर्वमें स्वयंने...
मुमुक्षुः- उसी तरह आत्माको भी डिग्री अनुसार कोई फर्क होता होगा न?
समाधानः- बाह्य संयोग प्राप्त होना वह सब पुण्य-पापका कारण है। लेकिन अन्दर आत्माका परिवर्तन करना वह अपने पुरुषार्थकी बात है।
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मुमुक्षुः- वही कहती हूँ कि पुरुषार्थ और कर्म। हमारेमें पुरुषार्थ और कर्म दोनोंको करीब एक स्थानमें रखते हैं कि आपने आपके कर्म कैसे बाँधते हो और कैसे छोडते हो, उस पर आपके आत्माकी उन्नति गिनी जाती है।
समाधानः- बाह्य संयोग प्राप्त करना, पैसे मिलना, ये मिलना, दूसरा सब मिलना वह पुण्य-पापके कारण है। परन्तु अन्दरमें जो राग-द्वेष होते हैं, संकल्प-विकल्प (होते हैं), वह कर्म नहीं करवाते। यदि कर्म ही करवाते हों... उसमें कर्म निमित्त है। यदि राग-द्वेष कर्म करे ऐसा हो तो स्वयं पराधीन हो गया। तो किसीको हम ऐसा नहीं कह सकते कि तू राग मत करना, तू द्वेष मत करना। तो उपदेश कैसे दिया जाय कि तू ऐसे दोष मत कर। तू यहाँसे वापस मुड जा, तू ऐसा मत कर। ऐसा क्यों कहनेमें आता है? कि स्वयं कर सकता है और वापस मुडता है। इसलिये पुरुषार्थमें स्वयं स्वतंत्र है। उसमें स्वयंके जो परिणाम होते हैं, वह परिणाम बदलनमें स्वयं स्वतंत्र है। उसमें कर्म निमित्त है। परन्तु परिणाम कैसे बदलना वह अपने हाथकी बात है।
परन्तु बाह्य उदय जो आये, शरीरमें रोग आया, कोई अशाता वेदनीय आयी, धन मिले, न मिले, वह सब स्वयं बदल नहीं सकता। किसीको अच्छा धंधा मिले, किसीको न मिले, वह सब स्वयं बदल नहीं सकता। परन्तु अपने भावको स्वयं बदल सकता है। राग-द्वेष कितना करना और कैसे करना, वह स्वयं बदल सकता है। राग-द्वेषको जैसे बदल सकता है कि स्वयं शान्ति रखनी, चाहे जैसे संयोग आये तो आकुलता नहीं करनी, खेद नहीं करना, वह जैसे बदल सकता है, वैसे स्वयं अपने स्वभावको पहिचानना, परसे भिन्नता करनी, आत्मामें जाना, वह सब स्वतंत्ररूपसे स्वयं कर सकता है। भाव बदल सकता है। परन्तु बाहरकी नहीं कर सकता। बाहरका सब पुण्याधीन है। लेकिन राग-द्वेष पलटकर अंतरमें जाना, वह (करनेमें) स्वयं स्वाधीन है।
यदि राग-द्वेष भी पलट न सके तो-तो जीव एकदम पराधीन हो गया। राग कर्म करावे, द्वेष कर्म करावे, अब मैं क्या करुँ? मुझसे कुछ नहीं हो सकता। तो उपदेश व्यर्थ जाता है। आचार्य ऐसा कहते हैं, तू राग-द्वेष मत कर, तू विकल्प मत कर, तू शान्ति रख। वह सब उपदेश व्यर्थ है। स्वयं बदल सकता है, शान्ति रख सकता है। कर्म ही करवाता हो तो उपदेश क्यों? इसलिये कर्म अपने भावको नहीं कर सकता। राग-द्वेषमें स्वयं जुडता है और बदलता भी स्वयं है। वह अपने हाथकी बात है। स्वभावको पहिचानना, उसका पुरुषार्थ करना उसके लिये आत्मा स्वतंत्र है।
मुमुक्षुः- मतलब कर्मका बन्धन आत्माको उस जातका है ही नहीं?
समाधानः- कर्मका बन्धन तो है, बन्धन है। उसे कर्मका बन्धन, आठ प्रकारके कर्म जीवको बन्धते हैं। ज्ञानको रोकनेवाले, दर्शनको रोकनेवाले, मोहनीयमें निमित्त हो,
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मोहमें निमित्त हो, ये रोग आये, पैसे मिले ऐसे आठ प्रकारके कर्म हैं। परन्तु वह अपने भावको नहीं बदलते। अपने भाव जो राग-द्वेष हो, उसमें निमित्त हैं। लेकिन भाव करता है स्वयं। पुरुषार्थसे बदल सकता है। उतना जीव उसमें स्वतंत्र है।
मुमुक्षुः- हो सके तब तक कर्म नहीं बान्धना ऐसा जो कहते हैं, वह वस्तु...?
समाधानः- हाँ, कर्मका बन्धन जब तक स्वयं राग और द्वेष, कषाय होते हैं, तब तक कर्मका बन्धन खडा ही है।
मुमुक्षुः- उतना अपने आत्माको साक्षात करनेमें समय लगता है।
समाधानः- हाँ, बीचमें समय लगता है। जब तक उसमें रुका है, तब तक समय लगता है। इसीलिये गुरु और आचार्य कहते हैं कि तू पुरुषार्थ करके तेरी ओर जा, तू उसका भेदज्ञान कर। ये राग तेरा स्वरूप नहीं है, ये द्वेष तेरा स्वरूप नहीं है। तू उससे भिन्न है। तू जाननेवाला है। उसका तू ज्ञाता हो जा, साक्षी हो जा। वह तेरा स्वरूप नहीं है। तु पुरुषार्थ कर। इसलिये उसके जो विकल्प हैं, वह शान्त होते हैं। उसका भेदज्ञान करके आगे बढे। अभी छूट नहीं सकते। पहले उससे भेदज्ञान करता है, स्वभाव पहिचानता है कि यह मेरा स्वभाव है और ये सब कषाय-क्रोध, मानादि वह भिन्न हैं। मैं उनसे भिन्न हूँ। ऐसे भेदज्ञान करता है।
फिर धीरे-धीरे पुरुषार्थ करता हुआ, उसमें लीनता करते-करते स्वानुभूतिकी उग्रता करता है। अतः धीरे-धीरे पहले तो उसे सम्यग्दर्शन होता है। फिर उसे मुनिदशा आती है। स्वानुभूति बढती है इसलिये मुनिदशा आती है। घरबार छोडकर अकेले आत्मामें रहता है। क्षण-क्षणमें आत्माकी स्वानुभूतिमें रहता है। ऐसा करते-करते जब उसे केवलज्ञान होता है तब पूर्णता होती है। फिर सर्व कमाका क्षय हो जाता है, वीतरागी दशा होती है।
लेकिन अभी गृहस्थाश्रममें तो वह भेदज्ञान करता है। ये जो कषाय हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न चैतन्य हूँ। मैं निर्मल स्वभावी शुद्धात्मा हूँ। ऐसा करके स्वयं अपना ज्ञान करके उस ओर झुकता है।
मुमुक्षुः- संसारमें रहकर इस प्रकारका आत्म साक्षात्कार अथवा इस ओरकी मेहनत हो सकती है?
समाधानः- हाँ, हो सकती है।
मुमुक्षुः- उसके लिये ये सब छोडना चाहिये?
समाधानः- नहीं, बाहरका छोडना चाहिये, ऐसा नहीं है। बाहरका कब छूट जाय? कि जब उसे मुनिदशा आती है न, यथार्थ मुनिदशा आये तब छूट जाय। पहले उसे यथार्थ ज्ञान हो, आत्माको पहिचाने, उसमें एकाग्रता हो, वह सब गृहस्थाश्रममें हो सकता है। उसकी रुचि बदल सकता है। भाव पलटना अपने हाथकी बात है। बाहरका गृहस्थाश्रम
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हो तो भी अंतरकी रुचि बदल देनी कि ये जो राग और द्वेष और अनेक जातके जो विकल्प आते हैं, वह आकुलता मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे गृहस्थाश्रममें इतना करके अपने स्वभावको पहिचाने। मैं यह चैतन्य हूँ, इसमें आनन्द है, इसमें नहीं है। उसका भेदज्ञान करके विकल्प तोडकर स्वानुभूति कर सके ऐसा गृहस्थाश्रममें कर सकता है।
फिर स्वानुभूति बढते-बढते उसे त्याग हो जाता है। स्वानुभूति गृहस्थाश्रममें कर सकता है। अंतरसे न्यारा हो जाता है। चक्रवर्ती थे तो गृहस्थाश्रममें रहकर आत्माकी स्वानुभूति करते थे। क्षणमात्र आत्माका ध्यान हो जाय ऐसा गृहस्थाश्रममें उसको हो सकता है।