Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 236.

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ट्रेक-२३६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- दृष्टिमें पूर्णताका लक्ष्य और प्रयोजनमें ऐसा कहे कि अभी न्यूनता है, पूर्णता प्राप्त करनी है।

समाधानः- अभी न्यूनता है, चारित्र बाकी है-लीनता बाकी है। द्रव्यपने अभेद है, परन्तु अभी पर्याय स्व-ओर पूर्णरूपसे शुद्ध नहीं हुयी है। शुद्धताकी पर्याय जो प्रगट होनी चाहिये वह पूर्ण शुद्ध (नहीं है)। द्रव्य और गुण अनादिअनन्त एकसाथ है। पर्याय तो क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें पलटती रहती है। पर्याय जो विभाव-ओर थी, वह स्वभाव- ओर गयी, इसलिये आंशिक शुद्ध तो हुयी, परन्तु अभी लीनता बाकी है। दृष्टिके साथ जुडी जो पर्याय है वह पर्याय उतनी शुद्ध हुयी, परन्तु अभी लीनताकी बाकी है।

मुमुक्षुः- उतना भेद पडता है।

समाधानः- हाँ, उतना भेद पडता है। नहीं तो तुरन्त केवलज्ञान हो जाना चाहिये। स्वानुभूतिमें तुरन्त केवलज्ञान नहीं हो जाता। स्वानुभूति अंशरूप है। केवलज्ञान, वीतरागता तुरत्न नहीं होती। किसीको अंतर्मुहूर्तमें हो जाती है, वह अलग बात है। तो भी उसमें क्रम तो पडता ही है।

मुमुक्षुः- .. द्रव्यका अवल्मबन है...

समाधानः- पुरुषार्थकी कचास है। किसीकी परिणति ऐसी है कि अंतर्मुहूर्तमें एकदम पुरुषार्थ उत्पन्न हो जाता है। किसीकी परिणति ऐसी है कि धीरे-धीरे उत्पन्न होती है। जो अपनी ओर मुडा, स्वानुभूति प्रगट हुयी, उसे अवश्य वीतराग दशा होनेवाली ही है। किसीको धीरे होती है, किसीको जल्दी होती है।

मुमुक्षुः- कम-ज्यादा समय तो गौण है।

समाधानः- हाँ, कम-ज्यादा (समय गौण है)। पुरुषार्थकी उतनी परिणतिकी क्षति है, पुरुषार्थकी क्षति है।

मुमुक्षुः- ...पुरुषार्थकी मुख्यता..

समाधानः- पुरुषार्थकी मुख्यता रखनी।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- कोई ऐसा कहे कि क्रमबद्धमें ऐसा होनेवाला था। परन्तु पुरुषार्थकी


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मुख्यतापूर्वकका क्रमबद्ध है। जिसके लक्ष्यमें पुरुषार्थ नहीं है, वह आगे नहीं बढ सकता। क्रमबद्ध भले साथमें हो, परन्तु जिसके लक्ष्यमें पुरुषार्थ नहीं है (वह आगे नहीं बढ सकता)। क्रमबद्ध पुरुषार्थके साथ जुडा है।

मुमुक्षुः- पर्याय शुद्ध हो जाती है? क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ आये तो पर्याय शुद्ध हो जाती है?

समाधानः- पुरुषार्थ उत्पन्न हो, इसलिये उसका क्रमबद्ध हो जाता है। पुरुषार्थ अपनी ओर-ज्ञायक ओर करे तो क्रमबद्ध जैसा है वैसा हो जाता है। उसकी दृष्टि पुरुषार्थ पर होनी चाहिये, उसका लक्ष्य पुरुषार्थ पर होना चाहिये। उसे खटक रहनी चाहिये कि मेरी मन्दता है, मैं आगे नहीं बढ पाता हूँ। यदि ऐसा उसके ख्यालमें रहे कि क्रमबद्धमें जैसा होनेवाला होगा वह होगा, मैं क्या करुँ? होनेवाला होगा, होनेवाला होगा, ऐसा करता रहे तो उसे होनेवाला होगा, ऐसा ही रहेगा। परन्तु जिसकी भावनामें खटक रहे तो ही उसका क्रमबद्ध पुरुषार्थके साथ जुडा है। ऐसा क्रमबद्ध और पुरुषार्थका सम्बन्ध है। स्वभाव, काल, पुरुषार्थ आदि सब जुडे हैं।

मुमुक्षुः- पाँचों समवायका मेल है। उसमें पुरुषार्थकी मुख्यता है।

समाधानः- उसमें पुरुषार्थकी मुख्यता (है)। साधकको, रुचिवालेको सबको पुरुषार्थ- ओर, अपनी ओर, अपनी भूल तरफ उसकी दृष्टि रहनी चाहिये कि मेरी क्षति है। क्रमबद्ध और कर्मका उदय (लेकर) जो अपनी क्षति नहीं गिनता है, उसको धीरापन और कचास रहेगी ही। जो अपनी क्षतिकी ओर जाता है, फिर भले कर नहीं सकता, परन्तु अपनी क्षतिकी ओर ही उसकी दृष्टि रहती है, वही आगे बढता है। ऐसा पुरुषार्थ और क्रमबद्धका सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- क्षति है, उसमें कोई ऐसा कहे कि इसमें तो दोष पर दृष्टि रहती है।

समाधानः- दोष पर दृष्टि,.. गुण पर दृष्टि गयी, परन्तु जो साधक दशा है, उसकी भावनामें सब आता है कि मैं परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप ज्ञायक हूँ। परन्तु मेरी न्यूनता है। न्यूनताकी ओर उसे विचार आये बिना नहीं रहते। भावना हुए बिना नहीं रहती। कैसे ये सब विभाव छूटे, मैं स्वभावमें रहूँ। विभाव छूटे, पुरुषार्थ करुँ ऐसी भावना ही न हो, ऐसा नहीं होता। दोनों प्रकारकी भावना तो होती है। उसे दोषसे कैसे छूटे? और मैं स्वभाव तरफ दृष्टि करुँ, लीन होऊँ तो छूटेगा, ऐसा समझता है। मेरी लीनताकी क्षति है। इसलिये यह क्षति है। मेरे गुण प्रगट हो तो दोष टले। ऐसा वह बराबर समझता है। परन्तु भावना तो सब प्रकारकी आती है।

मेरी क्षति है, मेरा दोष है, मैं लीनता करुँ तो हो। ऐसी भावना तो आती है। ये राग कैसे छूटे? यह कैसे छूटे? चारित्र दशा कैसे आये? कब वीतराग होऊँ? ऐसी


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भावना तो आये बिना नहीं रहती। भावना तो सब आती है। उसके ज्ञानमें वह ऐसा समझता है और दृष्टिका जोर अपने द्रव्य पर है कि यह द्रव्यकी दृष्टष्टि है वह जोरदार है। लेकिन वह ज्ञानमें समझता है कि मैं लीन होऊँ तो यह छूट जाय ऐसा है। मेरी लीनताकी क्षति है। स्व तरफ देखता हूँ तो मेरी लीनताकी क्षति है। इस ओर देखूँ तो मेरे पुरुषार्थकी क्षति है। सर्व प्रकारकी भावना तो आती है। एक जातकी भावना (नहीं होती)। साधक दशामें एक प्रकारकी नहीं होती, सर्व प्रकारकी भावना आती है।

मुमुक्षुः- साधकको दृष्टिके जोर पूर्वक दोषका ज्ञान भी बराबर होता है।

समाधानः- हाँ, दोषका ज्ञान हो, गुणका ज्ञान हो, स्वका ज्ञान हो, परका ज्ञान हो। सब ज्ञान होता है। राजकाज करते चक्रवर्ती हो, अरे..! मेरी क्षति है, मैं इसमें- से कब छूटूँ? मैं कब लीन होऊँ? मुनि कब होऊँ? ऐसी सब भावना, वैराग्यकी भावना तो आती ही है। धन्य मुनिदशा! जो मुनि बनकर चले जाते हैं। मैं अभी इसमें खडा हूँ। ऐसी भावना तो आती है।

मुमुक्षुः- सविकल्प दशामें ऐसे सब विकल्प आते हैं।

समाधानः- विचार (आते हैं)।

मुमुक्षुः- ... दृष्टिका जोर तो ज्योंका त्यों है।

समाधानः- हाँ, दृष्किा जोर होने पर भी साधक दशामें ऐसे विचार आते हैं। नहीं तो वीतराग हो जाय। अकेले गुण पर हो तो गुणकी परिणति प्रगट होनी चाहिये। मात्र गुण तरफ ही रहता हो तो गुणकी परिणति गुणरूप हो जानी चाहिये। अन्दर विभाव होता है और उसे टालनेका विचार न आये, ऐसा नहीं बनता। मैं लीन होऊँ, स्व तरफ जाऊँ तो सहज ही छूटता है। सहज दशा हो तो सहज छूटता है, ऐसा उसे ख्याल है। तो भी भावना सब आती है। उस पर उसे वजन नहीं है। ऐसी वस्तु स्थिति नहीं है कि दोष तरफ दृष्टि रखनी। ऐसी वस्तु स्थिति नहीं है। निज द्रव्य पर दृष्टि है। ज्ञान स्व-ओरका होता है। परन्तु सब जानता तो (है)। दिशा अपनी ओर मुड गयी है, लीनता अपनी ओर करता है, परन्तु भावना तो सब आती है।

मुमुक्षुः- फिर यह सहज ज्ञानमें यह सब भी..

समाधानः- यह सब आता है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- सब, भावना तो सब आती है। दृष्टिके जोरमें द्रव्य तो जैसा है वैसा है। मैं पुरुषार्थका पिण्ड हूँ, ऐसा दृष्टिमें आये इसलिये पुरुषार्थ करना ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं होता।


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मुमुक्षुः- परिणतिमें ऐसा नहीं होता।

समाधानः- परिणतिमें ऐसा नहीं होता। उसे सब विवेक तो होना चाहिये।.. दोष पर वजन चला जाय, ऐसा नहीं है। दृष्टिका जोर साथमें है। फिर न हो तो आकुलता हो कि उलझनमें आ जाय, ऐसा उसे नहीं होता। परन्तु समझता है कि मेरी क्षति है। मैं लीन होऊँ तो यह सब छूट जाय। परन्तु मुझे लीनता कैसे हो? ऐसी भावना रहती है।

मुमुक्षुः- महिमा नहीं आती, ... दोषका ख्याल है, दृष्टिका जोर तो ज्ञायक हूँ, वह है।

समाधानः- .. दृष्टिका कहे और चारित्रकी बात हो तो चारित्रका कहे। सर्व प्रकारकी बात आये। गुरुदेव, अनन्त कालसे जीव भ्रममें पडे हैं, उन्हें दृष्टिकी बात जोर-से बताये, स्व-पर एकत्व-विभक्तकी बात दुर्लभ है, जीवने सुनी नहीं है। स्वमें एकत्व और परसे विभक्त, वह बात (दुर्लभ है)। गुरुदेव तो दृष्टिकी बात करे। परन्तु प्रसंग पर सब बात गुरुदेवके प्रवचनमें सब बात आती थी। चारों ओरकी बातें आती थी। जब पर्याय-ओरकी आये तो इतने जोर-से (कहे) और दूसरे रंग जाय, ऐसी बात पर्याय-ओरकी आती थी।

मुमुक्षुः-

समाधानः- चारों तरफकी बात गुरुदेवके (प्रवचनमें) आती थी। वैराग्य तरफकी बात ऐसी आये कि दूसरे लोग डोलने लगे। मुनिकी बात, बच्चोंकी करते थे, गुरुदेव कैसी बात करते थे। गुरुदेव चारों तरफकी बात (करते थे)। हम आज ही धर्म अंगीकार करेंगे, हम आज ही मुनिपना लेंगे। गुरुदेवकी सर्व प्रकारकी बात आती थी।

समाधानः- वह आगे बढनेमें उलझ जाता हो तो एक जाननेकी बात है कि क्रमबद्ध है। मेरी क्षति है, ऐसा स्वयंको पुरुषार्थका लक्ष्य तो रहना चाहिये।

.. द्वेष अरोचक भाव। परकी रुचि तोडते-तोडते उसे पसीना निकल जाता है। ऐसे उसको रुचि होती है कि आत्माका करने जैसा है। परन्तु एकत्वबुद्धि तोडते-तोडते उसे मुश्किल हो जाता है। अनन्त कालका अभ्यास है न इसलिये। प्रयास कर-करके खेद हो जाय, थक जाता है। वहाँ जाय, प्रयास करे, अभी भी प्राप्त नहीं हो रहा है, प्रयास करते-करते थक जाय, खेद हो जाता है। ... ऐसा होता नहीं है, परन्तु उसके विश्वासमें चलायमान हो जाता है। पुरुषार्थकी क्षति है।

... कैसी कर दी है। वह स्वयं है भिन्न, परन्तु स्थूल हो गया है। स्वयंने ही एकत्व अभ्यास कर-करके (किया है)। जितना अभ्यासका जोर किया, उतना अनन्त काल उस अभ्यासमें रहा। अब उसे क्षण भर तो जोर करना ही पडे न। इस अनन्त


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कालके अभ्यासके (सामने)। अनन्त कालका अभ्यास किया, उसके सामने अनन्त काल अभ्यास करनेमें नहीं जाता है। भले अभ्यास करे धीरे-धीरे तो थोडा समय लगे, परन्तु उग्र करे तो छः महिने लगता है। परन्तु अंतिम क्षणोंमें उसे एक क्षण तो जोर करना ही पडता है, अनादिका अभ्यास तोडनेको। जितना काल उसका अभ्यास करनेमें व्यतीत किया, उतना काल नहीं लगता है। परन्तु क्षण भर तो जोर करना ही पडता है।

... करके थक जाता है, खेद हो जाता है। भय और अरोचक भावको वह पकड नहीं सकता है। गहराईमें जाय तो अन्दर रुचि भले आत्माकी हो, परन्तु एकत्वबुद्धि तोडते-तोडते उसे तकलीफ होती है। एकत्वकी परिणति हो गयी है। रुचि अपनी ओर है, परन्तु एकत्वकी परिणति हो गयी है, उसे तोडनेमें तकलीफ होती है।

.... गुण-पर्याय कहो, उत्पाद-व्यय-ध्रुव कहो। ये उत्पाद-व्यय-ध्रुव मेरे, .. उसे बराबर पहचानकर भेदज्ञान करे। प्रज्ञाछैनी, उसकी सन्धि देखकर उसे बराबर तोडना। कोई जगह सूक्ष्म सन्धि भी नहीं रहती। एक समान भाग हो जाता है। उसकी सन्धि देखकर विभाग करे तो सूक्ष्म सन्धि नहीं रहती। तो ही विभाव हुआ ऐसा कहनेमें आये। सूक्ष्म सन्धि रहे तो उतना चीपका रहे, तो दो भाग भिन्न नहीं हो जाते। पत्थर हो, उसमें सूक्ष्म सन्धि हो तो भी पत्थर एक जगह चीपका रहता है। तो भी चीपका रहता है। वहाँ भी सूक्ष्ममें वह चीपका नहीं।

सूक्ष्ममें गुणके भेद, पर्यायके भेद, जो रागमिश्रित भाव जहाँ-जहाँ आये, वहाँ-से भिन्न पड जाता है। ज्ञानमें सब हो। परन्तु एकत्वबुद्धि जहाँ-जहाँ हो, वहाँ-से भिन्न पड जाता है। दूसरे शुभभाव, जहाँ स्वयंको बहुत रस आये ऐसे भाव, गुणके भेद, पर्यायके भेद, उसमें रागमिश्रित जो-जो सूक्ष्म-सूक्ष्म आते हो, सबमें प्रज्ञाछैनी चारों तरफ- से पटकती है। और एक समान दो विभाव कर देती है। यह चैतन्यका भाग और यह विभावका भाग है। उतना ज्ञान करे, इतना करे तो भी कहीं-कहीं शुभभावोंमें मीठास रह जाती है।

मुमुक्षुः- ... पर्याय तो व्यय हो गयी है।

समाधानः- पर्याय दूसरी हो गयी, परन्तु द्रव्यमें योग्यता है। सर्वथा भिन्नता तो नहीं है। सबमें अपेक्षासे समझनी। प्रत्यभिज्ञानका कारण जो सामान्य स्वभाव है, प्रत्यभिज्ञानका कारण जो द्रव्य है, उसमें-से उसे स्फूरणा होती ही रहती है। संस्कार होते हैं।

मुमुक्षुः- संस्कार द्रव्यमें योग्यता रूप रहते हैं?

समाधानः- हाँ, योग्यता रूप रहते हैं।

मुमुक्षुः- पर्याय तो व्यतिरेक है।

समाधानः- पर्याय तो चली गयी है, व्यतिरेक हो जाती है। सब पर्याय भिन्न-


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भिन्न हैं। वह सब स्वतंत्र हैं और एक ओर कहें कि द्रव्यके आश्रय-से है। द्रव्यका आश्रय न हो तो अनन्त कालमें जो-जो उसे बना है, वह सब कहाँ-से (आता है)? अन्दर उसे स्फूरणामें आता है। अन्दर संस्कार है। पर्याय चली गयी है तो भी।

मुमुक्षुः- संस्कार रह जाते हैं।

समाधानः- संस्कार रह जाते हैं। उस पर्यायने काम किया, इस पर्यायको कोई भी मेल नहीं है, उसे कोई मेल नहीं है। तो फिर द्रव्य बिलकूल भिन्न हो गया। तो स्वयं जो मुक्तिका मार्ग प्रगट करता है, यह विभाव मेरा नहीं है, स्वभाव प्रगट करो, एक पर्यायको दूसरी पर्यायके साथ मेल ही नहीं है तो फिर करना कहाँ रहता है? कुछ नहीं रहा। टूकडे हो गये। बीचमें एक नित्य शाश्वत द्रव्य है। पर्याय पलट जाती है। द्रव्य है। सर्व अपेक्षाका मेल करके साधना करने जैसी है। कब, कहाँ, किसका वजन देकर करना है (वह समझना चाहिये)।

मुमुक्षुः- .. और कथंचित उसकी स्वतंत्रता द्रव्यसे..

समाधानः- वह भी है। कथंचित स्वतंत्रता है और उसके आश्रयसे होती है वह भी है। दोनों अपेक्षा (समझनी)।

मुमुक्षुः- ... और परका द्रव्य स्वतंत्र है, उन दोनोंमें कथंचित.. जिस अपेक्षा- से द्रव्यका आश्रय है, उस अपेक्षा-से द्रव्यका आश्रय है ही और जिस अपेक्षा-से पर्याय द्रव्य-से स्वतंत्र है, उस अपेक्षा-से पर्याय स्वतंत्र है, ऐसा लेना है?

समाधानः- द्रव्यका आश्रय है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय भी है, वह अपेक्षा भी है। और कथंचित स्वतंत्र है, वह अपेक्षा भी है। प्रत्येक पर्याय स्वतंत्र परिणमती है। परस्पर एकदूसरेके आश्रय-से परिणमती है, ऐसा नहीं है। स्वतंत्र परिणमती है। परन्तु द्रव्यके आश्रय-से परिणमती है, ऐसी अपेक्षा भी है। बिलकूल सर्वथा स्वतंत्र हो तो जितनी पर्याय, उतने द्रव्य हो जाय। बिलकूल स्वतंत्र (हो तो) जितनी पर्याय, उतने द्रव्य बन जाय।

द्रव्य है वह त्रिकाल है, शाश्वत है। शक्तिओं-से भरपूर द्रव्य है। पर्याय तो एक क्षणके लिये है। जिस क्षण परिणमित होकर आये, उतना है उसमें। एक क्षण पर्याय परिणमे, उससे तो अनन्त शक्ति-से भरपूर द्रव्य है। विभाव पर्याय अलग बात है, स्वभाव पर्यायमें तो अनन्त शक्ति-से भरपूर स्वभावपर्याय तो उसमें अनन्त जो आये, उससे अतिरिक्त द्रव्यमें अनन्त भरा है। पर्यायकी शक्ति तो अमुक है और द्रव्य तो अनन्त शक्तिओं- से भरपूर है। ... ऐसे पर्यायके षटकारक अमुक अपेक्षासे है। बाकी जैसा स्वतंत्र द्रव्य है, ऐसी पर्याय (स्वतंत्र नहीं है)। पर्यायको तो द्रव्यका आश्रय है, वह अपेक्षा तो साथमें है।


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मुुमुक्षुः- द्रव्यका एक अंश रहकर, फिर उसमें षटकारक .. समाधानः- हाँ, आंशिक षटकारक है। वह तो त्रिकाली स्वतंत्र द्रव्य ही है। उसकी स्वतंत्रता अलग है। पर्यायको तो द्रव्यका आश्रय है। क्योंकि वह तो एक अंश है। ... वह पर्याय स्वयं स्वतंत्र परिणमती है। वह भी एक परिणमन शक्तिवाला एक अँश है। इसलिये वह स्वतंत्र है। उसका अर्थ यह नहीं है कि वह द्रव्यके आश्रय बिना निराधार होती है, ऐसा नहीं है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!