Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 204.

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ट्रेक-२०४ (audio) (View topics)

समाधानः- ... जाननेवाला है, ज्ञायक है। लेकिन विकल्प ही नहीं है, विकल्प रहित आत्मा है। वह तो आनन्दसे भरा, आनन्दसे भरा है। उसमें उलझनमें नहीं आ जाना। मैं तो जाननेवाला ज्ञायक आत्मा आनन्दस्वरूप हूँ। कोई विकल्प मेरे स्वरूपमें नहीं है। मैं तो सिद्ध भगवान जैसा आत्मा हूँ। सिद्ध भगवान जैसे आत्माके आनन्दमें विराजते हैं, वैसा मैं शक्तिरूप चैतन्य परमात्मा हूँ। कोई विकल्प मेरेमें नहीं है, विकल्प रहित आत्मा हूँ। जाननेवाला हूँ और मैं सुखसे भरा (हूँ)। बाहर कहीं सुख नहीं है।

अनन्त कालमें जन्म-मरण करते-करते मुश्किलसे मनुष्यभव मिलता है। और उस मनुष्यभवमें जीव जो करना चाहे वह कर सकता है। पुरुषार्थसे भरा है। उसे कोई नहीं रोकता है। उसे कर्म नहीं रोकते, कोई नहीं रोकता है। आत्मा आनन्दसागरसे भरा जाननेवाला है। उसमें कोई विकल्प ही नहीं है। मैं विकल्प रहित जाननेवाला आत्मा हूँ। मैं जाननेवाला हूँ।

गुरुदेवने कहा कि तू चैतन्य (है)। भगवान जैसा तेरा स्वरूप शक्तिसे है। अतः उलझनमें नहीं आ जाना। शान्ति रखकर परिणाम बदलते रहना कि मैं जाननेवाला हूँ। कोई विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। सुख और महिमा मेरेमें है। बाहर कहीं सुख और महिमा नहीं है। दुःखस्वरूप है।

अनन्त कालसे जीवने जन्म-मरण किये हैं। उसमें-से अनेक जातके नर्कके, निगोदके, देवलोकके अनन्त (भव) किये, सब किये। उसमें कभी ऐसे गुरु नहीं मिले हैं। इस पंचम कालमें ऐसे गुरु मिले। ऐसा मनुष्यभव मिला। गुरुदेवने कहा, तू शक्तिसे भगवान जैसा आत्मा है। मैं तो भगवान जैसा हूँ। कोई विकल्प मेरेमें नहीं है। मैं तो ज्ञायक हूँ। ऐसे आत्मामें शान्ति रखनी। उलझनमें नहीं आना। शान्ति रखनी। मैं जाननेवाला हूँ। अच्छा-अच्छा वांचन करना, भगवानके मन्दिरमें जाना। भगवान जैसा चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ, कोई विकल्प मेरेमें नहीं है। शान्ति रखनी।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- उसे अन्दर आत्मा-आत्माकी लगन लगे, कहीं चैन पडे नहीं। अन्दरसे आत्माकी, अंतरमें-से शान्ति न आवे, अंतरमें-से सुख प्रगट न हो, तबतक उसे कहीं


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चैन न पडे। आत्मा कैसे समझमें आये? आत्मा कैसे पहचानमें आये? उसीकी धून, उसकी बार-बार लगन लगनी चाहिये। वस्तु क्या है? तत्त्व क्या है? आत्माका स्वभाव क्या है? उसका बारंबार चिंतवन, मनन उसे अंतरमें चलता रहे। अंतरमें खोजना, ग्रहण करना स्वयंको है। गुरुदेवने मार्ग तो बता दिया है। ग्रहण, स्वभावको कैसे ग्रहण करना? जो विभाव हो रहा है, उसमेंसे सूक्ष्म उपयोग करके अंतर आत्माको ग्रहण करना, वह पुरुषार्थ स्वयंको करना है।

मुमुक्षुः- .. उसका एकत्व मिथ्या है और ज्ञानस्वभाव अपना है, वही एकत्व यथार्थ है, इसप्रकार उसे बारंबार अपने संवेदनमें प्रयत्न करना पडता होगा? कैसे है?

समाधानः- बारंबार उसका प्रयत्न करे कि ये जो है वह यथार्थ नहीं है। यह एकत्वबुद्धि है विभावकी, वह यथार्थता नहीं है। वह तो मिथ्या है। क्योंकि वह पर विभाव अपना स्वभाव नहीं है, आकुलतारूप है। उसकी एकत्वबुद्धि टूटे कैसे? और स्वभावमें कैसे एकत्वता हो? स्वभावको ग्रहण करे तो स्वयंका एकत्व प्रगट हो। स्वरूपका एकत्व और परसे विभक्त कैसे हो, उसका बारंबार अभ्यास करे तो प्रगट हो।

(स्वभावसे) एकत्व और विभावसे विभक्तकी वार्ता जीवने सुनी नहीं है। गुरुदेवने वह सब स्वरूप बताया है। अंतरका स्वरूप भी गुरुदेवने प्रगट करके सबको बताया। (बाकी सब) श्रुत-सुननेमें आयी, अनुभवमें सब आया। यह वार्ता जीवने सुनी नहीं, उसका परिचय नहीं किया है, शास्त्रमें आता है। तो सुननेेमें तो गुरुदेवके प्रतापसे आ गयी। अन्दर विचारमें, अंतरमें ऊतारनी स्वयंको बाकी रहता है।

मुमुक्षुः- .. ज्ञानमें जिसे कीमत देनी चाहिये उसकी कीमत आती नहीं और जिसकी कीमत देने जैसी नहीं है, उसकी कीमत आती है, ऐसे कैसे गहरे विपरीत संस्कार डाले होंगे कि बारंबार ऐसा ख्याल आता है कि वासत्वमें तो कीमती चीज तो शुद्धात्मा है कि जिसमें ऐसे अनन्त गुण ऐसे अनन्त सामर्थ्यसे भरे हैं। क्षयोपशमज्ञानमें सब ख्यालमें आता है। फिर भी कीमत पैसा हो तो पैसेकी, दूसरी कोई चीज हो तो वहाँ कीमत दी जाती है और उसकी अधिकता हो जाती है। ऐसे कैसे गहरे संस्कार डाले हैं कि जिससे वह साफ नहीं हो रहे हैं?

समाधानः- अनादि कालके वह संस्कार विपरीत पडे हैं, इसलिये बारंबार उसकी स्फूरणा होती रहती है। और अन्दर विचारमें निर्णयमें ऐसा आये कि ये सब तो जूठा है, तुच्छ है, महिमावंत तो आत्मा है कि जो अनन्त गुणसे भरा अनुपम है, वह है। फिर भी अनादिसे जो परिणति है उसमें परिणति दौडती रहती है। उसमें उसकी एकत्वबुद्धि है। उसमें चला जाता है। परन्तु प्रयत्न करके, क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ करके उससे स्वयं भिन्न हो, तो वह टूट जाय।


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मुमुक्षुः- पर्याय एक समयकी, मताजी! दूसरे समय तो उस पर्यायका व्यय हो जाता है। और वह गहरे संस्कार ऐसे कैसे डल जाते हैं कि इतना लंबा अभ्यास, विचार करते हैं, फिर भी कीमत वहाँ दे देते हैं और इसकी कीमत अभी भी नहीं आ रही है?

समाधानः- पर्याय पलट जाती है, परन्तु आत्मा तो नित्य है। आत्मा नित्य है तो वही संस्कार ऐसे ही स्फूरित होते रहते हैं। पर्याय तो क्षण-क्षणमें पलटती है। पर्याय अनित्य है, आत्मा नित्य है। उसमें जो विभावके संस्कार हैं, वह स्फूरित होते रहते हैं।

परन्तु ज्ञानस्वभाव ऐसा है कि वह ज्ञानस्वभाव तो स्वयंका ही है। वह कोई पराया नहीं है। यदि स्वयं प्रगट करे तो वह सहज है। पराया नहीं है कि बाहर लेने जाना पडे। क्षणमें प्रगट हो ऐसा है और स्वयंका है और सहज है, परन्तु उसमें वह दृष्टि नहीं रखता है। इसलिये अनादिका जो वह ऐसे ही स्फूरता रहता है।

मुमुक्षुः- एक बात कही न, निराश होने जैसा तो कुछ है नहीं। वह बात बहुत अच्छी लगती है।

समाधानः- निराश होने जैसा है ही नहीं। स्वयंका ही है, अपना स्वभाव है। अंतरमें-से ही प्रगट हो ऐसा है। स्वयं अंतरमें दृष्टि रखे तो जो उसमें-से ही, जो स्वभाव है उसमें-से ही स्वभाव प्रगट होता है।

गुरुदेव कहते थे, छोटीपीपर घिसते-घिसते उसमें-से प्रगट होता है। ऐसे स्वयंके स्वभावका अभ्यास करने-से उसमें-से ही स्वयं प्रगट होता है। उसीमें सब भरा है, उसीमें-से प्रगट होता है। ये संस्कार तो विभावके हैं। वह तो जब टूट जाते हैं, तब ऐसे टूट जाते हैं कि फिरसे उत्पन्न नहीं होते। जो अपना स्वभाव तो शाश्वत है, (इसलिये) जो प्रगट हुआ सो प्रगट हुआ, सादि अनन्त-अनन्त समाधि सुखमें (रहता है)। प्रगट हुआ सो प्रगट हुआ, फिर बदलता नहीं। और वह स्वभाव तो अनन्त काल पर्यंत परिणमता ही रहता है। वह संस्कार, वह स्वभाव तो ऐसा है। और ये संस्कार टूट जाय, नाश हो जाय तो फिर उसका उदभव नहीं होता। क्योंकि वह तो विभाव है। परन्तु वह तोडता नहीं है तबतक उत्पन्न होते रहते हैं। टूट जाय तो फिर उत्पन्न ही नहीं होते।

मुमुक्षुः- शुरूआतमें विश्वास नहीं आता है।

समाधानः- विश्वास नहीं आता है। अपनी ओर दृष्टि गयी तो सम्यग्दर्शन होता है। और उसे यदि मूलमें-से नाश हो तो फिरसे एकत्वबुद्धिके संस्कार पुनः उत्पन्न नहीं होते। भिन्न हुआ सो हुआ, फिर भिन्नकी ओर ही उसकी परिणति चली। फिर टूट


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गया सो टूट गया, नाश हो गया। फिरसे वह एकत्वबुद्धिके संस्कार उसे उत्पन्न ही नहीं होते। स्वभावकी एकत्वता प्रगट हुयी सो प्रगट हुयी, सादिअनन्त (रहती है)।

उसके बाद स्वरूपकी रमणता-वीतराग दशा अधूरी है, वह वीतराग दशा प्रगट हुयी तो रागका अंकुर उत्पन्न ही नहीं होता है। इस तरह वह संस्कार नाश हो जाते हैं। फिर अपने स्वभावमें-से स्वभाव ही प्रगट होता रहता है। क्योंकि स्वभाव है उसका नाश तो कभी होता नहीं।

अनन्त काल गया, इतने विभाव हुए, अनन्त काल पर्यंत विभाव ऐसे ही करता आया तो भी जो स्वभाव है उसका नाश नहीं हुआ है। और फिर वह जब प्रगट होता है, फिर अनन्त काल पर्यंत प्रगट होता ही रहता है। विभावका नाश हो, फिर उसका अंकुर उत्पन्न ही नहीं होता।

परन्तु वह स्वयं पुरुषार्थ करके उसे तोडता नहीं है, इसलिये वह संस्कार अनन्त कालके हैं, वह बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। यदि उसका नाश हो जाय तो फिर उत्पन्न ही नहीं होते। क्योंकि वह विभाव है। अपना नहीं है, निकल जाता है।

स्फटिक मणि स्वभावसे शुद्ध है, उसमें निर्मल पर्याय ही प्रगट होती है। जो लाल, पीले फूल हैं, वह तो अन्य निमित्तसे (प्रतिबिंब उठा है), भले परिणमन अपना है, परन्तु वह तो निकल जानेके बाद होते ही नहीं।

ऐसे चैतन्यमें मलिनता टूट जाय, फिर आती ही नहीं। लेकिन वह संस्कार स्वयं तोडता नहीं है, इसलिये उत्पन्न होते रहते हैं। स्वयं अनादि कालसे भिन्न ही है, तीनों काल। परन्तु उस भिन्नकी परिणति प्रगट हुयी और स्वानुभूतिकी दशाकी ओर मुडा, भेदज्ञानकी दशा प्रगट हुयी, और यदि उसे दृढ हो गयी एवं एकत्वबुद्धिके संस्कार नाश हुए, तो पुनः उत्पन्न ही नहीं होते। ऐसा वस्तुका (स्वरूप है)।

जो स्वभाव है वह तो सहज है। अंतरमें-से फिर स्वभाव स्वभावकी गतिमें ऐसे ही सहजरूप परिणमता है। और वह सहज है। (विभाव) दुष्कर है। लेकिन विभाव है वह सहज हो गया है और स्वभाव मानों दुष्कर हो, ऐसा उसे हो गया है। परन्तु स्वभाव तो सहज है, स्वयंका है। प्रगट होनेके बाद फिर उसमें-से सहज प्रगट होता ही रहता है। वह तो नाश हो जाता है।

मुमुक्षुः- एक बार प्रगट हुआ सो हुआ, फिर नाश नहीं होता।

समाधानः- हाँ, प्रगट हुआ सो हुआ, फिर नाश नहीं होता। उस ओर उसकी गति चली सो चली। विभाव नाश हो जाता है।

मुमुक्षुः- अर्थात विभावके संस्कारमें जोर है ही नहीं, स्वभावमें ही जोर है।

समाधानः- उसमें जोर ही नहीं है, स्वभावमें जोर है। अनन्त काल गया तो


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भी स्वभाव ज्योंका त्यों है। स्वभावके संस्कार तो गये ही नहीं, स्वभाव तो स्वभावरूप ही है। परन्तु विभावमें स्वयं जुडा है, इसलिये उसके संस्कार उत्पन्न होते रहते हैं। यदि उसे तोड दे तो फिर-से आते ही नहीं। तोड दे तो स्वभाव स्वभावरूप परिणमता है।

मुमुक्षुः- क्षयोपशमका अभाव हुआ तो क्षायिक ही होता है।

समाधानः- क्षायिक ही होता है। अपना है, कहीं लेने नहीं जाना है, इसलिये सुलभ है।

मुमुक्षुः- शास्त्रमें एक ओर ऐसी बात आये कि जिस प्रकारसे पुरुषार्थ कर अथवा तेरी पर्याय करनेमें तू स्वतंत्र है। और दूसरी ओर ऐसा आये कि प्रत्येक पर्याय उसके स्वकालमें होती है, दोनोंका मेल कैसे है? शास्त्रमें ऐसा आता है कि प्रत्येक पर्याय उसके स्वकालमें होती है।

समाधानः- उसके स्वकालमें होती है?

मुमुक्षुः- जी हाँ। और दूसरी ओर ऐसा आये कि तू स्वतंत्र है। किसी भी प्रकारकी पर्याय प्रगट करनी वह तेरे अधीन है यानी तू स्वतंत्र है। जैसा पुरुषार्थ तू कर, वैसा तू कर सकता है।

समाधानः- तेरी परिणति तेरे हाथकी बात है। जिस ओर तेरे पुरुषार्थकी गति है, उस ओर तेरी पर्याय परिणमेगी, और उस ओरका काल है, ऐसा समझ लेना। जैसी तेरे पुरुषार्थकी गति है, उस ओरका स्वकाल समझ लेना। स्वकालमें हो अर्थात स्वकालमें पुरुषार्थकी डोर साथमें होती है। जिस ओर तेरे वीर्यकी गति-पुरुषार्थकी गति, उस ओरका तेरा काल है। विभावकी ओर तेरी डोर है तो उस ओरका काल है। यदि तेरा पुरुषार्थ स्वभावकी ओर गया तो उस ओरका काल है।

मुमुक्षुः- स्वभावकी दृष्टि हो तो उस ओरका काल है। निर्मल पर्याय प्रगट होनेका काल है।

समाधानः- हाँ, वह काल है।

मुमुक्षुः- और पर्यायदृष्टि हो तो विभावपर्याय प्रगट होनेका काल है।

समाधानः- हाँ, विभावपर्याय प्रगट होनेका काल है।

मुमुक्षुः- उसे और जो पुरुषार्थ तू करना चाहे वह कर सकता है। उसमें इस तरह लेना?

समाधानः- हाँ, इस प्रकार लेना। उसमें पुरुषार्थका सम्बन्ध सबके साथ लेना है। पर्यायके साथ। उसकी पुरुषार्थकी दिशा किस ओर है (उस पर निर्भर करता है)। तू ज्ञायक-ओर गया तो ज्ञायक-ओरकी ही सब पर्याय प्रगट होगी। और तेरी दृष्टि पर्याय- ओर है तो उस-ओरकी सब पर्यायें प्रगट होगी।


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मुमुक्षुः- स्वतंत्ररूपसे तू कर्ता है, अर्थात कोई परद्रव्य करवाता नहीं है, ऐसे लेना?

समाधानः- परद्रव्य तुझे करवाता नहीं, तू स्वयं स्वतंत्र पर्याय कर रहा है। स्वतंत्रता (है)। स्वतंत्रता अर्थात कोई दूसरा द्रव्य तुझे नहीं करवाता है। क्योंकि तू अन्यका नहीं करता और तुजे कोई अन्य नहीं करता है। इस तरह तेरी स्वतंत्रता है। परन्तु पर्याय ऐसी स्वतंत्र नहीं है कि पर्याय ऐसी स्वतंत्र हो कि द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय परिणमे, ऐसी पर्याय होती नहीं। द्रव्यके आश्रयसे पर्याय परिणमती है। द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय स्वतंत्र परिणमे तो-तो वह स्वयं एक द्रव्य हो जाती है। इसलिये उसकी स्वतंत्रता उसके परिणमन तक सिमीत है कि वह पर्याय कैसे परिणमे। ऐसे स्वतंत्र है। लेकिन उसे द्रव्यका आश्रय तो होता है।

मुमुक्षुः- इस बातकी ही अभी तकरार चलती है।

समाधानः- .. इस तरह स्वयं परिणमन करके, स्वयं अपने द्रव्यमें-से स्वतंत्ररूपसे परिणमन करके कार्य लावे, इसलिये वह पर्याय स्वतंत्र (है)। परन्तु उसे द्रव्यका आश्रय है। द्रव्यके आश्रय बिनाकी पर्याय नहीं है।

मुमुक्षुः- उसमें तो दो बात आयी न कि, षटकारक, द्रव्यके षटकारक द्रव्यमें है, इसलिये पर्यायको और द्रव्यको अभेद करके षटकारक (कहे), कर्ता द्रव्य, करण द्रव्य सब द्रव्य। और उसे रखकर पर्यायके षटकारक लेने हों तो इस तरह लेना कि परिणमन उस समयका..

समाधानः- वह परिणमन द्रव्यके आश्रयसे है, उस तरह उसके षटकारक लेने। पर्याय स्वतंत्र है। उसका करण, संप्रदान, अपादान, सब। उसकी स्वतंत्रा भी द्रव्यके आश्रययुक्त है। अकेली पर्याय, बिना द्रव्याश्रय निराधार नहीं होती है।

मुमुक्षुः- स्पष्टीकरण करूँ कि पर्याय स्वतंत्रपने होती है, अर्थात कोई अन्य द्रव्य उसकी पर्यायको करता नहीं, उतना ही उसका अर्थ है।

समाधानः- हाँ, उतना अर्थ है।

मुमुक्षुः- और स्वतंत्रपने होती है अर्थात जैसी दृष्टि हो, स्वभावकी ओर दृष्टिका झुकाव हो तो उसकी पर्यायमें निर्मलता सहजरूपसे होती रहती है।

समाधानः- हाँ, वह सहज प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- स्वकालमें जो होनेवाली है वह होती रहती है।

समाधानः- हाँ, ज्ञानकी ज्ञानरूप, दर्शनकी दर्शनरूप, चारित्रकी चारित्ररूप, वह स्वतंत्र उसकी होती रहती है।

मुमुक्षुः- पर्यायदृष्टि हो तो इस तरह (होती है)।


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समाधानः- हाँ, पर्यायदृष्टि हो तो इस तरह (होती है)। स्वभाव-ओर दृष्टि गयी तो सब निर्मल पर्यायें स्वतंत्र होती हैं। (द्रव्यका) आश्रय रहता है। स्वतंत्रता है, वह एक सत है, परन्तु उसे द्रव्यके आश्रयकी अपेक्षा है।

मुमुक्षुः- उसे रखकर बात है।

समाधानः- वह बात रखकर (बात) है। और वह शास्त्रमें भी आता है। कोई जगह पर्याय स्वतंत्र है ऐसा आये और कोई जगह द्रव्यका आश्रय है, ऐसा भी आता है, दोनों बात आती हैं।

मुमुक्षुः- वहाँ द्रव्यका आश्रय अर्थात यहाँ जैसे स्वभावका आश्रय है वैसे नहीं। द्रव्यका आश्रय माने द्रव्यका स्वयंका परिणमन है, उसे द्रव्यका आश्रय है, यह कहना है?

समाधानः- द्रव्यका जैसा परिणमन है, जिस ओर उसकी परिणति (झुकती है), जैसी अपनी दृष्टि है वैसी उसकी पर्याय है। .. स्वभाव-ओर दृष्टि गयी तो स्वभाव पर्याय (होती है)। सब गुणकी स्वतंत्र पर्याय (होती है)। ज्ञानकी ज्ञान, दर्शनकी दर्शन, चारित्रकी चारित्र, ऐसे स्वतंत्र पर्यायें होती हैं। एक द्रव्यके आश्रयसे है।

मुमुक्षुः- उन सबका आधारभूत द्रव्य एक ही है।

समाधानः- आधारभूत द्रव्य है।

मुमुक्षुः- ऐसा वस्तुका स्वरूप है, तो स्वतंत्रपने तू कर सकता है, वह दोनों बात कैसे? पर्यायके उसके स्वकालमें होती है। और दूसरी ओर ऐसा कहना है कि तू स्वतंत्रपने पर्यायका कर्ता है।

समाधानः- पर्यायका स्वतंत्रपने तू कर्ता है और वह स्वकालमें होती है। उसमें द्रव्यका आश्रय और उसकी स्वतंत्रता, दोनों बताते हैं। उसकी स्वतंत्रता कोई अपेक्षासे स्वतंत्रता भी है और कोई अपेक्षासे उसे द्रव्यका आश्रय भी है। ऐसे दोनों बात बताते हैं। उसमें किस प्रकार उसकी अपेक्षा समझनी वह अपने हाथकी बात है। कोई अपेक्षासे पर्यायको स्वतंत्र भी कहनेमें आती है कि पर्यायका स्वकाल स्वतंत्र है। और उसे द्रव्यका आश्रय भी है। दोनों अपेक्षाओंका मेल करना अपने हाथकी बात है। निश्चय वस्तु स्वभाव है और व्यवहार है। निश्चय-व्यहारकी सन्धि कैसे करनी, वह अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- अपने हाथकी बात..

समाधानः- स्वयंको मेल करना है।

मुमुक्षुः- अज्ञानी कैसे मेल करे।

समाधानः- उसका मेल स्वयंको करना है। स्वकाल और पुरुषार्थ दोनोंका स्वयंको मेल करना है। क्योंकि दोनों सामने-सामने विरोध आता है। एक ओर पुरुषार्थ और


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एक ओर काल। जिस समय जो होना होगा वह होगा। तो कोई ऐसा कहे कि पुरुषार्थ जब होना होगा तब होगा, ऐसा उसका अर्थ हो जाय। उसका मेल करना। एक ओर पुरुषार्थ खडा रखना और एक स्वकालको खडा रखना, उसका मेल स्वयंको करना रहता है। पुरुषार्थ रखकर (बात है)। जिसे पुरुषार्थ करना हो उसे ऐसा ही होता है कि मैं जब पुरुषार्थ करुँगा तब होता है। जो होनेवाला होगा वह होगा, ऐसा लेने-से आत्मार्थीको वह कोई लाभका कारण नहीं होता।

मैं पुरुषार्थ करुँ, ऐसी ही काललब्धि होती है। मैं पुरुषार्थ करुँ, ऐसी ही काललब्धि होती है। और जिसे आत्माका नहीं करना है, उसे ऐसा हो कि जैसे होना होगा वह होगा। ऐसा है। आत्मार्थीको ऐसा ही होता है कि मैं पुरुषार्थ करुँ, ऐसा ही काल है। ऐसा काल हो ही क्युँ? मैं पुरुषार्थ करुँ, ऐसा ही मेरा काल हो। आत्मार्थीको हितकी ओर ऐसा ही आये कि पुरुषार्थपूर्वककी मेरी काललब्धि ऐसी है कि मेरे पुरुषार्थकी गति ही ऐसी हो, ऐसा ही मेरा काल है। दूसरा काल हो ही नहीं।

मुमुक्षुः- मुख्यता पुरुषार्थकी रखे।

समाधानः- हाँ। आत्मार्थीओंको पुरुषार्थकी मुख्यता रखकर काललब्धि लेनी। अकेली काललब्धि लेने-से उसे आत्माका हित होनेका कोई कारण नहीं रहता। अकेला काल कब लेना? कर्ताबुद्धि छोडनेमें। मैं परपदार्थको कर सकता नहीं। जैसे होना होगा, होगा। मैं उसका ज्ञाता हूँ। ज्ञायकताकी धाराके लिये, जैसे बनना होगा वैसा बनता है। ऐसे स्वयं कर्ताबुद्धि तोडकर कहता है, मैं ज्ञायक हूँ।

परन्तु जहाँ आत्म-हितकी बात आये, मेरे पुरुषार्थसे होता है। मेरे पुरुषार्थकी कचासके कारण मैं रुकता हूँ। मेरे पुरुषार्थका कारण है। इसलिये काल वैसा ही है। मैं पुरुषार्थ करुँ तो काल भी पलट जाय। पुरुषार्थ, कालका ऐसा अर्थ उसके हितकी ओर आता है।

मुमुक्षुः- आत्मार्थी पुरुषार्थको मुख्य रखकर देखता है।

समाधानः- पुरुषार्थको मुख्य रखकर कालको ग्रहण करता है, कालको..

मुमुक्षुः- कालका मेल करता है।

समाधानः- कालका मेल करता है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थका उपचार काल पर आये, परन्तु कालका उपचार पुरुषार्थ पर नहीं आता।

समाधानः- नहीं। कालका उपचार पुरुषार्थ पर नहीं आता। वह हितका कारण नहीं है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!