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मुमुक्षुः- अन्दरसे विचार करने पर बहुत बार ऐसा लगता है कि ... फिर सांसारिक काममें लगने पर अस्त हो जाता है..
समाधानः- स्वयंकी कचास है। अन्दर लगन ऐसी होनी चाहिये कि कहीं चैन पडे नहीं। अंतरमें-से मुझे जो प्रगट करना है वह होता नहीं है। बाहर कहीं सुख न लगे। सुख अंतरके स्वभावमें है। उसे खटक रहनी चाहिये, दृष्टि कहीं थँभे नहीं, कहीं चैन पडे नहीं। ऐसी लगन होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ... अनुभव नहीं हुआ है, उसकी लगन कैसे लगे? आत्माके आनन्दकी लगन लगे, आत्मिक आनन्दका अनुभव नहीं हुआ है। प्रत्यक्ष देखे, सोनगढ देखा तो मैं कह सकता हूँ कि सोनगढमें इतनी-इतनी चीज अच्छी है। सोनगढ देखा नहीं है। वैसे आत्माका अनुभव नहीं हुआ है, अनजानी वस्तुकी लगन कैसे लगानी?
समाधानः- उसका अनुभव नहीं हुआ है। उसके लक्षणसे नक्की करे। कहीं सुख नहीं है, ऐसा तो उसे अंतरसे लगना चाहिये कि सुख कहीं नहीं है। तो सुख कहाँ है? सुख अंतर आत्मामें अंतरमें होना चाहिये। उसका विचार करके लक्षणसे नक्की करे। महापुरुष कहते हैं, उसे स्वयं विचारसे नक्की करे कि अंतरमें ही सुख है, बाहर कहीं नहीं है।
सुख है ही नहीं, ऐसा तो विश्वास आना चाहिये। अंतरमें-से विचार करके उसे लगे कि अंतरमें देखे तो सुख कहीं नहीं है। वह स्वयं नक्की कर सके ऐसा है। सुख अन्दर आत्मामें भरा है। अपने विचारसे नक्की हो ऐसा है। उसके लक्षण परसे। अनुभव नहीं है तो भी।
मुमुक्षुः- पहले लक्षणसे विशेष स्पष्टता होगी, अनुभवसे, पहले तो विकल्पमें ही निर्णय होगा, बादमें..
समाधानः- पहले तो विकल्पसे निर्णय करे। बादमें अनुभव होता है।
मुमुक्षुः- निवृत्ति नहीं ली है, उस सम्बन्धित आपका कोई आदेश? लगन तो आप कहते ही हो।
समाधानः- सबकी रुचि। निवृत्तस्वरूप आत्मा है। गुरुदेवने आत्माको बहुत बताया
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है। जिसे लगन लगती है वह छूटता है। लगन नहीं है, जिसे अंतर आत्माकी लगी नहीं है, वह नहीं छूटता है। अंतरमें-से न्यारा होना वही मार्ग है-भेदज्ञान।
मुमुक्षुः- संसारके प्रलोभन आगे स्थिर नहीं रहा जाता, उस वक्त उसके सामने लडनेके लिये कौन-सा शस्त्र आजमाना चाहिये, लगनीके अलावा?
समाधानः- लगनके अलावा स्वयंको अंतरमें नक्की हो जाना चाहिये, इसमें कहीं सुख ही नहीं है। अपनी रुचि लगनी चाहिये, अन्दरसे उतना श्रद्धाका बल आना चाहिये। वही उसका शस्त्र है। अपनी श्रद्धा और वैसी विरक्ति और ऐसा निश्चय अन्दरसे अमुक लक्षण परसे नक्की होना चाहिये कि इसमें कहीं सुख नहीं है, सुख मेरे आत्मामें ही है। वही उसका अन्दर (शस्त्र है)। इस तरह वह न्यारा रह सकता है। स्वयंकी रुचिसे ही भिन्न रह सकता है।
मुमुक्षुः- (योग्यता) ज्ञानप्राप्तिके लिये बलवान कारण है, तो योग्यता कैसी होनी चाहिये?
समाधानः- योग्यता अंतरमें आत्माकी ओर लगन होनी चाहिये। मुझे आत्माकी कैसे प्राप्ति होवे? और आत्मज्ञान कैसे होवे? आत्माके अलावा कहीं चैन न पडे। मुझे आत्मस्वरूपकी कैसे प्राप्ति होवे? ऐसी लगन लगनी चाहिये। और बाहरसे सब विरक्ति हो जाय और स्वभावमें ही लगन होनी चाहिये। ऐसी पात्रता होनी चाहिये।
श्रीमदमें आता है न? कषायकी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष। मात्र मोक्षकी अभिलाष। मात्र मुझे मोक्ष यानी आत्मस्वभावकी प्राप्तिकी भावना होवे और कुछ नहीं। जो अनन्तानुबन्धी कषाय जो अनन्त-अनन्त रुकनेवाला है बाहरमें एकत्वबुद्धि होती है, उसे ऐसी कषायकी उपशान्तता होनी चाहिये। और आत्मस्वभावकी एकदम जिज्ञासा होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें एक बोल आता है, माताजी! बन्ध समय जीव चेतीए, उदय समय शा उचाट? उसका भाव क्या है? माताजी!
समाधानः- उदय समय क्या उचाट? उदय तो आ गया, तो उस समय शान्ति रखनी। जो पूर्वमें बान्धकर आया था, वह उदय तो आ गया। तो उस समय शान्ति रखना कि उदय तो आ गया। अब ज्ञाता-दृष्टा होकर शान्तिसे (वेदना)। बन्ध समय चेतना चाहिये। जब बन्ध होता है तब परिणाम कैसा होता है, उस समय ध्यान रखना। और उदय आ गया तो अब क्या चिन्ता करनी, अब तो शान्ति रखनी, ज्ञायकता प्रगट करनी। और बन्ध जब होता है, तब परिणाम जो एकत्वबुद्धि और तन्मयता, एकदम चीकनापन होता है, उस समय ध्यान रखना कि मैं ज्ञाता हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है। उस समय ध्यान रखना। बन्ध हो गया, उदय आ गया, फिर क्या चिन्ता (करनी)? अतः शान्ति रखनी। ज्ञायकता प्रगट करनी।
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मुमुक्षुः- माताजी! पूज्य गुरुदेव कहते थे, अपनी शुद्ध पर्याय भी परद्रव्य है, हेय है, तो अब दशा तो प्रगट हुयी नहीं है और उसके परद्रव्य और हेय कैसे स्वीकार करे?
समाधानः- पर्याय परद्रव्य तो अपेक्षासे (कहा है)। परद्रव्य है और आत्माकी पर्याय है। उसका एक अंश है, इसलिये परद्रव्य कहनेमें आता है। वास्तवमें परद्रव्य है ऐसा (नहीं है)। दो द्रव्य भिन्न हैं, छः द्रव्य जैसे भिन्न-भिन्न हैं, ऐसे पर्याय उस तरह भिन्न नहीं है। वह तो द्रव्यके आश्रयसे होती है। शुद्धात्माकी पर्याय है। परन्तु शुद्धात्मा त्रिकाल है, वह अंश है। इसलिये परद्रव्य कहनेमें आता है। उस पर दृष्टि करनेसे भेद होता है। ऐसा भेद विकल्प नहीं करना और अभेद पर दृष्टि करना, ऐसा कहते हैं। उसमें कोई कर्मकी अपेक्षा, अपूर्ण पर्याय, पूर्ण पर्याय ऐसी अपेक्षा आती है। आत्मा तो अनादिअनन्त है। इसलिये परद्रव्य कहनेमें आता है। वास्तविकमें जैसे छः द्रव्य है, वैसा परद्रव्य नहीं है।
मुमुक्षुः- रागकी पर्यायको तो परद्रव्य कहेंगे।
समाधानः- परके निमित्तसे होती है इसलिये परद्रव्य। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है, इसलिये विभावसे होती है, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। दृष्टि पलट दे तो छूट जाती है। कर्मके निमित्तसे होती है इसलिये उसको परद्रव्य कहनेमें आता है। उसमें तो अपूर्ण, पूर्ण पर्याय कर्मकी अपेक्षा आती है, अपूर्ण, पूर्ण, कर्मका अभाव हुआ इसलिये उसको परद्रव्य कहनेमें आता है। भेद-भेद विकल्प करनेसे विकल्प मिश्रित होता है इसलिये उसको परद्रव्य कहनेमें आता है। वास्तविक वह शुद्धात्माके आश्रयसे होती है और क्षणिक है। अपेक्षा समझनी चाहिये।
मुमुक्षुः- माताजी! वर्तमान ज्ञान पर्याय है। लक्षण द्वारा लक्ष्य आत्माकी प्रसिद्धि करना। वर्तमानमें जो मतिज्ञानकी पर्याय है, उससे लक्ष्य आत्माकी प्रसिद्धि हो जायगी?
समाधानः- वर्तमान ज्ञानकी पर्याय है, उस लक्षणसे लक्ष्य पहचानना। द्रव्य पर दृष्टि करके द्रव्यमें-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। परन्तु मतिज्ञान लक्षण है, लक्ष्यको पहचानना। लक्षणसे लक्ष्य चैतन्यद्रव्यको ग्रहण करना। ऐसा कहनेमें आता है।
मतिज्ञान खण्ड है, अधूरा ज्ञानसे पूरा ज्ञान होता है, ऐसा नहीं। द्रव्यके आश्रयसे पूरा ज्ञान होता है। पूरी पर्याय, शुद्ध पर्याय द्रव्यके आश्रयसे शुद्ध पर्याय होती है। ऐसे मतिज्ञान तो बीचमें आता है। मतिज्ञानके लक्षणसे आत्माको पहचानना।
मुमुक्षुः- कल जो टेपमें आता है, गुरुदेव कह रहे थे कि खरेखर तो परद्रव्यको जानता ही नहीं है।
समाधानः- परद्रव्यको जानता नहीं है अर्थात अपना ज्ञानस्वभावको (जानता है)।
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इसलिये परको जाननेका स्वभाव नहीं है, उसका स्वपरप्रकाशक स्वभाव ही नहीं है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। जानता नहीं है अर्थात उस ओर उपयोग नहीं करता है, उसमें परिणति एकत्वता नहीं करती है। और इस ओर उपयोग अपने स्वभावमें परिणति लीन हो जाय तो सहज जाननेमें आता है। इसलिये परको जानता नहीं है। निश्चयदृष्टिसे अपने ज्ञानको जानता है, परद्रव्यको नहीं जानता है। उसमें परका ज्ञान नहीं होता है, ऐसा नहीं है। परको जाननेका स्वभाव है आत्माका। परका ज्ञान आत्मामें नहीं आता है, परको बिलकूल जानता ही नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उपयोग उस ओर नहीं करता है।
मतिज्ञानसे केवलज्ञान होता है, वह तो साधक पर्याय जो स्वानुभूति होती है, वह मतिज्ञान-श्रुतज्ञानमें होती है। साधकपर्यायसे पूरी पर्याय (होती है), ऐसा कहनेमें आता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान केवलज्ञानको लाता है, ऐसा भी कहनेमें आता है। इसलिये मतिज्ञान, श्रुतज्ञान जो स्वानुभूतिकी पर्याय प्रगट हुयी उससे पूरी पर्याय प्रगट होती है, ऐसा भी कहनेमें आता है। द्रव्यदृष्टिसे पूर्णता होती है और मतिज्ञान स्वानुभूतिका एक अंश प्रगट हुआ तो उससे पूर्णता होती है। साधक पर्याय बढते-बढते, उसकी वृद्धि होते-होते पूर्णता होती है, ऐसा कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- माताजी! जैसे श्रद्धा और चारित्रगुणकी पर्यायमें विधविध परिणमन चल रहा है अनादिसे, तो वैसे ज्ञानकी पर्यायमें भी विपरीत परिणमन हो गया है?
समाधानः- श्रद्धा और चारित्रमें विपरीतता होती है, ऐसे ज्ञानमें विपरीतता, ज्ञान विपरीत नहीं होता है। ज्ञानमें जाननेमें विपरीतता होती है। ऐसे। श्रद्धाके कारणसे उसमें विपरीतता कहनेमें आती है। जानना तो जानना है, परन्तु श्रद्धा विपरीत है इसलिये ज्ञान भी विपरीत कहनेमें आता है। श्रद्धाकी विपरीतताके कारण ज्ञान भी विपरीत कहनेमें आता है। श्रद्धा यदि सम्यक हो जाय तो ज्ञान भी सम्यक हो जाता है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें एक बोल आता है कि चैतन्यके परिणामके साथ कुदरत बन्धी हुयी है, ऐसा वस्तुका स्वभाव है। कैसे है माताजी?
समाधानः- जो चैतन्यका परिणाम है, जो भावना होती है कि मुझे आत्माका स्वभाव प्रगट करना है, तो ऐसी परिणति होती ही है। जिसकी जो भावना होती है, वैसे कुदरत परिणमती ही है। यदि परिणमे नहीं तो द्रव्यका नाश हो जाय। जो द्रव्यकी भावना होती है, उस रूप परिणमन होता है। अपना और दूसरेका। स्वयं उपादान- निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है।
जैसी भावना होती है वैसे कुदरत परिणमती है। नहीं तो द्रव्यका नाश होता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव ही है। इस तरह ज्ञान, दर्शन, चारित्र जैसी भावना हो वैसे परिणमती
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है। ऐसे बाहरमें भी निमित्त भी स्वयं परिणमता है, उपादान भी परिणमता है। ऐसा कुदरत-ऐसा स्वभाव है। परन्तु यथार्थ होना चाहिये।
मुमुक्षुः- एक बोल और आता है, माताजी! कि जागता जीव विद्यमान है, कहाँ जाय? जागता जीव माने कैसा?
समाधानः- आत्मा तो जागृत ही है। वह सदाके लिये शाश्वत जागृत ही है। ज्ञानस्वरूप जागृत ही है। उसका नाश नहीं हुआ है। नहीं जानता है ऐसा जड नहीं हो गया है। जागता जीव जागृत ही है, विद्यमान है। स्वयं लक्ष्य करे तो प्रगट हो ऐसा है। जागृत ही है। जागता जीव विद्यमान ही है, शाश्वत विद्यमान है। उस पर दृष्टि करके जाने तो अवश्य प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- .. पुरुषार्थ करनेकी युक्ति सूझ जाय तो मार्गकी उलझन टल जाय।
समाधानः- भीतरमें ज्ञायकस्वभाव आत्माका ज्ञानलक्षण पहचान ले कि यह लक्षण मेरा है, यह लक्षण विभाव लक्षण है, यह स्वभाव लक्षण है। स्वभाव लक्षणको पहचानकरके परिणति उसमें दृढ करे, दृढ प्रतीत करे, उसका ज्ञान दृढ करे, उसमें लीनता करे। ऐसे पुरुषार्थकी कल सूझ जाय ऐसी कला सूझ जाय। भीतरमें जानेका रास्ता उसे हाथमें आ जाय तो उलझन टल जाय। ऐसे।
स्वभावके लक्षणको पहचान ले। भीतरमें गहराईमें जाकर, गहरे जाकर लक्षणको ग्रहण कर ले और भीतरमें परिणति दृढ करे तो उसकी उलझन टल जाय। कला सूझ जाती है। परन्तु धीरा होकर आत्माको ग्रहण करना चाहिये।
मुमुक्षुः- राजचन्द्रजीके वचनामृतमें आता है कि ज्ञानी गुरुको पहचाने तो अपनी आत्माकी पहचान हो ही हो। तो ज्ञानी गुरु कैसे पहचाने?
समाधानः- ज्ञानी गुरु पहचानमें आ जाते हैं। जिसको सत स्वरूपकी जिज्ञासा लगती है कि मुझे सत कैसे प्रगट हो? तो उसे ज्ञानी, ये सत ज्ञानी है, ऐसा उसको पहचानमें आ जाता है। ज्ञानी है, आत्मा न्यारा कोई अपूर्व काम कर रहा है, उनकी वाणी अपूर्व है, ये अपूर्व है। उसे पीछान ले तो मार्ग हाथमें आ जाता है। ज्ञानीको पीछान लेता है।
जिसको सतकी जिज्ञासा प्रगट होती है, वह ज्ञानीको पहचान लेता है। उसका नेत्र ऐसा निर्मल हो जाता है, वह ज्ञानीको पहचान लेता है। और जो ज्ञानीको पीछान ले वह अपने आत्माको पीछान लेता है।
मुमुक्षुः- शरीर, रागसे एकत्वबुद्धि वर्त रही है, तो ये एकत्वबुद्धि कैसे तोडे?
समाधानः- एकत्वबुद्धि भेदज्ञानसे टूट जाती है। भेदज्ञान करे तो एकत्वबुद्धि टूट जाय। भेदज्ञान करनेसे एकत्वबुद्धि टूट जाती है।
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मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा कैसा है?
समाधानः- सम्यग्दर्शनका विषयभूत? आत्मा अनादिअनन्त शाश्वत है। उस पर दृष्टि करे। अनन्त गुणसे भरपूर आत्मा शाश्वत है। गुण पर दृष्टि नहीं है, कोई भेद पर दृष्टि नहीं है। अभेद आत्मा पर दृष्टि करना। एक चैतन्यतत्त्व पर, अभेद पर दृष्टि करना। वह सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा है। परसे विभक्त कर स्वभावमें एकत्वबुद्धि करके, गुणका भेद नहीं, पर्यायका भेद नहीं एक चैतन्य ज्ञायक अस्तित्व पर उसकी दृष्टि करना, वह सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा है।
मुमुक्षुः- .. कभी तो ऐसा लगता है कि ये परप्रकाशक है ही नहीं। कभी ऐसा लगता है कि स्वपरप्रकाशक है। उसमें आप स्पष्ट खुलासा...
समाधानः- गुरुदेव तो अपेक्षासे सब बोलते थे। परप्रकाश नहीं है, तो वह निश्चयकी अपेक्षासे कहते हैं। ज्ञान ज्ञानको जानता है, ज्ञान परको नहीं जानता है। उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि जाननेका स्वभाव नहीं है। स्वभावका नाश नहीं होता है। गुरुदेव तो ऐसा कहते हैं, स्वमें जब उपयोग जाता है, आत्मामें परिणति होती है तो ज्ञान ज्ञानको जानता है। परमें जाता ही नहीं है। इसलिये ज्ञान ज्ञानको ही जानता है। ज्ञानकी परिणति ज्ञानमें होती है। इसलिये परको नहीं जानता है, ऐसा इसका अर्थ है।
परन्तु ज्ञानका स्वपरप्रकाशक स्वभाव है, उस स्वभावका नाश नहीं होता। ज्ञान उसका नाम है कि जो अनन्तको जाने। इसलिये जाननेकी मर्यादा नहीं होती है। ज्ञान उसका नाम कहनेमें आता है कि जो पूर्ण जाने। इतना जाने और इतना नहीं जाने, ऐसा ज्ञानका स्वभाव नहीं है। ज्ञान तो पूर्ण जानता है। इसलिये ज्ञानमें परको जाननेका आता नहीं है ऐसा नहीं है। ज्ञानका स्वभाव सब ज्ञेयको जानता है। अनन्त काल गया, अनन्त द्रव्य परिणमन करते हैं। अनन्त द्रव्यके गुण, अनन्त गुणकी पर्याय, अनन्त चैतन्य द्रव्य, उसके अनन्त गुण, उसकी अनन्त पर्याय सब ज्ञानमें आ जाता है। ज्ञानकी पर्यायमें सब आ जाता है। केवलज्ञान सबको जानता है।
इसलिये परप्रकाशक नहीं है उसका अर्थ अपना ज्ञानका उपयोग परमें नहीं जाता है, ज्ञान ज्ञानमें परिणमन करता है। इसलिये परको नहीं जानता है। ज्ञान ज्ञानमें है, अपना स्वभाव अपनेमें रहता है, परमें नहीं जाता है। इसलिये ज्ञान ज्ञानरूप परिणमन करता है, इसलिये परको नहीं जानता है। उसका ऐसा स्वभाव नहीं है कि ज्ञान परको जानता ही नहीं है, जाननेका स्वभाव ही नहीं है। जाननेका स्वभाव है आत्माका, स्वपरप्रकाशक है, परको जानता है, नहीं जानता है ऐसा नहीं।
गुरुदेव दोनों बात करते है। दोनों बातमें मेल करना चाहिये। नहीं जानता है ऐसा कहते हैं तो कोई अपेक्षासे कहते हैं। नहीं जानता है, बिलकूल नहीं जानता है ऐसा
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उसका अर्थ नहीं है। जाननेका उसका स्वभाव ही नहीं है, ऐसा नहीं है। जानता है। ज्ञान अनन्तको नहीं जाने तो उस ज्ञानकी महिमा (क्या)? ज्ञान अनन्तको जानता है। सबको जानता है। ज्ञानमें कुछ गुप्त नहीं रहता है। सब ज्ञेयोंको जानता है, अनन्त ज्ञेयोंको जानता है, ज्ञान तो। इसलिये स्वपरप्रकाशक ज्ञानका स्वभाव है। उसका उपयोग परमें नहीं जाता है, अपनेमें परिणमन करता है।
मुमुक्षुः- स्वपरप्रकाशक शक्ति तो एक है। समाधानः- हाँ, स्वपरप्रकाशक शक्ति एक है। मुमुक्षुः- एक ही है? समाधानः- हाँ, एक ही है। स्वरूपमें परिणमन करता है। स्वको जानता है, परको जानता है। सब एकसाथ जानता है। उसमें क्रम नहीं पडता है। स्व और पर दोनोंको एकसाथ जानता है। ऐसा ज्ञानका स्वभाव है। एकसाथ जानता है। जाननेका स्वभावका नाश नहीं होता है।