Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 218.

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ट्रेक-२१८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... पहले किस प्रकारसे लक्षण द्वारा...?

समाधानः- भेदज्ञानसे यह मैं हूँ, यह नहीं हूँ। तो दर्शन...?

मुमुक्षुः- किस लक्षणसे?

समाधानः- ज्ञान लक्षणसे ग्रहण होता है। भेदविज्ञानमें ऐसा आता है, यह मैं हूँ। यह ज्ञानलक्षण जिसका है, वह आत्मा मैं हूँ। और विभाव लक्षण है वह मैं नहीं हूँ। जो आकुलता लक्षण है वह विभावका है और जो ज्ञान लक्षण है वह मैं हूँ। उसका लक्षण ज्ञायक लक्षण है। ज्ञायकका जाननेवाला लक्षण वह मैं हूँ। ज्ञानमें शान्ति है, ज्ञानमें सुख है, सब ज्ञानमें है।

शास्त्रमें आता है कि इतना ही सत्यार्थ कल्याण है, इतना ही परमार्थ आत्मा है, जितना यह ज्ञान है। इसमें संतुष्ट हो, इसमें रुचि कर, इसमें तृप्त हो। कोई कहे, अकेले ज्ञानमें सुख और आनन्द? ज्ञानमें सुख और आनन्द भरा है। इसमें तू रुचि कर, इसमें प्रीति कर, इसमें तृप्त हो। जितना ज्ञान है उतना परमार्थ स्वरूप आत्मा है। उसमें कल्याण है। सब इसमें प्रगट होता है। इसलिये जो आकुलता है वह मैं नहीं हूँ, वह विभाव लक्षण है। ज्ञान लक्षण है वह आत्मा है। एक कल्याण स्वरूप है, सत्यार्थ पदार्थ आत्मा है, वही है। ज्ञान, जितना ज्ञान है वह आत्मा है। उसमें दृष्टि करनेसे, भेदज्ञान करनेसे इसमें सुख और इसमें-से आनन्द प्रगट होता है। इसलिये इसमें ही तृप्त हो, इसमें ही रुचि कर, इसमें प्रीति कर। शास्त्रमें आता है।

आत्मामें सब भरा है, संपूर्ण सब इसमें भरा है।

इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे,
इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।।२०६।।

इसमें सदा प्रीति कर, रुचि कर, संतुष्ट हो, उसमें तृप्त हो। उसमें-से उत्तम सुख प्रगट होगा। अंतर-से प्रगट होगा, किसीको पूछना नहीं पडेगा। तेरे अंतरमें-से सुख प्रगट होगा।

समाधानः- .. परिणामका ज्ञान होता है, परिणामको जानता है। मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप आत्मा ही हूँ, ऐसा ज्ञान होता है। परिणामको जाने वह ज्ञान, ऐसे तो जानता है


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तो एक लक्षण जाननेमें आया कि यह परिणाम है, यह परिणाम है, यह परिणाम है। परिणामको जानता है वह आत्मा स्वयं ज्ञायक अस्तित्व है, वही मैं आत्मा हूँ। जो जाननेका अस्तित्व ज्ञायक आत्मा वही मैं हूँ। परिणाम परिणामको जानता है वह तो क्षण-क्षणकी पर्याय होती है, क्षणिक ज्ञान ऐसा नहीं। मैं अखण्ड ज्ञायक स्वभाव हूँ। उसको ...

सबको एक धारावाही अखण्ड जाननेवाला है वह मैं हूँ। ज्ञायक स्वभाव मैं (हूँ)। परिणाम चले जाते हैं। बचपनसे बडा हुआ, ऐसा हुआ, वह सब परिणाम चले गये। जाननेवाला तो वही है, जो जाननेवाला है, बचपनका, उसके बादका, उसके बादका जाननेवाला तो वही का वही है। जाननेका अस्तित्व जो धरनेवाला है, जाननेका अस्तित्व जिसमें वह ज्ञायकका अस्तित्व मैं ही हूँ। विभावपर्याय, विभावको जाननेवाला और एक- एक ज्ञेय खण्ड-खण्ड ज्ञेयको जाननेवाला वह मैं नहीं हूँ, अखण्ड ज्ञायक स्वभाव मैं हूँ। ज्ञायक जाननेका अस्तित्व धरनेवाला वह मैं हूँ।

जाननेवाला परिणामको जानता है, कोई जाननेवाला तत्त्व (है)। परन्तु खण्ड खण्डको नहीं ग्रहण करना, अखण्डको ग्रहण करना। द्रव्य पर दृष्टि करना। विभावपर्याय नहीं हूँ, भेदका विकल्प भी मेरा मूल स्वभाव नहीं है। केवलज्ञानकी पर्याय, अधूरी पर्याय वह भी पर्याय प्रगट होती है, ज्ञानमें जाननेमें आता है, परन्तु मैं अखण्ड शाश्वत अनादिअनन्त द्रव्य हूँ। इसमें कोई विभाव आनेसे उसकी शक्ति मन्द हो गयी, ऐसा नहीं। मैं तो अनन्त शक्ति(वान), जैसा है वैसा ही मैं अनन्त शक्तिस्वरूप आत्मा ही हूँ। साधनाकी पर्याय प्रगट होती है, वह जाननेमें आती है कि इसमें अधूरी, पूरी पर्याय सब होती है। परन्तु मैं अखण्ड ज्ञायक स्वभावी आत्मा हूँ, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।

मुमुक्षुः- ... उसके पूर्व कैसे विचार होते हैं? किसका चिंतवन, घोलन रहता होगा? भावना कैसी होती होगी कि जिससे हमारी साधनामें पुष्टि हो?

समाधानः- सबको एक जातिका हो ऐसा नहीं होता। अनेक प्रकार (होता है)। आत्माका ध्येय होना चाहिये। आत्माकी प्राप्ति कैसे हो? आत्मामें-से सुख कैसे प्राप्त हो? यह अंतरमें रहना चाहिये। वांचन किसका होता है? विचार कैसे होते हैं? उस वक्त तो कहाँ दिगंबरके इतने शास्त्र बाहर नहीं आये थे। विचार तो, तत्त्व क्या है? वस्तु क्या है? आत्मा क्या है? आत्मामें सुख है, ये विभावमें सुख नहीं है। उस सम्बन्धित, आत्मा सम्बन्धित विचार होते हैं।

गुरुदेव व्याख्यानमें कोई अपूर्व बात कहते थे कि आत्मा भिन्न है, यह शरीर भिन्न है। ये विकल्प भिन्न, अन्दर आत्मा विराजता है, उसमें निर्विकल्प आनन्द प्रगट होता है। ऐसी बातें गुरुदेव अनेक प्रकारकी करते थे। तू पुरुषार्थ कर तो होता है। कर्म


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रोकता नहीं है, निज उपादानसे ही होता है। ऐसी अनेक प्रकारकी प्रवचनमें बात आती थी, उस परसे विचार (आते थे)।

मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? ऐसे अनेक प्रकारके विचार आते थे। एक ही प्रकारके आये ऐसा नहीं होता। वस्तुका क्या स्वरूप है? तत्त्व क्या है? आत्मा शाश्वत कैसे है? पर्यायमें अनित्यता कैसे है? अनेक प्रकारके विचार आते हैं। जिसे जिस प्रकारकी अंतरमें शंका होती है, उस जातके विचार आते हैं।

मूल आत्माकी प्राप्ति कैसे हो? आत्मामें-से सुख कैसे हो? उस जातका ध्येय होना चाहिये। फिर किसीको किस प्रकारके विचार आये, वह स्वयंकी योग्यता पर आधारित है। मूल तत्त्व सम्बन्धि विचार होने चाहिये। आत्मा वस्तु क्या है? उसकी पर्याय क्या है? उसके गुण क्या है? ये विभाव है, विभावमें सुख नहीं है, विभावमें आकुलता है। इस स्वभावमें सुख है। ऐसे, उस सम्बन्धित विचार आने चाहिये। उस जातका घोलन, उस जातका मनन, उस जातकी प्रतीतिकी दृढता करनेका प्रयास वह सब (होता है)। उसीकी लगनी, क्षण-क्षणमें उसके विचार, क्षण-क्षणमें उसका ध्यान, विचार आदि लंबे समय उसीकी एकाग्रता चलती रहे, उसीके विचार चलते रहे। दो-तीन घण्टे, पूरा दिन और रात वही चलता रहता था।

मुमुक्षुः- हम लोग वढवाण गये थे। मामाने सब बात कही कि आपकी मामाके साथ चर्चा होती थी। तो उस चर्चामें मुख्य विषय क्या था? कि जिससे हमें पुष्टि मिले।

समाधानः- अभी आप लोगोको गुरुदेव-से कितना मिला है! अन्दर एक प्रयत्न करना ही बाकी रहा है। भेदज्ञानका क्या स्वरूप है? ये दो तत्त्व भिन्न, द्रव्य-गुण- पर्याय क्या, उत्पाद-व्यय-ध्रुव क्या, सब गुरुदेवने ऐसा स्पष्ट कर दिया है। आत्मा नित्य कैसे? द्रव्य नित्य कैसे? पर्यायमें अनित्यता है, गुणके भेद पर दृष्टि नहीं करनी, पर्यायभेद पर दृष्टि नहीं करनी, अखण्ड पर दृष्टि करनी। सब ज्ञान करना। अभी तो बहुत मिला है।

उन दिनोंमें तो यह कोई बात थी नहीं। अभी तो क्या सत्य है? उसके विचार चलते थे। वस्तु तत्त्व क्या सत्य है? जगतमें अनेक जातके मतभेद हैं, उसमें यथार्थ क्या है? ऐसी चर्चा चलती थी। उसमें हिंमतभाईको तो बहुत जातके विचार (आते थे), उन्हें भी उतने विचार चलते थे, मुझे भी उतने विचार चलते थे। प्रयत्न चलता रहता था कि सत्य क्या है? अनेक जातके मत जगतमें है, उसमें यथार्थ क्या है? उस जातकी चर्चा चलती थी। उसमेंसे नक्की (किया)।

उसमें गुरुदेव क्या कहते हैं? उस प्रकारसे विचार चलते थे। परन्तु यथार्थ तत्त्व क्या है? उसके विचार चलते थे। हिंमतभाई भी उतने विचार करते थे, यहाँ मुझे भी


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इतने विचार चलते थे। गुरुदेवने प्रवचन करके इतना स्पष्ट कर दिया है कि किसीको कहीं शंका रहे ऐसा नहीं रहा है। अन्दर भेदज्ञान (करना बाकी रहता है)। सब तैयार करके गुरुदेवने माल दिया है। अन्दर स्वयंको परिणति करनी बाकी रहती है। उन दिनोंमें तो अनेक जातके विचार (आते थे)।

शास्त्रमें क्या आता है? इतने शास्त्र नहीं पढे थे। तत्त्व क्या सच्चा है, अभी तो यह निर्णय करना बाकी था। शुभमें धर्म नहीं है, शुभमें आकुलता है। ऊच्चसे उच्च शुभभाव पुण्यबन्ध आकुलता कैसे है? उन दिनोंमें अभी तो यह नक्की करना था। बाह्य क्रियामें धर्म नहीं है, शुभभावमें धर्म नहीं है। देवलोक मिले वह भी आकुलता है। यह सब किस प्रकारसे है? यह सब निर्णय करना था, अभी तो स्थूल निर्णय करना था। अभी तो सूक्ष्ममें आगे जाना बाकी था।

उसमें-से मैं ज्ञायक हूँ, यह विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। यहाँ तक अन्दर पहुँचना था। विचार कर-करके निर्णय करना था। शुभभावमें धर्म नहीं है। अनन्त बार देवलोक मिला, वहाँ-से वापस आया। गुरुदेव कहते थे, चमडी उतारकर नमक छिडके ऐसी क्रिया की, तो भी उसे धर्म नहीं हुआ है। तो भी उसे स्वभाव प्रगट नहीं हुआ। यह सब कैसे है? अभी तो विचार करके यह सब नक्की करना था। ऐसी सब चर्चा चलती थी।

उसमें-से निर्णय करके यह भेदज्ञान, यह स्वभाव, चैतन्य ज्ञायक स्वभाव वह मैं हूँ और यह विभाव मैं नहीं हूँ, उसमें-से नक्की-दृढता करके, उस मार्ग पर दृढता करके आगे उसीकी दृढता, उसीका ध्यान दो-तीन घण्ट तक वही चला करता था। और पूरा दिन और रात वही चलता था। मैं ज्ञायक हूँ और यह मैं नहीं हूँ। अंतरमें- से ही यह चलता रहता था।

अभी तो दर्शन कौन-सा सत्य है? अभी तो श्वेतांबर-दिगंबर क्या? अभी तो वह भी पूरा बाहर नहीं आया था। उसमें-से मूल तत्त्व ग्रहण करना था। किसीको पूछने जाय, सागरानंदको पूछने जाय, रामविजयको पूछने जाय, देरावासी साधुको पूछने जाय, कहाँ-कहाँ सबको पूछते थे। मैं तो अन्दरसे प्रश्न-चर्चा करती थी। पहलेकी बात और अभीकी बात (अलग है)। आपको तो सब पूरा-पूरा मिल गया है। अन्दर करनेका है।

मुमुक्षुः- रतनबहिनको पूछने जाते थे।

समाधानः- हाँ, रतनबहिनको पूछने जाते थे। कुछ नया हो, कोई आया हो अथवा कोई ध्यान करता है और कोई आत्मा (सुनाता है), देखने जाते थे। अभी तो सब नया लगता था।

मुमुक्षुः- उनको वढवाणकी बातें बहुत अच्छी लगी। कल कहते थे। वढवाणकी


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बातसे मुझे दृढ हुआ कि सोनगढमें ही रहना। ... "मानादिक शत्रु महा निज छन्दे न मराय, जाता सदगुरु शरणमां...' सत्पुरुषके शरणमें रहना वह मुझे दृढ हो गया। पहले विचार आता था, परन्तु आपकी बचपनकी बातें सुनकर.. ये दोनों भाईओंने कहा, .... मुझे छोडकर आ जाना है। कल कहते थे।

समाधानः- (चर्चा) चलती थी, उसमें-से नक्की करते थे कि सत्य क्या है? लेकिन गुरुदेव कुछ अपूर्व कहते हैं, ऐसा मुझे भी लगता था और हिंमतभाईको भी लगता था कि यह कोई अपूर्व बात है। इस रास्तेसे नक्की हो सके ऐसा है। सम्यग्दर्शन कोई अलग वस्तु गुरुदेव बताते हैं। सब शास्त्रोंमें तो, उस वक्त तो श्वेतांबरके शास्त्र थे न, नौ तत्त्वको जान लिया वह श्रद्धा, और यह सब जूठा है। गुरुदेव तो कुछ अंतरकी श्रद्धा कहते हैं। फिर नक्की करके उसकी चर्चा करते, उसमें-से नक्की हो गया कि बस, यह ज्ञायक स्वभाव... सुख अन्दरसे प्रगट करना। ये ज्ञायकस्वभाव जाननेवाला सो मैं और यह विभाव मैं नहीं हूँ। गुरुदेव कहते थे, ऊच्चसे उच्च शुभभाव भी पुण्यबन्धका कारण है। देवलोक हो, परन्तु वह आत्माका स्वभाव नहीं है।

उस वक्त कहते थे कि, भगवानको दया नहीं होती। ऐसा कहते थे तो ऐसा लगता था कि ये क्या कहते हैं? आश्चर्य लगता था। दया वह शुभभाव है। दया शुभभाव कैसे होगा? एकदम शुरूआत थी न। इसलिये ऐसा लगता था।

मुमुक्षुः- ..कुमारके भवका प्रख्यात दृष्टान्त था।

समाधानः- हाँ। ऐसे भगवान अनन्त करुणावन्त कहलाये और ऐसे भगवानको दया-शुभभाव भगवानको नहीं होता। इसलिये दयाका भाव नहीं होता और ऐसे भगवान अनन्त करुणावंत कहलाये। ये सबका कैसे मेल है? ऐसा होता था।

फिर ऐसा कहते थे कि शुभभाव वह विकल्प है, पुण्यबन्धका कारण है। करुणा तो भगवानको अकषाय करुणा है, उनकी वाणी बरसती है। विभावसे आत्मा भिन्न है, यह नक्की करना था। फिर गुणभेद, पर्यायभेद वह सब तो उससे भी आगे थे। आत्मामें अनन्त गुण हैं, पर्याय क्षण-क्षणमें परिणमती है। उस भेद पर भी दृष्टि करके अभेद ज्ञायक पर दृष्टि करनी। यथार्थ सम्यग्दर्शन तो आत्मा पर दृष्टि करे तो ही प्रगट हो। वह आगे था।

परन्तु एक ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण होने पर उसमें सब आ जाता है। उसमें एक ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करने पर उसमें भेदज्ञानकी धारा (चलती है कि), यह मैं हूँ और यह नहीं हूँ। ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करे उसमें अभेद दृष्टि उस पर जाये तो उसमें सब समाविष्ट हो जाता है। एक अंश प्रगट हुआ, स्वरूपकी ओर गया, शुद्धात्माकी एक पर्याय सम्यग्दर्शन (प्रगट हुयी)। स्वभाव-ओरका अपना एक अंश प्रगट


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हुआ। उसमें उसे सब ज्ञात हो जाता है। एक ज्ञायकको जानने पर उसमें सब आ जाता है।

फिर गहरी-गहरी स्पष्टता तो गुरुदेवके प्रवचनमें धीरे-धीरे आती थी। पहले तो आत्मा भिन्न, अन्दर निर्विकल्प स्वानुभूति होती है, विकल्पसे भिन्न, शुभभावसे भिन्न। समयसार शास्त्र सभामें राजकोटमें पढा। उसके पहले तो श्वेतांबर पढते थे न, उसमें-से सब आत्मा पर कहते थे।

सहज स्वभाव है, उस पर दृष्टि करे। उस पर दृष्टि करके विकल्पसे भिन्न हो तो अंतरमें स्वानुभूति होती है। अन्दर आनन्द सागर प्रगट होता है, ऐसा गुरुदेव बोलते थे तब ऐसा लगता था कि ये आनन्द सागर अन्दर प्रगट होता है, गुरुदेव ये कैसी बात करते हैं? आनन्द सागर प्रगट होता है (तो) अन्दर आत्मामें कैसा आनन्द सागर होगा? ज्ञानका सागर और आनन्दका सागर बोलते थे।

मुमुक्षुः- आनन्द सागर.. किस प्रकारसे उसमें...?

समाधानः- वह तो अन्दरकी स्वयंकी जिज्ञासासे ही सब आगे चलता है। मैं इस ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करुँ, उसमें सब है। ज्ञायकमें सब भरा ही है। स्वयं विचार करे, अन्दरसे प्रतीतिकी दृढता स्वयंको आ जाती है कि इस ज्ञायकके अस्तित्वमें सब (भरा है), ज्ञायक स्वभावमें सब भरा ही है। ऐसा अन्दरसे विचार करके अन्दरसे ऐसी दृढता आ जाती है। ये विभाव मैं नहीं हूँ। स्वभावमें जो हो वह प्रगट होता है। बस, मुझे एक स्वभाव चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। स्वभावका अस्तित्व ही ग्रहण कर लेना। उसीमें सब भरा है।

एक ज्ञायक अस्तित्व मेरा स्वभाव मुझे चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। अन्य सब स्पृहा जिसे छूट जाय। ऐसा निस्पृह होकर एक ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण कर लेता है। उसमें लंबे विचार, विकल्पकी जालको छोडकर अस्तित्वको ग्रहण करके अन्दर लीन हो जाय तो जो हो वह उसे प्रगट होता है। अन्दर आनन्द सागर भरा है। उसमें प्रतीतिमें दृढ हो जाता है कि इसीमें सब भरा है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!