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मुमुक्षुः- जीव, शरीरसे दिवारकी भाँति भिन्न है, (यह) परमार्थ और वह सत्य है। साथमें व्यवहारकी सन्धि रखनी जरूर है? रखनी हो तो कैसे रखनी?
समाधानः- शरीरसे तो भिन्न है, अत्यंत भिन्न है। शरीर तो जड है, आत्मा चैतन्य है, तो एकदम भिन्न ही है। जड और चैतन्य, दोनों अलग है। व्यवहारकी संधि तो उतनी ही है कि उसे अमुक भव एकक्षेत्रावगाही है, उतना व्यवहारका सम्बन्ध है। एक के बाद एक जो भव धारण करता है, वह एकक्षेत्रवगाही सम्बन्ध, क्षेत्रावगाहरमें रहे हैं उतना। यह देव है, यह नारकी ऐसा कहनेमें आता है। उसके साथ उतना व्यवहार है। शरीरके साथ उतना असदभुत व्यवहार है। शरीर और आत्मा, जड और चैतन्य, दोनों विरुद्ध स्वभावी अत्यंत भिन्न हैं। जड है और चैतन्य है।
मुमुक्षुः- समयसारमें आता है कि..
समाधानः- भगवानकी स्तुति आदि होता है, वह आता है?
मुमुक्षुः- राखको मसलने जैसा होता है। यदि बिलकूल भिन्न परमार्थ और एकान्त हो जाये तो मच्छरको भस्मीभूत..
समाधानः- हाँ, उतना सम्बन्ध है, एकक्षेत्रावगाही है, इसलिये। सर्वथा भिन्न हो तो जैसे हिंसा करनेमें पाप नहीं है ऐसा हो जाये। उतना सम्बन्ध है, एकक्षेत्रावगाही है उतना सम्बन्ध है। तो फिर हिंसा होती ही नहीं, ऐसा हो जाये। जैसे मसलनेमें पाप नहीं है, वैसे जीव जो शरीर धारण करे उसे मसलनेमें पाप नहीं है, ऐसा अर्थ हो जाता है। सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- एकान्त हो जाता है।
समाधानः- एकान्त हो जाये तो वैसा अर्थ हो जाता है। वैसा एकान्त नहीं है। परमार्थसे भिन्न है, लेकिन एकक्षेत्रावगाहसे सम्बन्ध है। नहीं तो हिंसाका अभाव सिद्ध हो जाये। इसलिये एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। वह व्यवहार बीचमें आता है। दयाका विकल्प आये, ऐसा सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- उसे ज्ञानमें रखना है।
समाधानः- हाँ, ज्ञानमें जाने कि सम्बन्ध है, एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। नहीं
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तो हिंसाका अभाव सिद्ध हो जाये। राखको मसलनेमें जैसे पाप नहीं है, वैसे जो चींटी, मंकोडा आदिको मसलनेमें पाप नहीं है, ऐसा अर्थ हो जाये। वैसा एकान्त नहीं लेना चाहिये। परमार्थसे भिन्न है। सर्वथा एकान्त नहीं लेना चाहिये। ज्ञानमें ख्याल रखना। दयाका शुभ विकल्प आये, उसे बचानेका विकल्प आये बिना रहता नहीं। फिर उसके आयुष्य अनुसार होता है, परन्तु स्वयंको बचानेका विकल्प आता है। नहीं तो हिंसाका अभाव सिद्ध होगा, बराबर है।
मुमुक्षुः- ऐसी सन्धि साथमें रखनी।
समाधानः- हाँ, वह सन्धि साथमें रखनी। वह हिंसाका (हुआ), वैसे स्तुतिका, भगवानकी स्तुतिका। भगवानका शरीर देखकर भगवान ऐसे हैं, भगवान ऐसे हैं, ऐसा करे। भगवानका शरीर ऐसा है, ऐसा स्तुतिमें भी आता है, शुभ (विकल्प आता है)। उतना सम्बन्ध ज्ञानमें रखना है।
मुमुक्षुः- परमात्म प्रकाशमें आता है, देहमें जीव बसा है, असदभूत व्यवहारनयसे, जूठी नयसे...
समाधानः- असदभूत व्यवहार है, लेकिन ऐसा व्यवहार है सही, व्यवहार है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! समयसारमें दूसरी एक बात आती है, नौ तत्त्वका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण द्वारा शुद्ध स्वरूप समझाया है, ऐसा उपोदघातमें लिखा है।
समाधानः- क्या नौ तत्त्वका?
मुमुक्षुः- नौ तत्त्वका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण द्वारा शुद्ध स्वरूहप समझाया है, ऐसा समयसारके उपोदघातमें लिखा है। तो इस नौ तत्त्वको शुद्धनयकी दृष्टिसे कैसे देखना?
समाधानः- शुद्धनयकी दृष्टिसे मैं शुद्ध ही हूँ। उसमें नौ का जो भेद पडता है, उसमें ग्रहण एक को करना। एक चैतन्यद्रव्य मैं हूँ, बाकी सब पर्याय है। मैं एक चैतन्य हूँ। इसप्रकार चैतन्यकी दृष्टिसे देखना, एक शुद्धनयसे ग्रहण कर। नौ कहनेमें आता है, लेकिन एक को ग्रहण करना। उन नौ के बीचमें रहा एक, उस एकको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- संवर, निर्जरामें उसी प्रकारसे?
समाधानः- सबमें वैसे लेना। संवर, निर्जरामें मैं एक चैतन्य अखण्ड हूँ। वह सब भेद है। साधकदशाके भेद है, मोक्षपर्यायके भेद हैं, वह सब भेद है। उन भेदके बीचमें मैं एक चैतन्य अखण्ड द्रव्य हूँ, ऐसे ग्रहण करना। मैं एक चैतन्य हूँ। नौ तत्त्वको जानकर ग्रहण एक चैतन्य शुद्धात्माको करना है। एक चैतन्य मैं हूँ। नौ तत्त्वकी परिपाटी छोडकर हमें एक आत्मा प्राप्त हो, एक चैतन्यद्रव्य प्राप्त हो। उस एक को ग्रहण करने जैसा है। एक चैतन्यको ग्रहण कर लेना। मैं एक शुद्धात्मा हूँ। ये सब पर्यायके भेद है।
मुमुक्षुः- पर्यायके भेद ज्ञानका विषय हो जाता है?
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समाधानः- हाँ, वह ज्ञानका विषय हो जाता है, परन्तु ग्रहण एक को ग्रहण करना। दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहे हैं। दृष्टिके साथ ज्ञान रहा है और सम्यग्ज्ञानके साथ दृष्टि रहती है। नौ तत्त्वके बीच एक आत्माको ग्रहण करना। ... दृष्टिसे जाने नौ तत्त्व, दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें हैं। एक आत्मा ग्रहण करना।
एक आत्मा प्राप्त हो, दूसरा कुछ प्राप्त (नहीं हो)। प्राप्त हो यानी उसमें पर्यायमें आयी। परन्तु एक आत्मा, नौ तत्त्व पर दृष्टि नहीं है, अकेला आत्मा, एक आत्मा ही हमेंं (प्राप्त) हो, हमें और कुछ नहीं चाहिये। यह तो एक भावना है, लेकिन नौ तत्त्वमैं एक आत्माको ग्रहण करना। भूतार्थ दृष्टिसे एक आत्माको ग्रहण करना। दृष्टि एक आत्मा पर ही है। उसमें ज्ञानमें सब आ जाता है। परन्तु ग्रहण एक आत्माको करना।
मुमुक्षुः- व्यवहार द्वारा परमार्थ..
समाधानः- हाँ, परमार्थको ग्रहण करना। व्यवहार पर दृष्टि नहीं है। दृष्टि एक परमार्थ पर है।
मुमुक्षुः- .. व्यवहार द्वारा शुद्ध स्वरूपका निरूपण किया है?
समाधानः- हाँ, ऐसा भी आता है। भेद द्वारा अभेदको ग्रहण करना। "परमार्थनो उपदेश एम अशक्य छे'। व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश नहीं होता। इसलिये बीचमें व्यवहार-ज्ञान, दर्शन, चारित्रका भेद पडता है, उसमें एक आत्माको ग्रहण करना। सीधा एक आत्माको समझकर, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्रको प्राप्त हो वह आत्मा, ऐसा व्यवहार बीचमें आता है। ग्रहण एक परमार्थको करना, बीचमें व्यवहार (आये) उसे जानना। परमार्थ और व्यवहार दोनोंको जान लेना।
मुमुक्षुः- ग्रहणका अर्थ?
समाधानः- उस पर दृष्टि करनी, ग्रहण कर लेना एक शुद्धात्माको।
मुमुक्षुः- आलम्बन?
समाधानः- हाँ, आलम्बन। उस एकके आलम्बनसे पर्यायकी साधना होती है। ग्रहण एक परमार्थको करना, बीचमें व्यवहार आये उसे जानना। परमार्थ और व्यवहार दोनोंको जान लेना।
मुमुक्षुः- दृष्टिका, ज्ञानका, चारित्रका सबका एक ही प्रकारसे पुरुषार्थ होता है या दृष्टिमें अधिक पुरुषार्थ चाहिये?
समाधानः- एक यथार्थ दृष्टि प्रगट हो तो उसके साथ सब पुरुषार्थ आ जाता है।
मुमुक्षुः- प्रकार एक ही है?
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समाधानः- पुरुषार्थका प्रकार एक ही है। एक आत्माको ग्रहण किया, उसकी श्रद्धाका बल आया, उसके साथ लीनताका बल आता है। लीनता बादमें होती है, पहले एक श्रद्धा प्रगट होती है। अनादिकालसे मार्ग अनजाना है, उस अपेक्षासे सम्यग्दर्शन दुर्लभ है। उसकी अपेक्षासे। एक सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ इसलिये उसे मार्ग सीधा और सरल हो गया। सीधे, सरल मार्गको जान लिया। इसलिये उसे अनादिकालसे दुर्लभ कहा जाता है ऐसा सम्यग्दर्शन, क्योंकि एकत्वबुद्धि थी, मार्ग जाना नहीं था, इसलिये मार्गको जाने बिना इधर-ऊधर भटक रहा है। मार्ग जाना और आत्मा हाथमें आ गया, इसलिये उसे श्रद्धा-सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ तो उसे मार्ग सीधा, सरल हो गया। पूरा भव पार ऊतर गया। अनन्त भवसागरसे पार ऊतर गया, अब थोडा बाकी रहा। इसलिये सम्यग्दर्शन अनन्त कालमेंं प्राप्त करना दुर्लभ है। वह प्राप्त हुआ तो उसके साथ सब आये बिना रहता ही नहीं। ज्ञान और चारित्र आदि सब आता है। दृष्टि-एक श्रद्धाका बाल, एक श्रद्धा प्रगट हुई तो उसके साथ लीनता हुए बिना नहीं रहती। किसीको जल्दी आये और किसीको बादमें आती है, धीरे-धीरे आये। परन्तु चारित्र आये बिना नहीं रहता। चारित्र यानी लीनता। ध्रुवके आलम्बनमें श्रद्धा आयी और ध्रुवके आलम्बनमें लीनता आयी। वह लीनताका पुरुषार्थ और वह श्रद्धाका पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ एक ही है, मार्ग एक ही है।
मुमुक्षुः- प्रथम (श्रद्धा) करनी है उस अपेक्षासे दृष्टिका पुुरुषार्थ दुर्लभ है।
समाधानः- दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ तो उसने मार्ग जान लिया। उसे लीनता होगी ही।
मुमुक्षुः- उसमें ज्ञानका पुरुषार्थ आ गया?
समाधानः- जो मूल वस्तुको जानता है, उसे अमुक ज्ञान, थोडा ज्ञान हो तो वह आगे जाता है। इसलिये ज्ञानका पुरुषार्थ तो बीचमें उसे विशेष निर्मलता (होनेका कारण है), द्रव्य-गुण-पर्याय (ज्ञानमें) विशेष निर्मल हो तो उसे मार्गमें सरलता रहती है। बाकी ज्ञानका कोई अलग पुरुषार्थ नहीं करना पडता। दृष्टिके साथ अमुक ज्ञान हो तो उसे लीनता, वीतरागता बढ जाये तो केवलज्ञान हो जाता है। अधिक जाने इसलिये अधिक जाननेका पुरुषार्थ करना नहीं पडता। वह तो बीचमें आता है। सच्चे ज्ञान बिना मार्ग जाननेमें नहीं आता। इसलिये मार्ग जाननेके लिये वह जानना पडता है। बाकी मूल प्रयोजनभूत जाने (तो) मार्ग सीधा हो जाता है और सरल हो जाता है।
सम्यग्ज्ञान दुर्लभ है। लेकिन अधिक जानना, वह तो बीचमें किसीको अधिका जानना आता है और किसीको अधिक जानना नहीं आता है। अधिक शास्त्र जानने पडे ऐसा उसका अर्थ नहीं है। अन्दर ज्ञानकी निर्मलता बढती जाये, स्वरूप परिणति-ज्ञायककी
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परिणति बढती जाये, वह उसका ज्ञान है। ज्ञायककी परिणति बढती जाये, ज्ञाताकी धारा बढती जाये। दृष्टिका बल, ज्ञाताकी धारा बढती जाये, यहाँ लीनता बढती जाये, वह अन्दर है। अधिक जानना ऐसा ज्ञानका कोई अलग पुरुषार्थ नहीं है। वह तो बीचमें खडे रहनेके लिये आता है। अन्दर लीनतामें आगे नहीं बढता है इसलिये शास्त्र-श्रुतज्ञानमें- खडा रहता है। बीचमें श्रुतज्ञान आये बिना नहीं रहता।
दृष्टिका पुरुषार्थ और लीनताका पुरुषार्थ, दोनों होते हैं। दृष्टि-श्रद्धा ध्रुवके आलम्बनसे प्रगट हुई, उस ध्रुवके आलम्बनमें लीनताका पुरुषार्थ करता है। श्रद्धा ऐसे हुई कि ये सब कुछ आदरने जैसा नहीं है, एक चैतन्यको ग्रहण (किया), चैतन्य उसे हाथमें आ गया। उसे स्वानुभूति हो गयी, लेकिन उस स्वानुभूतिमें रहनेके लिये लीनताकी कमी है, इसलिये लीनताका पुरुषार्थ ध्रुवके आलम्बनमें विशेष-विशेष (होता जाता है)। श्रद्धाका बल बराबर है, लेकिन लीनताकी कमी है, लीनताका पुरुषार्थ करना बाकी रहता है, उसमें बीच-बीचमें ज्ञान आ जाता है। भेदज्ञानकी धारा, ज्ञेदज्ञानकी धाराकी उग्रता वह उसका ज्ञान है। बाकी अधिक जानना वह ज्ञान, वह तो बीचमें आता है। आगमज्ञान।
मुमुक्षुः- सच्चा पुरुषार्थ तो दृष्टिका पुरुषार्थ ही है।
समाधानः- दृष्टि प्रगट हुई, दृष्टिकी निर्मलता होती है और भेदज्ञानकी धारा बढती जाती है और लीनता बढती जाती है।
मुमुक्षुः- ज्ञानका कोई अलग पुरुषार्थ है, ऐसा कुछ नहीं है।
समाधानः- ज्ञानका कोई अलग प्रकारका पुरुषार्थ नहीं है। उसका यथार्थ भेदज्ञान हो गया, आत्माको पहचान लिया, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय पहचान लिये, वस्तुको पहचान ली, उसका स्वभाव-विभाव पहचान लिया, मूल प्रयोजनभूत उसने पहचान लिया, फिर ज्यादा दलील, ज्यादा युक्ति आये, अधिक शास्त्रज्ञान (हो), ऐसा तो उसे बीचमें खडे रहनेके लिये, अन्दरसे बाहर आये तब श्रुतज्ञानमें खडा रहता है। बाकी उसे अधिक जानना पडे ऐसा नहीं है। किसीको सम्यग्दर्शन हो और अन्दर लीनता बढती जाये, स्वानुभूति धारा और विरक्ति बढती जाये तो गुणस्थान बढता जाये, पाँचवे, छठ्ठे, सातवें गुणस्थानमें आ जाये। ऐसा बनता है।
ज्ञान यानी अंतरकी भेदज्ञानकी धारा बढती जाये, बाकी दूसरा शास्त्रज्ञान ज्यादा हो, ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। थोडा आता हो और श्रेणी लगाकर केवलज्ञान प्राप्त करे। किसीके साथ वादविवादमें खडा नहीं रह सके, युक्ति-दलीलमें खडा नहीं रह सके। ऐसा हो तो प्रगट हो ऐसा नहीं है। अंतरकी भेदज्ञानकी धारा और दृष्टिका एवं लीनताका बल बढता जाये।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन ही मुख्य वस्तु हुई, ऐसा लगता है।
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समाधानः- सम्यग्दर्शन और लीनता। सम्यग्दर्शन हो तो लीनता होती है। लीनता बिना केवलज्ञान नहीं होता। कितने सालों तक चक्रवर्तीको गृहस्थाश्रममें सम्यग्दर्शन होता है, फिर भी लीनता नहीं हो तो केवलज्ञान नहीं होता। दर्शन और चारित्र, ज्ञान बीचमें आता है। सम्यग्ज्ञान साथमें होता है। उसमें भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता होती जाती है। ... नहीं आये तबतक ज्ञान करता रहता है।
सम्यग्दर्शनके पहले भी जिज्ञासुको विचार करना रहता है और सम्यग्दर्शन होनेके बाद उसे गृहस्थाश्रम हो तो लीनतामें देर लगती है। तो शास्त्रज्ञान, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, पूजा, भक्ति, शास्त्रज्ञान करता रहे, श्रुतज्ञान करे।
मुमुक्षुः- नहीं तो प्रमादमें चला जाये।
समाधानः- हाँ, नहीं तो चला जाये। वहाँ खडा रहता है, जबतक प्रगट नहीं हो तबतक। ज्ञान, यह मैं हूँ और यह नहीं, ऐसे भिन्नता करता है। मैं यह हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे दोनों करता है। ज्ञान सब विवेक करता है। परसे भिन्न, विभावसे भिन्न और अंश जो पर्यायभेदसे भिन्न, वह दृष्टिमें रहता है। परन्तु ज्ञानके विवेकमें फर्क पडता है।
मुमुक्षुः- सब विविक्षा ज्ञान करता है।
समाधानः- वह ज्ञान करता है। विवेकके लिये बीचमें ज्ञान रहता है। ज्ञान, इसप्रकार साधकदशामें उपयोगी है।
मुमुक्षुः- दृष्टि तो यह मैं, यह मैं, उस ओर ही...
समाधानः- यह मैं, उस ओर ही रहती है। बीचमें ज्ञान विवेक करता है।
मुमुक्षुः- गहरा अभ्यास करनेके लिये क्या करना चाहिए? बाहरके काम छोड देना?
समाधानः- स्वयं अन्दरसे स्वाध्यायका समय ढूंढ लेना। काम ऐसे नहीं होने चाहिये कि स्वयंको विचार, वांचनमें अडचन करे। इतना काम होता है कि वांचनका, विचारका समय ही नहीं मिले, ऐसा हो, इतनी प्रवृत्ति हो तो कामको कम करके निवृत्ति मिले ऐसा रखना चाहिये। अपनी शक्ति अनुसार कितना छूटे, बाकी स्वयंको निवृत्ति मिले, वांचन, विचारका समय मिले इसप्रकारके मर्यादित काम होना चाहिये। गृहस्थाश्रममें अमुक प्रकारके काम तो होते हैं, परन्तु स्वयंको निवृत्ति मिले इतना (काम रखना चाहिये)। बोझा बढाकर फिर समय ही नहीं मिले ऐसा तो नहीं होना चाहिये। छोडना, नहीं छोडना वह तो स्वयंकी रुचि पर आधारित है। बाकी गृहस्थाश्रममें स्वयंको विचार, वांचनका समय मिले इतना तो होना चाहिये।
पहलेसे सब छूट नहीं जाता, लेकिन अन्दर जिज्ञासा, ज्ञायकको पहचाननेका प्रयत्न
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करे, शरीर भिन्न, मैं भिन्न आत्मा, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, उसका भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे, उसे पहचाननेके लिये प्रयत्न (करे)। स्वयंके द्रव्य-गुण-पर्याय क्या, दूसरेके क्या, इन सबका विचार करनेको, प्रयत्न करनेके लिये शास्त्र-अभ्यास, विचार, वांचनका समय मिले, उस प्रकारकी प्रवृत्ति गृहस्थाश्रममें होती है। बाकी अंतरसे सब छूटे वह तो यथार्थ सम्यग्दर्शन हो, अंतरसे पहले छूटता है, बादमें बाहरसे छूटता है। परन्तु जिज्ञासुको ऐसी प्रवृत्तिका बोझ नहीं होता कि जिससे निवृत्ति ही नहीं मिले, स्वाध्यायका समय ही नहीं मिले, ऐसा नहीं होना चाहिये। छूट जाये तो-तो अच्छा ही है, लेकिन छूटता नहीं हो तो वांचन, विचारका समय मिले उस अनुसार होना चाहिये। ऐसी मर्यादित प्रवृत्ति होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! शुरूआत शुभभावसे होती है या तत्त्वचिंतनसे शुरूआत करनी चाहिये?
समाधानः- तत्त्वचिंतवनसे शुरूआत होती है, उसमें शुभभाव साथमें होता है। तत्त्वचिंतवनको कोई पहचानता नहीं है तो पहले शुभभाव करके मानते हैं। अनादिका अभ्यास ऐसा है कि थोडे शुभभाव कर लेते हैं और मैंने बहुत किया ऐसा मान लेते हैं। परन्तु शुरूआत तो तत्त्व चिंतवनसे होती है। लेकिन तत्त्व चिंतवनके साथ शुभभाव होते हैं। शुभभाव छूट नहीं जाते। शुभभाव साथमें होते हैं और तत्त्व चिंतवन होता है। तत्त्व चिंतवनके साथ शुभभाव तो होते ही हैं।
मुमुक्षुः- मुख्य तत्त्वचिंतवन।
समाधानः- ध्येय तत्त्वचिंतवनका होना चाहिये। ध्येय वह होना चाहिये। पूरा दिन उसमें टिक नहीं पाये तो फिर.... उस तत्त्वचिंतवनके साथ शुभभाव तो होते ही हैं। उसे देव-गुरु-शास्त्रके दर्शन, भक्ति, विचार, वांचन आदि भिन्न-भिन्न प्रकारके शुभभाव होते हैं। परन्तु ध्येय चिंतवनका होना चाहिये। ध्येय, आत्माको कैसे पहचानुँ, वह होना चाहिये।
मुमुक्षुः- .. बहुत अच्छी बात की थी, दृष्टिका जोर और ज्ञान तो बीचमें खडा रहता है, आत्मार्थीतामें, जिज्ञासाकी भूमिकामें ज्ञान खडा रहता है, साधकको भी ज्ञान खडा रहता है। निश्चयमें तो दृष्टि और लीनता, दो का ही काम है।
समाधानः- मोक्षमार्गमें वह होता है, बीचमें ज्ञान होता है। ज्ञान बीचमें विवेक करता है। फिर ज्ञान अधिक या कम, उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
मुमुक्षुः- दृष्टिका जोर बढता जाये और भेदज्ञानकी धारा भी साथ-साथ बढती जाये।
समाधानः- भेदज्ञानकी धारा साथमें बढती जाये। ज्ञान उसप्रकारका बढता है कि
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भेदज्ञानकी धारा बढती जाती है। भेदज्ञानकी उग्रता और लीनता और दृष्टिका जोर। ज्ञानमें भेदज्ञानकी धारा। बाकी अधिक जानना, वह नहीं। बीचमें अधिक जाने तो ठीक है। निर्मलता हो और स्वयंकी साधकदशामें एक पुष्टि, उसे समझनेका एक ज्यादा कारण होता है। ज्ञान विवेक करने वाला है, ज्ञान सब मार्ग बताने वाला है, ज्ञान साथमें हो तो कोई नुकसान नहीं है, अधिक ज्ञान हो तो। परन्तु अधिक होना ही चाहिए, ऐसा नहीं है। प्रयोजनभूत हो तो भी जाने।
वह तो ज्ञानस्वभाव आत्माका है, ज्ञान हो, किसीको क्षयोपशम हो और अधिक जाने, शास्त्र चिंतवन करे और अधिक शास्त्रको जाने तो उसमें कोई नुकसान नहीं है। लेकिन होना ही चाहिये, ऐसा नहीं है। ?