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मुमुक्षुः- .. माताजीके आशीर्वाद मिल गये, जामनगरका... हमें तो उसी दिन विश्वास हो गया था।
समाधानः- ..की महिमा पूरे जगतमें है। यह तो पंचमकाल है। जिनेन्द्र प्रतिमा पर कोई मुश्किल आये तो देवका आसन चलायमान होता है। जिनेन्द्र प्रतिमा कोई कम बात नहीं है। ये तो पंचमकाल है इसलिये कोई देव नहीं आते। नहीं तो देवका आसन चलायमान होता है। जिनमन्दिर ऊपरसे कोई विमान चला जाता हो तो विमान थंभ जाता है। विमान चलता नहीं, यहाँ भगवानका मन्दिर है, मैं दर्शन करके जाऊँ। ऐसे ऊपर विमान थंभ जाता है। ऐसा कथामें, पुराणमें आता है।
जिनेन्द्र प्रतिमाकी आशातनाका फल भी उतना है, उसकी महिमा भी उतनी है। जिनेन्द्र प्रतिमाको अंजनाने उसके शोकके द्वेषके कारण थोडी बाहर रखी, उसका परिणाम उसमे पश्चाताप किया, कोई आर्जिका या मुनिने उपदेश दिया, उसने भगवानको फिरसे धामधूमसे विराजमान किये। पश्चाताप किया। तो भी उसके अनादरका कुछ पाप रह गया। ऐसे प्रसंग आये कि, उसके माँ-बाप घर पर नहीं रखे, ऐसा बनना तो बहुत मुश्किल होता है, माँ-बापने घरसे निकाल दिया, फिर जंगलमें जाना पडा। प्रतिमाका अनादर यानी भगवानको मन्दिरसे बाहर निकालना यानी महापापका कारण है। शास्त्रमें, पुराणमें आता है। यह कथाकी बात नहीं है, यह पुराणमें आता है।
वह शब्द बार-बार आता था, "घट-घट अंतर जिन वसे, घट-घट अंतर जैन'। वह श्लोक प्रवचनमें बार-बार आता था। "घट-घट अंतर जिन वसे'। उनका हृदय कहता था, "घट-घट अंतर जिन वसे, घट-घट अंतर जैन', बार-बार वह श्लोक आता था। स्वयं जिन होनेवाले हैं। सब भगवान आत्मा है (ऐसा ही कहते थे)। प्रत्येक आत्मा भगवान ही है, परन्तु गुरुदेवको अंतर... प्रत्येक आत्मा भगवान है। "घट-घट अंतर जिन वसे..' सब घटमें जिन ही बसते हैं। ...
मुमुक्षुः- .. उस वक्त माहोल कितना आनन्दमय होगा कि यह फत्तेहकुमार तीर्थंकर होनेवाले हैं, ऐसी बात समवसरणमें चारों ओर बात फैल गयी थी। ..
समाधानः- ... यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं। भगवानकी वाणी(में
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आया कि), यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं। वाणी समवसरणमें प्रसर गयी थी। यह राजकुमार तीर्थंकर होनेवाले हैं, (यह सुनकर) सबको आनन्द हुआ। समवसरणमें बात प्रसिद्ध हुयी।
मुमुक्षुः- ... आनन्द-आनन्द हो गया..
समाधानः- जिसे आनन्द हो उसे होता है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव पहलेसे ही कहते थे, शंका नहीं करना, यह पंचमकाल है, हजम नहीं होगी, कहीं बात मत करना।
समाधानः- स्थापना हो सकती है उसकी दलील चीमनभाई, चंदुभाई... दिगम्बर समाज पूरा विरूद्ध हो जाये। अभी उन्हें शांत रहनेका एक कारण होता है। किसीका आदर करनेमें दिक्कत नहीं है। अपने भगवान सुरक्षित रहे। कोई समाजको तकलीफ नहीं हो। अभी तो कितने भगवान होनेवाले हैं। उसके पहले यहाँ पूजा, भक्ति करनेका भाग्य मिले... ये तो आनन्दकी बात है। भगवान तो जब होंगे तब तो... अभी तो कितने भगवान होनेवाले हैं। जिस दिन भगवान होंगे उस दिन पूजा, भक्तिका ईंतजार करना, उसके बदले अभी ही पूजा, भक्ति (कर लें)। प्रसंग आया है उसे कौन दूर कर सकता है? ईंतजार करनेके बजाय अभी ही पूजा, भक्तिका प्रसंग है, उसमें जो भक्तिवाले हैं उन्हें कहीं मुदत आडे नहीं आती। उसे भक्ति उछलती है। .. ऐसी बात है। यह राजकुमार तीर्थंकर होनेवाले हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने स्वयं उत्सव मनाया ऐसा है क्या?
समाधानः- ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा कोई ख्याल नहीं आता। विमलनाथ भगवानने उत्सव मनाया था। अगले भवमें होने वाले हैं, उन्होंने उत्सव मनाया है। बहुत समीप है। वहाँ-से देवमें जाकर तुरन्त तीर्थंकर होने वाले थे न। उन्होंने उत्सव मनाया। स्वयंने उत्सव मनाया। स्वयंको आनन्द हो गया है। स्वयंको ख्याल तो होता है, परन्तु भगवानने कहा इसलिये अधिक आनन्द आया, इसलिये उत्सव मनाते हैं। घातकि खण्ड द्विपमें पूर्व भवमें थे। पूर्वमें घातकी खण्डके कितने ही तीर्थंकर यहाँ पधारे हैं। दो-चार भगवानके तो यहाँ चित्र है। पूर्व भवमें घातकी खण्डमें थे, वहाँ तीर्थंकर गोत्र बाँधा, यहाँ भरत क्षेत्रमें तीर्थंकर हुए हैं। .. घातकी खण्डमें थे। ... तीर्थंकर होनेवाले हैं, तो उन्हें आनन्द हो गया है। आगामी भवमें तीर्थंकर होनेवाला हूँ, यह बात सुनकर उन्हें एकदम आनन्द आ गया। स्वयं ही उत्सव मनाते हैं। शास्त्रमें आता है, मैं तीर्थंकर हूँ, इसप्रकार उत्सव मनाया है।
मुमुक्षुः- त्रिलोकीनाथने तिलक किया।
समाधानः- गुरुदेवको वह बात कही इसलिये फिर शुरूआतमें प्रवचनमें बोलते
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थे कि त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, फिर और क्या चाहिये? हीराभाईके बंगलेमें गुरुदेव थे। (संवत) १९९३ वर्षमें। प्रवचनमें तो जिसे ख्याल हो उसे मालूम पडे। बाकी गुरुदेव बाहर कुछ नहीं बोलते थे। पहले तो बहुत ही गुप्त था। प्रवचनमें आती थी, जिसे मालूम हो उसे ख्याल आता था कि इस अर्थमें बोलते हैं। ... वे स्वयं कहते थे, तीर्थंकर हूँ। मुझे कुछ मालूम नहीं था। वे मानते हैं, ऐसा मुझे भी नहीं मालूम था कि गुरुदेव स्वयंको क्या मानते हैं।
मुझे ऐसा लगता था कि ये महापुरुष है। परन्तु ये तीर्थंकर होंगे, ऐसा मेरे दिमागमें भी नहीं था। मुझे जो आया वह गुरुदेवको कहते-कहते ऐसा लगता था कि मैं यह कहती हूँ, परन्तु गुरुदेवको क्या लगेगा? मैंने तो हिम्मत करके कहा (तो) गुरुदेवको एकदम प्रमोद आया। क्योंकि वे स्वयं तो अन्दर मानते थे। वे मानते हैं, यह मुझे मालूम भी नहीं था।
मुमुक्षुः- फिर बातका मेल हो गया।
समाधानः- हाँ, मेल हो गया। गुरुदेवने बादमें (कहा), मैं तीर्थंकर हूँ और मुझे आभास (होता है), वह सब बात की। बादमें कहा।
मुमुक्षुः- बादमें कहा।
समाधानः- बादमें। .. तीन बार ॐ आया।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- मैं तीर्थंकर हूँ, ऐसा मुझे कुछ अन्दरसे भास होता है। ऐसा गुरुदेव कहते थे। और राजकुमारका तो गुरुदेवको स्वप्न आया था, दीक्षा लेनेके बाद। मैं राजकुमार हूँ, बडा शरीर है। यहाँका शरीर नहीं, वह शरीर अलग था, ऐसा कहते थे। पघडी, झरीके कपडे आदि सब।
सीमंधर भगवानने कहा कि यह राजकुमार तीर्थंकर होनेवाले हैं। .. भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं। सीमंधर भगवानकी वाणीमें आया है कि यह राजकुमार भविष्यमें तीर्थंकर होनेवाले हैं।
मुमुक्षुः- माताजीने साक्षात सुना है।
समाधानः- भगवानका समवसरण अलग, भगवान भी अलग, वाणी भी अलग और सुननेवाले सब देव, देवियाँ, गणधर, मुनि, सभा, राजा-रानियाँ, अर्जिका, लाखो श्रावक, श्राविका, वह सभा ही अलग और वह उत्साह भी अलग। ये राजकुमार तो तीर्थंकर हैं। ऐसे राजकुमार .. ये राजकुमार! ये तो तीर्थंकर हैं। भगवाननी वाणी आदि सबका मेल हो गया। भगवानकी वाणीमें आया कि ये तो तीर्थंकर होनेवाले हैं।
गुरुदेवकी गंभीरता। पहले गंभीर, गुप्त रहता था। दो शब्द भी बाहर नहीं आते
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थे, सब अन्दर ही रहता था। किसीको नहीं कहते थे। कुछ-कुछ लोगोंको अन्दर- अन्दर गुरुदेव बहुत गुप्तरूपसे कहते थे।
मुमुक्षुः- मामाको कहा तो .. कैसा लगता है?
समाधानः- .. सबकी सुननेकी तैयारी.. विरुद्ध माहोलमें क्या ...
समाधानः- ... मैं त्रिकाल और यह भेद है, इतना जानता है। उसमें उतना जोर नहीं है उसमें। यह तो वेदन है, मेरी स्व ओरकी पर्याय है, स्वकी ओरका भाग है। वह विभावकी ओरका भाग था। ये मेरे रिश्ते-सम्बन्धवाले हैं, उसके साथ कोई नाता या सम्बन्ध नहीं है। अपनी शुद्ध पर्याय स्वयंकी जातिकी है। निज स्वभावकी ज्ञाति वाला है। .. जोर नहीं है। दृष्टिकी अपेक्षासे जानते हैं कि यह पर्याय अंश है। दृष्टिका जोर द्रव्य पर है और पर्यायको वैसे भिन्न नहीं करता, वैसे जोरवाला नहीं है।
मुमुक्षुः- दोनोंमे बहुत अंतर है।
समाधानः- दोनोंमें बहुत अंतर है। अपेक्षा जानता है कि द्रव्य त्रिकाल, गुण त्रिकाल है और यह प्रगट पर्याय है वह अंश है। ऐसा जोर उसमें नहीं है। यह स्वभावकी ओरका भाग है, वह विभावका भाग है।
मुमुक्षुः- ३८वीं गाथामें सबको एकसाथ अत्यंत भिन्न है, ऐसा कहा। तो भी उसमें ऐसा जोर-जोरका अंतर रहता है?
समाधानः- अंतर रहता है। ज्ञान उसे बराबर जानता है कि यह पर्याय मेरी ओरकी है, परन्तु पर्याय है। उसमें स्वभावभेद है, अत्यंत भिन्न है। स्वभावभेद है। इसमें स्वभावभेद नहीं होता। अंशका भेद होता है। स्वभावभेद नहीं है।
मुमुक्षुः- ये मेरे रिश्तेदार है।
समाधानः- हाँ, दृष्टिकी अपेक्षासे एकमें डाल दे, लेकिन उसमें समझना पडता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म, भेद वह सब आता है। भेदाभेद। सब पर्यायके भेदसे आत्मा भिन्न है। उसकी अपेक्षा समझनी पडती है। दृष्टिकी अपेक्षासे एकमें जाता है, सबसे भिन्न पडता है। उसमें जो शुद्धपर्याय है, .. यह क्षयोपशमके भेद, ये भेद तो उन सबमें अपेक्षा समझता है। क्षायिकके भेद, विभावके भेद। दृष्टिकी अपेक्षासे एकमें जाता है, परन्तु ज्ञानमें सब अपेक्षाएँ रहती है। दृष्टिकी अपेक्षामें एक तत्त्व हूँ, एक द्रव्य हूँ, ऐसा जोर रहता है। परन्तु ज्ञानमें सब विवेक रहता है।
मुमुक्षुः- गुुरुदेव कहते थे, बिल्ली बच्चेको पकडे और चूहेको पकडे, दोनोंकी पकडमें फर्क है।
समाधानः- अन्दरसे न्यारा हो गया है। पकड-पकडमें फर्क है, ऐसा गुरुदेव कहते थे। दृष्टिकी अपेक्षासे एकमें कहते हैं। इससे भिन्न, इससे भिन्न, इससे भिन्न, इससे भिन्न
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किया, इससे भिन्न किया। उसमें अपेक्षा होती है। पर्यायके भेद, शुद्धपर्यायको साधनेका पुरुषार्थ रहता है। द्रव्य पर दृष्टिके जोरमें सब सधता है। निर्मल पर्याय प्रगट करनेका तो पुरुषार्थ चालू है। दृष्टिकी अपेक्षासे भिन्न करता है, साधनामें उसका पुरुषार्थ करके साधता है और उस विभावको तो भिन्न करता है, निकाल देता है। इसे साधनेका प्रयत्न है। पर्यायको साधता नहीं है, परन्तु उसमें अपेक्षा आती है। द्रव्यदृष्टिके जोरमें ज्ञान, दर्शन, चारित्रको साधनेका पुरुषार्थ चालू है। वीतरागदशा।
मुमुक्षुः- दृष्टिका कार्य अलग प्रकारका और पुरुषार्थ करनेका कार्य साथमें चालू है।
समाधानः- दृष्टि और ज्ञान दोनों साथ होते हैं। पुरुषार्थ भी चलता है। एक भेदज्ञानकी धारामें सब आ जाता है। एक दृष्टि और ज्ञान। उसके साथ लीनताका पुरुषार्थ, सब साथमें रहते हैं। परस्पर सम्बन्ध वाले हैं। परस्पर एक-दूसरेसे विरुद्ध कार्य करनेवाले नहीं है। दृष्टिका जोर द्रव्य पर आता है, ज्ञान दोनोंका विवेक करता है। साथमें पुरुषार्थकी डोर चालू है। परस्पर एकदूसरेको किसीको तोडते नहीं, सब साथ रहते हैं।
मुमुक्षुः- विकल्प आये तो विकल्पको समानेके लिये क्या करना?
समाधानः- विकल्प छोडनेके लिये? समानेके लिये। सबका एक ही उपाय है, ज्ञायकको पहचाने तो विकल्प समाते हैं। शुद्धात्माको पहचाने कि मैं तो ज्ञायक हूँ। विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ। यह विकल्प समानेका उपाय है। लेकिन ज्ञायकको यथार्थ पहचाने तो विकल्प समाते हैं। नहीं तो उसे अशुभभावमेंसे शुभभावमें पलट सकता है।
प्रथम जिज्ञासाकी भूमिकामें दूसरे विचारमेंसे तत्त्व विचारमें, देव-गुरु-शास्त्रमें आदिमें विचारको पलटता है। बाकी विकल्प वास्तविक रूपसे कब समाते हैं? पहले मन्द शुभभावरूप हो, वास्तविक कब छूटे? ज्ञायकको पहचाने तो। भेदज्ञान करे तो विकल्प समाते हैं। विकल्पसे भिन्न पडे तो विकल्प वास्तविक रूपसे छूटते हैं, भिन्न पडते हैं। वास्तवमें तो निर्विकल्प होता है, तब विकल्प छूट जाते हैं। बाकी भेदज्ञानकी धारामें विकल्प भिन्न पडते हैं, विकल्प मन्द हो जाते हैं। ज्ञायककी परिणति प्रगट करे तो। जबतक वह नहीं हो तबतक भावना करे कि, मैं ज्ञायक हूँ, विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे बारंबार ज्ञायककी महिमा लाये, ज्ञायकका स्वभाव पहचानकर, मैं यह ज्ञायक हूँ, यह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, इसप्रकार विकल्प समानेका उसका एक प्रयास चलता है। अशुभमेंसे शुभमें लाये, परन्तु वास्तविक रूपसे विकल्प उससे भिन्न पडते। ज्ञायकको पहचाननेका प्रयत्न करे तो वह विकल्प छूटनेका उपाय है, उससे भिन्न पडनेका उपाय है।