Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 22.

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ट्रेक-०२२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उत्पाद और व्यय तो क्रमशः होते ही रहते हैं।

समाधानः- उत्पाद, व्यय और ध्रुव, सब एक समयमें होता है। जिस समय उत्पन्न होता है, उसी समय व्यय होता है, उसी समय ध्रुव है। उत्पाद, व्यय और ध्रुव आत्माका स्वरूप है। उत्पाद, व्यय, ध्रुव, प्रत्येक द्रव्यमें उत्पाद, व्यय, ध्रुव होते रहते हैं। स्वभावकी ओर मुडे तो स्वभावका उत्पाद हो। ये विभावकी ओर है तो विभावका उत्पाद होता है।

मुमुक्षुः- स्वभावकी ओर मुडे तब उसे उसका उत्पाद-व्यय कैसे ख्यालमें आये?

समाधानः- स्वभाव तो अनादि अनन्त स्वयं ही शाश्वत ज्ञायक आत्मा है। वह तो ध्रव स्वरूप है। ध्रुव भी अपनी ओर मुडकर जो उत्पाद हुआ, अपनी ओर स्वभावकी पर्याय हुयी, उसका स्वयंको वेदन हुआ, वह स्वयंका उत्पाद हुआ।

मुमुक्षुः- फिर व्यय?

समाधानः- व्यय-विभावका व्यय हुआ और स्वभावका उत्पाद हुआ।

मुमुक्षुः- स्वभावका उत्पाद और विभावका व्यय, उस समय ध्रुव?

समाधानः- उस समय ध्रुव स्वयं है।

मुमुक्षुः- यानी ज्ञायक स्वभाव?

समाधानः- हाँ, ज्ञायक ध्रुव है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हुयी, सम्यग्दर्शनका उत्पाद हुआ और मिथ्यात्वका व्यय हुआ। मिथ्यात्वका नाश हुआ और सम्यग्दर्शनका उत्पाद हुआ और आत्मा ध्रुव है।

मुमुक्षुः- ध्रुव, पर्यायको स्पर्श नहीं करता है न?

समाधानः- ज्ञायक स्वयं ध्रुव ही है।

मुमुक्षुः- तो पर्यायार्थिक ...

समाधानः- .. उत्पाद है वह पर्याय है। पर्याय होती ही रहती है। अनादिसे। अन्दर स्वभावका उत्पाद, विभावका व्यय। फिर जिसकी दृष्टि आत्माकी ओर गयी उसे स्वभावका उत्पाद, स्वभावकी निर्मलता, स्वभावका उत्पाद होता रहता है।

मुमुक्षुः- विभावदशाका..


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समाधानः- हाँ, विभावका व्यय होता जाता है।

मुमुक्षुः- इसीलिये स्थिरता..

समाधानः- स्वयंकी ओर मुडे तो स्थिर पर्याय प्रगट होती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आंशिक होते हैं। चारित्र-स्वरूपाचरण चारित्र होता है। अस्थिरताकी पर्याय उसे खडी है।

मुमुक्षुः- .. कैसे पहचानना और कैसे प्राप्त करना? उसकी रीत (क्या)? हमारी तो अभी शुरूआत है तो कैसे उसे समझनेकी रीत है?

समाधानः- आत्मा तो जानने वाला है। यह जड शरीर तो कुछ जानता नहीं। जानने वाला आत्मा जानने वाला है, वह जानने वाला स्वयं है। लेकिन उस जानने वालेकी महिमा आनी चाहिये कि यह जानने वाला है वही मैं हूँ। यह शरीर मैं नहीं हूँ। अन्दर आकूलता होती है, वह मेरा स्वभाव नहीं है। जानने वाला है वही मैं हूँ। जानने वालेमें अनन्त गुण है। जानने वाला महिमावंत है। उस जानने वालेकी महिमा लाकर जानने वालेको पहचानना चाहिये। उसे पहचाननेका प्रयत्न करना चाहिये। उसके लिये आत्मा कौन है? वह द्रव्य क्या है? उसमें गुण क्या है? उसकी पर्याय क्या है? यह सब उसे पहचानना चाहिये और उसका भेदज्ञान करना चाहिये कि यह शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। उसकी तैयारीके लिये अन्दर लगनी लगानी चाहिये, जिज्ञासा लगानी चाहिये, बाहर कहीं रुचे नहीं, अंतरमें रुचि लगे, कहीं चैन पडे नहीं, यह उसकी विधि है। लेकिन तैयारी स्वयंको करनी चाहिये।

मुमुक्षुः- उसी दशामें ध्रुव तो नित्य टिकता है, उत्पाद-व्यय सिद्धदशामें कैसे लागू होते हैं?

समाधानः- सिद्धदशामें जो वस्तु है उसका स्वभाव ही द्रव्य-गुण-पर्याय है। उसमें अनन्त गुण है। सिद्ध भगवानमें अनन्त गुण हैं। अनन्त गुणकी पर्याय होती रहती है। केवलज्ञान प्रगट हुआ, उस केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट होती ही रहती है। आनन्दकी पर्याय होती ही रहती है। आत्मा अक्रिय ध्रुव है लेकिन उसमें पारिणामिकभाव है। इसलिये क्रिया (होती है)। अक्रिय होने पर भी क्रियात्मक है। उसे परिणमन चलता ही रहता है। प्रत्येक गुणका कार्य आता है। ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है, आनन्द आनन्दरूप कार्य लाता है, ज्ञान ज्ञानरूप कार्य लाता है। चारित्र चारित्ररूपसे कार्य लाता है। ऐसे प्रभुत्व, विभुत्व आदि अनन्त गुण अपने-अपने कार्य रूप परिणमते हैं। सिद्धदशामें भी उत्पाद-व्यय-ध्रुव स्वभावमें होते ही रहते हैं।

मुमुक्षुः- कारणशुद्धपर्याय है..

समाधानः- कारणशुद्धपर्याय अलग है। सिद्ध भगवानमें जो उत्पाद-व्यय-ध्रुव होते


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हैं, वह तो प्रत्येक गुणका कार्य आता है। कारणशुद्धपर्याय तो अनादि अनन्त है। वह तो पारिणामिकभावरूप शुद्ध है। वह अलग है। ये तो सिद्ध भगवानमें उत्पाद-व्यय- ध्रुव होते ही रहते हैं। प्रत्येक द्रव्यमें उत्पाद-व्यय-ध्रुव होते हैं। परमाणुमें भी होते हैं और सिद्धमें भी होते हैं। कारणशुद्धपर्याय अलग है।

मुमुक्षुः- वह तो द्रव्यकी भाँति..

समाधानः- द्रव्यमें अनादि अनन्त त्रिकाल है, वह अलग है।

मुमुक्षुः- उसे ध्रुवकी तरह लेना?

समाधानः- ध्रुव जैसी है, अनादि अन्त है, वह अलग है।

मुमुक्षुः- उत्पाद-व्यय उसे लागू नहीं पडते।

समाधानः- वह नहीं, वह तो अनादि अनन्त ध्रुव है। सिद्ध भगवान स्वयं शुद्धरूप परिणमित हो गये। केवलज्ञानकी पर्याय परिणमित होती ही रहती है, आनन्दकी पर्याय (आनन्दका) कार्य लाये। प्रत्येक गुणकी पर्याय (होती ही रहती है)। उसमें अनन्त गुण हैं, अनन्त गुणकी पर्याय कार्य करती रहती है। उसमें ऐसी क्रिया होती ही रहती है, सिद्ध भगवानमें।

मुमुक्षुः- आनन्दका वेदन उन्हें होता है?

समाधानः- आनन्दका वेदन आदि क्रिया होती रहती है। सिद्ध भगवान बिलकूल कूटस्थ नहीं है।

मुमुक्षुः- साथमें निर्मल पर्यायका परिणमन..

समाधानः- निर्मल पर्यायका परिणमन सिद्ध भगवानमें पूर्ण रूपसे होता रहता है। स्वानुभूतिमें अंश प्रगट हुआ और सिद्ध भगवानमें पूर्ण कार्य होता है।

मुमुक्षुः- ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें ज्ञानकी पर्याय..

समाधानः- दर्शन मुख्य, कोई अपेक्षासे ज्ञानको मुख्य लेते हैं, कोई अपेक्षासे दर्शनको लेते हैं। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गमें कार्य करता है, इसलिये सम्यग्दर्शन (मुख्य है)। लेकिन पहले मार्ग जाननेके लिये ज्ञान होता है, इसलिये ज्ञान लेते हैं। फिर मुक्तिमार्गमें सम्यग्दर्शन मुख्य है। दोनों अपेक्षासे दोनों लेते हैं।

समधानः- गुरुदेव तो गुरुदेव थे, गुरुदेव तो कोई अलग ही थे। शाश्वत रहें, ऐसी सबकी भावना होती है। भावना अनुसार इस कुदरतके आगे किसीका कुछ नहीं चलता। वह बात कोई कह सकता है? गुरुदेवके गुणका वर्णन.. गुरुदेव तो महापुरुष इस पंचम कालमें जन्मे, महाभाग्यकी बात है। सबको उनकी वाणी मिली, कोई अतिशयतायुक्त सातिशय वाणी थी। सबको आत्मा दिखे ऐसी उनकी वाणी थी। भेदज्ञान हो जाये, स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे जीव अटकता है। बाकी उनकी वाणी तो कोई अलग ही


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थी। उनका द्रव्य तीर्थंकरका, इस पंचमकालमें पधारे कहाँ-से? महाभाग्य, पंचमकालका महाभाग्य कि गुरुदेव यहाँ पधारे। उनके गुणोंका वर्णन क्या करें? गुरुदेव तो सर्वोत्कृष्ट इस पंचमकालमें थे।

मुमुक्षुः- प्रज्ञा खीले तो होता है, तो प्रज्ञा खीलानेकी कला कैसी होती है?

समाधानः- भले बुद्धिसे, विचारसे नक्की करे। पहले तो बुद्धिसे, विचारसे नक्की करना होता है। चारों ओरसे युक्तिसे, न्यायसे नक्की करे। लेकिन प्रज्ञा तो किसे कहते हैं? ज्ञायकको पहचाने तो उसे प्रज्ञा कहते हैं। ज्ञायकको पहचानकर कि यह मैं ज्ञायक, यही ज्ञायक है। जिस क्षण रागादि होते हैं, उसी क्षण यह ज्ञान है और यह राग है, ऐसे भिन्न करे तो यहाँ प्रज्ञा शुरू होती है।

मुमुक्षुः- क्षण-क्षणमें अनुभव होता जाता है।

समाधानः- हाँ, क्षण-क्षणमें उसे भेदज्ञान वर्तता ही है। उसे प्रज्ञा कहते हैं। (उसके पहले) प्रज्ञा नहीं है। पहले तो बुद्धिसे ही नक्की करना पडता है। पहले साधन तो उसे बुद्धि ही होती है। बुद्धिसे नक्की करे।

मुमुक्षुः- आगे बढनेके बाद खीलती है?

समाधानः- हाँ, बादमें होती है। बुद्धि, बुद्धिके साथ उसे ज्ञायककी महिमा होनी चाहिये। उसे विरक्ति होनी चाहिये कि इसमें कहीं भी सुख नहीं है। सुख आत्मामें है। ऐसा सब होना चाहिये। जिज्ञासा, भावना, बुद्धिसे नक्की (करना)।

मुमुक्षुः- जीवन उतना उस रूप हो जाना चाहिये।

समाधानः- हाँ। सच्चा तो उसे बादमें प्रगट होता है। पहले तो बुद्धिसे नक्की करता है। बुद्धि और बुद्धिके साथ शुष्कता नहीं होती। मुझे आत्माका करना है। ज्ञायककी महिमा आये, ये सब आकूलता है, सुख कहीं भी नहीं है। ये विकल्पकी जालमें सुख नहीं है, ऐसे उससे विराम लेकर अन्दर जाये। विराम यानी उसे उस जातका वैराग्य आता है। और बुद्धिसे नक्की करे।

मुमुक्षुः- बहुत कठिन है।

समाधानः- कठिन है, लेकिन स्वयंका है। करे तो हो सके ऐसा है। कहीं दूर नहीं है। समीप (है), स्वयं ही है। अनादिसे दूसरा अभ्यास हो गया है इसलिये कठिन लगता है। इसका अभ्यास ऐसा हो जाये, ऐसा प्रयास करे, बारंबार करे तो सहज हो जाता है। परन्तु दूसरा अभ्यास ज्यादा है और यह अभ्यास कम है, इसलिये कठिन लगता है।

मुमुक्षुः- बाहर खिँचा जाता है।

समाधानः- बाहर खिँचाव रहता है। उस प्रकारका परिचय हो गया, इसलिये


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ऐसा होता है। उसके लिये सत्संग आदि हो तो होता है। तो यह संस्कार दृढ रहे। वहाँ मुंबईमें दूसरे क्षेत्रमें फर्क पडता है न। वहाँ मन्दिर आने-जानेका होता होगा? करते रहो, नक्की करो। बाहरमें सब खडा हो जाता है न, क्षेत्र बदले तो सब परिचय बदल जाता है। स्वयंकी उतनी दृढता होनी चाहिये। स्वयंको पुरुषार्थ करना चाहिये।

गुरुदेवने सब उपदेश दिया है। आप लोगोंने उपदेश बहुत बार सुना होगा। बचपनमें उपदेश सुना होगा, वह सब याद करना। गुरुदेव इस कालमें पधारे, महाभाग्यकी बात! ऐसे सत स्वरूपकी पहचान करवाने वाले पंचमकालमें कोई नहीं था, गुरुदेव पधारे तो सबको यह सत स्वरूप जानने मिला। मार्ग गुरुदेवने बताया।

मुमुक्षुः- ... अन्य किसीकी राह देखनी नहीं पडे, इस थोडा (स्पष्ट कीजिये)।

समाधानः- जरूरत नहीं पडे अर्थात द्रव्य-वस्तु उसे कहते हैं कि, वस्तु स्वयं स्वाधीन है। वस्तु स्वयं स्वतःसिद्ध है। उसे किसीने बनायी नहीं है। द्रव्य स्वरूप स्वयं द्रव्य ही है। उसके कार्यके लिये बाहरसे कुछ आये तो कार्य हो, ऐसा द्रव्य नहीं होता। द्रव्य स्वतंत्र होता है। उसका कार्य-उसकी परिणति अन्दर प्रगट हो, वह स्वतंत्र होती है। उसे कोई साधन आये या बाहरके कोई साधन मिले तो उसका कार्य हो, ऐसा नहीं होता। उसके कार्यकी तैयारी अन्दर हो तो साधन तो हाजिर ही होते हैं। उसीका नाम द्रव्य है कि उसके लिये कोई पराधीनता नहीं होती। वह स्वयं स्वाधीन हो, उसे ही द्रव्य कहते हैं। उसके कार्यके लिये किसीकी राह नहीं देखनी पडती। ऐसा उसका अर्थ है। अनन्त शक्तिवान है।

चक्रवर्ती राजा उसे कहें कि सब ऋद्धि उसके पास हो। उसकी ऋद्धिके लिये किसीका इंतजार नहीं करना पडे। चक्रवर्ती ऐसा होता है। वैसे यह चक्रवर्ती राजा, उसके कार्यके लिये अन्य किसीकी जरूरत नहीं पडती, अन्य साधनोंकी। स्वयं सर्व सामर्थ्यवान है। प्रत्येक द्रव्य। अब क्या करना? अब यह साधन नहीं है, तो कैसे आगे बढा जायेगा? स्वयं तैयार हो तो सब साधन होते ही है। अपनी तैयारी होनी चाहिये। स्वयं स्वतंत्र परिणामी द्रव्य है। उसीका नाम द्रव्य कहते हैं।

मुमुक्षुः- सचेत और अचेत, दोनोंमें ..

समाधानः- नहीं, नहीं, वह नहीं। स्वयं स्वयंके लिये स्वतंत्र है। दूसरेके लिये नहीं, दूसरेके लिये नहीं।

मुमुक्षुः- नहीं, अचेत जड द्रव्य है..

समाधानः- स्वतंत्र है। जड जडमें स्वतंत्र, चेतन चेतनमें स्वतंत्र। सब स्वतंत्र ही है। परमाणु स्वयं स्वतंत्र। सब स्वतंत्र हैं। धर्मास्ति, अधर्मास्ति सब द्रव्य स्वतंत्र हैं। उसके कार्यके लिये किसी भी द्रव्यकी किसीको जरूरत नहीं है। साधनोंको निमित्त-नैमित्तिक


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सम्बन्ध है। बाकी उसे किसीके लिये राह नहीं देखनी पडती। प्रत्येक द्रव्यमें प्रत्येक स्वतंत्र है। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वयं स्वतंत्र परिणमते हैं। उसका नाम ही द्रव्य है, नहीं तो द्रव्य कैसा? स्वतंत्र द्रव्य (है)। वैसा पराधीन द्रव्य जगतमें होता ही नहीं। गुरुदेव कहते थे न? भगवान आत्मा है। स्वतंत्र है। (द्रव्यमें) कुछ कम नहीं होता, सब पूरा ही होता है। वह तो पुण्य है, ये तो स्वतंत्र द्रव्य है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! ऐसा है क्या, एक बार अनुभूति हो, फिर वह जब चाहे तब अनुभूति कर सके? चाबी हाथ लग गयी, जब चाहे तब अनुभूति करे।

समाधानः- हाँ, कर सके। स्वयं अन्दर विरक्त हो तब कर सके। बाहरसे उपयोग स्वरूपमें समेट लेना वह अपने हाथकी बात है। स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे बाहर अटका है। कोई उसे रोकता नहीं। उसकी भावना उग्र हो ... भावना उग्र हो कि स्वरूपमें ही लीन होना है, तो हो सकता है। मार्ग उसने जाना है। भावना उग्र हो कि स्वरूपमें लीन होना है, बाहरमें नहीं रुकना है, तो हो सकता है। उसे कोई रोकता नहीं। स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे अटकता है। लीनतामें आगे नहीं बढता तो अपने पुरुषार्थकी मन्दताके कारण।

सम्यग्दर्शन होनेके बाद तुरन्त कोई श्रेणी लगाता है। छठ्ठा-सातवाँ (गुणस्थान) मुनिदशा एकदम आती है, किसीको देर लगती है। स्वयंकी कमीके कारण है। फिर कहनेमें आता है कि कर्मका उदय है, वह सब कहनेको (कहते हैं), अन्दर स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दताके कारण अटका है।

मुमुक्षुः- ... अन्दर भावनाकी उग्रता..

समाधानः- स्वयंकी भावनाकी उग्रता हो तो स्वयं अंतरमें लीन हो सकता है, कोई उसे रोक नहीं सकता।

मुमुक्षुः- ऐसा कोई नियम नहीं है कि एक महिनेमें एक ही बार निर्विकल्प हो, पंद्रह दिनमें हो, जैसी स्वयंकी भावना...

समाधानः- हाँ, स्वयंकी उग्रता अनुसार होता है। उसमें नियम नहीं है। परन्तु उसकी भूमिका योग्य होता है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें मुनिदशामें जो होता है, वह दशा उसे गृहस्थाश्रममें नहीं आ सकती। क्योंकि वह बाहरमें ज्यादा रुका है। मुनि उसप्रकारसे बाहरमें नहीं रुके हैं, उन्हें तुरन्त (निर्विकल्पता) होती है। गृहस्थाश्रममें उसका नियम मुनिदशा जितना (नहीं हो सकता), भावना हो तो भी मुनिदशा जितना नहीं हो सकता। उतना वह छूट नहीं सकता। परन्तु उसका नियम नहीं है। एक महिनेमें हो, पंद्रह दिनमें हो, उससे भी जल्दी हो। ऐसा कोई नियम नहीं है। किसीको पंद्रह दिन, महिनमें, किसीको उससे भी जल्दी होता है। ऐसा कोई नियम नहीं है। किसीकी उग्र धारा


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हो तो उससे भी जल्दी होता है। लेकिन मुनिदशा जितना नहीं।

मुमुक्षुः- एक सप्ताहमें हो, चार दिनमें हो...

समाधानः- जैसी उसकी परिणतिकी उग्रता हो उस अनुसार हो सकता है।

मुमुक्षुः- यदि उग्रता अधिक हो तो ज्यादा देर तक तत्त्व चिंतवन चलता है, उग्रता नहीं हो तो...

समाधानः- हाँ, विकल्प सहित है, उसकी उग्रता अनुसार तत्त्व चिंतवन चलता है। नहीं तो उसका उपयोग पलट जाता है।

मुमुक्षुः- उसमें पुरुषार्थ ही कारण है। समाधानः- पुरुषार्थका कारण है। कर्म तो निमित्त है, वह तो अनादिका अभ्यास है इसलिये दौडा जाता है। परन्तु अपनी उग्रता यदि तत्त्व चिंतवनमें हो तो उस अनुसार रहता है। इसे तो डोर उसके हाथमें है। अपने कारणसे रुका है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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