Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 180.

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ट्रेक-१८० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अस्तित्वको ग्रहण करना वह स्वरूपकी महिमा है?

समाधानः- स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करे उसमें महिमा (आ जाती है)। वह अस्तित्व ग्रहण कब करे? अपनी महिमा आये तब ही ग्रहण करता है। उसकी महिमा न आये और उसे रूखा लगे तो ग्रहण ही न करे। उसकी महिमा आये तो ही ग्रहण करता है। इस ज्ञायकमें ही सब भरा है। ज्ञायक स्वयं भगवान है।

जैसे जिनेन्द्र भगवानकी महिमा आये, गुरुकी महिमा आये, वैसे ज्ञायकदेवकी महिमा आये। वह भी-ज्ञायकदेव भी एक भगवान है। अनन्त शक्तियोंसे भरा हुआ। जैसे जिनेन्द्र भगवान प्रगटरूपसे भगवान है, वैसे यह शक्तिरूपसे भगवान ही है। ऐसे उसे अंतरमेंसे महिमा आये, उसकी गंभीरता भासे तो उसका अस्तित्व ग्रहण करे। तो महिमापूर्वक किया हुआ, ग्रहण किया हुआ अस्तित्व जोरपूर्वकका अस्तित्व उसे ग्रहण होता है। नहीं तो वह अस्तित्व ग्रहण नहीं कर सकता है। रूखा लगे कि ज्ञायक सिर्फ बोलनेमात्र हो तो वह वास्तविकरूपसे ग्रहण नहीं हो सकता। शक्तिरूपसे। गुरुदेव कहते थे कि तू भगवान है। तू चैतन्य भगवान है। शक्तिरूप। प्रगट बादमें होता है।

मुमुक्षुः- विचार करता है फिर भी परिणतिमें नहीं आता है अथवा लेता नहीं।

समाधानः- विचारमें नक्की करता है, लेकिन वह कार्यमें नहीं आता है। परिणति उस रूप अपनी ओर (आती नहीं)। मैं भिन्न हूँ, यह हूँ, ऐसा नक्की करता है। परन्तु भिन्नतारूप उसका जो कार्य आना चाहिये वह कार्य नहीं होता है, उसका कार्य नहीं करता है। इसलिये परिणति ज्योंकी त्यों एकत्वतारूप परिणमती रहती है।

मुमुक्षुः- अर्थात ज्ञायकको ग्रहण नहीं करता?

समाधानः- ज्ञायकको ग्रहण नहीं करता है इसलिये परिणतिमें भेदज्ञान होता नहीं। स्वंयको ग्रहण करे तो विभावसे भेद पडे कि यह मैं हूँ और यह नहीं हूँ।

मुमुक्षुः- इसलिये पुरुषार्थकी स्वयंकी ही कचास है।

समाधानः- स्वयंकी क्षति है, पुरुषार्थकी कचास है। स्वयंको ग्रहण करे, ज्ञायकको ग्रहण करे बलपूर्वक। उस दृष्टिके अवलम्बनसे वह आगे बढता है। और उसकी ऐसी भेदज्ञानकी धारा, ज्ञाताकी धारा उग्र हो तो ही उसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती


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है। पहले तो दृष्टिका बल उसे आता है। और अच्छी तरह स्वयंका ग्रहण, अवलम्बन करे ज्ञायकका। तो उसकी ज्ञाताकी धारा उग्र हो तो विकल्प टूटे।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन प्रगट होने पूर्व उपदेश देनेका प्रसंग आवे तो ज्ञानीकी भक्ति, ज्ञानीका उस प्रकारका उपदेश.. दूसरा कोई तत्त्वका उपदेश नहीं दे सकता, ऐसा कोई भाव है? ऐसा कहनेका क्या प्रयोजन है?

समाधानः- स्वयंको अभी प्रगट नहीं हुआ है इसलिये ज्ञानीकी भक्ति (प्ररूपित करनी)। ज्ञानीको हृदयमें (रखना)। ज्ञानीने जो मार्ग बताया, उस मार्ग पर चलना है। अर्थात तुझे कोई स्वच्छन्द होनेका अवकाश न रहे। ज्ञानीकी भक्तिका उपदेश देना, ऐसा कहा है।

मुमुक्षुः- दूसरे जीवोंको यदि उपदेश तो इस प्रकारका देना। तत्त्वकी बात करनेके बजाय, उसे ज्ञानीके प्रति भक्ति, ज्ञानीके प्रति आगे बढे, उस प्रकारका उपदेश मुख्यपने (करना)।

मुमुक्षुः- ज्ञानीको मुख्य रखकर फिर तत्त्वका..

समाधानः- तत्त्वका (उपदेश) नहीं देना ऐसा तो नहीं होता, तत्त्वका उपदेश तो देना, परन्तु उसमें ज्ञानीको मुख्य रखना, ऐसा उसका अर्थ है। तत्त्वका उपदेश.. तत्त्व मुख्य ग्रहण किये बिना आगे तो बढ नहीं सकता। दूसरोंको कहनेमें.. तत्त्व तो मुख्य है, परन्तु तत्त्वको समझानेवाले कौन है? कि ज्ञानी है। इसलिये ज्ञानीको आगे रखकर तू तत्त्वकी बात करना। ऐसा उसका अर्थ है। तत्त्व समझानेवाले कौन हैं? उनकी महिमा हृदयमें रखना। और वह तत्त्व जो समझाता है उसे आगे रखकर तत्त्वकी बात करना। आगे तो तत्त्वसे बढा जाता है, परन्तु उसे मार्ग दर्शानेवाले कौन हैं? उस ज्ञानीको तू मुख्य करके बात करना। ऐसे अर्थमें है।

मुुमुक्षुः- (ज्ञानीपुरुषका) आश्रित ही उपदेश देनेका अधिकारी है। समाधानः- कल्पनासे नहीं, परन्तु ज्ञानी क्या कहते हैं? उस मार्ग पर उपदेश देना, वे कहे उस अनुसार। तत्त्व तो बीचमें आता है।

मुमुक्षुः- मुख्य रखकर उसका अर्थ ऐसा है?

समाधानः- इस प्रकारका है, मुख्य रखकर। (मोक्षमार्ग) बतानेवाले कौन है, उन्हें लक्ष्यमें रखना। निमित्त-उपादानको साथमें रखना। अनादि कालका अनजाना मार्ग पहले स्वयं जाने तो ज्ञानीका उपदेश मिलता है तब उसे देशनालब्धि होती है। ऐसा निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है। भगवान अथवा गुरु मिले तब देशनालब्धि हो, ऐसा निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है। ज्ञानी द्वारा मार्ग समझमें आता है। इसलिये समझना अंतरमें उपादानसे है, परन्तु ज्ञानी साथमें होते हैं। इसलिये तू ज्ञानीकी बात साथमें रखकर,


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ु मुख्य रखकर समझाना, ऐसा उसका अर्थ है।उसका मतलब उसमें निमित्त कर देता है, ऐसा नहीं। होता है उपादानसे। परन्तु साथमें ज्ञानी तो होते हैं। अपनेसे होता है इसलिये ज्ञानीका कुछ नहीं, मेरेसे ही होता है, उस प्रकारके स्वच्छन्दमें चला न जाय। परन्तु ज्ञानी साथमें होते हैं, ज्ञानी क्या कहते हैं उसे तू लक्ष्यमें रखकर बात करना। उसे मुख्य रखकर।

मुमुक्षुः- इस बारके गुजराती आत्मधर्ममें भी आपकी बात जो आयी है, दो बात आपने (कही)। काम तो मुझे ही करना है, लेकिन साथमें आपके बिना तो नहीं चलेगा।

समाधानः- उस भावमें.. मैं स्वयं जाता हूँ, परन्तु देव-गुरु-शास्त्रके बिना मुझे नहीं चलेगा। आप साथमें आना। आपको साथमें ही रखता हूँ। साथमें रखे बिना मुझे नहीं चलेगा। मैं जाता तो हूँ स्वयंसे, लेकिन आपको तो साथमें ही रखना है। आपके साथके बिना मुझे चलेगा नहीं। ऐसा है।

देव-गुरु-शास्त्रके बिना मुझे चलेगा नहीं। देव-गुरु-शास्त्र बिनाका जीवन वह जीवन कुछ नहीं है। देव-गुरु-शास्त्र साथमें हो और पुरुषार्थ... ऐसी भावना है। और देव- गुरु-शास्त्र साथमेंं होते ही हैं। स्वयं आगे बढता है उसमें देव-गुरु-शास्त्र होतो हैं। अन्दर अपना कल्पवृक्ष वह अपनी भावना, देव-गुरु-शास्त्रका कल्पवृक्ष उगायेगा, वह आता है। आप सब पधारिये, मुझे देव-गुरु-शास्त्रके बिना नहीं चलेगा। भले ही मैं पुरुषार्थ मुझसे करुँ, तो भी आपके बिना मुझे नहीं चलेगा। आपका साथ तो चाहिये। ऐसा है।

मुमुक्षुः- अत्यन्त सुन्दर। निश्चय-व्यवहारकी सन्धिपूर्वक।

समाधानः- .. मुझे गुरु तो साथमें चाहिये। मैं तत्त्वमें आगे विचार करता हूँ, मुझे गुरु तो साथमें चाहिये, गुरुके बिना मुझे नहीं चलेगा। वह तो एक प्रकारकी भावना है। गुरु कर देते हैं, ऐसा अर्थ नहीं है, परन्तु गुरु मेरे साथ ही चाहिये। मुझे गुरुके बिना नहीं चलेगा। मैं भले ही पुरुषार्थ मेरेसे करुँ, परन्तु गुरु तो मुझे साथमें ही चाहिये।

... उसे मैं साथमें रखता हूँ। अकेला करता हूँ तो अकेला ही करुँ, ऐसा नहीं। मुझे साथमें ही चाहिये। मुझे आत्मा भी चाहिये और मुझे देव-गुरु-शास्त्र चाहिये, मुझे सब साथमें चाहिये। सब पधारो! ऐसा।

मुमुक्षुः- विचार करता है और अस्तित्व ग्रहण नहीं करता है, तो क्या बाकी रह जाता है? ग्रहण नहीं करता है मतलब कहीं रुकता है इसलिये अस्तित्व ग्रहण नहीं हो रहा है?

समाधानः- कहीं रुकता है, उसकी परिणति रुकती है। बाहरमें रुकती है। पुरुषार्थकी मन्दतासे कचास (रहती है)। उतनी अन्दर स्वयंकी रुचि, स्व-ओरकी रुचिकी मन्दता


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तो साथमें है ही। पुरुषार्थकी मन्दता, रुचिकी मन्दता। अनादिका जो प्रवाह है न, उस प्रवाहमें ऐसे ही बह जाता है। उस प्रवाहको मोडना उसे मुश्किल पडता है। रुचि हो, भावना हो, अमुक प्रकारसे उसके विचार आये, मंथन हो, निर्णय करे, परन्तु उसकी दिशा जो कार्यमें लेनी चाहिये, उस कार्यमें लेनेमें उसे देर लगती है।

अनादिका जो प्रवाह है, ऐसे ही चलता है। भावना होती रहे, लेकिन उसका पलटना, उसे कार्यमें लाना उसमें पुरुषार्थका बल चाहिये, और पूरी दृष्टि बदलनी पडे। विचारमें वह सब निर्णय करता है, परन्तु उसका पलटना, अनादिका जो प्रवाह है उसमेंसे उसे पुरुषार्थ और उतनी तीव्रता, अन्दर लगन चाहिये तो होता है।

मुमुक्षुः- आपने कहा कि ग्रहण नहीं करता है, उसमें बहुत वजन नहीं था। ग्रहण नहीं करता है। अस्तित्वको ग्रहण नहीं करता है।

समाधानः- अस्तित्वको ग्रहण नहीं करता है। उसके मूलको ग्रहण नहीं करता है। विचारमें लेता है, परन्तु अंतरमें ग्रहण नहीं करता है।

मुमुक्षुः- जितनी यथार्थ महिमा और उसकी अधिकता भासित होनी चाहिये उतना आता नहीं, इसलिये ग्रहण नहीं हो रहा है और कहीं न कहीं अटक जाता है।

समाधानः- अटक जाता है। उतनी महिमा, उतनी लगन, उतना पुरुषार्थ नहीं करता है।

मुमुक्षुः- बात तो.. ग्रहण नहीं करता है। नहीं करता है, उसके कारणमें रुचिकी मन्दता मुख्य कारण है। अधिकता जो भासित होनी चाहिये, सबसे मैं अधिक हूँ और उसकी जो महिमा आनी चाहिये, वह नहीं आती।

समाधनः- मैं अधिक हूँ और ये सब सारभूत नहीं है। यही सारभूत है, उतनी अंतरमेंसे रुचि लगनी चाहिये तो होता है।

मुमुक्षुः- बारंबार उसकी सन्मुखताका बल बढे...

समाधानः- बारंबार उसका अभ्यास करे, रुचि बढानेका, पुरुषार्थ बढानेका प्रयत्न करे। अस्तित्व ग्रहण करनेका, तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- आपके एक बोलमें आता है कि इतना निस्पृह हो जाता है कि भेदको भी.. आपका एक बोल आता है न कि भेदको भी लक्ष्यमें लेता नहीं अथवा भेदमें रुकता नहीं।

समाधानः- भेदमें रुकता नहीं, कुछ नहीं चाहिये, बस! एक (अस्तित्व चाहिये)। उतना निस्पृह हो जा। कुछ नहीं चाहिये। आत्माका (अस्तित्व) चाहिये।

मुमुक्षुः- मूल बात है।

समाधानः- मूल वह है। कोई स्पृहा नहीं है, एक आत्माके अलावा। एक आत्मा


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ही मुझे चाहिये। पर्यायभेद या कहीं नहीं रुककर मुझे मेरा एक अस्तित्व चाहिये।

मुमुक्षुः- निस्पृहताकी अंतिम पराकाष्टा है कि भेदमें भी नहीं रुकता।

समाधानः- भेदमें रुकता नहीं कि ये ज्ञान है, दर्शन है, आनन्द गुण है या दूसरा गुण है, ऐसे कहीं भी नहीं रुककर एक अस्तित्वको ग्रहण (करता है), दृष्टि तो वहीं स्थापित कर देता है।

मुमुक्षुः- पर्यायमें तो न रुके लेकिन गुणभेदमें भी नहीं रुकता। विचार आ जाय, लेकिन रुकता नहीं। उतनी निस्पृहता (आ जाती है)।

समाधानः- रुकता नहीं, विचार आये तो भी दृष्टि तो एक अस्तित्व पर ही रखनी है। आत्मामें विचार करे लेकिन उस ओर रुकता नहीं। एक अपना अस्तित्व ग्रहण कर लेता है। इतना निस्पृह हो जाता है।

मुमुक्षुः- कितना.. विचारमें ले कि आत्मामें ज्ञानगुण है, ज्ञानमें ऐसी शक्ति है, ऐसा सामर्थ्य है। फिर भी वहाँ रुकता नहीं। उतनी निस्पृहता..

समाधानः- खडे-खडे विचार करता रहे तो अन्दर जा (नहीं सकता)। अन्दर उग्रता हो तो अन्दर जा सके। खडे-खडे विचार करना कि ज्ञायकका द्वार छोडना नहीं। देर लगे तो भी। भगवानके द्वारा पर खडे-खडे... तो भगवानके द्वार खुल जाय। वैसे ज्ञायकके द्वार पर खडे-खडे भले विचारको वहीं टिकाये रखे तो यदि अन्दर स्वयंको लगी है तो उसे ज्ञायक ग्रहण होनेका अवकाश है। अवकाश है। उसे उतनी महिमा है। वहाँ खडा है। भले भावनारूप खडा है।

मुमुक्षुः- विकल्पात्मकमें तो भावभासन है कि ज्ञायक कैसा मात्र जाननेवाला..

समाधानः- हाँ, तो ग्रहण होनेका अवकाश है। .. महिमा लगे, ज्ञायकदेव जिसने प्रगट किया, देव-गुरु-शास्त्र जिन्होंने साधना करके प्रगट किया, उनकी अनुमोदना, उनकी आराधना तो साथमें होती ही है, उनका साथ तो साथमें होता ही है। उनके बिना कैसे चले? मैं आगे तो बढूँ, लेकिन आपको साथ रखता हूँ।

मुमुक्षुः- दोनों एकसाथ होते हैं।

समाधानः- साथमें हैं। उसे ऐसा नहीं होता कि मैं मुझसे करता हूँ। ऐसी भावना नहीं होती। सबको मैं साथमें रखता हूँ। सबका आदर है। स्वयंका आदर हुआ, उसे देव-गुरु-शास्त्रका आदर है। देव-गुरु-शास्त्रका आदर है, उसे स्वयंका आदर है। वास्तविक आदर ही उसे कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- .. उसमें स्वच्छन्द होनेका, अभिमान चढनेका..

समाधानः- मैं मुझसे करता हूँ, ऐसा नहीं होता। मुझसे भले होता है, परन्तु मैं देव-गुरु-शास्त्रको साथमेंं रखता हूँ। ...


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मुमुक्षुः- आपको ऐसा लगे कि देव-गुरु-शास्त्रके बिना नहीं चलेगा, हमें ऐसा होता है कि आपके बिना नहीं चलेगा।

समाधानः- गुरुदेव मिले सबको, महान उपकार किया है। सन्धि बतायी है। उन्होंने निश्चय-व्यवहारकी सन्धि बहुत बतायी है। शास्त्रोंके रहस्य सब उन्होंने सूलझाये हैं। कोई जानता नहीं था, शास्त्रोंकी किसीकी चौंच डूबती नहीं थी। सब रहस्य उन्होंने खल्ले किये हैं।

मुमुक्षुः- मामा कितनी बार कहते थे, बहिन कहते हैं कि आत्मा शब्द बोलते हो तो गुरुदेवके प्रतापसे। कितनी बार, मामा ये शब्द (बोले थे)। बहिन ऐसा कहते हैं, बहिन ऐसा कहते हैं। .. ये शास्त्रका अनुवाद किया वह गुरुदेवके कारण।

समाधानः- उनके कारण अर्थ सूझे, नहीं तो अर्थ कहाँ-से सूझे? उनको गुरुदेवने मार्ग बताया, इसलिये वे संस्कृतमेंसे अर्थ मिला सकते हैं।

मुमुक्षुः- मामा कितनी बार बोलते थे, हाँ! पण्डित तो बहुत हैं, लेकिन ये तो गुरुदेवके कारण ही भाषांतर हुआ है।

समाधानः- गुरुदेवने दृष्टि बतायी, तो उसके अर्थ सूझे।

मुमुक्षुः- स्व-परका भेदज्ञान हो कि मैं ज्ञायक भिन्न हूँ। उसे आंशिक स्वरूप रमणता हो गयी। वह विरति हो, परन्तु बादमें उसे जो भूमिका बदल जाती है, चौथा गुणस्थान, बादमें पाँचवा, छठवां-सातवां (आता है), उस ज्ञानका फल विरति है। अन्दर ज्ञायकता, भेदज्ञान हो वह वास्तविक विरति है। वह वास्तविक विरति है। वांचन, विचार वह तो एक...

मुमुक्षुः- परन्तु उसके पहले तारतम्यतामें कोई भेद नहीं पडते? श्रीमदजीने लिखा कि जो पढनेसे, विचार करनेसे आत्मा विभावसे, विभावभावसे पीछे नहीं मुडा, तो वह पढना, विचारना मिथ्या है।

समाधानः- पढना, विचारना उसमें विरति नहीं आती। वह नहीं है। वास्तविक विरति तो अन्दर भेदज्ञान हो तब (होती है)। सच्ची विरति तो उसका नाम है। जो पहले मन्द कषाय होता है वह सच्ची विरति नहीं है। वह तो मन्द कषायरूप है। सच्ची विरति उसका नाम कि सर्व विभावभावसे भेदज्ञान होकर और अंतरमें जितने ज्ञायकताके परिणाम, ज्ञातृत्वकी तीखास हो, अंतरमें जो निवृत्त परिणाम आवे उसका नाम विरति है। अंतर स्वरूपमें स्थिरता हो, स्वरूपमें लीनता हो, उसका नाम विरति है। उसे अंश-अंशमें जो गृहस्थाश्रमके भाव हैं, उसे अंतरमेंसे एकत्वबुद्धि छूटती जाय, उसका रस टूटता जाय, उसका नाम विरति है। अंतरमेंसे अकषायभाव टूटकर जो अंतरमें लीनता होती है, स्वरूपका आनन्द बढता जाय, स्वरूपकी लीनता बढती जाय, उसका


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नाम विरति है।

.. वह तो अवश्य होती ही है। जिसे सम्यग्दर्शन होता है, उसे विरति अवश्य होती ही है। उसे स्वरूपकी लीनता क्रम-क्रमसे बढती जाती है। फिर उसमें क्रम पडे, किसीको देर लगे, किसीको तुरन्त होती है। परन्तु उसे विरति तो अवश्य आती ही है। ज्ञानका फल विरति तो आती ही है। और आंशिक स्वरूप रमणता तो जो ज्ञायकताको पहचानी, ज्ञाताधारा हुयी उसे स्वरूप रमणता तो चालू ही हो गयी। अनन्तानुबंधी कषाय टूट गया इसलिये उतनी विरति तो उस प्रकारसे आ गयी। परन्तु जो विरति चारित्रदशाकी होती है, उस चारित्रदशाकी विरति आनेमें देर लगे, परन्तु अवश्य आती है। वास्तविक विरति वह है। मन्द कषाय हो वह विरति नहीं है, वह तो मन्द कषाय है। वांचन करे, विचार करे उसमें मन्द कषाय होता है कि ये विभावभाव अच्छा नहीं है, ऐसी भावना हो, रुचि हो, परन्तु वह भी अभी वास्तविक नहीं है, वह तो भावना करता है। मन्द कषाय है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!