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समाधानः- ... स्वभावको स्वयं (पहचाने)। मैं ज्ञायक, जो जाननेवाला है वह स्वयं है। जाननेवालेमें आनन्दादि अनन्त गुण हैं। ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त गुण। उसका स्वभाव कैसे पहचानमें आये? पहचाननेके लिये शास्त्रका अभ्यास, गुरु प्रत्यक्ष हो तो उनकी वाणी सुननेसे बहुत फर्क पडता है। क्योंकि वे तो अपूर्व बात (कहते हैं)। गुरुदेवकी प्रत्यक्ष वाणीमें आये, ऐसा शास्त्रमें-से समझमें नहीं आता। परन्तु स्वयं विचार करके उसमें-से क्या वस्तु है? अभी कोई उपाय न हो तो शास्त्रमें-से, कोई मुमुक्षु हो तो उसका सत्संग करने-से जानना कि आत्माका स्वभाव क्या? ये विभाव क्या? ये पुदगल भिन्न, विभावस्वभाव आत्माका नहीं है, ज्ञायक स्वभाव स्वयं हैैं। उसका विचार, उसका वांचन, उसकी लगन, उसकी महिमा, पर पदार्थ परसे उसकी महिमा कम हो जाय और चैतन्यकी महिमा लगनी चाहिये, तो हो। करने जैसा एक ही है। चैतन्यको पहचाने तो उसमें-से आनन्द आदि अनन्त गुण प्रगट होते हैं। भेदज्ञान करनेका उपाय करे। परन्तु उसके लिये उसका विचार, वांचन करना चाहिये, उसकी लगन लगानी चाहिये।
मुमुक्षुः- निरंतर लगन चालू रहे, उसके लिये यह सब पुरुषार्थ करना?
समाधानः- पुरुषार्थ करना। उसका विचार, उसका वांचन, बस! महिमावंत चैतन्य ही है, ऐसा निश्चय करना चाहिये कि आत्मामें ही सब सर्वस्व है, बाहर कहीं नहीं है। ऐसा यदि स्वयंको निश्चय और प्रतीत हो तो स्वयं उस ओरका विचार, वांचन कर सके। उतना निश्चय होना चाहिये कि आत्मामें ही सब है, बाहरमें कहीं नहीं है।
गुरुने क्या कहा है? शास्त्रमें क्या आता है? सबका विचार करना। गुरुने क्या मार्ग बताया है? वह समझनेके लिये कोई मुमुक्षुका सत्संग करना। गुरुने क्या कहा है? शास्त्रमें क्या (कहा है)?
मुमुक्षुः- अनुभूतिमें आत्मा दिखाई देता है?
समाधानः- आत्माकी अनुभूति होती है। आत्माका स्वभाव है उसका वेदन होता है। आत्मा अनन्त गुणसे भरा है। उसमें ज्ञान, आनन्दादि अनन्त गुण हैं। आत्माके दर्शन होते हैं, आत्माका वेदन होता है।
मुमुक्षुः- अरूपी है तो ..
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समाधानः- अरूप है। लेकिन यह रूपी वर्ण, गन्ध इत्यादि सब नहीं है। अरूपी अर्थात स्वयं वस्तु है न? अपने स्वभावको स्वयं देख सकता है। अरूपी अर्थात स्वयं अपने ज्ञान-से स्वयंको पहचान सकता है। उसका वेदन कर सकता है।
.. केवलज्ञानी भगवान भी, सम्यग्दृष्टि भी उसकी स्वानुभूतिमें उसे देख सकश्रते हैं, उसका वेदन कर सकते हैं। स्वानुभूतिके समय उसका वेदन कर सकते हैं, उसे प्रत्यक्ष देख सकते हैं। अनुभूतिमें वह प्रत्यक्ष ही है, ऐसा उसे दर्शन होता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- कर्म छूट जाते हैं। पहले आंशिक स्वानुभूति होती है। इसलिये अमुक प्रकारसे कमाका नाश होता है। फिर जैसे आगे बढे वैसे अधिक कमाका नाश होता है। केवलज्ञान होता है तब पूर्ण कमाका नाश होता है। सम्यग्दर्शन हो, स्वानुभूति हो तब थोडे कमाका। स्वानुभूति जब होती है, इसलिये जो अनन्त भव उसके होते थे, उस अनन्त भवका अभाव होता है, ऐसे कर्मका नाश हो जाता है। फिर थोडा ही बाकी रहता है। अनन्त भवका नाश हो जाय, ऐसे कर्मका नाश हो जाता है। लेकिन स्वानुभूति हो तब।
उसकी दृष्टि कर्म पर नहीं है। निज स्वभाव पर ही दृष्टि है। स्वभावका वेदन हो, उसी पर दृष्टि है-स्वभाव पर। कर्म तो स्वयं छूट जाते हैं। अनन्त भवका अभाव हो जाय। ऐसे कर्मका नाश हो जाता है। फिर तो अल्प-थोडे रहते हैं।
... विकल्पको तो स्वयं जानता है न? जो विकल्प हो रहे हैं, राग-द्वेष, संकल्प- विकल्प, पूरे दिन भरके विकल्प, सब धमालके विकल्प, व्यापार-व्यवसायके जो-जो विकल्प आते हो, उस विकल्पको तो स्वयं जानता है न? कि ये विकल्प मुझे हुए। कितने? सुबहसे शाम तक जो विचार आये, उस विचारको तो जानता है। वह जाननेवाला कौन है? सब विचार तो चले जाते हैं। बचपनसे बडा हुआ, उसमें जो विचार, विकल्प आये वह विकल्प तो चले गये। परन्तु उसका जाननेवाला विद्यमान है। उसे याद करे तो उसे सब याद आता है। वह जाननेवाला है। जाननेवाला है वह जान रहा है। वह जाननेवाला अन्दर विद्यमान है।
चर्म चक्षुसे दिखे ऐसा नहीं, परन्तु अन्दर जाननेवाला है वह सब याद करता है। उसका अस्तित्व है-जाननेवालेका। उसकी मौजूदगी है, उसका अस्तित्व है? वह जाननेवाा कौन है? विकल्प तो सब चले गये, परन्तु उसे याद करे तो, मुझे ऐसे-ऐसे विचार आये थे, जाननेवाला अन्दर है। यह शरीर कुछ जानता नहीं है। वह तो जानता नहीं, विकल्प तो सब आकर चले गये, अन्दर जाननेवाला एक तत्त्व विद्यमान है। वह जाननेवालेका अस्तित्व है अन्दर, वह जान रहा है।
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... विकल्पकी जाल तो अन्दर चलती है। सूक्ष्म होकर देखे तो विकल्पकी जालमें जाननेवाला विद्यमान है। आँख बन्द करके बैठे तो भी विकल्प-विकल्पकी जाल चलती है। अन्दर देखे तो अन्दर जाननेवाला विद्यमान है। वह जाननेवाला सब जान रहा है। वह जाननेवालेका अस्तित्व है। जाननेवालेका अस्तित्व है वह आत्मा है। लेकिन अन्दर वह उसे पहचानता नहीं है। जाननेवाला है उसमें अनन्त गुण हैं। भेदज्ञान करे, विकल्पसे भिन्न आत्मा है। उसका यथार्थ सूक्ष्म होकर भेदज्ञान करे तो स्वयं स्वयंको देख सकता है, स्वयं स्वयंको वेद सकता है। वह अरूपी होनेके बावजूद वह जाननेवाला जाननस्वरूप है, वह ख्यालमें ले तो जाननेवालेका अस्तित्व उसे ख्यालमें आ सकता है। वह जाननेवालेका वेदन चला नहीं जाता। जो-जो विचार आये उसका जाननेवाला ज्यों का त्यों विद्यमान रहता है।
मुमुक्षुः- ध्यानसे ज्ञात होता है? आत्माको प्राप्त करनेके लिये..?
समाधानः- समाधि, परन्तु उसे ज्ञानपूर्वक समाधि होनी चाहिये। भले अधिक शास्त्र जाने ऐसा नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत तो जानना (चाहिये)। बिना जाने ध्यान करे अथवा कुछ समझे बिना ध्यान करे तो स्वयंको स्वयं पहचानता नहीं है। विकल्प- विकल्प छोडे, फिर कहाँ खडे रहना वह मालूम नहीं। स्वयंको पहचाने कि मैं जाननेवाला हूँ, ये सब विकल्प है। इस प्रकार भेदज्ञान करके यदि ध्यान करे तो उसका ध्यान यथार्थ हो। भेदज्ञान बिना ऐसे ही ध्यान करे तो उसे शून्य जैसा, शून्याकार जैसा हो जाय, तो वह आगे नहीं बढ सकता।
मुमुक्षुः- ऐसे मान लिया कि आत्मा वस्तु सच्ची है, फिर कैसे प्राप्त करना?
समाधानः- सच्ची है, लेकिन उसने ऊपर-ऊपरसे जाना, अन्दरसे उसे उसका स्वभाव पहचानकर जानना चाहिये। ऊपर-ऊपर-से जान लिया ऐसा नहीं, परन्तु अंतरमें उसे भेदज्ञान होना चाहिये। उसे क्षण-क्षणमें जो-जो विकल्प जो-जो कार्य हो, उन सबमें मैं जाननेवाला भिन्न, भिन्न, भिन्न हूँ, ऐसी धारा उसे होनी चाहिये। मैं जाननेवाला भिन्न ही हूँ। ऐसा उसे अन्दरसे भेदज्ञान होना चाहिये, तो उसका ध्यान यथार्थ हो। नहीं तो सब एकत्व (हो रहा है)। भिन्न जानता नहीं है और ध्यान करे तो उसे शून्य जैसा हो जाय। सूक्ष्म-सूक्ष्म विकल्प आवे और उसे भ्रम हो जाय कि मेरे सब विकल्प छूट गये, ऐसा उसे लगे। परन्तु भेदज्ञान करके मैं भिन्न हूँ, इस प्रकार उसे ज्ञान हो तो सच्चा ध्यान हो।
भेदज्ञान करके ध्यान करे। स्वयंको पहचानकर, अपना अस्तित्व ग्रहण करके, तो उसे यथार्थ ध्यान हो। ध्यान सच्चा परन्तु ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। स्वयंको यथार्थरूपसे ध्यान होना चाहिये। पहचान किये बिना ध्यान (करे), वह गधे सीँगकी भाँति, पहचान
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किये बिना ध्यान करे उसका फल यथार्थ नहीं आता।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान प्राप्त करनेके लिये सत्पुरुषका समागम न?
समाधानः- हाँ, सत्समागम चाहिये। गुरुदेव क्या कहते हैं, उस तत्त्वका विचार चाहिये। सत्समागम, तत्त्व विचार, शास्त्रका अभ्यास, अभ्यास अर्थात प्रयोजनभूत स्वयंको पहचाननेका ऐसा (अभ्यास) चाहिये। उसकी महिमा चाहिये, उसकी लगन चाहिये।
मोक्षकी प्राप्ति हो अर्थात आत्मा चैतन्य अकेला निराला हो जाय और अन्दर जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द आदि भरे हैं, वह सब उसके स्वभाव प्रगट होते हैं। अनन्त शक्ति-से भरा आत्मा है। वह स्वयं अंतरमें अपने गुण सहित प्रगट होता है। अनन्त पर्यायें प्रगट होती हैं, अनन्त निर्मलता, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त बल अनन्त स्वरूप उसका प्रगट होता है। उसकी दृष्टि अलग हो जाय। स्वयं चैतन्य स्वरूपमें चैतन्यलोकमें चला जाता है। चैतन्य स्वरूपमें-से उसे अनन्त गुण प्रगट होते हैं। अनन्त-अनन्त स्वभाव प्रगट होता है।
मनुष्य गतिमें, प्रगट मनुष्य गतिमें होता है। परन्तु कहीं उसने उपदेश सुना हो। अनन्त कालमें जीवने एक बार कोई देवका, गुरुका उपदेश सुना हो और उसे अन्दर ग्रहण किया हो तो उतना अंतरमें हो तो उसे प्रगट होता है। फिर दूसरे भवमें उसे कोई भी गतिमें प्रगट होता है, तैयारी करे तो। बाकी केवलज्ञान तो मनुष्यगतिमें ही होता है। .. गतिमें प्रगट होता है। इस मनुष्य गतिमें तैयारी करे।
समाधानः- ... पहले श्रद्धा यथार्थ करनी कि पुण्यभाव और पापभाव दोनों विभावभाव है। ऐसे श्रद्धा यथार्थ करनी। एक ज्ञायक स्वभाव निर्विकल्प तत्त्व, जिसमें कोई विकल्प नहीं है। ऐसा ज्ञायकतत्त्व मैं हूँ, उसकी श्रद्धा करके उसमें लीनता करनी, उसीसे धर्म है। श्रद्धा यथार्थ ऐसी होनी चाहिये। फिर जबतक अतंरमें स्वयं लीन नहीं हुआ है और उस जातकी परिणति नहीं हुयी है, तबतक बीचमें शुभ परिणाम आते हैं। परन्तु वह शुभ परिणाम अपना स्वभाव नहीं है। वह आकुलतारूप है, ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये। परन्तु जबतक उसे अंतरमें उतनी परिणति प्रगट नहीं हुयी है, तबतक बीचमें शुभभाव- देवके, गुरुके, शास्त्रके ऐसे शुभभाव आते हैं। परन्तु वह उसे ऐसा नहीं मानता है कि इसीसे मुझे लाभ, सर्वस्व लाभ होता है, ऐसा नहीं मानता है।
श्रद्धा उसे ऐसी होनी चाहिये कि दोनों भावसे न्यारा मैं चैतन्य निर्विकल्प तत्त्व हूँ। परन्तु जबतक अंतरमें प्रगट नहीं हुआ है, तबतक बीचमें देव-गुरु-शास्त्रके विचार आये बिना नहीं रहते। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभावमें जिनेन्द्र देव, गुरु और श्रुतके विचार, शास्त्रके विचार उसमें बीचमें आते हैं। परन्तु वह आत्माका मूल स्वभाव नहीं है। ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये। प्रथमसे ही सब छूट नहीं जाता, परन्तु उसे श्रद्धा होती
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है, उसका भेदज्ञान होता है।
.... रखकर सब बात की है। अनन्त कालसे जीवने दृष्टि प्रगट नहीं की है। दृष्टि मुख्य रखकर गुरुदेव कहते थे। उसमें जिसकी जो रुचि और जिसकी ग्रहण करनेकी शक्ति हो, उस अनुसार ग्रहण कर लेता है। जिज्ञासुको स्वयंको क्या ग्रहण करना उसके हाथकी बात है।
मुमुक्षुः- .. की बात भी उतनी जोरसे करते थे।
समाधानः- हाँ, गुरुदेव वह बात आये तो वह भी जोरसे कहते थे और यह बात आये तो यह जोरसे कहते थे। उसमें गुरुदेवका क्या अभिप्राय और आशय है, उसे समझना पडता है। सब बात करते थे। दोनों पहलूसे बात आती थी।
पर्याय द्रव्य बिना निराधार नहीं होती। तथापि द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप समझानेके लिये, गुणका यह स्वरूप, द्रव्यका और पर्यायका अंशका स्वरूप, उसका भिन्न-भिन्न स्वरूप वर्णन करनेमें आये तब ऐसा आये। बाकी द्रव्य और पर्याय एकदम टूकडे (नहीं है)। दो द्रव्य स्वतंत्र हैं, वैसे पर्याय और द्रव्य उस प्रकारसे स्वतंत्र हो तो दो द्रव्य हो जाय। तो उसे पर्याय ही नहीं कह सकते। तो फिर दो द्रव्य हो जाते हैं। परन्तु पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है।
जितनी स्वतंत्रता दो द्रव्यकी है, उतने ही पर्याय और द्रव्य स्वतंत्र हो तो उसे पर्याय ही नहीं कहते। उसके स्वरूपसे उसका अंश स्वतंत्र है। परन्तु वह पर्याय द्रव्यके आश्रयसे (होती है)। किसकी पर्याय है? चैतन्यकी पर्याय है। इसलिये पर्यायको चैतन्यका आश्रय है।
मुमुक्षुः- स्वप्नमें बहुत बार आये तो ... ?
समाधानः- ऐसी व्यक्तिगत बात क्या पूछनी? स्वप्न भी आये, गुरुदेव प्रवचन करते हो ऐसा भी आये, अनेक जातका आये। इतने वर्ष यहाँ व्यतीत किये हो तो वह तो आये न। ऐसा दिखाव, माहोल ऐसा हो जाता है कि गुरुदेव विराजते ही हैं, ऐसा हो गया। सबके भावमें ऐसा हो गया। स्वर्गमें तो विराजते हैं। क्षेत्रसे दूर है। यहाँ सबको भावमें ऐसा आरोप हो गया था कि गुरुदेव यहाँ विराजते हैं। उपयोग रखे तो ज्ञानमें तो सब ज्ञात होता है। अवधिज्ञानका उपयोग रखे तो सब ज्ञात हो। यह भरतक्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र सब उन्हें दिखता है। गुरुदेवको तो सब ख्याल होता है। यहाँ सबको ऐसा हो गया कि गुरुदेव यहाँ विराजते हैं। ऐसा हो गया था। .. किसीको देखनेमें आ गये हो तो किसीने देखा हो। आ गये हो तो विराजते तो हैं, किसीको मालूम थोडा ही पडता है, आ गये हो तो।
मुमुक्षुः- किसीको दिखाई दिये हो और किसीको दिखाई न दिये हो।
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समाधानः- पंचमकाल है, किसीको कहाँ दिखाई दे। समाधानः- ... शुद्धात्मा मेरा आत्मा, सब विकल्पसे भिन्न आत्मा कैसे प्रगट होवे? ऐसा आत्माका भेदज्ञान न्यारा जब होवे तब भवका अभाव होता है।
मुमुक्षुः- ...?
समाधानः- तब होता है। अनन्त कालमें .. भवका अभाव होता है। तो भीतरमें सुख और आनन्द प्रगट होता है। ... है नहीं। मैं तो वीतराग स्वभाव हूँ, ये कषायभाव है। वह कोई मेरा स्वभाव नहीं है। भिन्नताका ऐसा विचार करना। पुरुषार्थकी मन्दतासे, एकत्वबुद्धिसे आवेगसे आ जाता है तो पुरुषार्थ पलट देना, आत्माका विचार करना।
मुमुक्षुः- हम तो आत्माको..
समाधानः- रुचि करना। आत्मा-ओरकी रुचि मन्द है। रुचि बाहर जाती है, कषायमय हो जाती है। रुचि करना। आत्माका स्वभाव है वही कल्याणकारी है। और सब दुःखरूप आकुलतामय है। ऐसा विचार करना, निर्णय करना। ऐसी प्रतीत करना।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- आत्माकी रुचि नहीं है। अनादिका अभ्यास है, चला जाता है। रुचि नहीं है। इसलिये भीतरमें जो विचार आता है, आ जाता है। उतनी आत्माकी रुचि नहीं है, देव-गुरु-शास्त्र पर उतना भाव नहीं है। और भीतरमें आत्माकी रुचि नहीं है, इसलिये दूसरा विचार आ जाता है।
मुमुक्षुः- अपना गृहस्थ जीवन भी ऐसा होना चाहिये कि दिन भर वातावरण धार्मिक ही रहे। परन्तु गुरुका (समागम) नहीं मिलता है। गुरु बिना ज्ञान नहीं होता।
समाधानः- ऐसा समागम नहीं मिले तो भीतर-से तैयारी करना, अपने आत्माकी रुचि बढाना। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र हृदयमें रखना और आत्माकी रुचि प्रगट करना।
मुमुक्षुः- प्रवचन सनते हैं, शास्त्र सुनते हैं तो सुनते हैं तो एकदम अलग ही भाव लगते हैं। ऐसा नहीं, ऐसा करना चाहिये।
समाधानः- रुचि कम है न। सच्चा श्रवण मिलता है वह सुनना और आत्माका विचार करना। अपनेआप करना मुश्किल है।