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मुमुक्षुः- बहिन! हम जैसे बालोंकी माँग निकालते हैं, वैसे आप जड और चेतनको बराबर लाईनसे देख सकते हो? शरीर और आत्माको ऐसे ही (देखते हो)? आपने जो भेदज्ञान और खटका कहा न, उसकी बहुत खटक लग गयी। इसलिये वह बात मैं आपको फिरसे पूछती हूँ। जैसे हम बाल बनाते हैं तो हमारी माँग दिखती है, वैसे?
समाधानः- हाँ, वैसे ही भिन्न दिखता है। जैसे यह मकान भिन्न और यह भिन्न है, वैसे ही भिन्न दिखता है।
मुमुक्षुः- आपको इतना सब दिखता है, तो आपके पास आनेवालोंमें उनके ओरा परसे आपको जरूर ख्यालमें आता होगा कि कौन-सी व्यक्ति किस जिज्ञासासे आती है? अथवा तो ऐसे ही आती है? अथवा उसका क्या है? वह तो आपको ख्यालमें आता होगा।
समाधानः- उसकी जिज्ञासा कैसी है उसका तो ख्याल आ जाय। लेकिन उसके जीवनके साथ क्या प्रयोजन है।
मुमुक्षुः- नहीं, हमें प्रयोजन नहीं है, लेकिन आपको ख्यालमें आ जाय कि ये क्या है?
मुमुक्षुः- वह तो आपको आत्माकी दृष्टिसे ही देखेंगे। आप किसी भी...
मुमुक्षुः- ऐसा नहीं कहती हूँ, मैंने जो कहा वह समझ गये हैं।
समाधानः- पूर्व भवका आप कहते हो तो..
मुमुक्षुः- नहीं, मैं ऐसा नहीं कहती हूँ। हम आपके पास आये तब ओरा कहते हैं न, जो आपको दिखाई दे कि इस व्यक्तिकी चेतना, इस व्यक्तिका आत्मा क्या है?
समाधानः- इतना ख्याल आये कि आपकी दृष्टि कहाँ है, वह तो ख्यालमें आ जाता है कि आप किसी दृष्टिमें हो।
मुमुक्षुः- तो हमें आप थोडा ईशारा दीजिये।
समाधानः- आगे अभी बहुत बढना बाकी है। अभी तो बहुत समझना बाकी है। समझना बाकी है। पूर्वभवकी जो बातें हैं, व्यक्तिगत तो (कुछ कहती नहीं हूँ),
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फिर भी कहा गुरुदेव राजकुमार (थे), उतना भी बाहर नहीं बोलती। सब गुरुदेव कहते थे।
मुमुक्षुः- हमको कोकिलाबहिनने कहा कि आपको देखा तो बोले।
समाधानः- जिज्ञासा रखते हो। बाकी समझना तो बहुत है, समझना बहुत बाकी है। अन्दर बहुत करना बाकी है।
मुमुक्षुः- आपकी एक दृष्टि पड जाय तो कोई दिक्कत नहीं। फिर क्या दिक्कत है? कहते हैं न कि इतनी रूई हो उसे निकालते-निकालते मर जाय, लेकिन तिनका गिरा तो फट जाय। ज्यादा क्यों? फटका लग जाय तो कोई ज्यादा देर नहीं लगेगी। देर नहीं लगेगी, खटक लग जायगी। आप हमें आशीर्वाद दीजिये। हमें आशीर्वाद चाहिये।
समाधानः- सच्ची जिज्ञासा हो तो उसका पुरुषार्थ किये बिना रहता ही नहीं। अपनी जिज्ञासा सच्ची होनी चाहिये। अन्दरसे लगन लगनी चाहिये।
मुमुक्षुः- बस, आशीर्वाद दीजिये कि हमारा सब अच्छा हो जाय।
समाधानः- अच्छा हो जाय, जिज्ञासा हो उसे अच्छा ही होता है। भले पुरुषार्थ कम हो, लेकिन संतोष है कि मार्ग यह है।
समाधानः- .. इसलिये कहीं शान्ति नहीं है। यहाँसे वहाँ करे, ऐसा करे, कहीं शान्ति नहीं है। कितना संतोष है। मुझे तो ऐसा कहना था कि उसने तो कुछ ग्रहण भी किया है, लेकिन आप सब तो अनिश्चित हो। ... ज्ञान करनेको कहते हैं, समझना कहते हैं। लेकिन मार्ग ही वह है। समझे बिना अन्दर ध्यान कैसे होगा? समझे बिना। सच्चे ज्ञान बिना ध्यान कैसे होगा? सच्चा मार्ग बतानेवाले मिलना मुश्किल है। जीवको करना होता है, लेकिन जानता नहीं।
... पुरुषार्थ चालू किया तो अभी मुझे पूछते हैं, आप.. भूमिका कितनी विकसीत हो जाय, कितने साल हो गये। उसके पहले जिज्ञासाकी भूमिका थी। .. उम्रमें जिज्ञासाकी भूमिका थी। मैंने कहा, प्रथम भूमिका तो विकट ही होती है। ... फिर एक प्रश्नके बाद दूसरा प्रश्न। छोटीपीपरमें चरपराईके (लिये) घिसना ही पडे। चनेको सेके तो अन्दरसे स्वाद आये। बारंबार उसके पीछे पडना चाहिये। पीछे पडे बिना कुछ होता नहीं। ...
हिन्दुस्तानमें सब मुनि भी क्रियामें पडे थे। सब कितने... मार्गके लिये प्रयत्न करता है। पुरुषार्थ करे तो अन्दर विश्वास तो आये कि सच्चे देव-गुरु मिले और मार्ग हमें अन्दरसे सच्चा मिला है। रुचि सच्ची है। इतना भी संतोष (हो)। ये तो कोई संतोष नहीं, अभी भी गोते ही खाते हैं। ... दुःख लगे तो अपनी ओर जाय।
मुमुक्षुः- दुःख लगता है इसलिये स्वरूपकी रुचि शुरू हुयी?
समाधानः- हाँ, रुचि शुरू हुयी।
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मुमुक्षुः- क्योंकि विभावकी रुचिमें दुःख नहीं लगता था।
समाधानः- हाँ, उसमें दुःख नहीं लगता था। स्वभावकी रुचि ..
मुमुक्षुः- यह उसका दूसरा पहलू है।
समाधानः- स्वभावकी रुचि होती है तो उसमें दुःख लगता ही है।
मुमुक्षुः- दुःख लगता है क्योंकि स्वभावकी रुचि शुरू हुयी।
समाधानः- .. वेदन हो बादमें अल्प अस्थिरता रहती है। परन्तु पहले तो उसे रुचि हो इसलिये दुःख तो लगना चाहिये। फिर कितना लगे, वह उसकी उग्रता पर निर्भर करता है। कहाँ-कहाँ बेचारोंने मार्ग मान लिया हो, ऐसा हो जाता है। पंचमकालके महाभाग्य, गुरुदेवने यह मार्ग बताया। बाकी सब कहाँ-कहाँ अटके थे।
मुमुक्षुः- वह कहे, हमें सच्चे गुरुको पहिचानना कैसे? आप बारंबार कहते हो... आँखमें आँसु आ गये थे।
समाधानः- एक सदगुरु मिलने चाहिये। देशनालब्धिमें ऐसा आता है। एक बार प्रत्यक्ष गुरु या देव, सजीवनमूर्ति मिले तो जीव अन्दरसे जागृत होता है। ऐसा उपादान- निमित्तका सम्बन्ध है।
समाधानः- .. उनके गीत और सब,.. सबका हृदयका भेद हो जाय ऐसा तो उनका वैराग्य था। आत्मा कितना अन्दर समीप हो गया है। गुरुदेव भी कहते थे कि ... मोक्षगामी हो। गुरुदेव कहते थे। लोग कुछ समझे नहीं।
मुमुक्षुः- ऐसे हरिगीत बनाये हैं।
समाधानः- समयसारकी, समवसरणकी, वह मानस्तंभकी। उनको रुचता नहीं था फिर भी हरिगीत कैसा बनाया है! एक संस्कृत टीका नहीं है, इसलिये मेरेसे यह नहीं हो रहा है। टीका संस्कृत...
.. बैठे थे और हिंमतभाई गाते थे। हिंमतभाई क्या गाते थे! ऐसे भावसे गाते हो न, इसलिये गुरुदेवको ऐसा लगता। हीराभाईके बंगलेमें... हिंमतभाई नौकरी करते थे। क्या करें? आप तो वहाँ नौकरी (करते हो), नहीं तो आप जैसेको तो यहीं रख लें। समयसार भी नहीं लिखा था। उससे पहले भी, ... आप जैसेको तो यहाँ रख लेना चाहिये।
मुमुक्षुः- अनुभव कैसे हो?
समाधानः- आत्माका स्वरूप पहिचानकर आत्मा भिन्न है, उसका भेदज्ञान करके ज्ञायकको पहिचानकर उसमें एकाग्रता हो, एकाग्रताकी विशेषता हो वह ध्यान है। ध्यान यानी एकाग्रता। आत्माको पहिचानकर भेदज्ञान करके उसमें एकाग्रता, एकदम उग्र एकाग्रता करनेसे स्वानुभूति (होती है)।
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मुमुक्षुः- एकाग्रता ऐसे तो नहीं हो जाती न? बहुत बरसोंका अभ्यास हो, ध्यानका आलंबन हो, बादमें होता है न? बोलनेसे या कहनेसे तो नहीं होता न?
समाधानः- एकाग्रता है वही ध्यान है। उसका उग्र अभ्यास करनेसे होता है। उसकी उग्रता हो तो बहुत जीवोंको अंतर्मुहूर्तमें होता है। किसीको अभ्यास करते-करते बरसों निकल जाते हैं। और किसीको थोडे महिनोंमें हो जाता है। उसका अभ्यास जैसी उग्रता हो उस अनुसार होता है।
मुमुक्षुः- बहिनजी! अभी आपने कहा कि अनुभूतिसे जातिस्मरण होता है। परन्तु जातिस्मरण ज्ञान तो हमने बहुतोंके विषयमें सुना है कि उनको बचपनमें हुआ।
समाधानः- अनुभूतिसे होता है ऐसे नहीं, अनुभूतिसे होता है ऐसे नहीं होता है। अनुभूति नहीं भी हो तो भी जातिस्मरण तो बहुतोंको होता है। बहुतोंको होता है। परन्तु भवका अभाव तो अनुभूतिसे होता है।
मुमुक्षुः- हाँ, वह तो ठीक है।
समाधानः- अनुभूति हो वहाँ यह ज्ञान होता ही है ऐसा नियम नहीं है। अनुभूति नहीं होवे तो भी वह ज्ञान तो बहुतोंको होता है। बहुतोंको होता है। अनुभूतिके साथ वह होता है तो होता है।
मुमुक्षुः- ... वैसे तो हम सब धर्ममें जाय तो ऐसा लगे कि सभी धमामें ...मन हो जाय। कोई दूसरे देरासरमें जायें तो वहाँ भी ढोक देनेका मन हो। .. वहाँ जाये तो वहाँ भी ऐसा होता है। ऐसा होता है कि सत्य क्या है? वह समझमें नहीं आता। जहाँ जाये वहाँ ढोक देनेका मन हो। वैष्णवके मन्दिरमें जायें तो ऐसा हो कि ये भगवान हैं तो इनको भी...
समाधानः- अन्दर नक्की नहीं हुआ हो इसलिये।
मुमुक्षुः- .. सच्चे देव-गुरु-शास्त्र यही है, ऐसा निर्णय नहीं है।
मुमुक्षुः- इसलिये जहाँ भी जाये वहाँ सब भगवान .. लगे इसलिये हर जगह (माथा टिका देते हैं)। उसके लिये करना क्या?
समाधानः- मुक्तिका मार्ग क्या है? आत्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना। आत्मा भिन्न है। शरीर तत्त्व भिन्न है और आत्मा भिन्न है। आत्मा जाननेवाला है, आत्मा ज्ञायक है। आत्मामें आनन्द है। ये विभाव विकल्प है वह आत्माका स्वरूप नहीं है। ऐसा आत्माका स्वरूप जो बताते हों और ऐसा भेदज्ञानका मार्ग जो स्पष्ट करके बताते हों, वह देव-गुरु-शास्त्र सच्चे हैं। उन्होंने जैसी साधना की हो, वह देव, वह गुरु और वह शास्त्र सच्चे हैं।
आत्माका स्वरूप पहिचाननेमें जो निमित्त बनते हैं, जो साधनामें निमित्त बने। होता
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है अपने उपादान है, परन्तु उसमें जो निमित्त हो, वही सच्चे देव, वही सच्चे गुरु और वही शास्त्र है। बाकी ऊपर-ऊपरसे तो लगे कि सब धर्मकी बात (करते हैं)। परन्तु अन्दर आत्माका स्वरूप क्या है? आत्मा भिन्न, अन्दर आत्मा विकल्पसे भिन्ह, अतंर आत्मामें स्वानुभूति हो, किस मार्गसे होती है? वह सब किसने प्रगट किया है? जिसने प्रगट किया हो और जो मार्ग बताते हो, वह देव, वह गुरु और वह शास्त्र (हैं)। वह होने चाहिये।
उसे दृढता ऐसी हो कि सत्य क्या है? इस जगतमें सत्य क्या है? सच्चा स्वरूप क्या है? किस मार्गसे आत्माको मुक्ति मिले और आत्माका स्वभाव और स्वभावमेंसे शान्ति मिले? ऐसी दृढता करके फिर आत्माका सच्चा स्वरूप है। आत्माका स्वरूप जो बताते हो, वह सच्चे देव-गुरु-शास्त्र हैं।
और भवका अंत करनेके लिये आत्माको पहिचानना, आत्माका अभ्यास करना। उसके लिये अभ्यास, शास्त्रका वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। लेकिन वह देव कौन? गुरु कौन? उसकी पहिचान करनी पडे। और आत्माका स्वरूप ज्ञायक-जाननेवाला है। उसे स्पष्टरूपसे बतानेवाला है? जो स्पष्ट बताये और उसकी जिसने साधना की, वही देव-गुरु-शास्त्र (सच्चे हैं)। और अन्दर आत्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना। ये सब आकुलता स्वरूप है बाहर तो। अंतरमें सुख है, अंतरमें शान्ति है। अंतर दृष्टि करके आत्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना।
मुमुक्षुः- ..आपके दर्शन करती रहती हूँ। शान्ति लगती है।
समाधानः- पुरुषार्थ स्वयंको करना है। पुरुषार्थ मन्द है। मार्ग गुरुदेवने बताया, उसकी रुचि हो। परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। उसीका अभ्यास करते रहना, बारंबार आत्माको पहिचाननेका। आत्मा ज्ञायक है। प्रतिक्षण उसका चिंतवन करना। गुरुदेवने कहा न? छोटीपीपरको घिसने पर अन्दरसे चरपराई (प्रगट होती है)। आत्माका जो स्वरूप है उसका अभ्यास करता रहे। आत्माका स्वरूप ज्ञायक है, उसे पहिचाननेका प्रयत्न करे। उसकी लगन लगानी। काँच कौन है और हीरा और रत्न आदि क्या है? उसकी परीक्षा करनी पडे। स्वयं विचार करके नक्की करे। बाहरमें तो करे, परन्तु अंतरमें करनेका है। आत्मा कौन है? उसे दर्शानेवाले कौन है?
गुरुदेवने कोई अपूर्व स्वरूप बताया है। और अन्दर आत्मा भी अपूर्व और आत्मा अनुपम है। उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना। मनन, चिंतवन, उसकी महिमा आदि (करते रहना)। पुरुषार्थकी मन्दता (है)। उतनी तैयारी न हो इसलिये ये सब साधन दिखाई देते हैं, वहाँ रुचि हो जाती है। वहाँ ऐसे साधन नहीं होते। इसलिये उसीका बारंबार घोलन करते रहना।
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(अनन्त कालमें ऐसा) मनुष्य भव मिले, उसमें ऐसे गुरु मिलना महा दुर्लभ है, इस पंचमकालमें सच्चा मार्ग बतानेवाले। मार्ग गुरुदेवने बताया। अंतरमेंसे स्वयं रुचि करके, नक्की करके पुरुषार्थ करने जैसा है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवको देखे तो ऐसा हो कि दस साल तक,.. गुरुदेवका स्वास्थ्य तो अपनेसे भी अच्छा है। तो अपने दो-पाँच साल खीँचते हैं, और फिर आरामसे बैठेंगे। ऐसा कर-करके हम रह गये।
समाधानः- जिज्ञासुको ऐसे वादे नहीं होते।
मुमुक्षुः- वही कहता हूँ, उसीमें पीछे रह गये। इसीलिये अभी दुःख होता है।
समाधानः- अब उसका स्मरण, रटन करते रहना, गुरुदेवने बताया उसका।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें संस्कारकी बातें बहुत आयी हैं। संस्कार कैसे डले?
समाधानः- बारंबार उसका अभ्यास करते रहना। बारंबार जो गुरुदेवने मार्ग बताया उसका बारंबार चिंतवन, उसका मनन, उसकी महिमा, उसकी लगन, बारंबार। सत्संग, श्रवण, मनन बारंबार (करना)। जैसे छाछमें मक्खन। उसे बिलोते-बिलोते मक्खन बाहर आता है। बारंबार उसका मंथन करते रहना। जो गुरुदेवने बताया उसका।
बारंबार पुरुषार्थ (करना), मैं चैतन्य भिन्न हूँ, यह भिन्न है। परन्तु उसके लिये कितनी तैयारी करनी, बारंबार उसका (प्रयत्न करे)। बाहरके निमित्त देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले, उनका सत्संग, श्रवण, मनन वह सब बारंबार करते रहना। तो बारंबार उसके संस्कार दृढ हो। रुचिको बारंबार तीव्र हो ऐसा करते रहना। अनादिका अभ्यास है। पुरुषार्थ करके बदलते रहना। बारंबार वह करते रहना। जितना समय मिले उतना करते रहना।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी टेप, यही वांचन, यही करती हूँ। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि... आपके दर्शन करती रहती हूँ।
समाधानः- पुरुषार्थ स्वयंको करनेका है। पुरुषार्थ मन्द है। मार्ग गुरुदेवने बताया उसकी रुचि हो, परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना है। उसीका अभ्यास करते रहना, बारंबार आत्माको पहिचाननेका। आत्मा ज्ञायक है। प्रतिक्षण उसका चिंतवन करना। गुरुदेवने कहा न? छोटीपीपरको घिसने पर अन्दर.. वैसे आत्माका जो स्वरूप है उसका अभ्यास करते रहना। आत्माका स्वरूप ज्ञायक है, उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना। उसकी लगन लगानी।