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समाधानः- ... जुड रहा है, इसलिये यह सब हो रहा है। परन्तु निश्चयसे वस्तु स्वभावसे जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसे ही सबका आत्मा है। कोई फर्क ही नहीं है।
मुमुक्षुः- पर्यायका पहलु अत्यंत गौण रहता है।
समाधानः- पर्यायको गौण करके द्रव्यदृष्टिके बलमें आचार्यदेव बोल रहे हैं। द्रव्यदृष्टिज्ञके बलमें, आत्माको पहचानना हो तो द्रव्यदृष्टिसे द्रव्यसे-द्रव्य स्वरूपसे आत्मा वैसा ही है। द्रव्य स्वरूपसे प्रत्येक आत्मा वैसे ही हैं। द्रव्यदृष्टिके बलमें पर्याय गौण हो जाती है। सिद्ध भगवान जैसे ही सब आत्मा हैं। किस नयसे, कुछ फर्क नहीं दिखाई देता। तत्त्वके अन्दर तत्त्व दृष्टिसे देखता हूँ, तत्त्वमें कोई आत्मामें कुछ फर्क नहीं है। पर्यायको गौण कर दी है। पर्याय है ही नहीं, लेकिन उसे गौण कर दी है।
अनादिसे अशुद्ध जीव तो मानता ही आया है, शुद्ध स्वरूप स्वयंका पहचाना नहीं, शुद्ध स्वरूपको पहचाने तो आगे जाता है। लेकिन शुद्ध स्वरूप उस प्रकारसे पहचाने कि उसमें पर्याय और द्रव्य दोनोंको जाने, लेकिन बल द्रव्यदृष्टिका आता है। पर्यायमें भी अशुद्धता नहीं है वैसा अर्थ वहाँ नहीं है।
मुमुक्षुः- पर्यायमें अशुद्धता है तो फिर उसे भ्रान्ति क्यों कहा?
समाधानः- भ्रान्ति यानी जूठा है, ऐसा अर्थ नहीं है। अशुद्धता है वह उसकी भ्रान्ति यानी मेरा आत्मा पर स्वरूप हो गया और मैं पर स्वरूप हो गया, वह भ्रान्ति है, वह तो भ्रान्ति ही है न। वस्तु स्वरूप जैसा है वैसा मानता नहीं है और जूठी रीतसे मानता है तो भ्रान्ति है। भ्रान्ति है वह अशुद्धता है। भ्रान्ति यानी ये सब एकान्त है, शुद्ध है बाकी सब माया है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। ऐसा नहीं है। भ्रान्ति भी अशुद्धता है। भ्रान्तिके कारण सब अशुद्धता, अस्थिरता और जूठा मान ले कि कुछ नहीं है यानी पर्यायमें अशुद्धता... ऐसा जूठा स्वरूप मान लिया है इसलिये भ्रान्ति है। द्रव्य जैसा है वैसा नहीं मानता, यह उसकी भ्रान्ति है। मानो मेरा द्रव्य पर रूप हो गया, मानो पर मुझमें आ गये। वह सब जूठा है। वस्तु स्वरूपसे विपरीत माने इसलिये वह भ्रान्ति है। वस्तुको यथार्थ माने बिना मुक्तिका मार्ग प्रारंभ नहीं होता। द्रव्य जैसा है वैसा, पर्याय जैसी है वैसी (माने)।
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... मुनिदशा है। स्वयंको ही अन्दर बल वर्तता है, उस बलमेंसे बोलेत हैं। वस्तु स्वरूप जैसा है वैसा बोलते हैं, द्रव्यदृष्टिसे।
मुमुक्षुः- साधनाको अधिक वेग मिले, द्रव्यदृष्टिका जोर हो तो साधनाको अधिक वेग मिले ऐसा है?
समाधानः- बोलनेसे वेग मिले ऐसा अर्थ नहीं है। आचार्यको भावना आयी है इसलिये बोलते हैं। बोलनेसे वेग (नहीं आता)। वेग तो अन्दर परिणतिमें है।
मुमुक्षुः- परिणतिमें उतना जोर हो तो...
समाधानः- मुक्तिके मार्ग वालेको द्रव्यदृष्टिका बल होता है, उसका जोर होता है। लेकिन वह जोर ऐसा नहीं होता कि उस जोरका वैसा अतिरेक या पर्यायका निषेध हो जाये। ऐसा बल नहीं होता। बल होता है। द्रव्यदृष्टिके बलमें आगे बढता है, लेकिन वह बल ऐसा बल नहीं होता। भाषामें कुछ भी बोले, मैं किस नयसे जानूँ? कहीं भेद नहीं दिखाई देता, ऐसा कहे, लेकिन उसकी परिणतिमें तो उसका बल जो यथास्थित मुक्तिके मार्गमें जैसा होता है वैसा ही रहता है।
मुमुक्षुः- कथनमें तो ऐसा लगे कि मानो एकान्त (हो गया)।
समाधानः- हाँ, एकान्त जैसा लगे। मुक्तिके मार्गमें बल यथास्थित जैसा है वैसा लेते हैं। ऐसी कोई भावना आये तो ऐसा बोले। कोई ऐसे प्रश्न करने वाले हो, ऐसा कोई उपदेशका प्रसंग बने, कोई शास्त्र लिखते हों, उन्हें भावना हो और वैसा कुछ कहे इसलिये (ज्ञान नहीं बदल जाता)। मार्ग अन्दरमें यथार्थ वस्तुतासे है। बोले यानी कुछ एकान्त कहना चाहते हैं, ऐसा अर्थ नहीं है। द्रव्यदृष्टिके बलके साथ उन्हें ज्ञान बराबर होता है। वे बोले इसलिये उसमेंसे कोई बिना समझे एकान्त खीँच ले तो वह उसकी स्वयंकी योग्यता है।
द्रव्यदृष्टिका बल इतना हो जाये कि पर्याय है ही नहीं ऐसा मान ले तो साधनाको बहुत बल मिलता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। लीनतामें बल, आश्रयमें बल, उसका बल आता है। कोई बार आचार्यदेवको भावना आये तो ऐसा बोले, किस नयसे भेद जानूँ? सब शुद्ध है।
मुमुक्षुः- व्यवहारनयका विषय ही मानो नहीं है, व्यवहारनय है ही नहीं, कथनमें तो ऐसा लगे।
समाधानः- हाँ, कथनमें (ऐसा लगे कि) मानो व्यवहार है ही नहीं। एक ओर आचार्यदेव कहे, अरे..रे..! यह व्यवहार नय भूमिकामें बीचमें हस्तावलम्बन तुल्य आता है, अरे..रे..! खेद है। उसे लेना पडता है, ऐसा कहे। और एक ओर ऐसा कहे कि, मैं शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ, परन्तु मेरी परिणति कल्माषित मैली हो रही है। इसलिये
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इस टीकाकी रचनामें मेरी परिणति शुद्ध होओ। ऐसा बोले। वहाँ मानो खेद होता है कि, अरे..! इस व्यवहारमें कहाँ आ गये? फिर यहाँ ऐसा कहे। मानो कथनी करनेसे मेरी शुद्धि होती हो, ऐसा बोले। अन्दर शुद्धि तो उनकी परिणति द्रव्यदृष्टि है, चिन्मात्र मूर्ति अन्दर जो है उसकी द्रव्यदृष्टिका बल है और अन्दर लीनता बढती जाये। उससे शुद्धि होती है। तो कहते हैं, इस टीकासे मेरी परिणति शुद्ध होओ, ऐसा बोलते हैं। आचार्यदेवका आशय ग्रहण करना, अन्दर समझकर आशय करने जैसा है।
मुमुक्षुः- कथनको कोई एकान्तमें खीँच ले तो नहीं चलता।
समाधानः- एकान्तमें खीँच ले तो भूल होती है। दूसरी ओरका ख्याल रखना चाहिये। आचार्यदेवने क्यों इस पर वजन दिया है।
मुमुक्षुः- तमाम सिद्ध शुद्ध गुण-पर्याय वाले हैं, ऐसा शब्दप्रयोग किया है।
समाधानः- शुद्ध गुण-पर्याय वाले हैं। द्रव्यदृष्टिमें सबकुछ कह सकते हैं। कुछ दिखता ही नहीं, सब शुद्ध गुण-पर्याय वाले सिद्ध जैसे हैं, ऐसा कहनेमें आये। यहाँ ज्ञानमें ख्याल है। प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं हूँ, मैं तो एक ज्ञायक ही हूँ। हर बार ज्ञायक ही हूँ। प्रमत्त-अप्रमत्त दशा नहीं है, ऐसा आचार्यदेव कहना नहीं चाहते। भूमिका तो है, लेकिन मैं तो एक ज्ञायक ही हूँ। भूमिकामें खडे हैं, फिर भी मैं तो एक ज्ञायक ही हूँ, ऐसा कहते हैं।
ज्ञायक यानी छठ्ठी-सातवीं भूमिका नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहते। उस भूमिकामें खडा हूँ, फिर भी मैं ज्ञायक ही हूँ। इसलिये साधनाकी भूमिका ही नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहते। द्रव्यदृष्टिका बल ऐसा है कि अन्दर वह सब आता है। पर्यायको गौण करता जाता है। लेकिन पर्याय है ही नहीं, ऐसा नहीं कहना चाहते। स्वभावमें अन्दर अशुद्धताका प्रवेश नहीं हुआ है, ऐसा कहे। सब शुद्ध ही है, शुद्ध देखते हैं। पर्यायको एकदम गौण कर देते हैं।
अनन्त कालसे द्रव्य स्वरूपको नहीं पहचाना, भ्रान्तिके कारण सब परके साथ मिश्रित होकर मानों मैं परको करुँ और पर मेरा करे, ऐसी अनादि कालसे भ्रान्ति (चलती है)। ऐसी अशुद्धता, वैसी भ्रान्ति और अशुद्धता उसे हो रही है। उसे उस प्रकारकी अस्थिरता और भ्रान्ति दोनों होते हैं। उसमेंसे छूटनेके लिये अनन्त कालसे छूटता नहीं। जीवने द्रव्य-वस्तुको पहचाना नहीं है।
द्रव्यदृष्टिके बल बिना वह आगे नहीं बढता। इसलिये आचार्यदेव द्रव्यदृष्टिके बलसे समझाते हैं कि इसकी महिमा तो कर, इस पर तुझे अनन्त कालसे वजन भी नहीं आता तो तू तेरा स्वरूप पहचान। तो उसमेंसे तेरी शुद्ध पर्याय प्रगट हो। लेकिन मूल अस्तित्वको ग्रहण किये बिना, ऐसे ही तीव्र कषाय और मन्द कषाय, शुभाशुभमें घूमता
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रहता है। मूल स्वरूपको तो पहचान। इसलिये उसके बलसे, उसके जोरसे कहते हैं। और वस्तु स्वरूप भी ऐसा ही है कि द्रव्यदृष्टिके बल बिना आगे नहीं बढता। बाहर व्यवहारमें ऐसे ही करता रहता है, उसमें ही सब साफ करता रहता है। तीव्रमेंसे मन्द, मन्दमेंसे तीव्र करता रहता है। परन्तु द्रव्यदृष्टिके बलमें उसका निषेध नहीं हो जाये उसका ध्यान रखना। क्योंकि वह है।
द्रव्यदृष्टि क्यों प्रगट करनी है? कि स्वयं भ्रान्तिमें खडा है। उसका ध्यान रखना है। उसमेंसे साधना प्रगट करनी है। किसके द्वारा, किस मार्गसे यह प्रगट होता है? कि द्रव्यदृष्टिके आलम्बनसे, द्रव्यके आलम्बनसे प्रगट होता है। उसके आलम्बन बिना प्रगट नहीं होता। अपनी बात जीवने अनादि कालमें सुनी नहीं है और उसकी रुचि नहीं की है, परिचयमें आयी नहीं, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। स्वयं ही है। स्वरूपमें एकत्व और परसे विभक्त, विभावसे विभक्त भिन्न है, उसे पहचान।
समाधानः- .. वह मिथ्यात्वके साथ होते हैं, इसलिये उसे बडा पाप कहा है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें मिथ्यात्व बडा पाप है।
समाधानः- मिथ्यात्व बडा पाप है। जिसके परिणाम बिना अंकूशके हैं, जिसमें सात व्यसन आदि अंकूश बिनाके परिणाम हैं, उसे बडा पाप कहा है। जिसे जूठी भ्रान्ति है, मिथ्यात्वके साथ ये सात व्यसन हैं, उसके परिणाममें अंकूश नहीं है। इसलिये सात व्यसन बडा पाप है, ऐसा कहनेमें आता है।
सम्यग्दर्शन जिसे होता है उसे विभावका रस ऊतर जाता है। आत्मामें रस लगता है, ज्ञायककी परिणति प्रगट हुई, उसे स्वरूपकी ओर परिणति (प्रगट हुई)। स्वरूपकी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। मिथ्यात्व भ्रान्ति है उसके साथ यह सब पाप है, इसलिये उसे बडा पाप कहा है। बाकी तो मिथ्यात्व बडा पाप है। उसके साथ ऐसे अंकूश बिनाके परिणाम हैं, इसलिये बडा पाप है, ऐसा कहा है।
व्यवहार मात्र, जिसका व्यवहार अच्छा हो उसे व्यसन नहीं होता। सम्यग्दर्शनकी तो बात ही अलग है, जिसका व्यवहार अच्छा है, व्यवहारसे व्यवहार धर्मकी श्रद्धा हो तो भी उसे सप्त व्यसन नहीं होते। श्रावकोंको वह सप्त व्यसन शोभते नहीं। व्यवहार धर्म जो स्वीकारते हैं, वहाँ भी सप्त व्यसन नहीं होते।
मुमुक्षुः- प्रश्न तो यह किया कि, सिद्धान्तमें सप्त व्यसनसे मिथ्यात्वको बडा कहा है। वह भी पाप तो है ही, लेकिन उससे बडा पाप मिथ्यात्वका है।
समाधानः- हाँ, मिथ्यात्व बडा पाप है।
मुमुक्षुः- मिथ्यात्वका सेवन हो और भले सप्त व्यसन नहीं हो, तो भी वह बडा पाप कर रहा है।
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समाधानः- पाप तो है, हाँ, बडा है। सप्त व्यसनसे भी मिथ्यात्व बडा पाप है। यथार्थ वस्तु स्वरूपको पहचानता नहीं। जूठी भ्रान्तिमें पडा है। वस्तु स्वरूपको टेढा- मेढा, जैसे-तैसे स्वीकारता है, इसलिये बडा पाप है। अन्दर स्वरूपका घात करता है, बडा पाप है।
मुमुक्षुः- आश्चर्य तो इसलिये लगे कि बाहरमें शिकार करता हो..
समाधानः- बाहरसे हिंसा आदि करता हो तो वह पापी दिखता है कि ये पाप कर रहा है, ऐसा दिखे। अन्दरमें जो हो रहा है, वह उसे दिखाई नहीं देता। इसलिये वह पाप नहीं दिखता। बाहरमें स्थूल दिखता है न, इसलिये वह पाप दिखाई देता है। ... बडा पाप है। यथार्थ नहीं है, वस्तु स्वरूपको विपरीत रूपसे समझता है, स्वरूपका घात हो रहा है इसलिये बडा पाप है। (ऐसा कहा) इसलिये व्यसन करनेमें कोई बाधा नहीं है, ऐसा अर्थ नहीं है। लेकिन वह व्यसन मिथ्यात्वके साथ ही सम्बन्ध रखता है। इसलिये व्यसन तो मुमुक्षुको भी नहीं होते।
मुमुक्षुः- निश्चय और व्यवहार, दोनों साथमें होते हैं या अलग-अलग होते हैं?
समाधानः- दोनों साथमें होते हैं। यथार्थ निश्चय और यथार्थ व्यवहार, दोनों साथमें होते हैं। बाकी ये जो व्यवहार कहा जाता है, जो धर्मका व्यवहार कहा जाता है, धर्मका व्यवहारसे स्वीकार किया, वह व्यवहार तो निश्चयपूर्वकका व्यवहार नहीं है। वह तो व्यवहारमात्र व्यवहार है। उसे व्यवहार नाम दिया जाता है। बाकी अंतरमें यथार्थ निश्चय-व्यवहार साथमें होेते हैं। ज्ञायककी परिणति प्रगट हो, वहाँ पर्यायका व्यवहार, शुद्ध पर्यायके साथ देव-गुरु-शास्त्रके परिणाम जो शुभभाव आदि होते हैं। अंतरमें जो परिणतिमें है, वह निश्चय-व्यवहार साथमें होते हैं। शुद्ध परिणतिका व्यवहार। उसकी भूमिका अनुसार शुभभाव होते हैं, वह सब उसके साथ यथार्थ रूपसे होते हैं। बाकी अनादिका जो व्यवहार है, वह रूढिगतरूपसे व्यवहार होता है। अकेला व्यवहार होता है। व्यवहाराभास कहते हैं।
मुमुक्षुः- शुभभावको व्यवहार नाम मात्र (कहा)।
समाधानः- नाममात्र है। शुभभावको व्यवहार (कहा)। उसकी यथार्थपने साधकदशा प्रगट हुयी हो उसे कहते हैं। बाकी व्यवहार नाम दिया जाता है। लेकिन जब तक नहीं होता है तब तक अशुद्ध भावसे बचनेको शुभभाव आते हैं। जिज्ञासाकी भूमिकामें भी शुभभाव होते हैं। जिज्ञासा हो, जिसे सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा हो, उसे भी सप्त व्यसन नहीं होते। आत्माकी जिज्ञासाके साथ देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करे। आत्माको कैसे पहचाना जाये? गुरु क्या कहते हैं? देव क्या कहते हैं? सबका आशय समझना चाहिये। अनादिका अनजाना मार्ग देव-गुरु-शास्त्रके बिना समझमें नहीं आता। और ऐसा
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निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अनादिका अनजाना मार्ग, पहले उसे देव या गुरु मिले, उसे उपदेश मिले, उनकी देशना मिले। अंतरमें कोई अपूर्वता जागृत हो तो देशनालब्धि होती है। तो अंतरमें ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। बाहरसे गुरु या देव मिले, उनका उपदेश उसे अपूर्व लगे कि ये कुछ अलग कहते हैं। अन्दरमें ऐसी अपूर्वता प्रगट हो, ... और मुक्तिके मार्ग पर मुडता है।
मुमुक्षुः- ..अपूर्व प्रगट करे यानी?
समाधानः- उसे अपूर्वता लगे कि ये कुछ अलग कहते हैं। अन्दर उसे ऐसी देशना ग्रहण हो जाती है। अन्दर देशना लब्धि होती है। अपूर्वपने उसे अपूर्वता लग जाये कि कुछ अलग है। ऐसी कोई अन्दरमें अपूर्वता प्रगट हो वह उसे मालूम नहीं है, अन्दर देशना लब्धि होती है। अप्रगट होती है।
मुमुक्षुः- वह तो आपने कहा वह समझमें आया कि बाहरसे अपूर्वता लगे और अंतरमें..
समाधानः- अंतरमें उसे अपूर्वता लगे। ऐसी उसकी परिणति (हो जाती है)। अंतरमें ये कुछ अलग है, ऐसा उसे लगना चाहिये। देशना इसप्रकार ग्रहण होनी चाहिये। अंतरकी बात है और यह स्वरूप कुछ अलग है, आत्मा कोई अलग कहते हैं, आत्मा कोई अपूर्व अनुपम कहते हैं, इसलिये उसे देव-गुरु-शास्त्रकी महिमाके साथ आत्माकी कुछ महिमा, ऐसी कोई अपूर्वता अंतरमें लगे। देशना ऐसी ग्रहण हो जाती है, उस वक्त उसे प्रगट नहीं है, लेकिन उसे अंतरमेंसे उसकी परिणति उस ओर, जब-जब देशना मिले तब उसे अन्दर कुछ अलग कार्य करना है, ऐसा अंतरमेंसे (लगता है)। देशना हो तो अवश्य उसे उस ओर परिणति (जाती ही है)। कभी भी, भले समय लगे परन्तु अपनी ओर मुडे बिना रहे नहीं। ऐसी देशना ग्रहण हो जाती है। उपदेश मिले वह देशना नहीं है, अंतरमें हो तो देशना है। अंतरमें ग्रहण करे तो देशना है। .. लगना चाहिये।