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समाधानः- .. तब ऐसा हो कि गुरुदेवका जन्म-दिवस आये तो क्या करें? जितना करें उतना कम है। भगवानके और सबके जन्म कल्याण मनाते हैं। चैत शुक्ल- १३ आती है। वैसे गुरुदेव इस पंचमकालमें जन्मे, उनका जन्म-दिन भी ऐसा ही मंगलकारी है। सबको...
मुमुक्षुः- आता है न? द्रव्य मंगल, क्षेत्र मंगल, काल मंगल।
समाधानः- हाँ, द्रव्य मंगल, क्षेत्र मंगल, काल मंगल, भाव मंगल, सब मंगल है। इस पंचमकालमें भावि तीर्थंकरका द्रव्य माने जितना करें उतना कम है। और इस पंचमकालमें आकर वाणीकी वर्षा बरसायी है। भगवान जैसा कार्य किया है। निरंतर वाणी बरसायी है। भगवानकी जैसे नियमितरूपसे वाणी बरसा करती है, वैसे गुरुदेवकी वाणी बरसती रहती थी। ... गुरुदेवने मार्गका परिवर्तन किया। विचार करके यह सच्चा लगा, इसलिये हीराभाईके बंगलेमें (परिवर्तन किया)।
मुमुक्षुः- चार दिनके बाद चैत शुक्ल-१३ है।
समाधानः- हाँ। .. स्वीकार किया था, लेकिन बाहरसे।
समाधानः- .. उस ज्ञायक आत्मामें सब भरपूर भरा है। वही महिमावंत है। ऐसे बारंबार उसका अभ्यास, उसका विचार, चिंतवन, मनन (करते रहना)। बाहरमें तो श्रावकोंको देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है। अंतरमें चैतन्य कैसे पहचानमें आये, चैतन्यकी महिमा, आत्माकी महिमा करने जैसी है। उसका भेदज्ञान कैसे हो, उसका स्वभाव कैसे पहचानमें आये? ज्ञायकस्वरूप आत्मामें ही शान्ति भरी है, उसीमें आनन्द है। बाहरको सब विकल्प तो आकुलतारूप है।
मुमुक्षुः- शान्ति ही लगती है।
समाधानः- शान्ति लगे ऐसा है।
मुमुक्षुः- विशेष तो भेदज्ञान...
समाधानः- भेदज्ञानके बिना तो... यथार्थ शान्ति तो भेदज्ञान करके, निर्विकल्प अनुभव हो तब ही खरी शान्ति, खरा आनन्द तो तभी स्वानुभूतिमें आता है। बाकी ु पहले उसकी श्रद्धा करे, भेदज्ञान करे, प्रतीत करे। भेदज्ञानमें आंशिक शान्ति (लगती
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है)। बाकी तो स्वानुभूतिकी शान्ति अपूर्व है, वह आनन्द अपूर्व है। खरा आनन्द तो स्वानुभूतिमें है। भेदज्ञानमें ज्ञायकको भिन्न करे तो उसमें अमुक प्रकारसे शान्ति है। बाकी विकल्पकी एकत्वता वह सब तो आकुलता है।
मुमुक्षुः- दूसरा कोई विकल्प न करे और मैं चैतन्य ही हूँ, ऐसा करे तो?
समाधानः- विकल्प न करे तो (ऐसा नहीं होता), विकल्प आये बिना रहते ही नहीं। मैं चैतन्य हूँ, वह भी एक शुभभावका विकल्प है। विकल्प न करे (ऐसे नहीं होता)। पहले विकल्प नहीं छूटते, विकल्पसे मैं भिन्न हूँ, ऐसी श्रद्धा-पहले तो प्रतीत हो, पहले तो भेदज्ञान हो, बादमें विकल्प छूटते हैं। विकल्प न करें तो? विकल्प तो बीचमें आते हैं। उसकी कर्ताबुद्धि तोडनी है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं कोई विभावका कर्ता नहीं हूँ। मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ। परन्तु विभाव परिणति तो बीचमें आती है। मैं चैतन्य हूँ, ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ सब विकल्प है।
मुमुक्षुः- तो फिर अन्दरकी शान्ति नहीं कहलाती?
समाधानः- अन्दरकी शान्ति कहलाती। ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, ऐसे शुभभावके कारण मन्दता हो, आकुलता कम हो, इसलिये उसकी शान्ति लगे। परन्तु वह कोई अंतर स्वभावकी शान्ति नहीं है। विकल्प मन्द हुए, शुभभाव कषाय मन्द हुआ, शुभभावका आश्रय लिया इसलिये शान्ति लगे। अप्रशस्तमें-से प्रशस्तमें आया-देव-गुरु-शास्त्रमें उसे शान्ति लगे और अंतरमें जाय, श्रुतका चिंतवन करे कि मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ऐसे विचार करे तो भी उसे शान्ति लगे। लेकिन वह शान्ति स्वभावकी शान्ति नहीं है।
स्वभावकी शान्ति तो भेदज्ञान करे, यथार्थ भेदज्ञान करे, अभी तो पहले श्रद्धा होती है, भेदज्ञानकी परिणति यथार्थ हो तो उसमें शान्ति हो। आनन्द तो विकल्प छूटकर निर्विकल्प हो, तब वह आनन्द आता है। अभी तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र (आदि विकल्प) मिश्रित है, वह कोई निर्विकल्प (दशा) नहीं है।
मुमुक्षुः- इसमें आनन्द तो आता है, बहुत शान्ति लगती है।
समाधानः- विकल्प मिश्रित है, शुभभावका आनन्द है। प्रशस्त भावका आनन्द है। वह तो बीचमें आये बिना नहीं रहता। जबतक आत्माकी निर्विकल्प शान्ति, आनन्द नहीं आता तबतक मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ऐसे विकल्प आये बिना नहीं रहते। आचार्यदेव कहते हैं कि मैं आगे जानेका कहता हूँ, वहाँ अटकनेको नहीं कहते हैं, उसे छोडनेका नहीं कहते हैं, परन्तु तू आगे बढ। तेरा स्वभाव तो विकल्प रहित निर्विकल्प आनन्दस्वरूप है, ऐसा कहते हैं।
मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, वह बीचमें आता है। लेकिन वह कोई मूल
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स्वभाव नहीं है। भिन्न चैतन्य हूँ। अखण्ड चैतन्य पर दृष्टिको स्थापित करनी, भेदज्ञानका प्रयत्न करना, वह शान्ति-स्वभावमें-से शान्ति (आनेका उपाय है)। अभी शान्ति उसमें प्रगट नहीं हुयी है, परन्तु उसका भेदज्ञान करना वह उसका उपाय है। ये सब विचार तो बीचमें आते हैं-ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ। लेकिन उसमें शान्ति नहीं मान लेना। वह कोई स्वभावकी शान्ति नहीं है। वह तो स्वभाव पहचाननेके लिये बीचमें आता है। लेकिन मैं चैतन्य हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी दृष्टि करके यथार्थ ज्ञायकको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे। ज्ञायक यथार्थपने ग्रहण तो भेदज्ञान हो। ज्ञायकको ग्रहण करे, भेदज्ञानका प्रयत्न करना, यथार्थ शान्ति प्रगट करनेके लिये। अंतरमेंसे सूक्ष्म ग्रहण करे, आत्माका स्वभाव पहचाने तो यथार्थ शान्ति हो। वह शान्ति तो विकल्प मिश्रित है, वह विकल्प रहित शान्ति नहीं है। प्रशस्त भाव है।
मुमुक्षुः- इतना कहाँ मालूम पडता है, आत्माकी शान्ति तो...?
समाधानः- क्या?
मुमुक्षुः- चिडीयाको, मेंढकको।
समाधानः- उसे मालूम पड जाता है। उसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रके नाम भी नहीं आते, नौ तत्त्वके नाम नहीं आते। लेकिन यह ज्ञानस्वभाव मैं, यह हूँ, ऐसे उसे विचार आते हैं। लेकिन वह समझता है कि यह सब आकुलता है, मैं उससे भिन्न चैतन्य हूँ। ऐसे अस्तित्वको ग्रहण कर लेता है। उसे नामकी जरूरत नहीं पडती, भाव ग्रहण कर लेता है।
उसे कहीं सुख नहीं है, ऐसे कोई भाव उसे प्रगट होते हैं। ये सब आकुलता है। विभावोंकी आकुलता भास्यमान होकर, अन्दरमें-से ऐसा भावभासन हो जाता है कि मैं कौन हूँ? और यह सब क्या है? मेरा स्वभाव क्या? और यह सब क्या है? उसमें-से उसे स्वभाव ग्रहण हो जाता है कि यह चैतन्य मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। ऐसा भावभासन हो जाता है। उसमें स्वयंको ग्रहण कर लेता है। सूक्ष्म-सूक्ष्म भाव भी आकुलतारूप है और विकल्प रहित मेरा आत्मा वही शान्ति और आनन्द है, ऐसी प्रतीति और ऐसा भावभासन हो जाता है।
मुमुक्षुः- मनुष्यसे उसकी शक्ति ज्यादा है?
समाधानः- शक्ति ज्यादा नहीं है। उसे ऐसे कोई संस्कार (होते हैं), पूर्व भवमें सुना होता है, उसमें-से आत्मा जाग उठता है। मनुष्योंकी शक्ति ज्यादा है, लेकिन जो पुरुषार्थ करे उसे हो।
मुमुक्षुः- भावभासन।
समाधानः- भावभासन होता है। उसे पूर्वके संस्कार (होते हैं), सुना होता है,
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कोई गुरुके पास, कोई देवके पास सुना होता है, उसमें-से उसे संस्कार जाग उठते हैं।
मुमुक्षुः- पहले सुना होता है?
समाधानः- पहले सुना होता है।
मुमुक्षुः- फिर आयुष्यका बन्ध पड गया हो, इसलिये..
समाधानः- इसलिये तिर्यंच हो जाता है।
मुमुक्षुः- वहाँ फिर ऐसा भाव प्रगट करता है।
समाधानः- ऐसा भाव प्रगट कर लेता है।
मुमुक्षुः- किसीको अभ्यास करनेकी शक्ति हो, और किसीको कम हो, उसे रुचिका भाव हो, तो उसे पकड सकता है न?
समाधानः- अभ्यास करनेकी अर्थात श्रुतज्ञान कम हो, ऐसे। किसीको शास्त्रका कम हो लेकिन भावभासन हो जाय कि मैं यह चैतन्य हूँ। लंबे समय अभ्यास करना पडे ऐसा नहीं होता, अभ्यास करनेकी शक्ति ऐसे नहीं, किसीको लंबा समय अभ्यास करना न पडे, एकदम पुरुषार्थ उत्पन्न हो जाय। किसीको लंबे समय तक अभ्यास करे तो होता है। किसीको एकदम पुरुषार्थ (उत्पन्न हो जाता है)। मन्द-मन्द पुरुषार्थ करे तो लंबे समय अभ्यास करे। एकदम पुरुषार्थ उत्पन्न हो तो अल्प समयमें हो जाता है।
मुमुक्षुः- एकदम उत्पन्न हो, उसका कारण क्या?
समाधानः- उसका कारण स्वयंकी योग्यता। अकारण पारिणामिक द्रव्य है। चैतन्यद्रव्यकी ऐसी कोई योग्यता उसे होती है कि उसे प्रगट हो जाता है। किसीको अन्दर..
समाधानः- अपना पुरुषार्थ कारण है। ऐसी स्वयंकी योग्यता, तैयारी अपने कारणसे है।
मुमुक्षुः- आत्मधर्ममें आया कि कारणमें, पुरुषार्थमें.. तीन-चार कारण हैं न? तो वहाँ क्या कारण लेना? कारणमें कुछ कचास हो? पुरुषार्थमें कचास है? रुचिमें कचास है?
समाधानः- उसे सबकी कचास है। आत्मधर्ममें...
मुमुक्षुः- अन्दरमें कारण तो त्रिकाली है न?
समाधानः- हाँ, स्वयं स्वयंका कारण है। उसे बाहरके कारण-काल, स्वभाव, स्वभाव तो अपना है, काललब्धि है उसमें पुरुषार्थ साथमें होता ही है। सबमें पुरुषार्थ तो साथमें होता ही है। अपना पुरुषार्थ कारण बने। क्षयोपशम-वैसा उघाड हो, वैसा काल पक गया हो, और निज पुरुषार्थका कारण बनता है। पुरुषार्थ तो सबमें होता
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ही है। पुरुषार्थकी कचाससे सबमें कचास है। तू तैयार हो और तेरा पुरुषार्थ तैयार हो तो सब कारण प्राप्त हो जाते हैं। कोई कारण बाकी नहीं रहते। तेरे पुरुषार्थकी कचाससे कचास है।
मैं पुरुषार्थ करुँ और काल पका नहीं है, और मेरा स्वभाव नहीं है या मुझे कुछ सुनने नहीं मिला है, देशनालब्ध नहीं हुयी है, कोई कारण तुझे बाकी नहीं रहेंगे। तेरा पुरुषार्थ यदि जागृत हुआ होगा तो उसमें सब कारण तुझे प्राप्त हो जायेंगे। और यदि तेरे पुरुषार्थकी कचास है तो दूसरे कारण होंगे तो भी पुरुषार्थकी कचास होगी तो तुझे (प्राप्त) नहीं होगा। पुरुषार्थकी कचाससे सब कचास है।
तुझे यदि अंतरमें-से करना हो तो तुझे देशना नहीं मिली है और.. लेकिन मैं किये बिना रहूँगा ही नहीं। (ऐसेमें) देशना प्राप्त हुयी ही होती है। जिसके पुरुषार्थका उत्थान हुआ हो उसे देशना, काल सब होता ही है। ऐसा पुरुषार्थके साथ प्रत्येक कारणोंका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- हमें ऐसा होता है कि अपने यह सब योग मिला है तो आत्माका तो शीघ्रतासे कर लेना है। और उतना पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं होता है।
समाधानः- पुरुषार्थकी कचास उतनी कचास है।
मुमुक्षुः- रुचिमें भी कचास है न?
समाधानः- हाँ, पुरुषार्थकी कचास तो रुचिमें भी कचास है। दोनों कचास है।
मुमुक्षुः- अन्दरमें ऐसा है कि चाहे जैसे भी, मरकर भी यही करना है, दूसरा तो कुछ नहीं करना है।
समाधानः- भावना होती है, लेकिन वह कार्यान्वित नहीं होती तबतक नहीं होता है। चाहे जैसे भी करना है, लेकिन कार्यान्वित नहीं होता है।
मुमुक्षुः- कार्यान्वित नहीं होता है, तो फिर भावनाका फल क्या है?
समाधानः- भावनामें कचास है। भावनाका फल नहीं आता है, ऐसा नहीं है। चाहे जैसे भी करना है और करता नहीं है, अपनी कचास है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- अपनी ही कचास है।
मुमुक्षुः- तो भावनाका क्या हुआ?
समाधानः- भावनाका क्या हुआ? भावना कचासवाली है। भावना कचासवाली है। भावना उग्र हो तो कार्य हुए बिना रहे नहीं।
मुमुक्षुः- ऐसा है ही।
समाधानः- स्वयं ऐसा करता रहा कि चाहे जैसे भी करना है, फिर छोड दिया।
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मुमुक्षुः- छोडतो तो नहीं है।
समाधानः- नहीं, अन्दर निरंतर पुरुषार्थ चालू नहीं रखता है। थोडी देरके छोड दिया। फिर थोडी देरके बाद उग्र हो, पुनः छोड दिया, मन्द हो जाय, तीव्र हो जाय, मन्द हो जाय, तीव्र हो जाय, एकसरीखा पुरुषार्थ तो करता नहीं है। अतः स्वयंकी भावनामें कचास है।
मुमुक्षुः- एकसरीखा कैसे हो? ज्ञायककी धून लगे?
समाधानः- ज्ञायकमें करने जाय कि ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, भावसे करे फिर पुनः रूखा हो जाय तो भी नहीं होता। ऐसे विकल्पसे धोखता रहे तो भी नहीं होता।
मुमुक्षुः- ऐसा..
समाधानः- अंतरमें-से होना चाहिये तो हो।
मुमुक्षुः- अंतरमें-से कैसे हो? बात तो बहुत बार होती है।
समाधानः- एक बार भावनासे करे कि बस, यह करना ही है। फिर मन्द हो जाय और फिर धोखनेरूप हो जाय कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। तो ऐसे नहीं होता।
मुमुक्षुः- परन्तु माताजी! आपके चरणमें, गुरुदेवके चरणमें बरसोंसे रहनेकीी भावना तो यही है कि चाहे जितनी प्रतिकूलता पडे यह करनेसे ही लाभ है, दूसरा कोई लाभ नहीं है।
समाधानः- भावना ऐसी हो, वह बात सच्ची है। परन्तु अन्दरसे उतना स्वयंको करना चाहिये। तो हो। भावना हो, परन्तु वह करता नहीं है।
मुमुक्षुः- ऐसा भी लगता है कि करना चाहिये और करनेपर ही छूटकारा है।
समाधानः- हाँ, करने चाहिये, ऐसा भाव आये। कोई-कोई बार आये कि करना चाहिये, होता नहीं, ऐसा भाव आये, और करता नहीं है वह बात भी उतनी ही सत्य है। जितनी अपनी कचास है, उतना ही लंबा होता है। अपनी मन्दतासे ही लंबा होता है। कोई कारण उसे रोकते नहीं।
मुमुक्षुः- फिर ऐसा होता है कि..
समाधानः- देशना तो इतनी प्राप्त हुयी और स्वभाव अपना ही है, पुरुषार्थ करे और काललब्धि परिपक्व न हो ऐसा बनता ही नहीं। पुरुषार्थकी कचासको और काललब्धि, दोनोंको सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- ऐसा होता हि इतना सुनते हैं, और फिर बार-बार माताजीके पूछे उसमें शर्म आती है। माताजीने हमें सब कह दिया है, गुरुदेवने बहुत कहा है। फिर हम पूछते रहें, उसमें शर्म आती है। तो भी पूछनेका मन हो जाता है।
समाधानः- होता नहीं, इसलिये कैसे करना? कैसे करना? ऐसा हो। मार्ग तो
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एक ही है।
मुमुक्षुः- माँके पास आये, भूख लगी हो तो माँ भोजन देती ही है। वैसे आप हमें इतना देते हों तो ऐसा हो जाता है कि माताजीके पास कुछ सुन ले।
समाधानः- भावना हो, लेकिन करना स्वयंको है।
मुमुक्षुः- ऐसा योग मिल?
समाधानः- ऐसा योग इस पंचमकालमें मिलना मुश्किल है। गुरुदेवने इतना धोध बरसाया। दृष्टि कहाँ बाहर थी, उसमेंसे अंतर दृष्टि करवायी। अंतरमें सब है।
मुमुक्षुः- चार गतिमें, भवभ्रमणमें... मुमुक्षुः- इतनेमें शान्ति संतोष मान ले तो भी कार्य रह जाता है। इसलिये वास्तवमें अन्दरसे ही वीर्य उछले और काम हो, तो ही शान्ति हो।
समाधानः- कारण स्वयंका ही है। भावना ऐसी हो कि करना है, करना है। जो चाहिये वह मिलता नहीं, इसलिये शान्ति तो लगे नहीं। जो विभाव है वह कोई शान्ति है। और शान्तिकी इच्छा है, शान्ति मिलती नहीं। इसलिये उसकी भावना ऐसी रहा करे, इसलिये शान्ति तो.. जब अंतरमें-से प्रगट हो तब शान्ति हो।
लेकिन जिसने ऐसा नक्की किया है कि यह प्रगट करना ही है, उसका पुरुषार्थ उसे पहुँचे बिना रहेगा नहीं। उसे समय लगे, परन्तु उसे ग्रहण किये बिना नहीं रहेगा। जिसे अंतरमें-से लगी है कि यह ग्रहण करना ही है और इसे प्रगट करना ही है। तो वह धीरे-धीरे भी पुरुषार्थ उठता है, लेकिन उसे यदि लगी ही है अंतरमें-से कि दूसरा कुछ नहीं चाहिये और यही चाहिये तो काल लगे, लेकिन वह प्रगट किये बिना नहीं रहेगा। स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं है। इसलिये स्वयंको जो लगी है, वह तो पहुँचेगा ही, समय लगे तो भी। अंतरकी रुचि प्रगट हो वह पहुँचे बिना रहता ही नहीं। भले समय लगे। लेकिन अंतरमें जिसे लगन लगी वह पहुँचे बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- जो समय लगता है वह रुचता नहीं।
समाधानः- रुचे ही नहीं।
मुमुक्षुः- इतने सालसे यहाँ रहते हैं और इतने सालके बाद काम हो जाना चाहिये। किसीको श्रवण होते ही प्राप्त हो जाय, शास्त्रोंमें कितने दृष्टान्त आते हैं। और बहुत जीव, आप जैसे, गुरुदेवके थोडे प्रवचन सुननेमें हो गया तो हमने तो कितने प्रवचन सुने। इतने साल हो गये, फिर समय लगे उसका दुःख लगे, शर्म लगे। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि माताजीके पास मैं जाऊँ कैसे? माताजीको पूछुँ कैसे? शर्म लगती है। माताजीने तो मुझे सब कह दिया है। सर्व प्रकारसे, कितने प्रकारसे गुरुदेवने सब कहा है, आपने बहुत कहा है।
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समाधानः- भावना है न इसलिये पूछना हो जाता है। गुरुदेवने तो मार्ग बताया है। करनेका स्वयंको है। गुरुदेवने सब तैयार करके दिया है, स्वयंको एक पुरुषार्थ करनाही बाकी रहता है, कुछ खोजनेका बाकी नहीं रहता कि कहाँ खोजना? कहाँ प्राप्त करना? जगतके जीवोंको सत खोजनेमें दिक्कत होती है कि क्या सत है? क्या आत्मा? सुख कहाँ है? आत्मा क्या है? सत खोजना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तो खोजनेकी कोई दिक्कत नहीं है।
गुरुदेवने खोजकर, तैयार करके, स्पष्ट कर-करके दिया है। एक पुरुषार्थ करना वही स्वयंको बाकी रहता है। खोजकर दिया है। बाहर दृष्टि थी, बाह्य क्रियामें उसमें-से छुडाकर, अंतर विभाव परिणाम होते हैं वह तेरा स्वभाव नहीं है। शुभभाव सूक्ष्मसे सूक्ष्म, ऊँचेसे ऊँचा हो, वह भी तेरा स्वभाव नहीं है। तू अन्दर शुभभावमें भेदमें रुके वह भी तेरा मूल शाश्वत स्वरूप नहीं है। तुझे अंतरमें एकदम दृष्टि गहराईमें चली जाय, उतना स्पष्ट करके (दिया है)। कहीं खोजना न पडे, ऐसा बताया है।
जबकि जगतको जीवोंको सत खोजना (पडता है), सत प्राप्त नहीं होता, सत कहाँ खोजना? कोई कहाँ फँस जाता है और कोई कहाँ फँस जाता है। कहीं खोजना नहीं है। एक पुरुषार्थ करना (बाकी है)। तैयार करके दिया है। स्वयंको एक पुरुषार्थ करना ही बाकी रहता है।