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मुमुक्षुः- आज चर्चा सुनते समय मनमें एक विचार आ गया कि जैसे समयसारके साथ प्रवचनसारका मेल है। तो ... उसका सच्चा ज्ञान बराबर ज्ञानप्रधान .... । ऐसे गुरुदेव और आपको दोनोंको सुने तो उसे जो चाहिये, जो क्षति हो तो वह आपके परिचयसे उसे स्पष्ट हो। दोनोंका सुमेल हो ऐसा लगे। गुरुदेवके पास बहुत सुना है, फिर भी आपसे जब दूसरा प्रकार जाननेको मिले तब मानों सन्धि होती हो, ऐसा लगे।
समाधानः- ... दृष्टि-ज्ञानकी सन्धि आती थी। परन्तु पकडना (कठिन पडता था)। आदमीकी जैसी दृष्टि हो, वैसा पकडे।
मुमुक्षुः- दृष्टिका विषय और ज्ञानका विषय, दोनोंके मेलमें बहुत सूक्ष्मता है।
समाधानः- उसमें भूल हो ऐसा है।
मुमुक्षुः- आज तो बहुत सुन्दर (स्पष्टीकरण आया)।
समाधानः- दृष्टान्त है। लोगोंको पूरनपूरीका होता है न, इसलिये पूरनपूरीका दृष्टान्त दिया। बाकी चैतन्यका अपूर्व आनन्द अलग और पूरनपोरी तो जड है। परन्तु लोगोंको समझाना कैसे? इसलिये गुरुदेवने दृष्टान्त दिया।
मुमुक्षुः- वह आनन्द हमें मालूम पडे, उस प्रकारसे भाषामें आ सकता है?
समाधानः- भाषामें न आये। वह तो अनुपम है। जगतकी कोई वस्तुकी उसे उपमा नहीं दे सकते। वह तो अपूर्व है। चैतन्य वस्तु अलग, उसके गुण अलग, उसका आनन्द अलग। सब अलग है। वह तो उसे समझानेके लिये अनेक प्रकारसे उपमा दी है। गुरुदेवने भिन्न-भिन्न प्रकारकी उपमा दी। पूरनपूरीकी दे, घीकी दे, अनेक जातकी दे। घीका स्वाद कैसा? गुरुदेव बहुत बार कहते थे, उसका वर्णन करने जाय तो कर न सके। वैसे आत्माका आनन्द अपूर्व है।
चारों ओरसे लोगोंको उसका स्वाद होता है, उस दृष्टिसे। बाकी चैतन्य वस्तु अलग है और यह जड वस्तु अलग है। बाकी उसे कोई जडकी उपमा लागू नहीं पडती। देवलोककी ऋद्धिकी उपमा भी उसे लागू नहीं पडती। इन्द्रका इन्द्रासन और देवलोककी ऋद्धि... "रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुदगल एक स्वभाव जो।' सब
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पुदगलके स्वभाव है। वह स्वभाव और चैतन्य स्वभाव दोनों अलग वस्तु है। चैतन्यका आनन्द अपूर्व है। वह तो अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती।
मुमुक्षुः- चैतन्य मेरा देव है, उसे ही मैं देखता हूँ। दूसरा कुछ मुझे दिखता ही नहीं।
समाधानः- चैतन्यकी ओर दृष्टि गयी, वह दृष्टि वहाँ स्थापित हो गयी। तो दृष्टि अब चैतन्यको ही देखती है, दूसरा विभाव दिखता नहीं। दृष्टिके आगे विभाव गौण हो जाता है। उसे सब ज्ञान है कि अभी अधूरी अवस्था है, अभी पूर्ण केवलज्ञान हुआ नहीं है, अभी बाकी है। वह सब ज्ञानमें जानता है। परन्तु दृष्टि चैतन्यकी ओर गयी, वह दृष्टि वहाँ स्थापित हो गयी तो मैं मेरे चैतन्यदेवको ही देखता हूँ, बाकी सब उसके आगे गौण हो जाता है।
मैं अकेला चैतन्य अनन्त महिमासे, अनन्त स्वभावसे भरा हुआ चैतन्य, दिव्य शक्तिसे भरा ऐसा चैतन्यदेव, उसे ही मैं देखता हूँ। अंतरमें जहाँ जाता हूँ तो चैतन्यदवे ही दिखता है। विभाव मुझे दिखता नहीं। उसकी दृष्टिकी अपेक्षासे (कहा है)। मेरी नजर वहीं थँभ गयी है, बाहर कहीं मेरी दृष्टि जाती नहीं। ज्ञानका उपयोग जाता है, उस बातको गौण करके दृष्टि चैतन्यको ही देखती है।
मुमुक्षुः- दृष्टि अर्थात श्रद्धा, उतना ही नहीं? नजर भी वहाँ थँभ गयी है?
समाधानः- नजर वहाँ थँभ गयी है। श्रद्धा मात्र बुद्धिसे कर ली, ऐसे श्रद्धा नहीं। चैतन्यका अस्तित्व पहचानकर उस पर दृष्टि थँभ गयी है, नजर वहाँ थँभ गयी है।
मुमुक्षुः- ऐसा आता है कि विभाव परिणाम होते समय ही तेरेमें निर्मलता भरी है, परन्तु तू विभावमें तन्मय हो रहा है। अज्ञानी विभावमें तन्मय हो रहा है।
समाधानः- उस समय निर्मलता स्वभावमें तो है, परन्तु अज्ञान अवस्थामें वह विभावमें तन्मय हो गया है। परन्तु विभावमें तन्मय हो गया, इसलिये उसकी निर्मलताका नाश नहीं हो गया। उसकी स्वभाव-शक्तिमें निर्मलता तो भरी है। जिस क्षण वह तन्मय हो रहा है, उसी क्षण निर्मलता उसमें शक्तिरूपसे भरी है। उसका नाश नहीं हुआ है। उस समय यदि तू तेरी दृष्टि बदल तो तेरे स्वयंमें तू निर्मलताका पिण्ड है और शक्तिसे भरा है। उसी वक्त दृष्टि बदल तो तेरा अस्तित्व मौजूद ही है। कहीं खोजने जाना पडे ऐसा नहीं है, तू स्वयं ही है। इसलिये दृष्टि बदल तो उसी क्षण तेरेमें निर्मलता भरी है। दृष्टि बदलता नहीं है, इसलिये विभावमें तन्मय हो रहा है, दृष्टि बाहर है इसलिये।
मुमुक्षुः- अज्ञानी हो उसे भी अस्तित्वका उतना ही ख्याल आ सकता है?
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समाधानः- अस्तित्वका ख्याल आ सके, फिर उसकी यथार्थ प्रतीति और परिणमन नहीं है। ख्याल तो आये। जो पलटता है वह सब विभावमें-से पलटता है न। पहले तो कोई स्वभावका ज्ञान होता नहीं। जो पलटता है, जो स्वभाव-ओर जाता है, वह अज्ञान अवस्था हो उसमें-से ज्ञान होता है। इसलिये अस्तित्वका ज्ञान हो सकता है। परन्तु उसकी यथार्थ परिणति और भेदज्ञान बादमें होते हैं। परन्तु उसे अस्तित्वका ख्याल आ सकता है कि मैं यह चैतन्य हूँ, यह विभाव है। ऐसे ख्यालमें ले सकता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान परसे ज्ञायक पर कैसे जाना? ज्ञानगुण प्रगट दिखता है, तो ज्ञायक पर कैसे जाना?
समाधानः- ज्ञानगुण है वह एक पर्यायमात्र नहीं है। वर्तमान जाने उतना ज्ञान, ऐसा नहीं। परन्तु ज्ञान, एक ज्ञायक अस्तित्व, ज्ञानका अस्तित्व ग्रहण करना। ज्ञान ज्ञानरूप.. वर्तमान जाने इसलिये ज्ञान, उसने कुछ जाना इसलिये ज्ञान है, ऐसा नहीं। परन्तु वह पूरा ज्ञानका अस्तित्व है। द्रव्यरूप ज्ञानका एक अस्तित्व है। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण करना। बाहरसे जाना, ज्ञेयको जाना इसलिये ज्ञान, पर-ओर उसकी दृष्टि गयी और जो जाननेमें आया वह ज्ञान, ऐसा नहीं। परन्तु ज्ञायक स्वयं, ज्ञान स्वयं अस्तित्व स्वतःसिद्ध है। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण करना।
जितना ज्ञानमात्र वह मैं। कुछ जाना इसलिये ज्ञान, ऐसा नहीं। स्वयं जाननेवाला जो ज्ञायक स्वभाव है वही मैं हूँ। ऐसे ज्ञायक-ओर, अखण्ड अस्तित्वकी ओर दृष्टि देनी कि यह जो जाननेवाला है वह मैं हूँ। इसे जाना, इसे जाना इसलिये ज्ञान, ऐसा नहीं। परन्तु ज्ञायकका अस्तित्व जाननस्वरूप है, वह मैैं हूँ।
मुमुक्षुः- ज्ञेयोंका जाननरूप ज्ञान उतना ही ज्ञान नहीं।
समाधानः- उतना ही ज्ञान नहीं, परन्तु स्वयं ज्ञान है। ज्ञायकता अनन्ततासे भरी ज्ञायकता है, अनन्त अगाधतासे भरी ज्ञायकता वह मैं ज्ञायक हूँ। कोई कार्य करे, प्रकाश हो तो प्रकाशका कार्य करे, ऐसा नहीं। प्रकाशका पुंज है वही प्रकाश है। बर्फका पुंज है वही बर्फ है। परन्तु ठण्डेका कार्य इसलिये बर्फ है, ऐसा नहीं। परन्तु वह वस्तु स्वयं ही ठण्डस्वरूप है। वस्तु स्वयं ही प्रकाशका पुंज है। ऐसे चैतन्य स्वयं ही ज्ञायक जाननस्वभावसे भरी वस्तु है। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण करना। वह कार्य करता है इसलिये ज्ञान, ऐसा नहीं। परन्तु स्वयं ज्ञानरूप ही है।
मुमुक्षुः- पर्याय परसे द्रव्य पर जाना..
समाधानः- हाँ, पूरा ज्ञायक स्वयं है।
मुमुक्षुः- उस जीवको अस्तित्वका ख्याल आये, उसका अर्थ ज्ञायकका ख्याल आये?
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समाधानः- ज्ञायकका, अखण्ड ज्ञायक अनन्ततासे भरा ज्ञायकका अस्तित्व ख्यालमें आये।
मुमुक्षुः- मार्गकी युक्ति सूझ जाय तो मार्ग मिल जाय। उसमें युक्तिमें क्या कहना है?
समाधानः- स्वयंको ज्ञायक कैसे ग्रहण करना वह युक्ति है। यह ज्ञान है और यह राग है, ऐसी भेदज्ञानकी युक्ति सूझ जाय। ये राग विभाव है, जो शुभाशुभ भाव है, वह मैं नहीं हूँ। परन्तु मैं ज्ञायक हूँ। ऐसे स्वयंको ज्ञान द्वारा-प्रज्ञाछैनी द्वारा भिन्न करे, निज ज्ञानलक्षणको ग्रहण कर ले, वह युक्ति है। इसमें ज्ञानलक्षण कौन-सा और विभावका लक्षण कौन-सा, उन दोनोंके लक्षणको पहचानकर, मैं यह ज्ञायक हूँ और यह विभाव है, ऐसे भिन्नता करे। युक्ति सूझ जाय अर्थात स्वयं अपना लक्षण पहचान ले, अंतरमें गहराईमें जाकर।
मुमुक्षुः- आप बोलते हो तो तब ऐसा लगता है, मानों एकदम सरल है। ऐसा लगता है। तो इतना कठिन क्यों हो गया होगा?
समाधानः- अनादिका अभ्यास है। उसमें विभावमें ऐसा तन्मय हो गया है कि उसे ज्ञानको भिन्न करना मुश्किल पडता है कि मैं यह ज्ञायक हूँ और यह विभाव है। इस प्रकार उसे भिन्न करनेमें (कठिन पडता है)। स्वयं अनादिके अभ्याससे इतना तन्मय हो गया है, इसलिये अंतरमें जानेमें और सूक्ष्म होनेमें उसे मुश्किल पडता है, इसलिये उसे कठिन लगता है। बाकी वस्तु तो दोनों भिन्न ही हैं।
ज्ञायक वह ज्ञायक है और विभावकी पर्यायें वह स्वयंका मूल स्वभाव नहीं है। वस्तु तो वस्तु ही है। इसलिये वह तो सहज है। अपना स्वभाव है इसलिये सहज और सुगम है, परन्तु अनादिके अभ्यासके कारण उसे दुर्लभ हो गया है। दृष्टि बाहर दौडती रहती है। इसलिये अंतरमें उसे स्थिर करनी, स्वयंको ग्रहण करना उसे मुश्किल हो गया है।
निज नयननी आळसे,.. गुरुदेव कहते थे न? निरख्या नहि हरिने जरी। निज नेत्रकी आलसके कारण स्वयं देखता नहीं है। उसमें अनादि काल व्यतीत कियाा। बाहरसे कहींसे प्राप्त होगा, इसमें-से प्राप्त होगा, क्रियामें-से प्राप्त होगा, कुछ बाहरका करके प्राप्त होगा, ऐसा मान-मानकर काल व्यतीत किया। परन्तु अंतर दृष्टि करके निज स्वभावको पहचाना नहीं।
गुरुदेवने बडे धोध बहाये हैं। सबको सरल और सुगम कर दिया। आत्माकी उतनी महिमा बतायी, आत्मा कोई अपूर्व, उसका भेदज्ञान कैसे हो? उनकी वाणीमें उतना जोरदार आता था। परन्तु करनेका स्वयंको बाकी रह जाता है। कहीं किसीकी भूल न रहे, इतना जोरदार कहते थे और उतना सरल और सुगम करके कहते थे।
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मुमुक्षुः- गुरुदेवने तो बहुत बताया, लेकिन भूलमें-से आपने हमें बाहर निकाला। आपके प्रतापसे हम... नहीं तो हम बहुत बडी भूलमें पडे थे।
मुमुक्षुः- कोई बार तो अंतरमें ढेरके ढेर लग जाय और कभी सहज जैसा हो वैसा रहता है। इन दोनोंमें अंतर क्या है?
समाधानः- कोई बार पुरुषार्थकी गति ऐसी जातकी हो तो अंतरमें-से ढेरके ढेर लग जाय। कोई बार सहज दशा हो ऐसा आये। अभी जबतक वीतराग दशा नहीं हुयी है, क्षायिक वीतरागपर्याय नहीं हुयी है तो पुरुषार्थकी गति अभी क्षयोपशम भावरूप है न? इसलिये कभी ढेर लग जाय, कभी मध्यम दिखे, कभी ऐसा दिखे, इस अर्थमें है।
मुमुक्षुः- कोई बार आनन्द अधिक आये, कभी कम आये, ऐसा?
समाधानः- आनन्द अधिक आये ऐसा नहीं। उसकी दशा बढती जाय। उसकी सविकल्पतामें भी दशा बढती जाय और निर्विकल्पतामें भी दशा बढती जाय। मुनि छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हो, तो क्षयोपशम चारित्र है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन होते हैं। तो उनकी चारित्रकी दशा तो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुले ऐसी है। तो भी उन्हें कोई विशेष गाढपना (होता है)। सविकल्पतामें विशेषता दिखे, निर्विकल्पतामें विशेषता दिखे, ऐसे अनेक प्रकारका दिखे। कोई ज्ञानकी निर्मलता दिखे, दर्शनकी अवगाढता, कोई चारित्रमें विशेषता दिखे। दर्शन तो एक प्रकारका होता है, परन्तु अवगाढता (बढती है)। ज्ञान, चारित्र आदि अनेक प्रकार दिखे।
मुमुक्षुः- ... "मैं हूँ' ऐसा स्वयंको स्वयंसे अस्तित्वका जोर आये। उसमें "मैं हूँ' ऐसे दो अक्षर ही हैं। मैं कैसा हूँ? कितना हूँ? ऐसा कुछ नहीं। मैं हूँ।
समाधानः- अपना अस्तित्व ग्रहण करनेमें कहीं भेद नहीं पडता। स्वयं अपना अस्तित्व (ग्रहण करता है)। दृष्टि कहीं भेद नहीं करती। अपना अस्तित्व "मैं हूँ', अपना अस्तित्व उसे ज्ञायकरूप-से ग्रहण होता है। उसमें यह ज्ञानगुण है और यह द्रव्य है, गुण और गुणी ऐसा कोई भेद नहीं पडता। स्वयं अपना अस्तित्व, चेतनका अस्तित्व चैतन्यरूप-से ग्रहण होता है। दृष्टिमें कोई भेद नहीं होता। इसलिये मैं हूँ, ऐसे स्वयंका अस्तित्व स्वयंको अंतरमें-से ग्रहण होना चाहिये। दृष्टिके विषयमें उसका पूरा अस्तित्व उसे ग्रहण होना चाहिये। ऐसे अर्थमें है।
फिर ज्ञानमें भेद पडते हैं। ज्ञान दृष्टिको ग्रहण करे, ज्ञान दृष्टिका विषय जाने और ज्ञान भेदको भी जाने। सब ज्ञानमें आता है। दृष्टि तो अपना अस्तित्व-सामान्य अस्तित्व ग्रहण करती है। उसमें गुण-गुणीका भेद भी नहीं होता। स्वयंका अस्तित्व स्वतःसिद्ध है उसे ग्रहण करती है। मैं हूँ, ऐसे। मैं यह हूँ।
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मुमुक्षुः- सीधा अभेद।
समाधानः- हाँ, अभेद मैं चैतन्य हूँ। सबसे भिन्न मैं चैतन्य हूँ। उसका विस्तार करनेमें... मैं चैतन्य हूँ, जो विभावभाव आदि हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं चैतन्य हूँ। उसे स्वयंको मैं चैतन्य हूँ, इस प्रकार अपना अस्तित्व ग्रहण होता है। मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, मैं एक चैतन्य हूँ। मेरेमें ज्ञान है, मेरेमें आनन्द है, वह सब भेद ज्ञानमें आते हैं। (दृष्टि) उसका अस्तित्व ग्रहण करती है। मैं हूँ सो हूँ, मैं चैतन्य अस्तित्व हूँ।
मुमुक्षुः- .. भावमें सीधा अभेद आता है। आपकी तो वाणीमें भी अभेद आता है। आज तो बहुत सुन्दर (आया)।
समाधानः- सच्चा तो दृष्टिमें अभेद आये। वाणी बोले उसमें भेद पडता है। परन्तु दृष्टि क्या कार्य करती है? वह कह सकते हैं। दृष्टिका कार्य ऐसा है कि अभेद ग्रहण करती है। स्वयं स्वयं ग्रहण हो गया, स्वयं स्वयंसे, अपना चैतन्य अस्तित्व-मैं यह हूँ। ऐसा उसे बल आ गया कि मैं चैतन्य ही हूँ। चैतन्य सो चैतन्य ही हूँ। किसीको पूछने नहीं जाना पडता। मैं चैतन्य हूँ, इस प्रकार अंतरमें-से ग्रहण हो गया।
जो मार्ग गुरुदेवने बताया, वही मैं चैतन्य हूँ। जो देव-गुरु-शास्त्र बताते हैं, वह मैं चैतन्य हूँ। उसकी परिणति अंतरमें-से अस्तित्व ग्रहण कर लेती है। अंतरमें-से ग्रहण करे वह अलग होता है।
मुमुक्षुः- .. फिर अंतरमें-से ग्रहण करे तो कितनी हूँफलगे।
समाधानः- हाँ, उसकी हूँफ तो (अलग ही है)। चारों ओर व्यर्थ प्रयत्न करता था, उसे अंतरमें-से चैतन्य ग्रहण हो जाय, तो उसे हूँफ ही आये न।