Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 221.

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ट्रेक-२२१ (audio) (View topics)

समाधानः- ... बारंबार उसका अभ्यास करने-से स्वानुभूति प्रगट होती है। वही मोक्षका मार्ग है। और वह स्वानुभूति बढते-बढते मुनिदशा और केवलज्ञान (प्रगट होता है)। स्वानुभूतिकी दशा बढते-बढते ही होता है।

इस कालमें गुरुदेव... भगवानके समवसरणमें दर्शन करने जाते हैं। सीमंधर भगवानके। उन्हें तो भगवानका बहुत था तो भगवानके समवसरणमें दिव्यध्वनि (सुनने जाते हैं)। इस कालमें साक्षात देवोंका आगमन होना बहुत मुश्किल है। स्वप्न हो सकते हैं। आये तो दूसरोंको देखना मुश्किल पडे। दूसरे देखे कैसे कि... पहले गुरुदेव आये तो दूसरोंको दिखना मुश्किल पडे।

मुमुक्षुः- थोडी देर तो दिखते हैं।

समाधानः- अभी तो देवोंका आगमन मुश्किल है। ... करना है, उस मार्ग पर जाना है। गुरुदेव समीप ही है। गुरुदेव स्वर्गमें विराजते हैं, इसलिये क्षेत्रसे दूर है। बाकी समीप ही है, ऐसी भावना रखकर वह करने जैसा है। गुरुदेवने मार्ग बताया है वह।

गुरुदेव पधारे, इतनी वाणी बरसायी, वह महाभाग्यकी बात है। इस पंचमकालमें यहाँ पधारे। गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य यहाँ पधारे और सबको लाभ मिला, महाभाग्य! गुरुदेवने जो कहा उस मार्ग पर (चलना है)। गुरुदेवसे क्षेत्रसे समीप होना हो जाता है, गुरुदेवके मार्ग पर चलने-से।

मुमुक्षुः- मार्ग पर चलनेमें भी कोई साथीदार चाहिये न।

समाधानः- गुरुदेव कहते थे, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। स्वयं उपादानसे कर सकता है। साथीदार निमित्त तो होता है, करना तो स्वयंको है। देव-गुरु-शास्त्रका निमित्त होता है। करना तो स्वयंको पडता है, उपादान तो स्वयंका है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- अर्थात तुझे मिलेगा ही। तेरा उपादान ऐसा तैयार है तो तुझे मिलनेवाला ही है। ज्ञानीकी अर्पणता तेरी उतनी है कि तेरे चैतन्यका स्वभाव पहचानकर अर्पण हो जा कि मोक्ष प्राप्त होगा ही। बाहरसे गुरुको अर्पण और अन्दर चैतन्य स्वभावको


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अर्पण हो जा तो मोक्ष प्राप्त होगा ही। सब परसे राग छोडकर, कर्ताबुद्धि छोडकर गुरु पर श्रद्धा करके अर्पणता कर और चैतन्य पर अंतरमें श्रद्धा करके लीनता कर तो मोक्ष प्राप्त होगा ही।

मुमुक्षुः- शहरके वातावरणमें रहकर कैसे आत्म-कल्याण करना?

समाधानः- शहरका वातावरण हो तो भी करना तो स्वयंको है। वह वातावरण आत्माको कहीं नुकसान नहीं करता है। अपना उपादान तैयार करकेत तत्त्वका विचार, वांचन, लगन, विशेष पुरुषार्थ करके जो क्षेत्र है उस क्षेत्रकी असर नहीं लेकर अपना विचार करना। अपनी लगन लगाना, तत्त्व विचार करना, ऐसा करना। जिसका पुरुषार्थ मन्द है उसको सत्समागम निमित्त आदि होता है, परन्तु यदि नहीं मिलता है और दूर रहता हो तो अपनी तैयारी करना, भीतर-से तैयार रहना।

देव-गुरु-शास्त्रका समागम मिले तो विशेष अच्छा है। तो अपना उपादान पुरुषार्थ करनेमें सुलभ रहता है। तो भी नहीं होवे तो अपना पुरुषार्थ विशेष करना। जहाँ भी करना है, अपने-से करना है। जिसका पुरुषार्थ मन्द है उसको निमित्त देव-गुरु-शास्त्र होते हैं, निमित्त-उपादानका सम्बन्ध होता है। परन्तु नहीं होवे तो पुरुषार्थ विशेष करना। तत्त्व विचार करना, सत्संग करना सब करना। जहाँ सत्संग मिले वहाँ जाना। ऐसा करना।

मुमुक्षुः- ... निमित्त कुछ करे नहीं। मन्द पुरुषार्थ हो तो सत्पुरुषका निमित्त उसे कुछ करे।

समाधानः- निमित्त कुछ करता नहीं, परन्तु अपना पुरुषार्थ मन्द है इसलिये उसे निमित्त कहनेमें आता है, करना तो स्वयंको है।

मुमुक्षुः- ये तो इस बार मैंने डेढ महिनेमें देखा कि यहाँ रहकर जो पुरुषार्थ जो विचार चलते हैं, एक महिना वहाँ गये तो वहाँ फर्क पड जाता है, ऐसा लगता है। सिद्धान्तकी ... नहीं है। लेकिन ऐसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध देखे तो ऐसा लगे कि यहाँ रहते हैं एक ही विचार आते हैं, और वहाँ अनेक प्रकारके विचारमें उलझना पडता है, ऐसा बनता है।

समाधानः- ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। असर स्वयं ग्रहण करता है। निमित्तकी असर स्वयं ग्रहण करता है। अच्छे निमित्तमें स्वयं ही असर ग्रहण करता है, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। इसीलिये कहनेमें आता है, तू सत्संगमें रहना, सदगुरुका श्रवण, मनन इत्यादि करना। क्योंकि निमित्त-उपादाका सम्बन्ध है। निमित्त करता नहीं है, परन्तु स्वयं उपादान उसे ग्रहण करता है।

मुमुक्षुः- सत्समागममें स्वयं ग्रहण करता है।


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समाधानः- स्वयं ग्रहण करता है। अपनी रुचि जिस ओरकी है उस तरफका ग्रहण कर लेता है। अन्य निमित्तोंमें उसका पुरुषार्थ मन्द है इसलिये स्वयं ही ग्रहण करता है। निमित्त नहीं करवाता है, लेकिन स्वयं ही वैसा ग्रहण कर लेता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, क्षेत्र वैसा, काल, ऐसे ज्ञानी, सत्संग आदि हो तो स्वयंको विचार करनेमें अपनी रुचि उस ओरकी है न, इसलिये स्वयंके पुरुषार्थका झुकाव उस ओर होता है। दूसरेमें अपना मन्द पडता है।

... सोनगढ छोडकर कहीं जानेका मन नहीं होता है। कुछ मन ही नहीं होता है।

समाधानः- सम्यग्दृष्टिको यथार्थ ज्ञान होता है न, भेदज्ञान। ज्ञायक-ज्ञायककी परिणति जो प्रगट होती है, द्रव्य पर दृष्टि, उसका ज्ञान, उसमें लीनता और क्षण-क्षणमें भेदज्ञान- मैं न्यारा हूँ-ऐसी भेदज्ञानकी परिणति रहती है। यथार्थ ज्ञान रहता है। और वैराग्य ऐसा रहता है। विरक्ति-विभावसे विरक्ति रहती है, विभावमें एकत्वबुद्धि नहीं होती है। विभाव और मेरा स्वभाव दोनों भिन्न हैं। इसलिये विभावसे उसको विरक्ति रहती है। क्षण- क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। विभावमें एकत्वबुद्धि, कोई रागादि भावोंमें एकत्वबुद्धि नहीं रहती है, विरक्ति रहती है। उसमें तल्लीनता नहीं होती है। स्वभावमें स्वभावकी ओर लीनता रहती है और विभावसे विरक्ति होती है। ऐसी ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति सम्यग्दृष्टिको होती है।

गृहस्थाश्रममें होवे तो भी बाह्य कायामें और विभाव परिणाम होवे तो भी एकत्व नहीं होता। उसमें तल्लीन नहीं होता, उससे भिन्न रहता है। मैं चैतन्य हूँ, ऐसा अस्तित्व ग्रहण करे, विभावसे नास्ति-विभावस्वरूप मैं नहीं हूँ, ऐसी न्यारी परिणति रहती है, उसको विरक्ति-वैराग्य भाव रहता है। ऐसी ज्ञान-वैराग्यकी शक्ति, क्षण-क्षणमें भेदज्ञान रहता है।

ऐसी कोई ज्ञान-वैराग्य अदभुत शक्ति उसको रहती है। इसलिये उसको बन्ध नहीं है। अल्प बन्द होता है उसकी गिनती नहीं है। और एकत्वबुद्धि नहीं होती है। अज्ञान दशामें विभावमें एकत्व हो जाता है, ऐसा एकत्व नहीं होता है। क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ऐसी न्यारी परिणति उसको रहती है। बाह्य कोई कार्यमें, कोई प्रसंगोंमें, कोई रागादिमें एकत्व नहीं हो जाता है, भिन्न रहता है।

ऐसा उसको वैराग्य रहता है, उसका ज्ञान रहता है। राजकार्य, घर, कुटुम्ब, परिवार सब होता है, सब कार्यमें बाहरसे देखनेमें आता है तो भी भीतरमें वैराग्य-विरक्ति रहती है। उसमें एकत्व नहीं होता है। क्षण-क्षणमें उसकी परिणति ज्ञायककी ओर जाती है। ज्ञायककी लीनताकी ओर परिणति जाती है, राग-ओर नहीं जाती है।


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मुमुक्षुः- परिणति ज्ञायक तरफ जाती रहती है।

समाधानः- क्षण-क्षणमें ज्ञायक तरफ जाती है। बाह्य कायामें अन्दर जो विकल्प आये तो परिणति ज्ञायककी ओर जाती है, विकल्पमें एकत्व नहीं होता है। तन्मय नहीं हो जाता।

मुमुक्षुः- बाहरमें... फिर भी वीतराग परिणति तो उसका कार्य रहती है।

समाधानः- परिणति कार्य करती है। बाहर-से दिखे कि बाहरके कायामें वह जुडा है। उसमें मानों एकत्व हो रहा है। ऐसा दिखे। उसकी परिणति तो भिन्न-न्यारी कार्य करती है।

मुमुक्षुः- उपयोगरूप परिणमन और लब्धरूप परिणमन, इन दोनोंमें लब्धरूप परिणाममें ऐसा कार्य चलता रहता है?

समाधानः- लब्धरूप परिणाममें ऐसा कार्य होता है। लब्ध अर्थात उघाड एक ओर पडा रहा है ऐसा नहीं है। परन्तु कार्य चलता रहता है। उपयोगरूप तो स्वानुभूति दशा, परन्तु ऐसा लब्धरूप कार्य भी चलता ही रहता है। क्षण-क्षणमें विरक्ति, अंतरमें न्यारा रहता है। कोई भी कार्य, कोई भी विकल्प (हो), वह क्षण-क्षणमें भिन्न रहता है। उतने अंशमें शान्तिका वेदन, ज्ञायककी धारा वह सब उसे वेदनमें रहता है। लब्ध यानी एक ओर पडा है ऐसा नहीं। ज्ञायकका, शान्तिका वेदन चलता है। इसलिये उसे बन्ध नहीं होता है, ऐसा कहनेमें आता है। अल्प बन्ध होता है उसे गिनतीमें नहीं लिया है।

भिन्नत्व बढते.. बढते.. बढते उसमें-से उसकी भूमिका पलटती है। पाँचवी, छठ्ठी, सातवीं (भूमिकामें) आसक्ति कम होती है और विरक्ति बढते-बढते उसकी भूमिका बदलती है। छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान, उसमें-से भूमिका पलट जाती है। अन्दरकी विरक्ति बढे, अन्दर लीनता बढे इसलिये स्वानुभूतिकी दशा बढती है। उन सबका मेल है। ज्ञाताधाराकी उग्रता होती जाती है। उसमें शास्त्रका ज्ञान ज्यादा हो, न हो, उसके साथ सम्बन्ध नहीं है, परन्तु अन्दरकी विरक्तिके साथ सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- विरक्तिके साथ लीनताका मेल है?

समाधानः- हाँ, उसके साथ मेल है।

समाधानः- ... तत्त्वके विचार होते हैं, सम्यग्दृष्टिकी अलग बात है, वह तो यथार्थरूपसे न्यारा हो गया है, परन्तु भूमिकामें भी उसे आसक्ति (कम हो जाती है)। उसे रुचि परपदाथाकी, विभावकी महिमा कम हो जाय, उसमें तल्लीनता कम हो जाय। अभी उसे ज्ञाताधारा नहीं है, परन्तु उसे अन्दर कम हो जाती है, तल्लीनता कम हो जाती है, उसकी महिमा कम हो जाती है। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक ही सर्वस्व है, वही


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महिमा करने योग्य है और वही महिमारूप है। ऐसी अंतरमें रुचि होनी चाहिये। रुचि उसकी ओर होनी चाहिये। अभी परिणति प्रगट नहीं हुयी है, परन्तु वैसी रुचि, ज्ञान- वैराग्य, तत्त्वके विचार, मैं ज्ञायक हूँ, ये सब मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे तत्त्वके विचार होने चाहिये और उस ओरकी लीनता-तन्मयता कम होनी चाहिये। उस ओरकी रुचि कम हो जाय।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन होने पूर्व भी ऐसा होता है।

समाधानः- ऐसा होता है।

मुमुक्षुः- सविकल्प भावभासन हो..

समाधानः- उसे रुचिरूप है, परिणतिरूप ज्ञायककी धारा नहीं है। रुचि (है)। करनेका यह है, ज्ञायकता प्रगट करनी है, महिमारूप ज्ञायक है, ये स महिमारूप नहीं है। अतः बाहरकी रुचि उठ जाती है।

मुमुक्षुः- रुचिमें ऐसे कोई प्रकार पडते होंगे कि .... भाव-से प्राप्त कर ले? ऐसी सविकल्प दशामें रुचि..

समाधानः- ऐसा यथार्थ कारण हो तो यथार्थ कार्य आये। वैसा रुचिका कारण प्रगट करे तो जिसमें अवश्य सम्यग्दर्शनका कार्य प्रगट हो। ऐसा यथार्थ कारण हो, स्वसन्मुखता, उस जातका मार्गानुसारीपना हो तो प्रगट होता है। कारण उसका यथार्थ हो तो कार्य आवे।

मुमुक्षुः- वह करते-करते आयुष्य पूर्ण हो जाय तो?

समाधानः- तो उसे ऐसी धारा अप्रतिहत हो तो दूसरे भवमें होता है। पुनः स्फूरायमान होता है। ऐसी अंतरकी गहरी रुचि की हो तो पुनः स्फूरायमान होती है। ऐसे विचार स्फूरायमान हो, ऐसे साधन प्राप्त हो कि जिससे पुनः पुरुषार्थ जागृत हो। यथार्थ कारण हो तो कार्य आवे। देर लगे किन्तु आये।

मुमुक्षुः- वर्तमान ज्ञान तो भव प्रत्ययी कहनेमें आता है। यह पूरा होते ही..

समाधानः- अन्दर यदि रुचि यथार्थ की हो तो वह रुचि (जागृत होती है)। उसकी कारणरूप रुचि हो तो प्रगट होता है। तत्प्रती प्रीति चित्तेन, आता है न? प्रीति- से भी वार्ता सुनी है, अंतरकी रुचिपूर्वक, कोई अपूर्व रुचिपूर्वक उसने यदि अंतरमें वार्ता ग्रहण की है तो भावि निर्वाण भाजनम। तो भविष्यमेें वह अवश्य निर्वाणका भाजन है। इतना धारणा की हो या इतना रटा हो ऐसा नहीं, परन्तु अन्दर प्रीति-से वार्ता सुनी, अन्दर रुचिपूर्वक यदि ग्रहण किया है तो भविष्यमें वह निर्वाणका भाजन है।

मुमुक्षुः- धारणाज्ञान ..

समाधानः- रुचि, अंतरकी रुचि (होनी चाहिये)। उसके साथ ज्ञान होता है।


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समझपूर्वककी रुचि होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- प्रयोजनभूत ज्ञान यथार्थ हो..

समाधानः- हाँ, प्रयोजनभूत ज्ञान होना चाहिये। सम्यग्दृष्टि भवति नियतं ज्ञान वैराग्य शक्ति, आता है न? सम्यग्दृष्टिको ऐसी ज्ञान- वैराग्यकी शक्ति प्रगट हुयी है कि वह अंतरसे कहीं लिप्त नहीं होता। ऐसा विरक्तका विरक्त रहता है। पूर्वभूमिकामें भी वह तैयारी कर सकता है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- चटपटी लगी हो तो मार्ग खोज ही लेता है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- मार्गको खोजता ही रहे, चैन-से बैठे नहीं। मार्ग क्यों प्राप्त नहीं होता है? अंतरमें क्यों प्राप्त नहीं होता है? बारंबार-बारंबार अंतर-से स्फूरणा होती ही रहे, क्यों अभी मार्ग प्राप्त नहीं होता है? ऐसी चटपटी अंतर-से लगे कि चैनसे बैठे नहीं, अंतरसे उसे उठती ही रहे। इसलिये मार्ग प्राप्त हुए बिना रहे ही नहीं।

मुमुक्षुः- .. विचार भी बहुत आते हैं, पर..

समाधानः- उसमें धीरा होकर, उसमें आकुलताका काम नहीं है, परन्तु धैर्यसे स्वयं विचार करे तो मार्ग प्राप्त हो। भावना जिज्ञासापूर्वक।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- निराश होनेकी बात ही नहीं है। स्वयं तैयारी करे और प्राप्त न हो, ऐसा बनता ही नहीं। स्वयं ही है, स्वयंका मार्ग है और अपनेमें-से ही प्राप्त हो ऐसा है। कहीं दूर नहीं है, अपना स्वभाव है, परन्तु वह भूल गया है। स्वयं अंतरमें दृष्टि करके यथार्थपने खोजे तो उसे चैन पडे नहीं, तो अंतरमें-से प्राप्त हुए बिना रहे नहीं। कहीं बाहर-से प्राप्त नहीं होता है, अपना स्वभाव है और अपने पास है। अपनेमें-से प्राप्त हो ऐसा है। परन्तु स्वयंको मार्ग नहीं मिलता है।

ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा मार्ग बताया। मार्ग बतानेवाले मिले और स्वयंको प्राप्त न हो, ऐसा बनता ही नहीं। स्वयं तैयारी करे तो अंतरमें-से प्राप्त हो, प्राप्त हुए बिना रहे नहीं। मार्गको जानता नहीं हो तो गोते खाता है। गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताया है कि तेरे आत्माको ग्रहण कर। तू असाधारण ज्ञानस्वभावी आत्मा है, आत्मामें ही सब है, उसमें-से ग्रहण कर। मार्ग बताया है और न मिले ऐसा बनता ही नहीं। स्वयं तैयार हो तो प्राप्त हुए बिना रहे नहीं। ... स्वयं भूल गया है। स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं है। दृष्टि अनादिसे बाहर है इसलिये बाहर देखता रहता है, अंतरमें देखता नहीं है। अंतरमें देखना उसे मुश्किल पडता है, इसलिये दुष्कर हो गया है।


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... स्वभाव उसमें वह देख नहीं सकता है। ज्ञायकमें सब भरा है। लेकिन वह उसे पकड नहीं सकता है। निष्कारण विकल्प तो अनादि अभ्यासके कारण ऐसे ही दौडते रहते हैं। उसका कोई कंट्रोल उस पर (नहीं है)। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण नहीं किया है कि वह मर्यादामें आवे। वहाँ दौड जाता है। .. सहज याद आ जाय। ज्ञायकको याद करना। उसे अंतरसे याद करना मुश्किल पडता है। उसके पीछे लगना, बारंबार- बारंबार वही करता रहे तो उसे समीप जानेका अवकाश है। अस्तित्व ग्रहण हो तो उसका भेदज्ञान हो तो विकल्प... बाकी तो विचार करके पुरुषार्थ करके मन्द करता रहे, परन्तु स्वभावको पहचानकर करे वह यथार्थ होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!