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मुमुक्षुः- पत्रमें आता है कि मुमुक्षुके नेत्र महात्माको पहचान लेते हैं। तो समकित तो हुआ नहीं है, वह कैसे पहचान सके?
समाधानः- उसे सत-ओरकी रुचि लगी है कि यथार्थ वस्तु क्या है? आत्माका करना है। आत्माका स्वरूप कौन बताये? ऐसी उसे अंतरसे भावना हुयी है। तो जो सत्पुरुष आत्माकी बातें करते हों, स्वानुभूतिकी बातें करते हों, तो उसे अंतरकी ऐसी जिज्ञासा जागृत हुयी है कि उसके परीक्षा करनेके नेत्र ऐसे हो गये हैं कि ये सत्पुरुष हैं और स्वानुभूतिकी बात करते हैं और मुक्तिके मार्गकी बात करते हैं। उसके ज्ञानमें ऐसी निर्मलता अमुक प्रकारकी आ जाती है कि वह पकड सकता है। उसे जिज्ञासा, सत ओरकी अंतरमेंसे ऐसी रुचि प्रगट हुयी है इसलिये वह ग्रहण कर लेता है। उसे प्रगट नहीं हुआ है, परन्तु जिसे प्रगट हुआ है, उसे पहचान लेता है। उसकी रुचि वैसी है।
मुमुक्षुः- धर्म प्राप्त करनेमें परिणाम पर आधार है?
समाधानः- अंतर दृष्टि, अंतरके परिणाम पर आधार है। बाह्य क्रिया पर आधार नहीं है, अंतर दृष्टि पर आधार है। उसकी दृष्टि सत-ओर होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- स्वभावकी रुचि हुई है, परन्तु वह स्वभावकी रुचि यथार्थ नहीं हुयी होगी?
समाधानः- अपने आत्माको अन्दर विश्वास आ जाय कि ये रुचि हुयी है, रुचि ऐसी हो कि आत्माके बिना मुझे कहीं चैन पडे ऐसा नहीं है। आत्मा मिले तो ही शान्ति है। ऐसी यदि अंतरसे यथार्थ प्रकारसे ऐसी भावना और लगन हो तो... आत्माके बिना मुझे संतोष नहीं होगा। ऐसा अंतरमें हो तो उसकी रुचि यथार्थ है। उसके पुरुषार्थकी गति ओर गये बिना रहेगी नहीं, भले काल लगे। वह स्वयं ही पकड सकता है कि मुझे आत्माके बिना कहीं चैन पडे ऐसा नहीं है, आत्माके बिना मुझे शान्ति हो ऐसा नहीं है। अंतरमेंसे शान्ति प्रगट न हो, तबतक मुझे कहीं शान्ति लगे ऐसा नहीं है। ऐसा स्वयंको अंतरमेंसे होता हो तो स्वयंकी रुचिको स्वयं पकड सकता है।
आत्माकी स्वभाव परिणतिके बिना कहीं संतोष नहीं होगा। ऐसा अंतरमेंसे यदि
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होता हो तो उसकी रुचि वह स्वयं ही ग्रहण और पकड सकता है कि यह रुचि ऐसी है कि आत्मा प्रगट करके ही छूटकारा है। अपनी रुचिको स्वयं पकड सकता है। उसमें काल लगे, वह एक अलग बात है।
गुरुदेवने अंतर दृष्टिका कैसा मार्ग बताया। सब बाहरसे यात्रा करनेको पैदल आते हैं। मानों उसमेंसे कहीं धर्म प्राप्त हो जायगा। लेकिन वह धर्म कहीं दूर रह जाता है, और बाहरसे सब करता रहता है कि ऐसा करनेसे मिलेगा, ऐसा करनेसे मिलेगा।
गुरुदेवने अंतरकी दृष्टिमें मार्ग बताया (कि) अंतर परिणति पलट दे। पैदल चलकर दो-दो महिनेसे यात्रा करते हैं। (मार्ग तो) दूर ही रह जाता है। ऐसे अनन्त कालमें जीव ऐसा ही करता है। पर्वत पर जाकर आताप सहन करे, सर्दीमें ठण्ड सहन करे, तो भी आत्मा तो दूर ही दूर रह जाता है। अंतर सतकी रुचि प्रगट हुए बिना, अन्दर पुरुषार्थकी गति आत्माकी ओर जाती नहीं और बाहरसे कुछ आ जाता है, ऐसा मान लेते हैं।
मुमुक्षुः- .. सब भ्रमणा निकाल दी।
समाधानः- सब भ्रमणा निकाल दी और मार्गको ऐसा स्पष्ट कर दिया है कि कहीं किसीकी भूल न रहे, उतना स्पष्ट कर दिया है।
मुमुक्षुः- तू क्रोडो मन्दिर बना, तेरा कुछ कल्याण नहीं होगा। मैं तो चमक गया था। क्या बात है ये सब! अद्भुत बात!
समाधानः- दृष्टि बाहर ही बाहर। अंतर चैतन्यकी ओर दृष्टि न जाय तबतक कुछ नहीं मिलता है। गुरुदेवने सबको यथार्थ मार्ग, दृष्टि बता दी है। चलना स्वयंको है।
मुमुक्षुः- यथार्थरूपसे गुरुदेवकी भक्ति तो आपके पास..
समाधानः- अभी तो दीक्षा यथार्थरूपसे किसीको समझमें नहीं आती। छोड दिया इसलिये आत्माका कल्याण हो गया, ऐसा मानते हैं। पुण्य बान्धे, दूसरा कुछ नहीं। परिणाम अच्छे हो तो पुण्य बन्धे, बाकी कुछ नहीं। जो किया वही चक्कर। घाँचीका बैल जहाँ छोडे तो वहींका वहीं चक्करमें खडा हो।
मुमुक्षुः- पूरा मार्ग..
समाधानः- हाँ, दृष्टि अंतरमें कर तो अंतरमेंसे प्रगट हो। शुद्धात्माको पहिचाने। उसमें शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट हो, उसमेंसे स्वानुभूति, सब उसमें होता है। भेदज्ञान प्रगट होता है। वही भावना रखने जैसी है, वही करनेका है। ध्येय तो एक ही-ज्ञायक प्रगट हो। वही करनेका है। वांचन, विचार सबमें लक्ष्य तो एक ही, ध्येय तो एक ही करना है।
मुमुक्षुः- अनन्त जीव ऐसे ही पुरुषार्थ करके मोक्ष पधारे। गुरुदेवने कहा कि
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तू वर्तमानमें...
समाधानः- पुरुषार्थ करनेवाले सब साथ ही हैं। गुरुदेवने उसका अर्थ किया है। सबने आराधना की है, सब आराधना करते हैं, अनन्त जीवोंने इस मार्गका आराधन किया है। आत्मा ही आराधने (योग्य है)। साध्य भी वह है और साधकदशा भी वही है। ऐसी साधान अनन्त जीवोंने की है, करते हैं। भविष्यमें करेंगे, भूतकालमें की थी।
... गुरुदेवने मार्ग बताया है। .. स्थिति तो ऐसी है। अन्दर आत्मामें संस्कार पडे हों, वह काममें आते हैं। जो आत्माके संस्कार हों वह साथमें आते हैं। शरीरका तो ऐसा है, वेदनाकी मूर्ति है। कब क्या हो जाय मालूम नहीं। इसलिये आत्माके संस्कार डालने चाहिये। गुरुदेवने जो कहा उस मार्गको ग्रहण करना चाहिये। ऐसे अनन्त जन्म- मरण जीवने कितने किये हैं। किसीको छोडकर स्वयं गया, स्वयंको छोडकर दूसरे चले गये। ऐसा अनन्त कालमें बहुत बार हुआ है। अनन्त बार सब हुआ है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया है वही ग्रहण करने जैसा है।
आत्मा शाश्वत है। आत्माको कोई जन्म-मरण नहीं होते। शरीर छूट जाता है, आत्मा तो शाश्वत है। आत्माको भिन्न करके,.. प्रथमसे ही उसे भिन्न कर देना। शरीर छूटे तब तो आत्मा चला जाता है। परन्तु प्रथमसे ही उसका भेदज्ञान कर लेने जैसा है। भिन्न तो पडता ही है, तो प्रथमसे ही आत्मा भिन्न है। ये विभाव भिन्न और ये शरीर तो भिन्न ही है। ये विभाव स्वभाव भी अपना नहीं है। उसका भेदज्ञान करने जैसा है।
अनन्त जन्म-मरण किये, कितने ही। एक-एक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ऐसे अनन्त- अनन्त किये। आकाशके एक क्षेत्रमें कितनी बार जन्म-मरण कर चूका। कितने द्रव्य, इस लोकमें जितने थे सबको ग्रहण करके छोडे। ऐसे अनन्त परावर्तन किये, उसमें यह मनुष्यभव मिले, उसमें पंचमकालमें गुरुदेव मिले, वह महाभाग्यकी बात है। उसमें आत्माका कर लेने जैसा है। रुचि करने जैसा है, बारंबार उसीका अभ्यास करने जैसा है। बाहरकी लगन लगी है। लगन अंतरकी लगे तो हो। बारंबार उसे फेरे, बारंबार फेरे। बारंबार उसका अभ्यास करना। अनादिका अभ्यास है इसलिये वहाँ दौडा जाता है। अपनी ओरका अभ्यास दृढ करना चाहिये।
मुमुक्षुः- इसमें प्रयत्न करते हैं तो भी नहीं होता है, उसमें बिना प्रयत्नसे दौडा जाता है।
समाधानः- हाँ, बिना प्रयत्नसे जाता है, अनादिका अभ्यास है न इसलिये। मार्ग गुरुदेवने बताया है। आत्माको भिन्न करके अन्दर श्रद्धा करके, ज्ञान करके वह परिणति प्रगट करने जैसा है।
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.. प्रगट हो, स्वानुभूति करते हैं। .. चैतन्य पर करे तो ही पर्याय प्रगट हो। पर्याय प्रगट होती है, चैतन्य पर दृष्टि अखण्ड शाश्वत आत्मा है, उस पर दृष्टि करे, चैतन्यको पहचाने तो ही पर्याय प्रगट हो। परन्तु जैसा चैतन्यका स्वरूप है, वह चैतन्य प्रकाशमें कब आये? चैतन्य जैसा है वैसा ज्ञात हो, वेदनमें कब आये? कि उसे पर्याय प्रगट हो, वह पर्याय वेदनमें आये, तभी चैतन्य जैसा है वैसा ज्ञात होता है और वह स्वानुभूतिमें आता है। इसलिये पर्याय है वह आत्मा है, ऐसा अपेक्षासे (कहते हैं)। आत्मा जैसा है वैसा कार्य करे। उसके गुण जैसा स्वयं है वैसा कार्य करे, स्वयं जैसा है वैसा प्रगट हो, इसलिये वह पर्याय आत्मा है।
एवंभूत नयवाला ऐसा कहे कि जो केवलज्ञानस्वरूप आत्मा परिणमे तब ही केवलज्ञानी कहनेमें आये। प्रगटरूपसे परिणमे तब। एवंभूत नयकी दृष्टिसे ऐसा कहनेमें आये। और नैगमनयसे ऐसा कहे कि शक्तिरूपसे जो आत्मामें केवलज्ञान है, उसे केवलज्ञान कहनेमें आता है। ऐसी सब अपेक्षाएँ होती हैैं। तीर्थंकर होनेवाले हो तो तीर्थंकर हैं ऐसा कहनेमें आये। और जो एवंभूत दृष्टिसे (ऐसा कहे कि), तीर्थंकरकी पर्याय जब प्रगट हो, समवसरणमें विराजते हो तब तीर्थंकर कहनेमें आये। ऐसी सब अपेक्षा होती है।
आत्मा सच्चा कब कहलाये? कि आत्मा अपनी स्वानुभूति करे, उसके आनन्दकी स्वानुभूति करे तब वह पर्याय स्वरूप परिणमे तब पर्यायको आत्मा कहें। ऐसे उसकी अपेक्षा अलग होती है। अभी तो स्वानुभूतिका अंश है तो उसे.. एवंभूत दृष्टिवाला जैसा है वैसा कहे। केवलज्ञान स्वरूप परिणमे आत्मा, स्वानुभूतिरूप पूर्ण परिणमे तब वह निश्चय स्वरूपमें आया, तब वह केवलज्ञानी कहा जाय। ऐसे पर्यायकी अपेक्षासे...
आत्मामें अनन्त गुण हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र (आदि)। परन्तु ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप आत्मा परिणत हुआ, तब वह सच्चा ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप कहनेमें आये। .. ऐसा कार्य तो किया नहीं है। कार्य नहीं किया है तो वह आत्मा किस जातका? कार्यरूप परिणमे तब वह आत्मा है। ऐसे। आत्मा नहीं है ऐसा नहीं, द्रव्य स्वरूपसे आत्मा अनादिअनन्त है। उस कार्यरूप आत्मा, स्वानुभूतिरूप आत्मा परिणमा तब आत्मा कहे।
दृष्टान्त आता है, राजाका कुँवर हो तो उसे राजा-राजा (कहे)। परन्तु कार्य करता नहीं तो राजा कैसे कहे? कार्यरूप परिणमे, राजारूप परिणमे तब वह सच्चा राजा कहलाये। ऐसे शक्तिरूप आत्मा है, वह शक्तिरूप नहीं, परन्तु वह कार्यरूप परिणमे तब वह आत्मा है। ऐसे।
.. दृष्टि ही नहीं रखनी। द्रव्य पर दृष्टि करे तो ही कार्य प्रगट हो। तो पर्याय वह आत्मा, कहाँसे आया? .. आत्मा पर दृष्टि करनेसे ही आत्मा प्रगट हो। शाश्वत आत्मा पर दृष्टि करनेसे ही कार्य प्रगट होता है। परन्तु उस कार्यरूप आत्मा परिणमा
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नहीं तो उसे आत्मा कैसे कहे? कार्य करे तो आत्मा। इसलिये कार्यरूप परिणमा वह आत्मा है, ऐसा कहते हैं। कार्यरूप परिणमा तब सच्चा आत्मा है। आनन्दरूप परिणमे वह आत्मा। आत्माकी दृष्टि करे तो ही परिणमे। ध्रुवकी दृष्टि करे तो ही कार्य होता है। ज्ञायक पर दृष्टि करे तो ही कार्य होता है।
... बातमें पूरा वस्तुका स्वरूप आ जाता है। पर्यायमें आत्मा खोजने जाय तो ऐसे नहीं मिलता। आत्माको द्रव्यमें खोजे तो ही मिलता है। उसका यथार्थ स्वरूप जब वेदन हो तब मालूम पडे। सच्चे आत्माका स्वरूप। .. करे तो ही आत्मा ग्रहण हो। ज्ञान करनेका है। .. उसे समझाते हैं।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- द्रव्य-गुणसे समान।
मुमुक्षुः- द्रव्य-गुणमें समानता है, ऐसे लेना है।
समाधानः- द्रव्य-गुणसे समान है। आत्माका स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्याय.. भगवानने तो प्रगट पर्याय की है। ये तो प्रगट नहीं है। प्रगटतामें समान नहीं है। शक्तिरूपसे समान है। प्रगटतामें वेदनमें समान नहीं है। शक्तिमें समान है। पारिणामिकभावसे समान है। द्रव्य और गुणरूपसे समान है। पर्यायकी प्रगटतारूपसे समान नहीं है। परन्तु द्रव्य पर दृष्टि करके आगे जाना है। द्रव्य पर दृष्टि कर। भगवानका आत्मा वैसा ही तेरा आत्मा है। इसलिये जैसे भगवान हैं, वैसा ही तू है। इसलिये द्रव्य पर दृष्टि कर तो साधनाकी पर्याय उसीमेंं प्रगट होगी। शुद्धात्माकी पर्याय।
द्रव्य अपेक्षासे समान ही है। उसमें कुछ फर्क नहीं है। द्रव्य तू स्वयं ही है। द्रव्यमें कुछ फेरफार नहीं हुआ है। इसलिये द्रव्यको पहचान ले और दृष्टिको द्रव्य पर स्थापित कर दे। तो जैसे भगवान हैं, वैसा तू प्रगटमें भी हो सकेगा। इसलिये मूल वस्तु जैसी भगवानकी है ऐसी ही तेरी है। तेरे पास सब पडा है। इसलिये तू उसमें दृष्टिको स्थापित कर दे, तो भगवान जैसा प्रगटरमें हो जायगा। शक्तिरूपसे तो तू भगवान जैसा ही है। शक्तिमें जैसे भगवान हैं, वैसा ही तू है। इसलिये तू तेरे पर दृष्टि कर।
मुमुक्षुः- .. समान है, उस अपेक्षासे निश्चयसे समान है।
समाधानः- उस अपेक्षासे समान है। कहीं बाहर लेने जाना पडे ऐसा नहीं है। जैसे भगवान हैं, वैसा ही तू है। तेरेमेंसे ही प्रगट हो ऐसा है। जैसा भगवानका आत्मा, वैसा ही तेरा आत्मा है। इसलिये तू उसमें साधना कर, उसमें दृष्टि स्थापित कर तो प्रगट हो, वेदनमें आये।
(जो भगवानको जाने वह) स्वयंको जाने, स्वयंको जाने वह भगवानको जानता है। जैसे भगवान हैं, वैसा ही तू है। सर्व प्रकारसे प्रगटतामें समान हो तो साधना
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करनी कहाँ रहती है। अनेक प्रकारसे आचार्यदेव कहते हैं। भिन्नरूपसे उपासित होता हुआ ज्ञायक है। तू भगवान आत्माको जान तो ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। यहाँ मूल वस्तु बतानी है, तेरा ज्ञायक भिन्न है। वस्तु बता रहे हैं-ज्ञायकको। उसमें तो (ऐसा है कि), कैसे ज्ञात हो? तू अपनेआप अन्दर दृष्टि कर। ऐसे ज्ञात न हो तो तू भगवानको देख। भगवान जैसे हैं वैसा ही तू है। जैसा तेरा निमित्त है, वैसा ही तू है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवानको यथार्थ जाने तो तुझे ज्ञात हो जायगा, तू तुझे ज्ञात हो जायगा तो भगवानको पहचान लेगा। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। ऐसा वहाँ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बताते हैं।
यहाँ ज्ञायकको भिन्न करके बताते हैं। परद्रव्यसे भिन्नरूपसे उपासित करनेमें आता हुआ मैं ज्ञायक भिन्न हूँ। दोनों अपेक्षासे समझनी। निश्चय और व्यवहारका क्या सम्बन्ध है, गुरुदेवने बताया है। ज्ञायक आत्माको भिन्न उपासने पर आत्मा प्रगट होता है। उसका निमित्त देव-गुरु-शास्त्र है। जैसा भगवानका आत्मा, वैसा अपना आत्मा है।
मुुमुक्षुः- भगवान यहाँ है नहीं और भगवानको जानना, ऐसा आचार्य भगवान कहते हैं। हमें कैसे जानना?
समाधानः- भगवानको पहचान। भगवानने क्या प्रगट किया है? विचार कर। गुरु तो साक्षात विराजते थे। सब स्वरूप बताया है। गुरुने ऐसा ही कहा है कि तू तेरे आत्माको पहचान। भगवानका आत्मा जैसा है, वैसा तेरा आत्मा है। ऐसा कहकर, तेरे आत्माको पहचान, ऐसा कहना है। बाह्य दृष्टि मत रखना, अंतर दृष्टि कर। जैसा भगवानका आत्मा है, ऐसा ही तू है। अंतरमें दृष्टि कर, ऐसा ही तेरा ज्ञायक है।
वह ज्ञायक शुद्ध ज्ञायक है। उसमें किसी भी प्रकारके विभावने प्रवेश नहीं किया है। कोई परद्रव्यका प्रवेश नहीं है, क्षणिकमात्र नहीं है। परन्तु वह अखण्ड अनादिअनन्त है, ऐसे ज्ञायकको तू पहचान ले। जिसमें गुणके भेद, पर्यायके भेद पर दृष्टि नहीं करना। उसे ज्ञानमें जान ले, परन्तु अकेले ज्ञायकको ग्रहण कर ले, ऐसा तू ज्ञायक है।
लेकिन वह ज्ञात कब हो? कि अंतरमें उतनी लग लगी हो। भले बुद्धिसे जानकर भी अंतरमें उसे ग्रहण करनेमें उतनी लगन हो तो वह ग्रहण होता है। उसे तू भेदज्ञान करके ग्रहण कर। ग्रहण होता है, बादमें वेदनमें आता है।
मुमुक्षुः- ग्रहण यानी मन द्वारा जान ले, वह ग्रहण?
समाधानः- पहले बुद्धिसे नक्की किया, परन्तु मन द्वारा जानकर, वह मन यानी अंतर सूक्ष्म उसका स्वभाव पहचानकर ग्रहण कर ले। मन तो बीचमें निमित्त आ जाता है। परन्तु अंतरमेंसे तू स्वभावको पहचानकर उसे ग्रहण कर ले। भेद करके ग्रहण कर ले। ये विभाव वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं अन्दर भिन्न ज्ञायक हूँ। अंतर दृष्टि करके
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पहचान ले। विकल्प तो उसके बादमें छूटते हैं। पहले उसे यथार्थ प्रतीत करता है, यथार्थ भेदज्ञान करके। फिर उसमें लीनता करे, भेदज्ञान करे, उग्रता करे तो उसके विकल्प छूट जाते हैं।
मुुमुक्षुः- अनुभव होने पूर्व प्रतीत हो जाती है? समाधानः- अनुभव पूर्व उसे प्रतीत होती है। वह उस गाथामें आता है, मति- श्रुत द्वारा निश्चय करता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान द्वारा निश्चय करे कि यही ज्ञानस्वभाव है। ज्ञानस्वभावको नक्की करके फिर जो उपयोग बाहर जाता है, उसे अंतरमें लीन करके उपयोगको अंतरमें स्थिर करे तो विकल्प टूट जाते हैं। १४४ गाथा। बुद्धिसे नक्की करता है, परन्तु वास्तवमें तो अंतरमें ही करनेका है। अंतरमें गहराईमें जाकर स्वभावको ग्रहण करना है। पहले, यही ज्ञानस्वभाव हूँ, ऐसा नक्की करके, फिर पर प्रसिद्धिके कारण जो उपयोग बाहर जाता है उसे तू अंतरमें ला। अंतरमें उपयोगको स्थिर कर, मति- श्रुतज्ञानकी बुद्धिको अंतरमें स्थापित कर, तो तेरे विकल्प टूट जायेंगे। पहले यथार्थ प्रतीत करता है। अलौकिक मार्ग अंतरमें है। अलौकिक आत्मा, उसका मार्ग अलौकिक। और देव-गुरु-शास्त्र बताते हैं वह अलौकिक। उन्होंने जो प्रगट किया है, (वह अलौकिक है)।